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जुलाई 2016

अनुपम मिश्र को पढक़र उनसे मिलकर

विश्वनाथ त्रिपाठी

कृतज्ञता/तालाब वाला आदमी


अनुपम मिश्र से मेरा व्यक्तिगत परिचय ज्यादा दिनों का नहीं है। उनकी जिन्दगी के बारे में मुझे ज्यादा नहीं पता। कुछ तो जानता हूँ जैसे कि वे प्रसिद्ध कवि भवानी प्रसाद मिश्र के पुत्र है। गांधी शान्ति प्रतिष्ठान में काम करते हैं। गांधी स्मृति निधि परिसर में एक आवास में रहते हैं। इतना कम, या काम भर का ही, या बहुत ज़्यादा न जानने पर भी उनके विषय में कुछ लिखे ब$गैर नहीं रह सकता तो उसका कोई कारण है। कई कारण हैं। अगर आप मुझसे सबसे बड़ा यानी न टाल सकने वाला कारण पूछें तो मैं आपको कबीर का एक दोहा सुनाऊँगा जिसका भाव यह है कि राम का भक्त जब बोलता है तो उसके शब्दों से कस्तूरी की सुगंध आती है। ऐसे व्यक्ति की प्यास की और उसके काम की चर्चा नहीं करूँगा तो किसकी और किसके काम की चर्चा करूँगा।
पिंजर प्रेम प्रकासिया अन्तर भया उजास।
मुख कस्तूरी महमही बानी फूटी बास।
हमारे ज़माने में यह बात बहुत जोर-शोर से कही जा रही है कि क्रान्तियाँ असफल होती हैं। यह बात ठीक नहीं है। क्रान्तियाँ, शब्द, रचनायें निस्सन्तान नहीं होते। जिस तरह माता-पिता और सन्तान समान होते हुए भी बिल्कुल एक जैसे नहीं होते वैसे क्रान्तियों और रचनाओं के रूप भी देश-काल, इतिहास की गति के साथ समान-असमान होते हैं। अनुपम मिश्र गांधी शान्ति प्रतिष्ठान से जुड़े हैं। गांधी के विचारों और उनके नेतृत्व में घटित आन्दोलन के बिना उनका व्यक्तित्व, लेखन और कार्य सम्भव नहीं था। अकेले अनुपम मिश्र नहीं, उनके जैसे लक्षित और अलक्षित व्यक्तियों का एक समूह है जो गांधी-विचार और आन्दोलन की सन्तान है। जिस कस्तूरी सुगन्ध की बात की है उसका स्रोत गांधी की वाणी, उनकी सादगी, सहजता और सुन्दरता है।
पत्रकार और दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र अरविन्द मोहन मुझसे अच्छी किताबों की चर्चा किया करते हैं। उनके कारण मैंने कई अच्छी किताबें पढ़ी हैं। एक दिन उन्होंने अनुपम मिश्र की किताब ‘आज भी खरे हैं तालाब’ की बहुत तारी$फ की। उसके विभिन्न अनुवादों, संस्करणों, आवृत्तियों की चर्चा की। बताया कि यह किताब बढक़र लोग अपने क्षेत्रों में तालाब बना रहे हैं। वे किताब दे भी गये। किताब पढ़ी और प्रभावित हुआ। लगा कि यह सार्थक लेखन है, इससे पाठक केवल रस का आस्वाद नहीं लेता वह कर्म में प्रवृत्त होता है। मुक्तिबोध की कविता उक्ति ‘सकर्मक ज्ञानात्मक संवेदन’ यहाँ चरितार्थ होती है। और आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के कर्म-सौन्दर्य की अवधारणा भी। यह भी लगा कि ऐसी छोटी-छोटी किताबें, परिपत्र स्वाधीनता आन्दोलन में खूब लिखे गए थे। लोग लिखते, अपने पैसे से छपवाते, मु$फ्त या बहुत कम दाम पर वितरित करते। तब लेखन व्यवसाय और प्रकाशन उद्योग कम था। स्वाधीनता आन्दोलन का एक आयाम था। अनुपम मिश्र की किताब मुझे उसी तरह की लगी। प्रभावित होने के साथ-साथ चमत्कृत भी हुआ। क्योंकि इन दिनों ऐसा लेखन और ऐसी किताबें कम छपती हैं। बिना मूल्य, या कम मूल्य की किताबें तो दिखलाई ही नहीं पड़तीं। अपठनीय, घटिया किताबों के साथ चमचमाता, आपको असहाय बना देने वाला विज्ञापन और लोकार्पण होता है। मुझे सहसा याद आया प्रभाष जोशी की किसी किताब के आयोजन के अवसर पर अनुपम मिश्र ने कहा था - यह लोकार्पण नहीं क्रेतार्पण है। अनुपम मिश्र की किताब के कथ्य की बात रहने भी दें तो ‘आज भी खरे हैं तालाब’ जिस ढंग से छपी वितरित होती और पाठक पर अपना प्रभाव छोड़ती है वह स्वाधीनता आन्दोलन की सिर्फ याद नहीं दिलाती वह उसे फिर समाज में प्रस्तुत कर देती है और हमें अपने में लपेट कर शामिल कर लेती है।
कुछ दिनों के बाद मैंने ‘तैरने वाला समाज डूब रहा है’ पढ़ा। इस किताब का असर मेरे ऊपर एक दूसरी तरह का पड़ा। इधर मैंने उनका एक लेख जीवन का अर्थ और अर्थमय जीवन तथा पर्यावरण पर उनके विचारों को पढ़ा। हाल ही में उनसे मेरा व्यक्तिगत परिचय भी हुआ। उनकी बीमारी का समाचार सुना तो उनके घर भी गया। उनकी सहधर्मिणी श्रीमती मंजु श्री से भी परिचय हुआ। उनका व्यक्तित्व (अनुपम और मंजुश्री दोनों का) ऐसा है कि मिलो तो आश्वस्ति मिलती है, मानो दुनिया इतनी बुरी नहीं है जितना हम समझते थे। अनुपम जी को गांधी शांति प्रतिष्ठान उनके पिता ही लेकर गए थे। वहाँ उन्होंने मुद्रण का काम सीखा और किया। संयोगवश राजस्थान गए बीकानेर, तो वहाँ देखा कि मरुभूमि में पानी का संग्रह कैसे किया जाता है। वे चकित हुए। चकित होकर सक्रिय हुए। जल संग्रह की विधि देखकर, उन्हें लगा होगा कि उन्हें कुछ मिल गया है। जिसे सत्य मिल जाता है उसे मिशन और कार्य क्षेत्र भी मिल जाता है। यह अजब बात है कि सत्य मामूली, रोजमर्रा के ही जीवन में मिलता है। असमान्य घटनाओं और स्थितियों में शायद नहीं। गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत सेब के जमीन गिरने जैसी सामान्य घटना से ही मिला था। अनुपम मिश्र जल-संग्रह को देखने की उस स्थिति का वर्णन सीधे सादे शब्दों में बिल्कुल गैर नाटकीय ढंग से करते हैं। लेकिन मन पर प्रभाव ऐसा पड़ता है कि इस जानकारी ने उनके जीवन की दिशा निर्धारित कर दी।
