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अप्रैल - 2016

कुछ पंक्तियां

कुछ पंक्तियां

''कुछ पंक्तियां' की सामग्री साभार हमने, फ्रंटलाइन, इंडियन एक्सप्रेस, शुक्रवार, समकालीन तीसरी दुनिया, फारवर्ड प्रेस और सहारा (हस्तक्षेप) से ली हैं।




कुछ पंक्तियां

भूगर्भवेत्ता व्यस्त है
पत्थरों का विश्लेषण करने में
गाथाओं के मलबे में
वह खुद अपनी आंखें तलाश रहा है
यह दिखाने को
कि मैं सड़क पर फिरता?
एक दृष्टिहीन आवारा हूँ
जिसके पास सभ्यता का एक अक्षर तक नहीं।
जबकि अपने खुद के समय में मैं
अपने पेड़ रोपता हूं
मैं गाता हूँ अपना प्रेम

समय आया है कि मैं मृतकों के बदले शब्द लूं
समय आया है कि मैं
अपनी धरती और कोयल के वास्ते
अपने प्रेम को साबित करूं
क्योंकि ऐसा यह समय है कि
हथियार गिटार को लील जाता है
और आईने में मैं
लगातार लगातार धुंधलाता जा रहा हूं
जब से मेरी पीठ पर उगना शुरू किया है
एक पेड़ ने।
एक फिलिस्तीनी घाव की डायरी (महमूद दरवेश) का कवितांश

 


टैगोर का प्रखर इतिहास बोध
वास्तविक यह है कि 'राष्ट्रवाद एक बहुत आधुनिक किस्म की राजनीतिक परिघटना है, जिसका इतिहास चार-पांच शताब्दियों से अधिक पुराना नहीं है। यूरोपीय अनुभव को यदि सामने रखें, तो पाएंगे कि 'राष्ट्र' व 'राष्ट्रवाद' स्वयं में (एक) उच्चताबोध को आत्मसात करके विकसित हुआ विचार है। 'राष्ट्र' व 'राष्ट्रवाद' जैसे विचार के कारण ही यूरोपीय देशों को उपनिवेशवाद जैसी परियोजना के माध्यम से एशिया व अफ्रीका के देशों को 'सभ्य' बनाने की मुहिम को नैतिक आधार प्राप्त हुआ। नवजागरणकालीन भारतीय चिंतक व राजनेता इस मामले में बहुत सतर्क थे। यूरोपीय अनुभव से जो सबक मिले थे, उसके आधार पर 'भारतीय राष्ट्र' के लिए उन्होंने बिल्कुल भिन्न परिभाषा व मानकों का चुनाव किया था। इस संदर्भ में रवीन्द्रनाथ टैगोर भारतीय चिंतन के सर्वाधिक उज्जवल पक्ष का प्रतिनिधित्व करते हैं। टैगोर अपने मृत्यु समय तक 'राष्ट्रवाद' के विचार की अ-भारतीयता को रेखांकित करने के साथ इस विचार के साथ जुड़े प्रतिबद्धता के भाव के प्रति लगातार आगाह करते रहे थे। टैगोर प्रथम विश्वयुद्ध के साक्षी रहे और द्वितीय विश्वयुद्ध उनके लिए मरणांतक आघात था। मनुष्यता की इतनी भयावह क्षति के मूल कारण को टैगोर ने बिल्कुल सही रूप में रेखांकित किया था, 'पाश्चात्य देशों ने एक दिन जिस मूसल का निर्माण किया था, वही आज यूरोप का सिर कुचलने के लिए प्रस्तुत है। आज यह दशा है कि हमें संदेह होता है, यूरोपीय सभ्यता कल तक टिकेगी नहीं। जिसे वे पैट्रिआटिज्म कहते हैं, उसी पैट्रिआटिज्म से उनका विनाश होगा।' यदि हिटलर और उनके 'जर्मन राष्ट्र' के बारे में किसी को जरा सी भी जानकारी होगी तो वह टैगोर के प्रति अनिवार्य रूप से नतमस्तक होगा। गांधी से लेकर अंबेडकर तक स्वाधीनतापूर्व भारत के जितने भी नेता थे, उन्होंने कवि-गुरु की चेतावनियों को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से हमेशा याद रखा। यही कारण है कि इस दौर में हम 'हिंदू राष्ट्रवाद' और 'मुस्लिम राष्ट्रवाद' जैसी श्रेणियों की मौजूदगी बिल्कुल हाशिये पर देखते हैं; और इस तरह की श्रेणियों की नियति प्रतिक्रियावादी विचार बन जाने की रही। स्वतंत्रतापूर्व भारतीय राष्ट्रवाद को परिभाषित करने के लिए हमेशा से एक बहुत उदारवादी दृष्टिकोण अपनाया गया; और वैश्विक इतिहास में यह सोवियत रूस के बाद दूसरा अनुभव था, जहां बहुलतावाद को प्राथमिक शर्त माना गया। स्वयं टैगोर ने इसके लिए सैद्धांतिक औजार उपलब्ध कराए थे।
जीतेन्द्र गुप्ता
नौजवान विचारक और आलोचक, गुवाहाटी


