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अप्रैल - 2016

कृत्रिमता का आलोक

अविनाश मिश्र

साहित्य विमर्श/अगली बार संजय चतुर्वेदी






                                             कुमार अम्बुज की कविता-सृष्टि पर एकाग्र

कुमार अम्बुज का कवि-व्यक्तित्व हिंदी कविता की व्यावहारिक राजनीति में पर्याप्त चर्चावान् और स्वीकृत है। इस अस्तित्व पर आपत्तियां भी लगभग नहीं हैं। एक लिखित व्यवहार में यह निर्विवाद सुख कुमार अम्बुज को बीसवीं सदी के नवें दशक की हिंदी कविता का एक प्रमुख हस्ताक्षर मान लेने के लिए बहुत है। लेकिन इस प्रगति को प्राप्त उनकी कविता-सृष्टि के इस 'प्रकट' के समानांतर एक 'स्वगत' भी जारी है। इस स्वगत का स्वर शिकायताना है, लेकिन वह अतर्कसंगत नहीं है। वह प्रमाणपुष्ट है, लेकिन प्रकट के बहुमत से भयभीत है। ''किसी ऐसी बात से कोई वास्ता न रखो जिसे तुम्हारे अतिरिक्त कोई और करता ही न हो!'' लुडविग विट्गेन्सटाइन के इस उद्धरण को हिंदी साहित्य के सामूहिक विवेक के संदर्भ में लागू किया जा सकता है। यह विवेक इस तरह की मान्यताओं से संचालित है कि दृश्य को समस्याग्रस्त करके देखने से और समस्याएं उत्पन्न होती हैं। लिहाजा वह रहा आता है— जड़ और उदासीन। यह स्वीकृति को प्रकट और असहमति को स्वगत बना देने वाली 'ऐतिहासिक महत्व' की कला है!   

