मुखपृष्ठ पिछले अंक मिर्ज़ा हादी रुस्वा
जनवरी 2016

मिर्ज़ा हादी रुस्वा

राजकुमार केसवानी

पहल विशेष/शख्शियत

 






'' ऐ बारे-इल्लाहा! ज़बान में असर दे। अपने साइल (फ़क़ीर) का मुंह मोतियों से भर दे। सहर बयानी अता कर, सैफ़ ज़बानी अता कर। अगले साल एक मसनवी सुना चुका हूं, नौबहार का समां दिखा चुका हूं। इम्साल (इस साल) कुछ और ही धुन समाई है, एक नई बात दिल में आई है। जी चाहता है कह लैला-मजनू के अफ़साने को मुरक़्क़ा (तस्वीर)  बनाऊं। नज्द (अरब का इलाका) के कूच-ओ-बाज़ार, दश्त-ओ-कुहसार के नक्शे खेंचूं। हुस्न-ओ-इश्क़ की ख़याली तस्वीरें आंखों से दिखाऊं। नाज़रीन के दिल से आह निकले, ज़बान से वाह निकले।''
मिर्ज़ा मुहम्मद हादी रुस्वा की जीवन कथा शुरू करने से पहले न जाने क्यों महसूस हुआ कि यह सिलसिला-ए-बयान उन्हीं की लिखी इस दुआ से किया जाए। यह दुआ उन्होने मशहूर-ए-ज़माना, इश्क़ का अफ़साना 'लैला मजनू' को ड्रामाई शक्ल में पेश करते हुए प्रस्तावना के रूप में दर्ज किया है।
असल में मिर्ज़ा मुहम्मद हादी के किरदार और उनके अदबी-गैर अदबी कारनामों की बात करने का मतलब होता है इन्द्र धनुष के तिलिस्मी रंगों को तक़्सीम करके  इक-इक रंग को पहचानने और उनकी ख़ुसूसियात बयान करने की जुर्रत करना। ऐसी जोख़िम भरी कोशिश में मिर्ज़ा जी की दुआ काफ़ी मददगार हो सकती है।
मिर्ज़ा मुहम्मद हादी रुस्वा की आम पहचान उनके मशहूर-ए-ज़माना अफ़साना 'उमराव जान 'अदा' ' के साथ है। इस एक अफ़साने ने मिर्ज़ा को दुनिया के बेशुमार मुल्कों और अनगिनत ज़बानों के जानने वालों तक पहुंचाया है। यह बात और है कि उनकी लिखी हुई तमाम किताबों की तादाद कई दर्जन बन जाती है। इस गिनती में कुछ अफ़साना, कुछ शायरी, कुछ ड्रामा, कुछ जुर्म, कुछ तिल्सिम की दास्तानें शामिल हैं तो इनके साथ ही साथ फ़लसफ़ा भी मौजूद है।
मिर्ज़ा हादी रुस्वा की कई सिम्तों वाली तख़लीक़ी सलाहियत के पस मंज़र में मिर्ज़ा के ख़ानदान और उनके हालाते ज़िंदगी का बेहद अहम रोल है। मिर्ज़ा जी के पुरखे ईरान के एक निहायत ख़ूबसूरत, दिलकश इलाके माज़ंदरां से हिंदुस्तान आए थे, इसलिए इन्हें माज़ंदरानी भी कहा जाता था। ईरान के इस इलाके को इंसानी वजूद की बेहद पुरानी बस्तियों में से गिना जाता है।
उनीसवीं सदी के बेहद मक़बूल रिसाले 'अवध पंच' के मुदीर मुमताज़ हुसैन उस्मानी, मिर्ज़ा मुहम्मद हादी के बेहद करीबी दोस्तों में से थे। उन्होने इस बारे में बड़ा तफ्सीली बयान अपने एक मज़मून 'सीरत-ए-मिर्ज़ा' में दर्ज किया है।