राष्ट्रवादी कहलाने के लिए जरूरी है....
इसलिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि जो भी लोग स्वयं को 'राष्ट्रवादी करार दे रहे हैं, वे अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करते लोगों के प्रति प्रतिबद्धता दिखाएं। ऐसा देश जहां के 100 परिवार राष्ट्रीय संपत्ति का 52 प्रतिशत से ज्यादा हिस्से पर काबिज हैं, जहां सार्वजनिक बैंक निष्पादन परिसंपत्तियों की समस्या से जूझ रहे हैं (15 सितंबर, 2015 तक जनता पर सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का 3.42 लाख करोड़ रुपया बकाया था जिसे वसूला नहीं सकना रहा), जहां कामकाजी आबादी का 93 प्रतिशत हिस्सा ऐसा है, जिसे दो जून की रोटी के लिए हर दिन 10-14 घंटे खटना पड़ता है, और जहां सरकारी कर्मचारी के लिए न्यूनतम वेतन प्रति माह 18 हजार रुपये नियत है, तो निजी क्षेत्र में मात्र छह हजार रुपये। आखिर, क्या हमें महिलाओं और बच्चों के कुपोषण, ठहरी आर्थिक वृद्धि वगैरह पर गुस्सा नहीं आता जिससे अभी भी आबादी का 30 प्रतिशत से ज्यादा हिस्सा प्रभावित है? हमें कहीं गहरे विभाजित समाज की लडख़ड़ाती तस्वीर देखने को मिल रही है।
आर.एस.एस. के उपद्रवियों के विपरीत वामपंथी और खासकर नक्सली/माओवादी भारत के लोगों के प्रति समर्पित हैं। उनकी प्रतिबद्धता उन तमाम लोगों के लिए है, जो दबे-कुचले और शोषित हैं। वे किसी सूरत में भारत की टूट या विभाजन नहीं चाहते। आर.एस.एस. वालों की भांति नहीं सोचते जो धार्मिक आधार पर लोगों को बांटने में जुटे हैं। नक्सली/माओवादी चाहते हैं कि समाज का कायाकल्प हो। वे जाति उन्मूलन की गरज से सामाजिक सुधार के हिमायती हैं। कहना न होगा कि जाति व्यवस्था हमारे इस दौर में भी अभिशाप बनी हुई है। वे चाहते हैं कि भारतीय अपने उन बंधनों से मुक्त हों जो उन्हें जकड़े हुए हैं। यह कोई चमक-दमक वाला मुद्दा या पैसे देकर पेज तीन पर छपवाई गई कोई खबर नहीं है, बल्कि यह ऐसा उपक्रम है जिसके लिए कड़ी मेहनत की दरकार है, पूरे धैर्य की जरूरत होती है। सर्वाधिक शोषित या दबे-कुचले लोगों, कामगार, दलितों, आदिवासियों, अल्संख्यकों, महिलाओं के बीच काम करने और उन्हें संगठित करके अपनी मुक्ति के लिए संघर्ष करने को प्रेरित करना कोई आसान काम नहीं हैं। इस लिहाज से वे सबसे जुदा हैं। उनसे तो पूरी तरह जो स्वयं को 'राष्ट्रवादी' घोषित किए हुए हैं।
गौतम नवलखा
प्रसिद्ध विचारक