कुमार अम्बुज का वास्ता हिंदी कविता की जिस पीढ़ी से है, उसमें देवी प्रसाद मिश्र को छोड़कर सारे कवि स्वीकृत होते ही सेवानिवृत्त हो गए। इस दृश्य में यह तथ्य एक सबक की तरह नुमायां हुआ कि एक हिंदी कवि के जीवन में स्वीकृति की इस बात की सूचना है कि अब आपसे कविता में कुछ होगा नहीं। यहां स्वीकृति को कुछ स्पष्ट कर देना चाहिए— महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में महत्व के साथ प्रकाशन, पुरस्कार, बड़े प्रकाशनों से कविता-संग्रह और उन पर समीक्षाएं-चर्चाएं तथा गोष्ठियां, फैलोशिप, नौकरी, संस्थाओं-अकादमियों-विश्वविद्यालयों में आवाजाही, अन्य साहित्यिक विधाओं में भी दखल, कुछ और आवाजाही, कुछ और किताबें और कुछ और पुरस्कारों की प्रतीक्षा... यह स्वीकृति है और इस सबके लिए किसी भी हद तक गिर जाने की सामथ्र्य, इस स्वीकृति का हासिल है। यह संयोग नहीं है कि इस पीढ़ी में अपनी कविता को वे ही कवि विकसित कर पाए हैं जिन्हें लेकर समकालीन काव्य-विमर्श में अस्वीकृति, असहमति और कुचर्चाएं हैं।
कुमार अम्बुज की कविता-सृष्टि हिंदी साहित्य संसार में व्याप्त स्वीकृति के इसी प्रदूषण के एकदम बीच है। उनकी कविता इस वजह अशक्त, शैथिल्यग्रस्त और रुग्ण नजर नहीं आती है तो इसका एक और एकमात्र कारण उसका अपनी 'बनावट' के प्रति बहुत सावधान होना है। वह अपने को इतना खुला नहीं छोड़ती कि वेध्य हो जाए। इस कोशिश में कुमार अम्बुज अपने से ठीक पहले के कवि और समकालीन काव्य-विमर्श में उनके समानधर्मी मंगलेश डबराल और राजेश जोशी के नजदीक हैं। मंगलेश की कारुणिकता या कहें मंगलेशियत से उन्होंने खुद को तब ही अलग कर लिया था, जब वह 'किवाड़' खोलकर 'क्रूरता' तक आए थे। बाद में 'नींद' और 'स्त्रियों' और 'तानाशाह' पर बनाई गई कविताओं में ही यह असर दीखता है। लेकिन राजेश जोशी की फार्मूलेबाज और फैशनेबल जनपक्षधरता और 'आइडियाज' को बरतने के तकनीकी कौशल से वह अब तक पूर्णत: मुक्त नहीं हो पाए हैं। जनपक्षधरता एक व्यापक मूल्य है, अगर उसे जड़ता से बचाया जाए तब। कविता में जनपक्षधरता बहुत सरलता से एक कवि को स्वीकृत बनाती है। हिंदी में अगर इस तत्व के साथ कोई कवि कविता बनाना जान ले तो कोई उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। कभी-कभी शाब्दिक भंगिमाओं और अनावश्यक स्फीति से संपन्न जनपक्षधर कविता को कवि के जीवन से जोड़कर देखने पर इस यकीन को मजबूती मिलती है कि कविता कोई स्वत:स्फूर्त या प्रेरणा-आधारित वस्तु नहीं है। वह अपने निर्माता को प्राय: सबवर्सिव नहीं, एक सुधीर चरित्र में ढालती है। इस तरह देखें तो कविता भी उसे वैसा ही बना रही होती है, जैसा वह कविता को— कृत्रिम।
इस अभिप्राय में देखें तो कुमार अम्बुज की कविता-सृष्टि प्रेरणा से नहीं कृत्रिमता से आलोकित है। उम्बेर्तो ईको ने अपने एक व्याख्यान में 'प्रेरणा' को एक बहुत बुरा शब्द माना है। स्वयं एक वक्तव्य में कवि का यह स्वीकार प्रासंगिक है : ''मैं यह मानता हूं कि अनुभूति का, विवेक और बुद्धि से गहरा संबंध होता है।'' अपनी अनुभूतियों को विवेक के सहारे विचार के रास्ते विकसित करती हुई कुमार अम्बुज की कविता सभ्यता को टीलों में तब्दील होने से बचाने के उपक्रम से प्रारंभ और प्रकाशित हुई थी। यह वर्ष 1990 के आस-पास का प्रयास है। एक विध्वंसकारी समय नए बदलावों और बनावट के साथ उदय होने को था। 'आवारा पूंजी' हिंदी साहित्य में विमर्श का विषय बनने लगी थी। दृश्य पर कॉर्पोरेट हावी था। इसके बारे में कवि ने आगे वर्ष 2010 के दिनों की अपनी डायरी में दर्ज किया : ''दरअसल, हम सब अब किसी न किसी कॉर्पोरेट की अधीनता में रहते हैं — प्रत्यक्षत: या परोक्ष रूप से — हमारा सब कुछ किसी कॉर्पोरेट की परिधि में है। यह घर, इसमें रहने वाले लोग, यह कॉलोनी, बाहर का पूरा दृश्य, ये नए लगाए गए पेड़, यह कार, यह भिखारी, यह प्रधानमंत्री और यह मेरी परछाईं, सब कुछ निजी संस्थानों के नियंत्रण में है। बल्कि उनकी इच्छा और दया पर है। सरकार और न्यायालयों की परिधि से यह सब बाहर है क्योंकि उनकी अनुमति और नियमावली के तहत वे हैं। अधिकतम यह हो सकता है कि वे कॉर्पोरेट्स के पक्ष में ही कोई अधिसूचना, निर्णय या संशोधन जारी कर दें।''
ये स्थितियां आने-आने को ही थीं, जब नए सिरे से भाषाओं और कलाओं में रचनाकारों के सरोकारों को जांचने का दौर चल रहा था। उनकी स्त्री-दृष्टि और उत्पीडि़तों, वंचितों, दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों के बारे में उनका नजरिया परखा जा रहा था। वैश्विक क्रूरता, भूमंडलीकरण और बेतरह फैलते जा रहे बाजार के बीच यह जांच-पड़ताल सहज ही रचनाकार की राजनीतिक और वैचारिक दृष्टि का पता उजागर कर देती थी। सोवियत संघ के पराभव के पश्चात यह प्रक्रिया जरूरी भी हो उठी थी। लेकिन बहुत सारे शातिर रचनाकार इस स्कैनिंग से बच निकले और रचनाओं से बाहर एक दोहरा जीवन जीते रहे। यह विचलन समाज और भाषा के सिलसिले में कोई नई बात नहीं थी, लेकिन प्रत्येक उद्घाटन के साथ इसकी विचलित कर देने की सामथ्र्य और बढ़ती जाती थी। 1990-95 के मध्य एक कविता 'क्रूरता' में कुमार अम्बुज कुछ भविष्यवाणियां करते हैं। दुर्भाग्य से ये आगे सच सिद्ध होती हैं। आशंका में डूबी हुई 'प्रिकॉसिटी' सदा ही कवि को जिम्मेदारी में और समाज को मुसीबत में लाकर छोड़ देती है। इस कविता में क्षमाभाव के समाप्त होने, विलाप के निरर्थक होने और पड़ोसी के सांत्वना नहीं एक हथियार देने के बाद एक ऐसी क्रूरता के आगमन की बात थी जो आत्मा को आहत नहीं करेगी। वह भावी इतिहास की लज्जा की तरह आएगी और सारी करुणा और सारा श्रंगार सोख लेगी। 'क्रूरता' (1996) की भूमिका में कवि कहता है :  ''सामाजिक जीवन में, संविधान में और निजी दिनचर्या में लगातार संशोधन किए जा रहे हैं ताकि नए जीवन से तालमेल बिठाया जा सके। इस नए में बेहतर क्या है और कितना है, यह विचार करने का समय इस आपाधापी में जैसे किसी के पास नहीं रह गया है। जो रुककर सोचता है, वह हास्यास्पद हो जाता है। संस्कृति अब राज्य की वस्तु है। विकल्प की सुविधा और असहमति की स्वतंत्रता लगातार कम हो रही है।''
यहां से कुमार अम्बुज की कविता एक सजग गतिशीलता में नागरिक-पराभवता के दृश्य दर्ज करती चली जाती है। वह अपने यथार्थ में इतनी प्रतिबद्ध, अपने विन्यास में इतनी सुघड़ और प्रभावित करने की क्षमता में इतनी ज्यादा कुशल होती जाती है कि उसे अस्वीकृत करने का अवकाश ही उत्पन्न नहीं होता। वे सारे शब्द, विचार और भंगिमाएं एक अविचलित और बेहद सधे हुए शिल्प में एक अभ्यासगत दृढ़ता के साथ कुमार अम्बुज की कविता में मौजूद हैं जो समकालीन काव्य-विमर्श में उन्हें बहुत दूर तक प्रासंगिक बनाएं रखेंगे। लेकिन बतौर कवि यह उनके लिए संकट नहीं तो और क्या है कि इस मामले में वह अकेले नहीं हैं, एक कतार-ए-मुसलसल है जो ऐसी ही प्रासंगिकता की चाह में समकालीन काव्य-विमर्श में सक्रिय है :

