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अप्रैल - 2016

प्रकाशकीय

ज्ञानरंजन

हमारे सुपरिचित पाठकों के लाड़ले लेखक जितेन्द्र भाटिया की नयी सिरीज इस अंक में शुरू नहीं हो सकी है। जितेन्द्र म्यांमार की यात्रा पर गये थे, वहाँ वे गंभीर रूप से बीमार पड़ गये, पहल के लिए अधूरा लिखा रह गया, अब बैंगलुरु में अपना इलाज करवाते जयपुर वापस लौटे हैं। हम पाठकों को आश्वस्त करते हैं कि वे अंक-104 में आपसे मिलेंगे।
सुबोध शुक्ला इलाहाबाद की उपज है। इन दिनों अमेरिका और भारत के बीच आवाजाही होती है, गंभीर अकादमिक व्यस्तताओं में रहते हैं। 'पहल' के लिए उत्तर आधुनिकता के प्रसंग में एक सिरीज इसी अंक से शुरू की है जो जारी रहेगी।
एक महत्त्वपूर्ण सूचना पाठकों को देते हुए हमें खुशी हो रही है कि एक बड़े मार्क्सवादी विचारक और लेखक के रूप में अपनी जगह बना लेने वाले विनोद शाही (जिन्होंने पूर्व में पहल में अप्रतिम लेखन किया और जो यह मानते हैं कि हिन्दी में पहल ने फ्रेंकफर्ट स्कूल जैसी भूमिका निभाई है), की एक नई सिरीज होनी है। पाठक जानते हैं कि 2016 के मध्य में गजानन माधव मुक्तिबोध की जन्मशताब्दी शुरू होने वाली है। विनोद शाही हमारे पाठकों के लिये जो स्तंभ शुरू कर रहे हैं उसका शीर्षक है ''भूरी खाक़ धूल में दबी चिंगारियां''। इसके अन्तर्गत पहला लेख होगा - ''धर्म, ईश्वर और वैश्विक आतंकवाद''। प्रसिद्ध आलोचक रविभूषण की सिरीज 'नामवर सिंह की कहानी आलोचना' भी दो किश्तों के बाद बाधित थी। अब पाठक अगले अंक में उनका लेख ''मलयज की आलोचना'' पढ़ सकेंगे।
लेखकों से आग्रह है कि वे संपादकों से संवाद कर के ही रचनाएं भेजें। रचनाएँ लंबी न हों यह ध्यान रखें। नये लोगों के लिए 'पहल' में सर्वाधिक स्पेस है पर इस स्पेस को उन्हें प्राप्त करना होगा। पहल में बुक रिव्यू अभी शुरू नहीं हुई है पर क़िताबों पर लेख प्रकाशित होंगे। हम पुस्तक चयन करते हैं। जैसे आगामी अंक में भालचंद्र नेमाड़े के 'हिन्दू' उपन्यास पर और स्व. नरेन्द्र दाभोलकर के अंधविश्वास उन्मूलन के तीन खण्डों पर विवेचना आयेगी।
एक अच्छी ख़बर हम आपको यह देना चाहते हैं कि 'पहल' के पिछले सभी मूल्यवान अंकों को क़िताब की शक्ल में लाने की योजना पूरी हो चुकी है, अब क्रमवार ये अंक पुस्तकाकार आयेंगे। इस योजना को साकार करने में वाणी प्रकाशन का हमें मैत्रीपूर्ण सहयोग मिल रहा है। 'पहल' के इन अंकों की रायल्टी और पुरस्कार सारा कुछ इसके लेखकों को भेजा जायेगा। पहल इसमें एक भी पाई नहीं लेगी, क्योंकि 'पहल' के निर्माण में लेखकों की अमूल्य भागीदारी का कोई पारिश्रमिक हमने उन्हें नहीं दिया था। पहली क़िताब पाकिस्तानी शायद अफज़ाल अहमद की शायरी होगी जो 'पहल' का 45 वां अंक था। पाठकों को यकीकन प्रसन्नता होगी कि अफजाल अहमद से हमारा नवीनतम सम्पर्क बना हुआ है और वे प्रस्तावित क़िताब को और अधिक समृद्ध करने में हमारी मदद कर रहे हैं।
अंत में, पाठकों, हम पहल का शुल्क समाप्त होने की सूचना नहीं दे सकते। हमारे पास बहुत सीमित साधन हैं। निवेदन है कि 'पहल' को जारी रखने के लिये अपना आर्थिक सहयोग अबाध करते रहें। पाठक सदस्यता राशि 'पहल' के नाम धनादेश या चेक से भेज सकते हैं। ध्यान रहे कि पहल एक न्यूनतम व्यापार भी नहीं है।


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