पढ़ेगा कौन? पहला सवाल यही सिर उठाता है खासकर उस समाज के कवि को जो न सिर्फ अपने हिस्से की कविता खो बैठा है बल्कि अपनी भाषा भी भूल रहा है। उसके पास बहुत सारे काम हैं जो उसकी निगाह में उचित ही बहुत ज़रूरी हैं। उसकी सधी हुई आंखें अपने भविष्य पर टिकी हैं जब वह नहीं दिख रहा तो कविता कहां से दिखेगी इस निठल्लेपन का बोझ वह नहीं उठा सकता कभी वह कवि को सम्मान के साथ देखता था अब कौतुक के साथ भी नहीं देखता। कवि भी तो बेचारा 23 घंटे कवि नहीं बना रह पाता। उसे पति होना पड़ता है, पिता होना पड़ता है, कर्मचारी और अफ़सर भी होना पड़ता है वह कभी डांट सुनता है, कभी ज़िम्मेदारी उठाता है, कभी हां में हां मिलाता है और अक्सर हांफता, यहां से वहां भागता हुआ पाया जाता है सबसे पहले अपने उस कवि को कुचलता हुआ जो उसे बेचैन और विफल बनाने पर तुला है लेकिन उसका कवि कमबख्त निकलता है उससे भी ज़्यादा बेशरम और सख्त वह कभी भी कहीं भी बाहर आकर याद दिला सकता है तुम तो होना चाहते थे एक कवि- बस एक कवि? इन दिनों लिखते क्यों नहीं कहां गई तुम्हारी वह कविता जो तुम्हें अपनी ही निगाह में जीने लायक बचाती है जो लेप की तरह तुम्हारी थकी-लिथड़ी दिनचर्या को देती है नई राहत नई ताकत? वह थका-हारा फिर बैठता है मेज पर यही सोचता हुआ- पढ़ेगा कौन?
दो
क्या लिखें? यह दूसरा सवाल है जो कवि से खेलता है वैसे तो दिन भर वह जितने दर्द, जितनी चोटें झेलता है उतने में हर रोज़ एक दीवान निकल आए लेकिन यह जो यातना है- दर्द से ज़्यादा दर्द को भूल जाने की दर्द के बढ़कर दवा हो जाने की, चोट से ज़्यादा ओट ले लेने की, कुछ भी महसूस न करने की, मीर और गालिब को महज शायर की तरह बाजवक्त महफिलों में दोहराने की जिससे अपने कवि, पढ़े-लिखे और संवेदनशील होने का भरम बना रहता है- यह जो यातना है- महसूस करने की चाहत और महसूस करने में नाकामी के बीच की, यह अक्सर सामने खड़ी हो जाती है- चुनौती देती हुई कि लिखना चाहो तो मुझे लिखो क्योंकि बाहर से जो भी दिखो मगर भीतर से जर्जर होती मनुष्यता के संताप के सिवा कुछ भी लिखोगे तो हास्यास्पद दिखोगे और उससे भी खतरनाक बात उन लोगों के साथ खड़े हो जाओगे जो बड़ी कुशलता से कविता को एक बेजान कला में ढालते हैं जिसे ड्राइंग रूम में सजाया-सुनाया जा सके जो सच और झूठ के सफेद-स्याह के बीच अपने लिए एक रेशमी गली इस खूबसूरती से बनाते हैं कि जब जिस पाले में चाहें मुड़ जाएं उनकी भद्रता में छुपी क्ऱूरता भी तुम्हारा विषय हो सकती है बशर्ते वे तुम्हें अपनी तरह भद्र और क्ऱूर न बना डालें जिसका खतरा हमेशा मौजूद रहता है उस वक्त भी जब तुम कविता लिखने के विषय पर सोच रहे होते हो और अपने ऊपर यह वाजिब संदेह करते हो कि तुम कविता लिखने लायक बचे भी हो या नहीं।
तीन
लिखकर क्या होगा? यह वाजिब सवाल है जो तुम्हें हमेशा अपने-आप से पूछना चाहिए, बशर्ते तुम इसे न लिखने के बहाने की तरह इस्तेमाल न कर रहे हो। क्योंकि इसी सवाल से तय होता है कि तुम क्या लिखोगे और क्यों लिखोगे हालांकि यह उतना आसान सवाल नहीं है जितने आसान जवाब इसके बना दिए गए हैं यह इस सवाल से मिलता-जुलता है कि जीकर क्या होगा। इन दोनों सवालों को एक निगाह से देखो तो पाओगे कि जीने और लिखने के मकसद अलग-अलग नहीं होते दरअसल जब तुम लिखते हो तो जीते हो और जब नहीं लिखते तब जी नहीं रहे होते जब यह समझ तुममें आ जाएगी तो तुम पाओगे कि एक स्तर पर दोनों बेहद मुश्किल। दरअसल लिखना वह आईना है जिसमें हमारा जीना झलकता है यह वह गवाही है जो तुम्हें देनी चाहिए या देनी पड़ती है क्योंकि ज़िंदगी हो या कविता - जी या लिखी जाए या न जाए हमारी आत्मा में कील की तरह फिर भी गड़ती है।