मेरे पक्ष में केवल एक संभावना थी
कि मैं अपनी हरकतों में
अकेला नहीं था
        [ संभावना ]

कुमार अम्बुज के पहले कविता-संग्रह 'किवाड़' के ब्लर्ब पर केदारनाथ सिंह ने स्थानीयता को तब तक कोई काव्य-मूल्य नहीं माना है, जब तक कि उसका किसी गहरी दृष्टि या वृहत्तर बोध में विलयन न हो। यह ब्लर्ब लगभग पच्चीस वर्ष प्राचीन है, लेकिन अब तक प्रासंगिक है। एक दैनिक अपराधबोध और कृतज्ञता के साथ स्थानीयता कुमार अम्बुज की कविता-सृष्टि में अब तक एक काव्य-मूल्य है। दृष्टि-बोध की व्यापकता और वैचारिक प्रतिबद्धता इस काव्य-मूल्य के विकास-क्रम में सहायक रहे हैं... इस तरह हिंदी कविता में उपस्थित बहुत सारी शहीदाना, रुदनवादी और रद्दी स्थानीयता के बरअक्स कुमार अम्बुज ने यथार्थवादी, कर्तव्यनिष्ठ और मूल्यवान् स्थानीयता अर्जित, निर्मित और व्यवस्थित की है :

हम बहुत दूर निकल आए हैं
सूर्योदयों, सूर्यास्तों, श्रम भरी दुपहरियों से
खेतों-खलिहानों से, नदियों से, पहाड़ों से
अलाव से और रात में चमकते सितारों से

अब हम गीत नहीं बनाते

अब कुछ दूसरे लोग हैं जो बाकी काम नहीं करते
सिर्फ गीत बनाते हैं
वे दूसरे अलग हैं जो उसे ढालते हैं संगीत में
कुछ और लोग भी हैं जो सिर्फ गाते हैं गीत
और फिर ढोल-ढमाके के साथ
आता है दुनिया में वह गीत

हम तो यहां सुदूर परदेस में
खोजते हैं रोजी-रोटी
भूल गए हैं अपना जीवन-संगीत

अब हम गीत नहीं बनाते
                                      [ अब हम गीत नहीं बनाते ]