इस समय जब यह लिख रहा हूँ, देश के 10 या 11 राज्यों में सूखा पड़ा हुआ है। कई राज्यों में कई वर्षों से सूखा पड़ा है। फसल नहीं हो रही, पशुओं को चारा नहीं मिल रहा, भू जल स्तर लगातार गिर रहा है, पानी-उद्योग विकसित हो रहा है, कहते हैं कि निकट भविष्य में ही पानी दूध से ज्यादा महंगा हो जाएगा और यह कि अगला विश्व युद्ध तेल के लिए नहीं, पानी के लिए लड़ा जाएगा।
ऐसे में अनुपम मिश्र जल संकट का समाधान ऐसे रूप में प्रस्तुत करते हैं कि संकट संकट नहीं लगता। और वह भी समाधान विश्वसनीय लगता है और यह कि खर्चीला नहीं। समाधान का हल हमारे पास है सदियों से है। हम इसे बरतते रहे हैं। अपने पास जो समाधान की कुंजी है उसे फेंक कर हम प्रकृति के अक्षय स्रोत को संकट बना रहे हैं। यह समाधान अनुपम मिश्र ने अन्वेषित नहीं किया है इसे खोजा है। यह खोज ऐतिहासिक है। आगे चलकर हम पाएंगे - पाएंगे क्या पहले से जानते हैं कि संकट सिर्फ जल का नहीं है - क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा - पंच रचित यह अधम सरीरा - पांचों महाभूतों पर यह संकट है। और ‘सरीरा’ का मतलब सिर्फ मनुष्य का शरीर नहीं। यह संकट वैश्विक है। यह कैसा विकास है? यह कौन सा विचार और वाद है? कबीरदास के एक गीत की दो पंक्तियां याद आ रही हैं-
मोहि ऐसे बनिज से कौन काज
जैसे घटे मूल नित बढ़ै ब्याज
मैं ऐसा व्यापार नहीं करना चाहता जिस व्यापार में मूलधन तो नित्य घटता जाए, कम होता जाए और ब्याज निरन्तर बढ़ता जाए।
आज के संदर्भ में वही बात संकट बढ़ता जाए और जीवनाधार निरन्तर नष्ट होते जाएं।
जल के संकट का समाधान सिर्फ जल के संकट का समाधान नहीं, वह पांच तत्वों के संकटों का ये समाधान है- और इससे आगे बढक़र सामाजिक, आर्थिक, ऐतिहासिक संकटों का भी समाधान है, समाधान की दिशा है, समाधान हमारी अन्तर बाह्य सकर्मकता पर निर्भर है, सिर्फ जानकारी और संकल्प पर नहीं।
आगे जो कुछ लिखा जा रहा है वह अनुपम मिश्र के लेखन पर आधारित है। उन्हें बार-बार उद्धृत नहीं कर रहा हूँ।
देश में क्या पानी की कमी है? हर साल भयंकर बाढ़ आती है और भयंकर सूखा पड़ता है। प्रकृति तो अपना हिसाब-किताब बराबर रखती है। आद्र्रता और शुष्कता का। यह विडम्बना क्यों घटित होती है जब कि हमें इतना पानी मिलता है। संकट प्राकृतिक नहीं मानवीय है। मानवीय शब्द गलत नहीं, अचकचा लगता हो तो व्यवस्थात्मक कर लीजिए।
संकट मूलत: औपनिवेशिक दासता की प्रवृत्ति का है। दासता की मनोवृत्ति आत्मावमानना की होती है। दासता अपनी हर चीज से घृणा करती है या उसकी अवमानना करती है। अपनी भाषा, अपनी संस्कृति, अपने इतिहास, अपनी चमड़ी के रंग से भी। वह उद्धार केवल मालिक की तरह बनने या होने में देखती है। इसीलिए जागरण और स्वाधीनता का आन्दोलन आत्मविश्वास को जगाने के स्वर में फूटता है। यह आत्मविश्वास अन्धराष्ट्रवाद में भी बदल सकता है। बदल जाता है। हमारे देश में अंग्रेजी राज, अंग्रेजी शिक्षा ने कुछ अच्छा भी किया है, स्वार्थानुरोध के कारण, किन्तु उन्होंने हमारी अपनी देसी वैज्ञानिक उपलब्धियों और चेतना को दीर्घकाल के लिए कुंठित कर दिया है। यह क्रम अभी खत्म नहीं हुआ है। यह विचारणीय है कि राजनैतिक दृष्टि से आज़ाद होने के बाद भी हम मानसिक तौर पर पहले से अधिक स्वतंत्र हुए हैं या अधिक परमुखापेक्षी हुए हैं। विचार करते समय यह याद रखें कि तथाकथित विकसित देश कच्चा माल ले कर सिर्फ डिब्बाबंद माल ही बेचकर हमारा शोषण नहीं करते, वे जानकारी संकलित करके हमारे देश में डिब्बाबंद विचार, वैचारिक, सैद्धांतिक समीकरण भी पाटते हैं। साहित्यिक विचार, दर्शन, स्वास्थ्य, भोजन, संस्कृति, मनोरंजन, खेलकूद, सबसे ज्यादा शिक्षा के क्षेत्र में। हम अपनी ही जानकारी से अपनी परिस्थितियों में अनुकूल न विचार बना पाते हैं, न तकनीक। वैज्ञानिकता - विज्ञान के क्षेत्र में बढ़ी हुई चामत्कारिक जानकारी का उपयोग हम अपनी जरूरतों के अनुसार नहीं करते। उसका उपयोग दूसरे लोग - देश के बाहर कैसे होता है, इसके लिए हम अपने आपको परिवर्तित करने का ढोंग रचते हैं। इससे भयंकर सामाजिक विषमता पैदा होती है। देश में विदेश पैदा होता है। अनुपम मिश्र ने जल संकट पर जो विचार किया है वह केवल एक समस्या पर विचार नहीं है। वह व्यावहारिक दर्शन का विचार है। सीमित न अलग-थलग है न संकट है न समाधान। वह व्यक्ति के सामाजिक, आर्थिक रोज़मर्रा व्यवहार और बरताव की भी बात है। इस पर आगे भी यथावसर बात करेंगे।