नेशन के जो मायने हैं
भारत में उभरा राष्ट्रवाद अद्वितीय था, ऐसा जो विश्व में पहले नहीं देखा गया था। यह लोकतांत्रिक और समानतावादी राष्ट्रवाद था, जो यूरोप के कारोबार बढ़ाने वाले राष्ट्रवाद के उलट था। यकीनन इस प्रकार के लोकतांत्रिक राष्ट्रवाद की सफलता के लिए आवश्यक है कि इसमें जनभागीदारी ज्यादा से ज्यादा हो। जब गांधी ने अपने अंतिम दिनों में देश के विभाजन के उन दिनों में कांग्रेस नेताओं की तमाम शंकाओं के बीच लगातार जोर देकर कहा कि भारत को पाकिस्तान को देय उसकी समूची धनराशि का भुगतान कर देना चाहिए तो वह 'राष्ट्र-विरोधी' तो नहीं ही थे। वह औपनिवेशिक-संघर्ष से उपजे लोकतांत्रिक 'राष्ट्रवाद' के तकाजों की ही पुष्टि कर रहे थे। इस प्रकार के राष्ट्रवाद के केंद्र में मतभेद की स्थिति में सहिष्णुता, सामंजस्य और बातचीत जैसी बातें हैं, जिन्हें पूरा किये जाने की जरूरत रहती है। ऐसा नहीं होना चाहिए कि लोगों की आवाज को बर्बरता के साथ दबा दिये जाए। उन पर आधिपत्य थोपा जाए। इस राष्ट्रवाद में इस बात की दरकार है कि जब देश के कुछ खास हिस्से में भारत-विरोधी नारे लगने लगें, लेकिन कोई आतंकी घटना या हिंसा या हिंसा के लिए उकसावा न हो, तो इसे एक ऐसा अवसर माना जाना चाहिए कि हालात की समीक्षा की जाए। विश्लेषण किया जाए कि गड़बड़ क्या हो गई है। इसी से जो विरोधाभास होंगे उन्हें दूर किया जा सकेगा। ऐसा तो कतई नहीं किया जाना चाहिए कि इस प्रकार की घटनाओं के लिए देशद्रोह का कानून थोप दिया जाए जो हमें औपनिवेशिक काल से विरासत में मिला है।
प्रभात पटनायक प्रख्यात मार्क्सवादी


''राजकीय हिंसा को खत्म करने के लिए, केवल एक चीज की जरूरत हैं लोगो को बस इतना समझ आ जाए कि देशभक्ति की भावना, जो कि हिंसा के औजार की इकलौती समर्थक है, अपने आप में आदिम, हानिकारक और बुरी भावना है और इन सब से ऊपर वह एक अनैतिक भावना है।''
लेव तोलस्तॉय
महान रुसी लेखक


मुझे गलत न समझिएगा। मैं उमर को उसकी राजनीति या विचारधारा के कारण अपना नहीं कह रहा हूं। वो मेरा जबरदस्त विरोध करेगा, मेरे संशोधनकारी विचारों पर ताने मारेगा और लोकतंत्र से जुड़ी मेरी भोली उम्मीदों पर हँसेगा। मुझे बताया गया है कि वो एक धुर-माओवादी है। मैं एक भगोड़ा कम्युनिस्ट हूं। एक संशोधनवादी हूं। एक संसदीय दल का पूर्व कार्डधारक। मैं उसे उसके शाश्वत-विद्रोही के कारण स्वीकार करूंगा। विद्रोह करना अपनी इंसानियत की पड़ताल होती है। वो एक विद्रोही ही होता है जो मानवता को नया रूप देता है, उसे जंग लगने से बचाता है।
''विद्रोही क्या होता है? एक इंसान जो 'ना' कहता है, लेकिन उसके इन्कार में नामंजूरी नहीं होती। विद्रोह के अपने पहले क्षण से वो हां कहने वाला इंसान भी है'' अल्बेयर कामू ने कहा था। विद्रोही में गुस्सा होता है असंतोष नहीं, वो व्यक्तिगत अभाव की भावना से ग्रस्त नहीं होता। असंतोष से ईष्र्या उपजती है - वो ईष्र्या जो तब होती है जब कोई यह सोचता है कि दूसरे के पास ऐसा कुछ है जो उसके पास नहीं है। विद्रोही की भावनाओं में ईष्र्या और असंतोष नहीं दर्द और पीड़ा होती है। विद्रोही में 'दूसरों' से एका कायम करने की क्षमता होती है, वह उनकी पीड़ा में डूबकर खुद पीडि़त होता है। वह आंसुओं की नदी में तैर कर अपनी सलीब को वृहत कर लेता है। लेकिन उसमें कटुता नहीं होती क्योंकि वह स्वार्थी नहीं होता, वह व्यक्तिगत अभाव की भावना से प्रेरित नहीं होता है।
उमर खालिद मेरा बेटा है
अपूर्वानंद (इंडियन एक्सप्रेस)
आलोचना के संपादक,
दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक
जेएनयू, फासीवाद, मधेस और काठमांडो