स्थानिकता से संपृक्त यह काव्य-विवेक अपने रीडर के साथ एक बेचैनी भरा संबंध बनाता है। इस विवेक की स्मृत्यात्मकता, गत्यात्मकता और व्यापकता इसे अपने असर में गहरा और स्थायी रखते हैं। यहां विष्णु खरे को उद्धृत करना होगा:  ''कुमार अम्बुज विशिष्टत: निम्न मध्यवर्ग, लिहाजा गांव, कस्बे, छोटे शहर या लघुनगर के, और इस तरह इस देश के बहुमत के कवि हैं। उनकी जड़ें उसी में हैं। उनके यहां कस्बों-शहरों के अनेक चित्र हैं, उनकी हर किस्म की यादें हैं, वह बार-बार वहां लौटते हैं, यह जानते हुए भी कि वह भी बदल रहे हैं और वे भी बदल रहे हैं। यही वजह है कि उनका अतीत-राग रुग्ण नहीं रहता, एक चिंता-भरी स्नेह-भावना में बदल जाता है। अम्बुज की उपलब्धि अपने हर शहर-कस्बे को एक ऐसी सार्विकता देने की रही है कि हमें भी अपने कैशोर्य-युवावस्था के घर-मोहल्ले, रास्ते, बाग, पेड़, पुलिया, वीरान इलाके, आवाजें, सारे पहर, रंग, गंध, इमारतें, बाशिंदे, यार-दोस्त, दिलकुशा मुहब्बतें वगैरह बेसाख्ता याद आने लगते हैं।''
कुमार अम्बुज के यहां स्थानिकता का प्रकटीकरण इतना जमीनी और सख्त है कि उसमें ईश्वर, प्रार्थना, अनंत, अध्यात्म, वैभव, संगीत, सौंदर्य, केलि... जैसे शब्दों का प्रवेश स्वत: ही वर्जित होता चला जाता है। (धूल का संगीत वैभव के सन्नाटे में गूंजता है) इस स्थानिकता का नागरिक एक भारतीय मध्यवर्गीय संताप से ग्रस्त नागरिक है। (अपना दु:ख अवसर देखकर ही प्रकट करना था) उसके स्मृतिलोक की अभिव्यक्ति का स्वर आलोचनात्मक है। (थकान/ जो गुजर गए समय का वजन है) वह स्मृतिग्रस्त नहीं हुआ है। (अन्यथा विस्मृतियां चुपचाप नष्ट कर देतीं मुझे/ जिस तरह किया स्मृतियों ने) वह एक नए रास्ते के लिए व्यग्र है। (पुराने संबंध इतनी जल्दी हो गए इतने पुराने) उसकी मुठभेड़ रहस्य, रोमांच और रूमानियत से नहीं एक करुण, क्रूर और कठिन यथार्थ से है। (क्षय होती हुई सभ्यता में/ असभ्यता चुपचाप कर रही है अपना काम) एक मात खाए हुए विचार से घायल यथार्थ में वह अब बहुत इंकलाबी नहीं है। (एक क्रांतिकारी छिपा रहा है खुद को/ तानाशाह की निगाहों से) पर वह नष्ट भी नहीं हुआ है। (यह थकान, यह हताशा, यह मलबा, यह पराजय/ कुछ भी अंतिम नहीं है) एक संरचनात्मक सघनता वाले रचनात्मक विन्यास में वह मौजूदा वक्त के सबसे बड़े खतरों को अभिव्यक्त करने के दायित्व से भरा हुआ है। (इस नए समय में किसी भी स्वप्न के टूटने की आवाज/ नहीं जाएगी बहुत दूर तक) वह जोखिम उठाना चाहता है। (अंधेरे में भरते हुए आवाजों का प्रकाश) एक गहन चुप में वह सबसे ज्यादा हलचलों और आवाजों को याद करता है। (कि कहीं कुछ हो/ कैसे भी हो मगर एक आवाज हो) वह इसे एक सूत्र की तरह सौंपता है कि जोखिम से बचा नहीं जा सकता। (सिर्फ संपत्तियां उत्तराधिकार में नहीं मिलेंगी/ गलतियों का हिसाब भी हिस्से आएगा) दृश्य में उपस्थित अपसंस्कृति से वह खुद को बचाता  है। (मैं किसी स्पर्द्धा में शामिल नहीं/ मैं सिर्फ कर रहा हूं अपना काम) वह दुनियादारी से खुद को दूर रखता है। (डर सबसे पहले/ दुनियादार आदमी के हृदय में प्रवेश करता है) बावजूद इसके उसका अपने मूल से एक अटूट लगाव है। (छूटता ही नहीं शहरों से मेरा प्रेम) यह लगाव सतत् एक असहायताबोध के समानांतर है। (मुझे शर्म आती है/ अपनी समकालीन कायरता पर) वह इसके निष्कर्ष भी जानता है। (मुझे बचाया भी नहीं जा सकता कि मेरे पक्ष में/ सिर्फ मेरी गवाही है) लेकिन इस सबके मध्य भी उसके विपथगामी न होने की मूल वजह उसकी वह दृष्टि और उसकी रचनात्मकता का वह व्यक्तार्थ है, जहां निराशाएं अपनी गतिशीलता में आशाएं हैं...
यह करुण, क्रूर और कठिन यथार्थ ही है जो कुमार अम्बुज को उन प्रमुख हिंदी कवियों में से एक बनाता है जिनके यहां अलग से प्रेम-कविताएं नहीं हैं। उनके यहां प्रेम सब कुछ से अलग नहीं है, वह सब कुछ के साथ है और सब कुछ के बीच है। वह अपने जटिल आयामों में है :
एक और सपने में उसने मुझसे कहा—