अनुपम मिश्र का कहना है कि हमारे देश में बस्ती के आसपास जलाशय - तालाब, पोखर, कूप, चाल, खाल आदि बनाए जाते थे। जल को सुरक्षित रखने की व्यवस्था की जाती थी। यह काम पूरे देश में प्रकृति के गुणावगुणों को जांच-परखकर उसे अनुकूलित कर के कुशलतापूर्वक किया जाता था। यह काम देशी वैज्ञानिक तौर पर होता था। इस काम के विशेषज्ञ थे लेकिन वे जनसामान्य में घुले मिले - वे ही लोग थे। उनकी विशेषज्ञता उन्हें शेष समाज से अलग थलग नहीं करती थी। अनुपम मिश्र ने यह सारा ब्यौरा देते हुए मध्यकालीन भारत में जल-व्यवस्था का विश्व-कोष - दस्तावेजी विश्वकोष तैयार किया है। अनुसंधान का मॉडल प्रस्तुत किया है। पता नहीं कितने शब्दों - अप्रचलित, अर्धप्रचलित भूले बिसरे शब्दों को पुनर्जीवित किया है, उन्हें सार्थक बनाया है। इस विशद धैर्य परीक्षक अनुसंधान प्रक्रिया में उन्होंने मध्यकालीन एक हद तक प्राचीन और आधुनिक भारत की जाति व्यवस्था, उसके आर्थिक आधार के ढांचे का प्रामाणिक आधार खड़ा किया है। मेरे विचार से ‘आज भी खरे हैं तालाब’ हमारा लुप्त आत्मविश्वास लौटाता है। इन जलाशयों से सम्बंधित देश की जातियाँ, मिथक, विश्वास, गीत, संगीत, धर्म, उत्सव, अन्धविश्वास, साधनाएँ, मेले-ठेले, पर्व उत्सव, खान पान, प्रेम, विवाह, न्याय, अन्याय - सब कुछ सन्दर्भित प्रकाशित है। बात यह है कि जब आप किसी जीवित वस्तु या सम्बन्ध की ईमानदारी से जांच करने लगते हैं तो वह अपने साथ पता नहीं कितनी जानी-अनजानी स्थितियां, वस्तुएं अपने आप समेट लाती हैं। जीवन अपने आप में कोई अन्तिम रूप से परिभाषित निश्चित और निर्णीत सम्बन्ध समुच्चय नहीं है। वह निश्चित-अनिश्चित सब घटकों का संश्लेष है और वह खुला होता है, ढंका या बन्द हरगिज नहीं - नेति नेति।
संस्कृत में और हिन्दी में भी जल जीवन का समानार्थक है। अनुपम मिश्र बताते हैं कि हमारा समाज अपने जीवन के अक्षय स्रोत को बनाने, उसके संरक्षण की विधि को जानता था। ‘आज भी खरे हैं तालाब’ इस ढंग से लिखा गया है कि तालाब बनाना और उसकी देखभाल करना समाज का स्वत:स्फूर्त सहज सामान्य व्यवहार था। कत्र्तव्य-बोध से ऊपर, मानों सामाजिक, वैयक्तिक स्वभाव था। तालाब का निर्माण करने वाली कई जातियाँ थीं। जातियों के नाम उनके विशेष कार्य यानी तालाब-निर्माण के कार्य से जुड़े हैं। इनका परिचय इस ढंग से दिया गया है कि पाठक को उसकी आत्मीय जानकारी हो जाती है। वे अपने भाई बन्द बन जाते हैं। अनुपम मिश्र की शैली के कई गुण हैं। उनमें से एक यह है कि वे गागर में सागर भर देते हैं। लेकिन गागर में सागर भरने का उनका अपना ढंग है। ‘आज भी खरे हैं तालाब’ पतली किताब है। किताब वर्णनों से भरी है। ठसाठस भरी है। लेकिन पाठक को इन वर्णनों के जमाव का आभास नहीं होता। वर्णनों के बीच स्पेस है। सांस लेने, ताज़ा बने रहने का पूरा अवकाश है। और, वर्णन करते समय अनुपम मिश्र को कोई जल्दी नहीं है, वे धैर्यपूर्वक जिस बात को कहते हैं, पूरा कहते हैं। लेकिन ठहराव का आभास नहीं होता, गत्वरता बनी रहती है। इतनी बातें हैं, इतने विषय हैं, इतना विशद कथ्य है, वर्णन शैली में स्थैर्य और गति का जादुई संतुलन है और ऐसी पतली किताब में इतनी ढेर सारी बातें कह दी गई हैं। मैं यहाँ विश्लेषण तो नहीं कर सकता लेकिन लगता है कि यह सब केवल कहने वाली बात ही करके अतिरिक्त, अनावश्यकता से बचने और भाषा की सादगी से सम्भव हुआ है। इस अनावश्यक रहितता और सादगी के पीछे एक सुहृद, नैतिक, देशप्रेम ओर मानवीयता का नैतिक आधार है।
तालाब निर्माण करने वाली अनेकानेक जातियों में से एक है - गजधर। गजधर वास्तुकार थे। गांव-समाज हो या नगर-समाज, उनके नवनिर्माण की, रख रखाव की जिम्मेदारी गजधर निभाते थे। नगर नियोजन से लेकर छोटे से छोटे निर्माण के काम गजधर के कंधों पर टिके थे। वे योजना बनाते थे, कुल काम की लागत निकालते थे, काम में लगने वाली सारी सामग्री जुटाते थे और इस सबके बदले वे अपने जजमान से ऐसा कुछ नहीं मांग बैठते थे जो वे दे न पाएँ। लोग भी ऐसे थे कि उनसे जो कुछ बनता, वे गजधर को भेंट कर देते। काम पूरा होने पर पारिश्रमिक के अलावा गजधर को सम्मान भी मिलता था। सरोपा भेंट करना अब शायद सिर्फ शिख परंपरा में ही बचा है पर अभी कुछ ही पहले तक राजस्थान में गजधर को गृहस्थ की ओर से बड़े आदर के साथ सरोपा भेंट किया जाता रहा है। पगड़ी बांधने के अलावा चांदी और कभी सोने के बटन भी भेंट दिए जाते थे। जमीन भी उनके नाम की जाती थी। पगड़ी पहनाए जाने के बाद गजधर अपने साथ काम करने वाली टोली के कुछ और लोगों का नाम बताते थे, उन्हें भी पारिश्रमिक के अलावा यथाशक्ति कुछ न कुछ भेंट दी जाती थी। (पृ. 18, आ.ख.ता.)