 


भारत में बड़े कारपोरेट घरानों के चहेते नरेन्द्र मोदी और उनकी भाजपा भी हिंदुत्व की बुनियाद पर खड़े उग्र राष्ट्रवाद को प्रोत्साहन देते हुए भारतीय पूंजी के विस्तार पर अपना ध्यान केन्द्रित कर रही है। इसी संकट की झलक आज भारतीय समाज में दिखाई दे रही है जहां श्रमजीवी वर्ग के पक्ष में, हाशिए पर पड़े आदिवासियों और अल्पसंख्यकों के पक्ष में आवाज उठाने वालों के विरुद्ध सुनियोजित ढंग से दमन का अभियान जारी है। ऐसा करने का मुख्य मकसद अपने ही देश में पूंजीपति वर्ग के लिए ऐसा वातावरण तैयार करना है जहां वह निर्बाध ढंग से मुनाफा कमा सके और यह तभी हो सकता है जब श्रम का शोषण हो तथा हाशिये पर पड़े लोगों की ओर संकट को खिसकाया जा सके। प्रकृति के अत्यंत दोहन ने भी इस स्थिति को गंभीर बना दिया है। पूंजीवाद के संकट को श्रमजीवी वर्ग की ओर धकेलने के काम में जो भी बाधक होगा उस पर फासीवाद राजनीतिक तौर पर हमला करेगा। जे.एन.यू. में घटी घटना से पूर्व दक्षिण भारत में एक दलित विद्यार्थी को आत्महत्या के लिए विवश किया जाना और पुणे में सिनेमा तथा कला अध्ययन करने वाले एक संस्थान में जो घटनाएं हुई हैं उनमें इस परिदृश्य का उद्घाटन हुआ है। हमारे यहां भी इसी तरह की आग फैलने की आशंका है।
झलक सुबेदी, नेपाली लेखक



ग्राम्शी, इटली का फासीवाद और हमारे लिए सबक
भारत की अनोखी ऐतिहासिक तथा सामाजिक परिस्थितियों में पैदा होने वाला फासीवाद भी, एक अनोखे ढंग से भारतीय रूप ग्रहण करेगा। बहरहाल, इस अनोखेपन को भी एक ऐसे ठोस राष्ट्रीय अनुभव के रूप में, जो कि सब कुछ के बावजूद विश्व-ऐतिहासिक शक्तियों के अतीत के तथा वर्तमान आंदोलन के साथ जुड़ा हुआ रहता है, द्वंद्वात्मक ढंग से समझने की जरूरत है... भारत में फासीवादी प्रवृत्ति का मौजूदा उभार, मुख्यत: अंदरूनी समस्याओं से पैदा हुआ है। लेकिन, इसके बावजूद यह एक विश्वव्यापी रूझान का और खास तौर पर यूरोप में व्याप्त रुझान का भी हिस्सा है।
एजाज़ अहमद
विश्वविख्यात विचारक

जम्मू कश्मीर को संबोधित इस मार्मिक कविता के बैनर से ही 9 फरवरी 2016 के एक गंभीर विमर्श की शुरुआत जेएनयू में हुई