''मुझे नहीं पता
तुम बीसवीं सदी के नवें दशक के कवि हो
या अंतिम दशक के

मुझे पता है लेकिन
तुम उस समय के कवि हो
जब लड़की से कहा जाता था— 'प्रेम करो'
और लड़की के मना करने पर
गोली मार दी जाती थी''
                        [ पंद्रह साल पहले बिछड़ गई
                       शहनाज के लिए कुछ कविताएं ]

लेकिन...

एक उद्दाम निराशा, स्थगित अवसाद
उठा हुआ झाग
                        [ प्रेम ]

ऊपर उद्धृत कविता एक पूरी कविता है। इस तरह की छोटी कविताएं (शब्द-संख्या के लिहाज से) कुमार अम्बुज ने अब तक अपने किसी संग्रह में शामिल नहीं की हैं। इन्हें 'अमीरी रेखा' (2011) में रखा जा सकता था, क्योंकि ये संख्या में 23 थीं और वर्ष 2005 के आखिरी दिनों में 'पहल' में प्रकाशित हुई थीं। इन कविताओं में कुमार अम्बुज का कवि अपनी स्वीकार ली गई छवि से बाहर नजर आता है। संभवत: इसलिए ही इन कविताओं का स्वर 'अमीरी रेखा' के साथ ही कवि के अब तक प्रकाशित किसी कविता-संग्रह के स्वर से मेल नहीं खाता है। हिंदी कविता की मीडियाक्रिटी छोटी कविताओं पर बहुत मौकूफ रही है, बगैर इस हकीकत और हिकमत को समझे कि इनकी तामीर लंबी कविताओं से भी ज्यादा मुश्किल है। वरिष्ठ कवियों में नरेश सक्सेना ने — जो पेशे से इंजीनियर रहे आए — इस शैली में कुछ अच्छी नजीरें पेश की हैं। लेकिन आगे चलकर वह भी वैसे ही हो गए— औसत और दाद पाने के लिए बेताब। इस मामले में एक पीढ़ी में विष्णु नागर जैसे सुखद अपवाद भी हैं। लेकिन कुमार अम्बुज का संयम अपनी छोटी कविताओं को लेकर न सिर्फ उन्हें संग्रह में शामिल न करने तक है, बल्कि वह उनके द्वारा उन्हें लिखे जाने और लिखने के बाद उनमें दिखने तक काबिल-ए-गौर है:

तुम जो चकित नहीं हो पाते
और जानना चाहते हो कवि का पता! 
                     [ नामुमकिन ]