''... मिर्ज़ा के जद आला (पुरखे) मिर्ज़ा रशीद बेग (आगा रशीद बेग) ईरान से दहली आए और शाही फ़ौज में एक मुअज़िज़ ओहदे पर मुक़र्रर हुए। दहली पर जब अदबार मुस्सलत (बुरा वक़्त) आया  तो उनके साहबज़ादे मिर्ज़ा ज़ुल्फिकार बेग तर्क वतन करके अवध के तोपख़ाना शाही में अजेटन (adjutant) मुक़र्रर हुए। अजेटन की गली बहुत मशहूर थी। उनके साहबज़ादे मिर्ज़ा आग़ा वली भी सिपाही थे और फ़ौज ही में मुलाज़िम थे। लेकिन उन्हें उलूम (इल्म) से रग़बत (लगाव) ख़ास थी। चुनांचे उन्होने अपने साहबज़ादे मिर्ज़ा आग़ा मुहम्मद तक़ी मरहूम (मिर्ज़ा हादी के वालिद) को ब-हस्बे रिवाज ज़माना फ़ारसी - अरबी ज़बान और बाज़ उलूम अक़लिया की तालीम दिलवाई। उन्हें रियाज़ी (गणित) का बहुत शौक़ था। चंद औराक़ (पेज) उनके लिखे हुए राक़िम अल-हरूफ़ (लेखक) के पास अब तक महफ़ूज़ हैं।
मिर्ज़ा आग़ा मुहम्मद तक़ी मरहूम ने फ़नूने-जंग तो सीख ली थी मगर इल्मी तवग़ुल-व-इश्तग़ाल (इल्म की गहराई में डूब जाना)  की वजह से कोई फ़ौजी ओहदा क़बूल नहीं किया। इनकी शादी नवाब अहमद अली ख़ान उर्फ़ आग़ा शेर की साहबज़ादी से हुई जो कि नवाब सैयद हुसैन ख़ान तबातबाई के अक़बा (ख़ानदान) से थे।'' (पुस्तक - मिर्ज़ा रुस्वा के तनक़ीदी मरासलात, इदारिया-ए-तसनीफ़, अलीगढ़ - 1961)
मिर्ज़ा आग़ा मुहम्मद तक़ी लखनऊ के रईसों में गिने जाते थे। उन्होने अपने इल्मी सफ़र के दौरान रियाज़ी (गणित) और नुजूम (ज्योतिष) में माहिरत हासिल कर ली थी। फ़ारसी अरबी के भी आलिम थे। 1857 में उनके यहां जब मिर्ज़ा मुहम्मद हादी ('रुस्वा' उनके नाम के साथ बहुत बाद में जुड़ता है लेकिन हम पहचान की सहूलियत की ख़ातिर उन्हें 'रुस्वा' ही कहेंगे) का जन्म हुआ तो बड़ी धूम-धाम से बेटे की आमद का जश्न मनाया। बेटे को वो अपनी ही तरह इल्म की राह पर ले जाने पर आमादा थे, लिहाज़ा उन्होने ख़ुद ही उसे शुरूआती तालीम दी और साथ ही रियाज़ी और इल्मे-नुजूम (ज्योतिष) का हुनर भी सिखाना शुरू किया।
लेकिन यह सिलसिला बहुत दूर तक न जा सका। पहले तो रुस्वा के सर से मां का साया उठ गया और कुछ अरसे बाद, जब वो अभी सोलह बरस के ही थे, उनके वालिद मिर्ज़ा आग़ा मुहम्मद तक़ी भी चल बसे। मिर्ज़ा तक़ी के भाई उनसे भी पहले गुज़र चुके थे, ऐसे में रुस्वा कच्ची उम्र में ही तन्हा रह गए।