एक बार फिर लौटा हूँ वापस इस देश में
एक मीनार ज़मींदोज़ हो चुकी है
कोई डुबोता है मिट्टी के दीये में बाती
चढ़ता है स्मारक की सीढिय़ाँ
पढ़ता ग्रहों पर खुदे संदेशे
चिट्ठियों के ढेर में खारिज करती है
उसकी उँगलियाँ वे टिकिट
जिसके पते खो चुके हैं
हर घर दफन या खाली
खाली? कि जाने कितने ही कर गए पलायन
या चले गए मैदानों की शरण
जहाँ वे कर सकेंगे इच्छा
उन अंतिम ओस की बूँदों की
जो बदल सके पहाड़ों को काँच में
कि वे देख सकें हमें आर पार
कि वे देश सकें हमें उन्माद में भर कर
दफनाते हुए उन घरों को
कि रक्षा की जा सके उनकी
उस आग से
ठीक वैसे ही जैसे
गुफा की दीवारें बचाती हैं गुफा की आग
हम भीतर हैं उस आग के
ढूँढ़ते हुए अँधेरे
सड़क पर पड़ा हुआ पोस्ट कार्ड कहता है
मैं हो जाना चाहता हूँ वह
जो बहाता है लहू
तुम्हारे हाथ डुबोने के लिए
या मैं छोड़ दूंगा अपने हाथों को ठंड में
कि जब तक बारिशें बदल नहीं जातीं स्याही में
और मेरी दर्द भरी उँगलियाँ बदल जाती हैं उस मोहर में
जो रात भर खारिज करती है टिकिटों को
एक पागल पथ प्रदर्शक!
गुमे हुए लोग इस तरह से कहते हैं
वे छा जाते हैं हम देश में साए की मानिंद
जो बदल चुका है राख में
प्रार्थनारत है प्रेत हृदय
कि वह जीवित हो
मैं लौटा हूँ बारिश में उसे ढूँढऩे के लिए
यह जानने के लिए कि क्यों कभी नहीं लिखा उसने
आगा शाहिद अली की कविता 'द कंट्री विदाउट अ पोस्ट ऑफिस' से (1997)
अनुवाद : बाबुषा कोहली


भारत के राष्ट्रपति के नाम लिखे प्रसिद्ध लेखिका कृष्णा सोबती के एक सार्वजनिक पत्र का अंतिम अंश

महामहिम, भारत देश के बहुजातीय, बहुधर्मी, बहुभाषी समाजों की अस्मिता को किसी संकीर्ण सांस्कृतिक विचारधारा से नत्थी करना सेहतमंद पक्षधरता का प्रतीक नहीं।
जिस वैचारिक नियंत्रण की यह भूमिका है, वह हमारे देश की उभरती पीढिय़ों की लोकतांत्रिक अवधारणाओं और विश्वासों के विपरीत है। महामहिम, लोकतंत्र के नाम पर ही अगर विश्वविद्यालय में लोकधर्म का अंग भंग होगा तो यह नागरिक समाज की लोकतांत्रिक आस्था को भी घायल करेगा और यह संकीर्णता देश की बौद्धिक प्रतिभा और ऊर्जा का भी ह्रस कर देगी। आज हम जो भी लगातार सुन पढ़ रहे है, वह लोकतांत्रिक मूल्यों के विपरीत है। हम लाखों लाख नागरिक राष्ट्र के भविष्य के लिये चिंतित है।
आपकी सेवा में
भारत के नागरिक समाज की एक प्राचीन सदस्य
कृष्णा सोबती

उसे यह फिक्र है हरदम नया तर्जे-जफा क्या है,
हमें यह शौक है देखें सितम की इंतहा क्या है।
दहर से क्यों खफा रहें चर्ख का क्यों गिला करें,
सारा जहां अदू सही, आओ मुकाबला करें।
कोई दम का मेहमां हूं ऐ अहले-महफिल,
चरागे-सहर हूं बुझा चाहता हूं
हवा में रहेगी मेरे ख्याल की बिजली,
ये मुश्ते-खाक है फानी, रहे रहे न रहे।

- शहीदे आज़म भगतसिंह द्वार
अपने भाई कुलतार सिंह को लिखे अंतिम पत्र से


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