कुमार अम्बुज की छोटी कविताएं प्रतीक-योजना और बिंबात्मकता से पूर्ण होने के बावजूद प्रदर्शनमूलकता और आत्म-रत्यात्मकता से दूर हैं। साहित्य के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित औपन्यासिक कृति 'पियानो टीचर' की रचयिता एल्फ्रीडे येलिनेक इस उपन्यास में कहती हैं: ''अधिकांश के लिए कला का मुख्य आकर्षण किसी ऐसी वस्तु को पुन: पहचानने में है, जिसके बारे में वह सोचते हैं कि वे उसे पहचानते हैं।'' इस उद्धरण के उजाले में कहें तो कह सकते हैं कि कुमार अम्बुज अपनी छोटी कविताओं में पहचानी गई वस्तुओं को पुन: एक नई बनत में पहचानते हुए नजर आते हैं— नदी, वसंत, परीक्षा-परिणाम, प्रार्थना, राष्ट्रीयता, उम्मीद, असाधारणता, लोकतंत्र, सत्ता, कला, प्रेम, आमंत्रण, आयु, अन्याय, वृक्ष, कविता, पत्थर, भविष्य, स्थापत्य, स्त्री, आसमान, बौद्धिकता, निराशा... कवि का अचूक शब्द-संयम कई स्थलों पर इन्हें अपने अभिलषित अर्थ में अभिव्यक्त करता है।
कुमार अम्बुज की इस प्रकार की कविताएं अगर उनके अब तक प्रकाशित कविता-संग्रहों में शरीक होतीं तो निश्चित ही वे इन संग्रहों में एक हद तक मौजूद एकरसता को भंग करने में कारगर होतीं। यह यूं ही नहीं है कि कवि ने अपनी डायरी में आलोचना के उस दृश्य को करुण हास्य से भरा हुआ बताया है जिसमें आस्वाद के स्तर पर एकरसता की जिद शामिल है। यहां एक ऐसे पत्रकार की याद आती है जिसने ईंटों पर सोए हुए एक मजदूर की तस्वीर इसलिए खींच ली थी कि वह मजदूर दिवस पर काम आएगी। हालांकि मजदूर दिवस आने में अभी कई दिवस शेष थे, क्योंकि आस-पास वसंत था। यहां यह याद कर लेना चाहिए कि कुमार अम्बुज ने अपने एक निबंध में श्रमिक को एक मनुष्य के रूप में अवकाश दिलाने के लिए बड़ी तर्कसंगत व्याख्याएं प्रस्तुत की हैं। खैर, वह पत्रकार आगे बढ़ गया था और अब उसके पास एक ऐसी तस्वीर थी जो मजदूर दिवस पर काम आ सकती थी। वह पत्रकार भी मजदूर के किसी काम आ सकता है, यह ख्याल तक उसे नहीं आ रहा था। जबकि वह लगभग रोज सुबह नए नगरीकरण की अनैतिकता में फैले औद्योगिक क्षेत्रों में मजदूरों को फैक्ट्रियों की ओर जाते और रोज शाम उन्हें अपने डेरे पर लौटते हुए देखता था। वे उसे बीच राह में भी रोज बनती हुई दुनिया को बनाने में लगे धूल से सने हुए दिखाई देते थे। वे समूहों में होते थे और उस पत्रकार की कोशिश होती थी कि वह उनमें मिल जाए, लेकिन वह कहीं से भी मजदूर नहीं लग सकता था, न चेहरे से और न ही चेतना से... जबकि वह बहुत पैदल चलता था और चप्पल पहनता था और प्राय: यह कहता हुआ नजर आता था, ''मैं मजदूरों के बीच काम कर रहा हूं।''
हिंदी आलोचना के एक बहुत बड़े भाग ने हिंदी कविता के बीच कुछ ऐसे ही काम किया है, जैसे इस पत्रकार ने मजदूरों के बीच। पत्रकार (कवि) के मजदूर (प्रतिबद्धता) की तस्वीर (कविता) लेकर आगे बढ़ जाने में सहृदय आलोचना जनवादिता की दूरगामिता का दृश्य देख सकती है। उसे कतई गवारा नहीं होगा कि उसके इस आस्वाद से अलग कोई और पाठ निर्मित होकर उसकी विवेकशून्यता में खलल पैदा करे। वह इसे स्वागत-योग्य और स्वीकार्य नहीं मानने की दैनिक खुशी में मस्त रहेगी। लेकिन वह चप्पल (विचारधारा) पहनकर बहुत पैदल चलते हुए (हिंदी विभागीय अकादमिक श्रम) मजदूरों के समूहों (कविता की दुनिया) में कितना ही क्यों न मिल जाए या घूमे, वास्तविक यथार्थ से बहुत पृथक प्रतीत होती है।

कभी उनकी आंखों में एक कौंध दिखी थी
उसी ने बांधे रखा हमें बरसों
कि बाकी अंधेरे, हम सोचते रहे
कि एक दिन उस चमक से काफूर हो जाएंगे
या निकल आएगा उनका कोई उज्ज्वल समाधान