गजधर हिन्दू और मुसलमान दोनों जातियों में थे। दोनों जातियों में वे गजधर ही कहलाते रहे होंगे (थे/हैं) तालाब निर्माण या ऐसा काम करने वाली और भी अनेक जातियों के नाम किताब में मिलते हैं। एक जाति है ‘सिलावटा’। ‘सिलावटा’ जाति है ‘शिला’ से बना होगा। राजस्थान के पुराने शहरों में ‘सिलावटा पाड़ा’ यानी सिलावटों का मोहल्ला मिलता है। पाकिस्तान में तो जो मंत्रिमण्डल बना उसमें एक सिलावट थे लेकिन जाति का नाम गजधर था। हाकिम मोहम्मद गजधर।
गजधरों की शिष्य परम्परा होती थी। कुछ शिष्य काम सीख कर निपुण हो जाने के बाद ‘जोडिय़ा’ हो जाते थे। जोडिय़ा यानी सहकर्मी। गजधर और सिलावट आदि बहुत कम औजारों का उपयोग करते थे। सिरभाव औजारों को हाथ नहीं लगाते थे। सिरभाव किसी भी औजार के बिना पानी की ठीक जगह बताते थे। ‘भाव’ आता था इसलिए वे सिरभाव कहलाते थे। अनुपम मिश्र ने ठीक ही उन्हें ‘सिद्ध’ विशेषण दिया है। सिद्ध जमीन में गड़ा $खज़ाना बता देते थे। सिरभाव की तरह जलसूँघा भी होते थे। उन्हें भी सिद्धि मिल जाती थी। जलसूँघा यानी भूजल को सूंघ कर बताने वाले लोग। वे भूजल की तरंगों के संकेत को आम या जामुन की लकड़ी की सहायता से पकडक़र पानी का पता बताते थे। अनुपम मिश्र बताते हैं कि आज भी ट्यूबवैल खोदने वाली कम्पनियां इन्हें बुलाकर इनकी राय ले कर फिर पक्का कर लेते हैं कि यहाँ पानी मिलेगा या नहीं।
‘आज भी खरे हैं तालाब’, तालाब का निर्माण करने वाली ऐसी अनेक विभिन्न नामा जातियों-उपजातियों और उनकी विशेषताओं की जानकारी देती हैं, उनसे सम्बन्धित मिथकों, उनके रहन-सहन आदि की भी भरपूर जानकारी देती हैं।
गजधरों, सिलावटों, आदि की सिद्धता पढक़र दर्जा 3 में पढ़ी हुई किताब ‘हिन्दी प्रवेशिका’ में एक पाठ की याद आ गई। पाठ का शीर्षक था, आधुनिक प्रवाह में प्राचीन विद्याओं का लोप। पाठ में बताया गया था कि पशु-पक्षियों, जन्तुओं की बोली प्राचीनकाल के जंगल निवासी जानते थे। वे पशुओं से बातचीत भी कर सकते थे। रामायण में सीता-हरण प्रकरण का मुख्य पात्र मारीच इसी प्रकार का व्यक्ति था। प्राचीन काल में अनेकानेक औषधियों, वनस्पतियों के गुणावगुण, सर्प-विद्या, मौसम की पहचान लोग ज्यादा जानते थे। हिन्द महासागर में सुनामी दुर्घटना के दौरान पता चला कि अंडमान के आदिवासियों को दुर्घटना का पूर्वाभास हो गया था और वे वृक्षों पर चढ़ गये थे। हमारे समय में प्राचीन जानकारियों का लोप विशाल पैमाने पर और द्रुत गति से हो रहा है। विडम्बना यह है कि जब विदेश के विशेषज्ञ हमारी चिरपरिचित गुणकारी विशेषताओं की घोषणा करते हैं तब हम चकित होकर उन्हें स्वीकार करते हैं। मानों यह जानकारी पहले पहल उन्होंने ही हमें दी है। हल्दी, आमला, लहसुन, घृतकुमारी, सर्पगंधा आदि की विदेशी राय से हम प्रभावित तो हुए लेकिन अपनी परम्पराओं, कालसिद्ध लाभकारी व्यवहारों की खुद परीक्षा नहीं शुरू की। इसे क्या समझा जाए। औपनिवेशिक दासता का खुमार या और कुछ। कहीं इससे शोषकों की हानि होने की आशंका तो नहीं है। इसलिए वे ऐसे कार्यों में हाथ नहीं डालते। बाजार पर कारपोरेट का कब्जा किस तरह हमारी देसी चेतना के विकास को अवरुद्ध कर रहा है इसका यह लक्षण है। अनुपम मिश्र की किताब में यद्यपि जल सिद्धों और गजधरों, सिलावटों, सिरीभावों की बात की गई है किन्तु वह एक महान् ऐतिहासिक बोध और उस दिशा में सक्रियता का प्रस्ताव पेश करती है।
‘आज भी खरे हैं तालाब’ भारत की जल संस्कृति का आलेख तो है वह जल संस्कृति से आगे जाकर भारतीय संस्कृति की आत्मा, चराचर प्रेम और सामाजिक संस्कृति का भी अंकन है। वह भारतीय समाज के उद्यम और संकट से जूझने की सामूहिक कार्यविधि का प्रामाणिक दस्तावेज है। आज उसकी कितनी ज़रूरत है - यह अलग से सोचने की बात है।
‘‘सबसे गरम और सबसे सूखा क्षेत्र है यह (राजस्थान) साल भर में कोई 3 इंच से 12 इंच पानी बरसता है यहाँ। जैसलमेर, बाड़मेर और बीकानेर के कुछ भागों में कभी-कभी पूरे वर्ष में बस इतना ही पानी गिरता है जितना देश के अन्य भागों में एक दिन में गिर जाता है। सूरज यहीं सबसे ज्यादा चमकता है और अपनी पूरी तेज़ी के साथ। गरमी की ऋतु लगता है यहीं से देश में प्रवेश करती है और बाकी राज्यों में अपनी हाज़िरी लगाकर फिर यहीं रम जाती है। तापमान 50 अंश न छू ले तो मरुभूमि के लोगों के मन में उसका सम्मान कम हो जाता है। भूजल भी यहीं सबसे गहरा है। जल के अभाव को ही मरुभूमि का स्वभाव माना गया है। लेकिन यहाँ के समाज ने इसे एक अभिशाप की तरह नहीं, बल्कि प्रकृति के एक बड़े खेल के हिस्से की तरह देखा और फिर यह एक कुशल पात्र की तरह सजधज कर इस खेल में शामिल हो गया।’’ ‘मृगतृष्णा’ झुठलाते तालाब (आ.ख.ता. का अंश)
मरुभूमि में सर्वाधिक मरुभूमि जैसलमेर है। कोई बारामासी नदी नहीं। कहीं कहीं भूजल 800 फुट नीचे। वर्ष में 365 दिनों में केवल 12 दिन बारिश होती है। लेकिन जैसलमेर जिले में सिर्फ एक गांव को छोडक़र शेष सभी गांवों में पीने के पानी का प्रबंध है। जिले में 99.78 प्रतिशत गांवों में तालाब, कुएं या अन्य जल स्रोत हैं। गांवों में बिजली भी है। पुस्तक की जानकारी के अनुसार जल का यह प्रबंध अपने दम पर है। 515 गांवों में 695 कुएं और तालाब हैं। तालाबों की संख्या 294 है।
जैसलमेर में एक तालाब है घड़सीसर। जितना बड़ा शहर जैसलमेर है उतना ही बड़ा घड़सीसर है। जैसलमेर 800 वर्ष पुराना है - घड़सीसर 900 वर्ष पुराना। इस तालाब को जैसलमेर के राजा महारावल ने सन् 1335 ई. में बनवाया था। महारावल काम करने वालों के बीच रहकर काम करवाते। महारावल पाल पर खड़े होकर तालाब का काम करवा रहे थे कि उनकी हत्या करवा दी गई। घड़सी की रानी विमला सती नहीं हुईं। वे सती नहीं हुईं उन्होंने जीवित रहकर महारावल घड़सी का सपना पूरा किया। घड़सीसर का काम पूरा किया। घड़सीसर तालाब न हुआ, महारावल और रानी की संतान हुआ जिसकी देखभाल रानी ने पति की मृत्यु के बाद जीवन भर की।
अनुपम मिश्र सौन्दर्य के पारखी ही नहीं - उनमें सौन्दर्य से प्रभावित होने की अनुपम क्षमता है। सौन्दर्य को पाठकों के लिए दृश्य भी कर सकते हैं। उन्होंने घड़सीसर को रेत का सपना कहा। यानी ऐसा सपना जो सोने पर नहीं जागने पर देखा जाता है।
‘‘रेत में इस सपने के दो रंग हैं। नीला रंग पानी का और पीला रंग है तीन-चार मील के तालाब की कोई आधी गोलाई में बने घाट मंदिरों बुर्ज और बारादरी का। लेकिन यह सपना दिन में दो बार बस केवल एक ही रंग में दिखता है। उगते और डूबते समय सूरज घड़सीसर में मन-भर पिघला सोना उड़ेल देता है। मन भर यानी मापतौल वाला मन नहीं, सूरज का मन भर जाए इतना’’ (आ.ख.ता.)
