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जुलाई 2016

मुसदिक़ हुसैन की कविताएं

अनुवाद : अशोक कुमार पाण्डेय

युवा कश्मीरी कवि/अंग्रेजी






कश्मीर में होना ही एक परिचय है इन दिनों। अपनी पहचान और राष्ट्रीयता के बहुस्तरीय संकटों में उलझा लल द्यद और शेख नुरूदीन का यह प्रदेश आज हब्बा खातूनों की आर्त पुकारों का देश है, कई कई रंग की बंदूकों के साए में पलता। श्रीनगर में रहने वाले मुसदिक़ अभी-अभी अठारह के हुए हैं और बारहवीं की परीक्षा पास की है। अपने हमउम्र युवाओं की तरह सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं और प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे हैं। उनके फेसबुक पेज़ ‘एम के’ के अलावा अंग्रेज़ी में लिखी उनकी कविताएं पहल के माध्यम से पहली बार किसी प्रिंट माध्यम में छप रही हैं।



तुम्हारी आत्मा को शांति मिले

अंधेरों में और आगे
जहां आसमान किसी पुराने-जर्जर निगेटिव सा लगता है
उम्मीदों के साहिल पर मैंने इंतजार अकेले किया -
एक क्लाइमैक्स मेरी अंतडिय़ों में डूबता है।

मैं आने जाने वालों की अर्थहीन आवाज़ें सुनता हूँ
लेकिन मेरी आँखें प्रतिध्वनियों से धुंधली हुई जाती हैं
आरिफ़-आरिफ़-आरिफ़
शौक़त-शौक़त-शौक़त

राख में बदलता जाता है मेरा हृदय

 

स्वर्ग कड़वा हो गया है
बर्फीले पहाड़, फैली हरियाली
कश्मीर है यह
स्वर्ग कहते हैं हम इसे।
आह...कैसे नहीं देख पाते वे वह सब
जो अपने सीने में लिए फिरता है ये
गोलियां चाक करती हैं इसे
मिर्च की स्प्रे जाम करती है फेफड़े
एक शिरा है लहू की जो जम गई है
जिबह, हत्या क्या क्या नहीं हुआ इसके साथ

खो गए या खो रहे है
तुफ़ैल वामिक समीर बुरहान
ज़ुबैर इनायत ज़ाहिद बिलाल
आदिल इम्तियाज़ आरिफ़ आक़िब...
और भी जाने कितने
अपने पीछे आधी माओं और आधी विधवाओं को छोडक़र।

हमारे हिममानव तक की देह पर ख़ून के धब्बे हैं।

शाम की हवा में लोहे के जंग की महक है
भाई
आज की शाम फिर से भर दो हुक्का
जब तक लौ से बेखौफ परवाने की तरह
एक और बार जल कर भस्म न हो जाऊँ मैं।

लेकिन जानते हो तुम
अब यहाँ थोड़ा कम उगती है केसर
उनसे कह दो
स्वर्ग अब कड़वा हो गया है।

 

बसंत नज़दीक है
और जब तुम्हारे बच्चे
रात के अँधेरों में डरकर
फिर से जाग जाएँ मौज काशीर
अपनी गोद में ले लो उन्हें
और आस बंधाओ
कि बहुत दूर नहीं है अब
बसंत का मौसम



चुप्पी का रंग लाल है
इन्टरनेट प्रतिबंधित
फिर भी हमारे आसमान
आज़ाद है
हमें सिखाते हैं
चुप्पियों की जबान में बातें करना बेबाक

प्यारे आततायी
कैसे नहीं सुन पाते तुम
हमारी चुप्पियों से उठते
सबसे तेज़ नारे



मिर्च से भरी कश्मीर की गलियाँ
और मेरी प्रिय
जब हम फिर निकलें
काली मिर्च के स्प्रे से भरी कश्मीर की गलियों में
ढँक लेना अपने प्रेम से मुझे
कि न रुँधे मेरी सांसें

 


ज़िक्र-ए-वतन
और इससे पहले कि
मैं कह सकूँ
अपनी ज़मीन का क़िस्सा
आसमान सुर्ख़ लाल हो गया है



एक लहूज़दा जन्नत
आज बताना होगा तुम्हें
अपने देश के बारे में
जहां रहते हो तुम

जाना
मैं एक ऐसी धरती पर रहता हूँ
दिन अँधेरे हैं जहां
और रातें कर्फ्यू की गिरफ्त में
मैं जहन्नुम की आग में जलते
जन्नत में रहता हूँ
एक लहूज़दा जन्नत में



आततायी
वह वादा करता है बहुत जल्द चले जाने का
लेकिन चाहता है कि वे उसे
केसर के दुनिया के इकलौते बागीचे का
चौकीदार बना दें

वह संभालता है पद
लेकिन कभी नहीं निभाता अपने वादे
वह अब उनके देश का शासक है
और दुनिया के इकलौते स्वर्ग में
लिए जाता है उन्हें नर्क की ओर।

मौत ने जगाया मुझे
खामोश थी रात
आसमान तारों से भरा
यहाँ तक कि पिछली रातों की तरह
कोई दु:स्वप्न भी नहीं था मेरी आँखों में

बहुत अरसा बाद साथ थे हम
हमेशा के लिए ज़िंदगी के लौट आने के
वादे करते हुए
हम दोनों खुश थे
वह और मैं

हवा में भर गए रूमानी गीत
सारी रात रही वह मेरी पहलू में
सच हो रहे थे मेरे ख्वाब
लेकिन तभी जब पौ फटने लगी
मौत ने जगाया मुझे
और जमा दिया हम दोनों को सदा के लिए

संपर्क :  kh.musadia@gmail.com

अशोक कुमार पांडे इन दिनों कश्मीर पर एक ऐतिहासिक ग्रंथ तैयार कर रहे हैं।


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