लेकिन जैसा कि कहा गया है
पत्थर हमेशा पत्थर की तरह जीवन जीना चाहता है
और चींटी चींटी की तरह
जैसे एक सच्चा चित्रकार या गायक
चित्रकार और गायक की तरह
फिर एक दिन हम ही इस इंतजार से थक जाते हैं
कि आखिर वह कब तक बाज नहीं आएगा
और तुमसे वैसा प्यार या बर्ताव करेगा
जिसकी उम्मीद उस कौंध से पैदा हुई थी
                                [ कई जन मित्र नहीं रह पाते हैं ]

कुमार अम्बुज का कवि-कर्म एक समग्रता में मुक्तिबोध की दुर्बोधता, रघुवीर सहाय की प्रयोगधर्मिता, विष्णु खरे की गद्यात्मकता और मंगलेश डबराल की कारुणिकता से प्रत्यक्षत: बहुत कुछ सीखता हुआ कवि-कर्म है। संसार के दूसरे बड़े कवियों का असर भी सामयिक और सजग कविता पर कहीं जाहिर कहीं छुपा रहता ही है। कुमार अम्बुज का कवि भी इससे अछूता कहां रहा होगा। खुद उन्होंने रचनाशीलता में मौलिकता को एक मिथ मानते हुए कहा है: ''जिस तरह अपने आपमें अद्वितीय होने की संभावनाओं के बावजूद, एक मौलिक मनुष्य असंभव है, उसी तरह एक मौलिक रचना नामुमकिन है।'' वह मौलिकता को एक अवस्थिति भर मानते हैं और नए संयोजन को महत्वपूर्ण। इसमें शब्द मोहरे हैं और विचार, संयोजन की आधारशिलाएं हैं, कारक हैं। इस बयान के साथ उनकी कविता-सृष्टि के 'प्रकट' के समानांतर जारी उस 'स्वगत' पर आते हैं, जिसका जिक्र प्रस्तुत आलेख के प्रथम अनुच्छेद में हुआ है। यह स्वगत इस कविता-सृष्टि में कृत्रिमता का आलोक कुछ इस कदर पाता है कि बगैर इस आलोक के इसमें कुछ भी देखा, खोजा और पाया नहीं जा सकता। यहां संयोजन इतना प्रबल है कि शेष सब कुछ उसके पीछे रहा आता है। संयोजन के डगमगाने से यह विचारगर्भित सृष्टि डूबती है। उसका वर्णपट धुंधला पड़ता है। इसे संयोजन न कहना चाहें तो कवि के ही शब्दों में इसे अपना संतूर बजाने की कला कह सकते हैं, जो इस कदर रियाज और साध से समृद्ध है कि बार-बार सही सुर लग जाता है। एक कहानी में कवि कह गया है:  ''मैं उनसे कहना चाहता हूं कि तुम नहीं जानते यह किस कदर खूबसूरत बात है तुम शब्दों को आरोह-अवरोह के साथ उनकी संपूर्णता में संप्रेषित कर सकते हो, उन्हें उस तरह बोल सकते हो जिस तरह बोले जाने के लिए वे बने हैं और रोज बन रहे हैं, उन्हें तुम एक वाक्य के सुंदर विन्यास में पेश कर सकते हो, उनकी पूरी ताकत के साथ, उनके पूरे रोमांच के साथ! शब्द को जब तुम किसी घन की तरह पटकना चाहो तो पटक सकते हो...।''
इसके आगे 'प्रत्याशित चीजों को अप्रत्याशित के खाते में और साधारण बातों को अजीब के खाते में डालने' का हुनर भी हाथ लगता है, और कवि की इच्छाएं इसमें स्वप्न और संस्मरण भरती हैं। यहां देवी प्रसाद मिश्र की एक कविता-पंक्ति — 'कवि इच्छा और स्वप्न के संस्मरण हैं' — याद आती है। 'इच्छाएं' कुमार अम्बुज के रचना-लोक में एक प्रतिनिधि चरित्र की तरह उभरकर आती हैं, कथा-कविता वे दोनों में परस्परव्यापी हैं... जबकि वक्त कुछ इस कदर है कि 'इच्छाओं का गुम हो जाना सबसे मामूली बात है...' 
***
जब संसार की एक बहुत बड़ी आबादी के लिए गर्म दुपहरों में सब कुछ जलता हो। तब अगर अचानक बदली छा जाए, हवाएं कुछ तेज हो जाएं, वृक्षों से पत्ते झरने लगें और हल्की-हल्की बूंदे पडऩे लगें तो दृश्य के प्रति कृतज्ञ होना चाहिए। एक दूभर और डरावने कोलाहल के बीच यकायक परिवर्तन के लिए प्रकृति के प्रति कृतज्ञ होना चाहिए। कुछ इस तरह ही एक पाठ के पश्चात उस कविता के प्रभाव के प्रति कृतज्ञ होना चाहिए जिसकी बुनियाद में किसी परिवर्तन का स्वप्न हो। यहां अब इस प्रभाव को प्रस्तुत कर देना चाहिए कि कुमार अम्बुज की कविता-सृष्टि में इस प्रकार की कृतज्ञता से भरने वाली एक नहीं कई कविताएं हैं। प्रस्तुत आलेख के प्रारंभ में उल्लिखित 'स्वगत' को 'प्रकट' कर देने के बाद उनकी कविता-सृष्टि में जो समस्या नजर आती है, वह दरअसल हिंदी कविता के विकास और उसकी व्यावहारिक राजनीति में कोई समस्या है ही नहीं, बल्कि वह बहुत अभ्यासपूर्वक समकालीन काव्य-विमर्श में प्रगतिशील, प्रभावी और प्रासंगिक होने का प्रयास है। यूं इस निष्कर्ष के साथ यह आलेख असफल हो जाता है और कुमार अम्बुज से उनके ही गद्य के एक उद्धरण के साथ सार्वजनिक रूप से माफी चाहता है :   
''मैं अपने होने को अनुभव करता हूं और आस-पास के जीवन से, और घटनाओं से, दृश्यों से मेरा एक संबंध है। शायद यही कविता लिखने का मेरे पास अपना एक सच्चा कारण है। इस संसार में मैं जितनी भी जगह घेरता हूं, मेरी आवाज जितनी भी हवा को कंपित करती है और भाषा में जितनी भी जगह मैं ले पाता हूं, मैं इस न्यूनतम के प्रति भी विश्वास करता हूं और जानता हूं कि कोई किसी का स्थानापन्न नहीं होता। इसलिए जो भी, जैसा भी काम मैं अपनी जगह कर पा रहा हूं, वह कमतर हो सकता है, अपर्याप्त हो सकता है, लेकिन वह मेरे हिस्से का काम है। मैं जानता हूं मुझे अपने हिस्से का कण ढोना है, अपने हिस्से का शहद बनाना है। फिर यह सहज आदत और लत की तरह होता जाता है, जिद की तरह भी। और फिर असहायताबोध से मुक्त होने की तरह भी कि शायद मैं यही कुछ कर सकता हूं।''