शब्दों की यह मितव्ययता वह साँचा है जिसमें घड़सीसर का सौन्दर्य ढलकर सामने आता है। कुतुबमीनार, ताजमहल के ढांचे के निर्दोष रूपाकार की तरह याद दिलाते हुए। शीशे के कारखानों में काम करने वाले साँस फूंककर इन शीशों को आकार देते हैं। महाकवि मीर ने कहा है -
ले सांस भी अहिस्ता कि नाजुक बहुत हे काम
अफलाक की इस कारगहे शीशागरी का
सौन्दर्य को प्रकट करने में संयम की बात। ज़रूरत पड़ी तो इसकी बात और करेंगे, यहाँ मीर का शेर याद आ गया।
अनुपम मिश्र की यह किताब पहली बार 1993 ई. में छपी थी। जल संकट तब भी था। लेकिन आज 2016 में वह इतना बढ़ गया है कि इस समय देश में हाहाकार मचा है। इससे निजात पाने का कोई रास्ता दिखलाई नहीं पड़ रहा है। रास्ता न मिलने या दिखलाई पडऩे का कारण यह है कि हम हर हालत में प्रकृति को जीवन का अक्षय स्रोत मानने के बदले उसे लूट और शोषण का अक्षय स्रोत बनाए रखना चाहते हैं। जो लोग अधिक से अधिक धन और शक्ति के संचय में लगे हैं वे उसमें कोई कटौती नहीं करना चाहते। विडम्बना यह है कि लूटने वाले वंचितों को त्याग और संयम की शिक्षा दे रहे हैं। लेकिन प्रकृति पर भी दुव्र्यवहार का असर पड़ता है। हम मान बैठे हैं कि प्रकृति में सब कुछ सदा एक सा रहता है। हमारे देश में गंगा-जमुना को अक्षय जीवन प्रवाह और पवित्रता का प्रतिमान माना जाता है। आज गंगा प्रदूषित हो रही है। दिल्ली में यमुना दुर्गन्ध का वमन करती है। जिस तेल के लिए पश्चिमी साम्राज्यवादी शक्तियां कहर ढा रही हैं और जिसके कारण कुछ अरब देश अकल्पनीय ऐशो-आराम कर रहे हैं वह भी अक्षय नहीं है, निरंतर कम हो रहा है। आपने सूर्य-ताप से ऊर्जा की बात सुनी होगी, थोड़ा बहुत वह व्यवहार में भी आ रहा है। उसमें शोध कार्य को आगे क्यों नहीं बढ़ाया जाता? कारण यह तो नहीं कि सूर्य-ताप अधिकाधिक मात्रा में तीसरी दुनिया के देशों-एशिया अफ्रीका में है। ये देश अधिक शक्तिशाली न हो जाएं। तेल उद्योग पर आधारित आर्थिक ढांचा तब तक बनायें रखना जरूरी है जब तक आज के लुटेरों की शक्ति बरकार रहे। अनुपम मिश्र ने इन बातों पर ज्यादा विचार न किया हो लेकिन ये सब भली-भांति संकेतित हैं। अनुपम मिश्र अपने विषय से विकेन्द्रित नहीं होना चाहते। वे साधारण या फैशनेबल लेखक नहीं, मिशनरी लेखक हैं।
जल संकट पर और उसके समाधान पर विचार करने पर कुछ बातें साफ हो जाती हैं। एक तो संकट और समाधान पर ठीक ढंग से सोचने और काम करने वाले लोग इस देश में हैं और उन्हें समझा और सम्मानित भी किया गया है। उन्हें काम करने का अवसर भी दिया गया है - राजेन्द्र सिंह जैसे लोगों को। यह शुभ है। इससे पता चलता है कि दीर्घकाल से संचित हमने पूर्वजों के अनुभव के $खज़ाने की उपेक्षा नहीं की है। इससे यह तो पता चल ही गया कि जिस तरह संकट के समय अनायास मां-बाप और ईश्वर याद आते हैं उस तरह अपने पूर्वजों के अनुभव और हमारी चेतना के संचित संस्कार।
अनुपम मिश्र की इस पुस्तक ‘आज भी खरे हैं तालाब - का स्वागत जिस तरह हुआ वह हिन्दी प्रकाशन जगत में ऐतिहासिक महत्व का है। सच को झूठ और झूठ को सच बनाने वाले मायावी विज्ञापनी युग में लोग सच्चे माल को पहचान लें - यह असाधारण बात है। हम लोग युग में लिख-पढ़ रहे हैं जब अंग्रेजी में कविता और कथा रचने वाले डंके की चोट पर रवीन्द्रनाथ, निराला और प्रेमचंद को घटिया स्तर का लेखक घोषित करते हैं। केवल विज्ञापन और मिथ्या प्रचार की बदौलत। अभी कुछ दिनों पहले काशी विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग में भाषण देते हुए अनन्तमूर्ति ने कहा - शेक्सपियर को छोड़ दें तो पूरे योरोप के साहित्यकारों पर तुलसीदास भारी पड़ेंगे। हमें अपनी साहित्यिक परम्परा पर उचित ध्यान देना चाहिए। इसके बरक्स सलमान रुश्दी ने निराला की कविताओं पर फतवा दे दिया। वे स्तरीय नहीं हैं। रुशदी ने निराला को पढ़ा है? समझने का सवाल कहां पैदा होता है?
भारतीय भाषाओं का अनेक दशकों तक चलने वाला स्वच्छंदतावादी साहित्य उस समय के किसी भी योरोपीय भाषा-साहित्य से टक्कर ले सकता है। कुछ मामलों में  वह आगे भी हो सकता है। कारण यह कि भारतीय भाषाओं के साहित्य में सामन्तवाद और साम्राज्यवाद दोनों का प्रतिरोध है। तत्कालीन योरोपीय साहित्य में सामन्तवाद का विरोध मुख्य है। साम्राज्यवाद-विरोध उनके ऐतिहासिक एजेण्डे पर नहीं है। हिन्दी क्षेत्र में निराला, प्रेमचंद, प्रसाद, रामचंद्र शुक्ल, इकबाल, जोश, जि$गर, फिराक इसी काल के रचनाकार हैं। साकेत, कामायनी और राम की शक्ति पूजा - जैसी रचनायें एक साथ 1935 या 1938 में प्रकाशित हुई हैं। अस्तु अब बात जलसंकट और समाधान पर करें। अनुपम मिश्र की किताब पर बात करें तो जो आत्मविश्वास पैदा होता है वह जल तक ही सीमित नहीं रहता - इसलिए विषयान्तर हुआ। बात अपने पूर्वजों के अनुभव के खज़ाने को याद रखने की थी।
स्वाधीनता संग्राम संघर्ष था किसी स्वप्न को मूर्त करने का। वह स्वप्न स्वाधीनता का था। सामन्तवाद और साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष का ही एक रूप कालजयी साहित्य था। ‘आज भी खरे हैं तालाब’ उसी स्वप्न को पूरा करने के लिए संघर्ष की उपज है। यह रचनात्मक साहित्य से कम रचनात्मक नहीं है। इसके लिखने में वही गांधीवादी आग्रह और दृढ़ता है जो कभी पराजित नहीं होती। जो अपने लिए नहीं लड़ता वह कभी पराजित नहीं होता। और भी -
नेहाभिक्रम नाशोऽस्ति प्रत्यवाचो न विद्यते। स्वलयस्य धर्मस्य भायते महतो भयात्।
इस किताब पर प्रभाष जोशी, अविजित घोष, अरविन्द मोहन, प्रभात रंजन, प्रसून लतान्त, श्रीकान्त आदि ने जिस ढंग से लिखा है वह अपने समय में दुर्लभ है। इसकी लाखों प्रतियाँ बिकी हैं, अनुपम ने रायल्टी नहीं ली है। इसे कोई भी छाप सकता है, प्रचारित कर सकता है, बिना मूल्य या मूल्य के साथ बेच सकता है या वितरित कर सकता है। यह सार्थक रचना है, पाठक के मन के भाव उद्बुद्ध करती है, कर्म की प्रेरणा देती है, और बिना झंडे, नारे, विज्ञापन, लाउडस्पीकर के आन्दोलन का प्रवर्तन करती है, राजनैतिक नहीं सांस्कृतिक आन्दोलन का, जिसकी कि हमारे देश को ज़रूरत है और जिसमें गांधी जी के बाद किसी ने हाथ नहीं लगाया है। अनुपम मिश्र गांधी नहीं हैं, गांधी के सच्चे अनुयायी है।
‘‘भवानी प्रसाद मिश्र के पुत्र होने और चमचमाती दुनिया छोडक़र गांधी संस्था का काम करने का एहसान भी वह दूसरों पर नहीं करता। ऐसे रहता जैसे रहने की क्षमा मांग रहा हो। आपको लजाने या आत्मदया में नहीं सहज ही। जैसे उसका होना आप पर अतिक्रमण हो और इसलिए चाहता हो कि आप उसे मा$फ कर दें जैसे किसी पर उसका कोई अधिकार ही न हो और उसे जो मिल रहा वह देने वाले की कृपा हो। मई बहत्तर में छतरपुर में डाकुओं के समर्पण के बाद लौटने के लिए चम्बल घाटी शान्ति मिशन ने हमें एक जीप दे दी। हम चले तो अनुपम चकित। उसे भरोसा ही न हो कि अपने को एक पूरी जीप मिल सकती है। सच, इस जीप में अपन ही हैं और अपने कहने पर ही यह चलेगी।’’
‘‘एक बार राधाकृष्ण जी ने अनुपम से कहा कि फलां-फलां विदेशी संस्था से इतना पैसा इस प्रोजेक्ट के लिए मिला है और हमारी इच्छा है कि इसमें से तुम पांच-छ: हजार रुपया महीने ले लो। तब अनुपम के मित्र इससे ज्यादा वेतन सहज ही पाते थे और प्रोजेक्ट करने वाले को तो वे पैसे मिलते ही थे। लेकिन अनुपम घबराया सा मेरे पास आया। वह प्रतिष्ठान की सात सौ रुपट्टी के अलावा कहीं से भी एक पैसा लेने को तैयार नहीं था। विदेशी पैसा है, मैं जानता हूँ इफरात में मिलता है, इसे लेने वालों का पतन मैंने देखा है। अपने देश में काम हम दूसरों के पैसे से क्यों करें? अगर आप अनुपम को जानते हों तो उसका संकोच एकदम समझ में आ जाएगा। नहीं तो उसके मुंह पर तारीफ और पीठ पीछे बुद्धू कहने वालों में आप भी शामिल हो सकते है।
(प्रभाष जोशी : अपने पर्यावरण का यह अनुपम आदमी)
‘अपने देश का काम हम दूसरों के पैसे से क्यों करें?’ कितना सहज लेकिन कितने लोगों के लिए कितना असंगत प्रश्न है। सहज ऐसा ही बेधक होता है।
कबीरदास ने सहज के बारे में कहा है -
सहज सहज सब ही कहैं सहज न जानै कोइ
जब सहजै विषया तजै सहज कही नै सोई
त्याग करते, तपस्या करते हैं, बड़े आदमी होते हैं वे। लेकिन सहज होना इतना ही बड़ा होने से ऊपर की चीज़ है। आपने जो छोड़ा है उसके लिए आपके मन में कुछ विशेष अस्मिता, अहंकार का भाव नहीं है, आपने छोड़ दिया और मन में ऐसा है कि जैसे आपने कुछ छोड़ा नहीं है - यह सहज भाव है।
यह सौन्दर्य सबसे अधिक सहज भाव में होता है। जब सौन्दर्य अपने से अनजान होता है, सहज होता है। त्रिलोचन ने इसी भाव को ध्यान में रखकर लिखा है -
सहज सुंदर
प्रकृति का सौन्दर्य सहज होता है। मुझे वडर््सवर्थ की कुछ पंक्तियां याद आ रही हैं-
सो स्वीट सो फेर विद आल सो सेंसिटिव
वुड दैट बी द लिटिल फ्लार्स वेर कांशस
आफ हाफ् द प्लेज़र व्हिच दे गिव

इतने अच्छे, इतने निर्मल और इतने संवेदनशील
काश ऐसा होता ये खूबसूरत फूल/ कुछ भी जान पाते
कि ये हमें कितना आनन्द देते हैं
अनुपम सहज सुभाव के आदमी है। सहजता उनकी प्रकृति है।
उनकी एक और पुस्तिका याद आ रही है - ‘तैरने वाला समाज डूब रहा है।’ यह बिहार की विगत प्रलयंकर बाढ़ के बाद लिखी गई थी। इसका भी मूल स्वर वही है। परम्परा से लोग बाढ़ की विभीषिका से बचने का रास्ता अपनाना भी जानते थे और अभ्यासवश उन्होंने नदियों का अपने हित में उपयोग करना भी सीख लिया था। बिहार में नंदिया ताल बनाये जाते थे। नंदिया ताल का मतलब वे तालाब जो नदी के अधिक जल के इकट्ठा होने से बन जाते थे या बना लिए जाते थे। नंदिया ताल बाढ़ के प्रकोप को क्रमश: कम कर देते थे। पानी तालाबों में भर रुक जाने से वेग कम हो जाता था। बाढ़ के प्रलयंकर प्रभाव को रोकने के लिए आश्चर्य में डाल देने वाली योजना थी चारकोसी झाड़ी। चारकोसी झाड़ी का मतलब चार कोस की चौड़ाई का जंगल। जाहिर है कि ऐसा नपा-तुला जंगल लोग लगाते होंगे। कहते हैं कि इसकी लम्बाई पूरे बिहार में ग्यारह-बारह सौ किलोमीटर तक थी और वह पूर्वी उत्तर प्रदेश तक विस्तारित था। ये चार कोसी झाड़ी बाढ़ के प्रबल वेग को रोकने में काफी कारगर होती थीं।
यह किताब बिहार की नदियों और प्रतिवर्ष आने वाली अनिष्टकारी बाढ़ संकट और उससे बचने - नदियों को साधने की पारम्परिक विधियों पर विचार करती है। लेकिन मुझे ‘‘तैरने वाला समाज डूब रहा है’’ अपनी वर्णन-शैली या रचनात्मकता के कारण भी बहुत अच्छी लगती है। उपयोगी सौन्दर्य का जवाब नहीं। अनुपयोगी सौन्दर्य-बोध प्राय: टिकाऊ नहीं होता। सो यह पुस्तिका उपयोगी तो है ही साहित्यिक सौन्दर्य से सुगंधित भी है।