संदर्भ :
प्रस्तुत आलेख में कुमार अम्बुज के अब तक प्रकाशित पांच कविता-संग्रहों — आधार प्रकाशन, पंचकूला से प्रकाशित 'किवाड़' (1992) और राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित 'क्रूरता' (1996), 'अनंतिम' (1998), 'अतिक्रमण' (2002), 'अमीरी रेखा' (2011) और भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली से प्रकाशित एक कहानी-संग्रह 'इच्छाएं' (2008) को आधार बनाया गया है। इससे अलग 'पहल' के 71वें अंक में प्रकाशित उनकी डायरी 'अपना संतूर बजाते हुए' और 'पहल' के ही 100वें अंक में प्रकाशित कविताओं के साथ-साथ तद्भव, कथादेश, वागर्थ, पाखी, दृश्यांतर, सदानीरा, पुस्तक वार्ता, उर्वर प्रदेश, शुक्रवार और पब्लिक एजेंडा में समय-समय पर प्रकाशित उनकी अब तक असंकलित कविताओं, कहानियों, डायरी, वक्तव्यों, टिप्पणियों और दखल प्रकाशन, ग्वालियर से प्रकाशित पुस्तिका 'मनुष्य का अवकाश' (2013) से भी पर्याप्त मदद ली गई है। शब्द-संख्या के लिहाज से जिन छोटी कविताओं का आलेख में उल्लेख है, वे 'पहल' के 81वें अंक और वेब पत्रिका 'प्रतिलिपि' में शाया हुईं। विष्णु खरे का उद्धरण राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित कुमार अम्बुज की 'प्रतिनिधि कविताएं' (2014) की भूमिका 'प्रतिबद्ध बहुआयामी सृजनशीलता' से साभार है। आलेख का अंतिम उद्धरण किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित कुमार अम्बुज की चुनी हुई कविताएं — 'कवि ने कहा' (2012) की भूमिका 'एक शैवाल, एक मछली, एक सीप' से उतारा गया है।


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