अनुपम मिश्र हिमालय को ऐसे देखते हैं मानो वह कोई अल्पवयस्क बच्चा हो। इस भाव का बोध पक्ष यह है कि भूवैज्ञानिकों के अनुसार विन्ध्य,अरावली की तुलना में हिमालय की उम्र अभी बहुत कम है। इसीलिए अभी उसमें कच्चापन है और इसीलिए यह विंध्य जैसा स्थिर नहीं, चंचल, उच्छृंखल है, आद्र्र है। अनुपम मिश्र भूवैज्ञानिक आधारभूत सामग्री और प्राकृतिक तथ्यों का ऐसा शाब्दिक रूप (रूपक) खड़ा करते हैं कि हिमालय पाठकों के परिवार का कोई बालक बन जाता है। बच्चा भी तो शैतान बच्चा।
‘‘प्रकृति के केलेण्डर में लाखों वर्ष का एक पन्ना होता है। उस केलेण्डर से देखें तो शायद अरावली की उम्र नब्बे वर्ष होती और हिमालय! अभी चार-पांच वर्ष का शैतान बच्चा। वह अभी उछलता-कूदता है, खेलता-डोलता है। टूट-फूट उसमें बहुत होती है। अभी उसमें प्रौढ़ता या वयस्कता वाला संयम नहीं है। शांत, धीरज जैसे गुण नहीं आए हैं। इसलिए हिमालय की ये नदियाँ सिर्फ पानी नहीं बहाती हैं, ये साद, मिट्टी, पत्थर और बड़ी-बड़ी चट्टानें भी साथ लाती हैं।’’ (तै.स.डू.! पृ. 5)
हिमालय के प्रति आत्मीयता - मानो वो हमारे चराचर परिवार - प्रकृति परिवार का एक सदस्य हो - यह भाव बोध इतना उदात्त है कि वह किसी कवि हृदय का ही हो सकता है।
हिमालय से कहीं ज्यादा भाव-तरल अनुभव मिश्र नदियों का बयान करते होते हैं। इस भाव-तरलता में अद्भुत संयम है। तरलता बोध या आधुनिक भू विज्ञान की जानकारी से छूट नहीं लेते बल्कि उसे बैस्ट आधुनिक भू विज्ञान की मूल्यवान संदर्भित जानकारी से समृद्ध करते हैं।
उत्तर बिहार की नदियां इतना वेगवती क्यों हैं? ‘‘वहाँ हिमालय से अनगिनत नदियां सीधे उतरती हैं और उनके उतरने का एक ही सरल उदाहरण दिया जा सकता है। जैसे पाठशाला में टीन की फिसलपट्टी होती है, उसी तरह से ये नदियां हिमालय से बर्फ की फिसल पट्टी से धड़ाधड़ नीचे उतरती हैं। हिमाचल के इसी क्षेत्र में नेपाल के हिस्से में सबसे ऊंची चोटियां हैं और कम दूरी तय करके ये नदियां उत्तर भारत में नीचे उतरती हैं। इसलिए इन नदियों की पानी की क्षमता उनका वेग उनके साथ कच्चे हिमालय से, शिवालिक से आने वाली मिट्टी, गाद, साद इतनी अधिक होती है कि उसकी तुलना पश्चिमी हिमालय और उत्तर पूर्वी हिमालय से नहीं कर सकते’’। (पृ. 4)
मैं गाद-साद का मतलब ठीक-ठीक नहीं जानता था। अनुपम मिश्र की इस पतली कितबिया से ऐसे बीसियों शब्दों की जानकारी हुई है। अनुपम मिश्र की साहित्यिकता और उनकी लेखन शैली की विशेषताओं पर अलग से विचार करने की जरूरत है। हिन्दी कथेतर साहित्य में, ज्ञान-विज्ञान, सामाजिक क्षेत्र में हिन्दी गद्य के ऐसे अनूठे रूप मिलते हैं जो साहित्यिकता को मात दें। कुछ विद्वान अपने विषय में ऐसा रम जाते हैं कि उनका लेखन घोर अनुशासित हो कर भी साहित्य जैसा रमणीय होता है। उदाहरण के लिए प्रो. बैराम की किताब अद्भुत भारत या प्रो. कोशाम्बी का इतिहास लेखन। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी काव्यशास्त्र पर भी लिखते हैं तो भी वह मनोरंजक पठनीय होता है। पत्रकारों में प्रभाष जोशी।
अनुपम मिश्र की अपनी शैली है - यह कोई विशिष्ट शैली नहीं है वे यथावसर कोई भी रूप अपना सकते हैं। विषय को हृदयंगम कराने में उनकी शैली साधना विलक्षण है। दो बातें सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। उनका लेखकीय व्यक्तित्व विषय में तल्लीन है। जानकारी सिर्फ जानकारी नहीं है वह उनका अनुभव है। आपको मेरी बात अजीब नहीं लगनी चाहिए कि अनुपम मिश्र का व्यक्तित्व इसी कारण संतों से मिलता-जुलता है। संतों के व्यक्तित्व और कृतित्व की सबसे बड़ी विशेषता है कि वे अपने अनुभव की सहज अभिव्यक्तियां करते हैं। वे शैली की परवाह कम से कम करते हैं इसीलिए वे श्रेष्ठ शैलीकार हैं। अनुपम मिश्र की अनायासता विषय की तल्लीनता और उसे लगभग जस का दस संप्रेषित कर देने के सदाग्रह में है। इस उदात्त भूमि से देखी गईं बिहार की नदियां -
‘‘नदियां विहार करती हैं उत्तर बिहार में। वे खेलती, कूदती हैं। यह सारी जगह उनकी है, यह है उनका आंगन। इसलिए वे कहीं भी जाएं उसे जगह बदलना नहीं माना जाता था। उत्तर बिहार में समाज का एक दर्पण साहित्य रहा होगा तो दूसरा तरल दर्पण नदियां थीं। इन असंख्य नदियों में वहां का समाज अपना चेहरा देखता था और नदियों के चंचल स्वभाव को बड़े शांत भाव से अपनी देह में, अपने मन और विचारों में उतारता था। इसलिए कभी वहां कवि विद्यापति जैसे सुंदर किस्से बनते तो कभी फुलपरास (भुतही नाम की नदी को वापस बुलाने की लोककथा) जैसी घटनाएं रेत में उकेरी गईं। नदियों की लहरें रेत में लिखी इन घटनाओं को मिटाती नहीं थीं। लहरें इन्हें पक्के शिलालेखों में बदलती थीं। ये शिलालेख इतिहास में मिलें न मिलें, लोगों के मन में, लोक स्मृति में मिलते थे। (पृ. 8 तैरने... डूब रहा है)
अनुपम मिश्र पर्यावरणविद् और पर्यावरण के लेखक हैं। वे मात्र चिंतक लेखक नहीं हैं। लेखन उनकी आन्दोलन सक्रियता का अंग या साधन है। स्वतंत्र भारत में ऐसे लेखक दुर्लभ हैं जिनके लेखन ने आन्दोलन का रूप लिया हो। उनका लेखन और व्यक्तित्व मानो स्वाधीनता आन्दोलन के युग का कोई बचा रह गया सक्रिय अंश हो। वे अपने लेखन में स्वप्न निर्मित करते हैं। स्वप्न प्राय: भविष्य का देखा जाता है। अनुपम मिश्र के लेखन से अतीत भविष्य का स्वप्न बन जाता है और वह स्वप्न वर्तमान में दृश्य भी होता है। वह केवल मन की आंखों से नहीं खुली आंखों दिखलाई भी कई जगहों पर पड़ता है। पुस्तक में इसकी जानकारी दी गई है। अनेक प्रकाशित लेखों में इसकी जानकारी दी गई है। घनघोर सूखे के समय में आज भी समाचार-पत्रों में ऐसी घटनाओं की जानकारी मिलती है, जहाँ गांव के लोग अपने सामूहिक श्रम से - ज्यादा पैसा खर्च किये बगैर अपने काम भर का पानी बखूबी संचित कर लेते हैं। 25 अप्रैल हिन्दू : शिवमोगा के 17 वर्षीय बालक पवन कुमार ने अपनी मां को राहत देने के लिए 55 फुट का कुआं खोदा। 26 अप्रेल टाइम्स ऑफ इंडिया में जैसलमेर के पास की घटना का उल्लेख है : अर्शद अली नाम का किसान गांव में ट्यूब वेल खोद रहा था। 500 फुट के नीचे पानी का इतना तेज प्रवाह फूटा कि आसपास के खेतों को उससे पानी मिलने लगा। और पानी का वेग कम नहीं हो रहा। इसी के साथ 22 अप्रेल के टाइम्स आफ इंडिया में अन्ना हजारे के आदर्श गांव रालेगांव सिद्दी का समाचार है। वहां जल-संचय की व्यवस्था थी। गांव वालों को पानी सुचारू रूप से मिलता था। पानी की कोई कमी नहीं थी। अब पानी की कमी हो गई है। जल संकट हो गया है। अन्ना हजारे के आदर्श गांव में जल-संकट का कारण?
कारण यह है कि कुछ लोगों के हृदय में स्वार्थ आ गया। उन्होंने बोरिंग लगवाना शुरू किया। देखते-देखते अधिकांश लोगों ने बोरिंग वेल लगवाये। जल संकट आ गया। सामान्य लोगों द्वारा जल-संचय से समस्या के समाधान की खबरें प्राय: आती हैं। ये खबरें अनुपम मिश्र की किताबों - उनके लेखन के साथ याद आती हैं। उनका प्रयास अकेला नहीं है। उन्होंने अपने सह विचारक और सहकर्मी तैयार किए हैं। यह आन्दोलन की शुरूआत है। हमारे देश का समाज उसे समझ रहा है स्थितियां और समझाएगा। अनुपम मिश्र का लेखन और आचार सार्थक है। आपका सोच और लेखन देश के महाभूतात्मक संकट के सहज समाधान का आन्दोलन शुरू कर सके यह स्वाधीनता आन्दोलन की ही आंशिक पुनर्प्रतिष्ठा है।
लेकिन कुछ और बातें विचारणीय हैं। आन्दोलन मानसिक प्रवृत्ति एवं सामाजिक प्रवृत्ति है। आज का संकट केवल जल-संकट नहीं है। वह सिर्फ भूमंडलीय ही नहीं वह हमारे मन का बहुत बड़ा, शायद सबसे बड़ा संकट है।
अनुपम मिश्र पूंजीवादी संकट की बात नहीं करते। पूंजीवाद केवल बुरा नहीं है। वह अपने आप में बुरा नहीं। वह उपज में अभूतपूर्व वृद्धि करता है। समाजवादी व्यवस्था का स्वप्न पूंजीवाद द्वारा बढ़ी हुई उपज के ही बल पर देखा जाता है - संतोषप्रद सामाजिक वितरण का। लेकिन अधिकता का लोभ मानसिक प्रवृत्ति बन गई है। कामायनी के नायक मनु की रुचि ‘श्रद्धा’ में नहीं ‘इड़ा’ (बुद्धि) में हो गई है और श्रद्धा विरहित बुद्धि अमानवीय होकर बुद्धिहीनता हो जाती है। जेहादी कट्टरपन की बात की जाती है। मेरे विचार से अधिकाधिक पाने का दुराग्रह कहीं अधिक मूर्खतापूर्ण सर्वनाशी और कट्टर है। वह न तो अपना विरोध सह सकता है और न बढ़ोत्तरी पर रोक। जहाँ भी कुछ ऐसा है जो उसे लाभ पहुँचा सकता है तो उस पर अधिकाधिक वादी का अधिकार है। उसके पास सैन्य शक्ति से कहीं अधिक कारगर विज्ञापन, प्रचार-प्रसार की शक्ति है। वह जो चाहेगा वही आप खाएंगे, जिस भाषा में वह चाहेगा उसी में बोलेंगे। उसी की पसंद के कपड़े पहनेंगे। कबीरदास कहते थे - ‘तू कहता कागद की लेखी। मैं कहता हूँ आंखिन देखी।’ आज बड़े-बड़े अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री, औषधविद्, साहित्यकार, शिक्षाविद् कागद-लेखी कहते हैं। कागद लेखी खाए-पीए, अघाए,अधिकाधिक की चिन्ता में मग्न यथास्थितिवादियों का कथन है। कबीरदास ऐसे पण्डितों को ‘‘भरम-ज्ञानी’’ कहते थे। भरम-ज्ञानी तो ज्ञान के नाम पर भ्रम का प्रचार करते हैं। इनके पास सामान्य मनुष्य के अनुभव का सच नहीं है। इसीलिए ये सामान्य मनुष्य के प्रश्न से घबड़ाते हैं। अगर विकास हो रहा है तो खाने-पीने की चीज़ें, कपड़ा, मकान इतने महंगे क्यों हैं? इतनी विषमता क्यों है? पांच सितारा अस्पतालों के साथ-साथ सार्वजनिक अस्पतालों में मरीजों की इतनी लम्बी कतारें क्यों हैं? प्राणरक्षक औषधियां नायाब और इतनी महंगी क्यों हैं? इस क्यों और क्या का जवाब, इनका हल इनके पास नहीं, सिर्फ न निभाए जाने वाले वंचक वादे हैं। झूठ को सच और सच को झूठ बनाने वाले विज्ञापन और प्रचार-प्रसार तंत्र है।
इस सर्वनाशी कट्टरपंथ के विरुद्ध सर्वत्र प्रतिरोध भी है - प्रतिरोध का आन्दोलन भी है। अनुपम मिश्र का लेखन भी प्रतिरोध है। आन्दोलन है। लेकिन उसमें शोर, गर्जन-तर्जन, मंचीय नाट्य नहीं, समाधान और संतोष का संगीत है, सुरुचि है। वह अधिकाधिक की मांग का तिरस्कार करता है। वह आवश्यक तक में ही संतोष का अह्वान करता है। इस आवश्यक को श्रम से अर्जित करें तो उसमें स्वास्थ्य, संतोष और सौन्दर्य है। वह ऐतिहासिक सौन्दर्याभिरुचि का प्रस्ताव रखता है जो वैश्विक छंद की संगति में है।


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