हालात की तब्दीली की बदौलत रुस्वा की परवरिश की ज़िम्मेदारी उनके मामू और उनकी ख़ाला के हाथ लग गई, जो नवाबी ख़ानदान से होने के बावजूद निहायत ख़सीस किरदार के लोग थे। दरअसल रुस्वा की वालिदा को शादी के वक़्त ढेर सारी ज़ेवर,नग़दी और जायदाद बतौर हिस्सा मिली थी। लेकिन जायदाद में शामिल गांव उनके और उनकी बहन (रुस्वा की ख़ाला) के साझे में थे।
रुस्वा की कमसिनी और यतीमी हालत का बेजा फ़ायदा उठाकर उनके मामू और ख़ाला ने परवरिश की आड़ में धीरे-धीरे सारा माल-असबाब हड़प लिया। रुस्वा के पास आख़िर में बस चंद मकानात ही रह गए, जिनमे से एक को उन्होने अपनी रिहाइशगाह बनाया और बाकी मकान किराए पर चढ़ाकर अपने गुज़र-बसर के लिए ज़ारिया-ए-माश बनाने की कोशिश की।
मगर किराए की रकम गुज़र को काफ़ी न थी। ऐसे ही वक़्तों में रुस्वा के मरहूम वालिद के कुच्छ दर्दमंद दोस्तों ने उन्हें  सहारा दिया। इन हमदर्दों में से एक थे मशहूर शायर और मर्सिया नवीस मिर्ज़ा सलामत अली 'दबीर', जो रुस्वा के शायरी के उस्ताद भी थे और दूसरे थे मुंशी हैदर बख़्श। यह हैदर बख़्श उर्फ़ हुसैन बख़्श एक बेहद अजीबो-ग़रीब लेकिन दिलचस्प किस्म के किरदार की तरह मंज़र पर नुमाया होते हैं। उनके बारे में मशहूर उर्दू लेखक इशरत रहमानी का एक बयान इस तरह मिलता है:
''मुंशी हैदर बख़्श उर्फ हुसैन बख़्श ख़ुशनवीस (केलीग्राफ़र) थे। आग़ा मुहम्मद तक़ी मरहूम के मुख़ि्लस दोस्त और मिर्ज़ा साहब (रुस्वा) के उस्ताद भी थे। उन्होने रुस्वा की सरपरस्ती की मगर चूंकि किसी करीबी अज़ीज़-बुज़ुर्ग का साया रुस्वा के सर पर नहीं था, रुस्वा लखनऊ की सुहब्बत में बालिग़ों जैसी ज़िंदगी बसर करने लगे। मुंशी हैदर बख़्श ने जब इनका यह हाल देखा तो फ़ैज़ाबाद के एक शरीफ़ ख़ानदान में उनकी शादी करा दी, जिससे उनकी बड़ी इस्लाह (सुधार) हुई।
उनकी बीबी निहायत नेक, सलीक़ामंद और बा-हौसला ख़ातून थीं। उन्होने मिर्ज़ा साहब को अंग्रेज़ी की तरफ़ रागिब किया और इसका नतीजा यह हुआ कि रुस्वा ने मुंशी का इम्तिहान पास करके मेट्रिक में कामयाबी हासिल की। लेकिन रुस्वा की किस्मत! वफ़ाशार और अलम दोस्त बेग़म भी चल बसीं। बीबी की मौत के बाद लखनऊ से बददिल होकर ख़ैर-आबाद कहा और रुड़की जाकर इंजीनीयरिंग कालेज में दाख़िल हो गए। रुड़की से ओवरसीयरी का इम्तिहान पास करके महकमा रेल में मुलाज़िमत इख्तियार की और बलूचिस्तान चले गए। कहते हैं कि कोयटा (क्वेटा) लाईन का सर्वे मिर्ज़ा साहब ने ही किया था।''
अब ज़रा इन हैदर बख़्श उर्फ़ हुसैन बख़्श साहब के बारे में एक और बयान रुस्वा साहब के दोस्त मुमताज़ हुसैन उस्मानी का भी सुन लें। इस बयान से इन बख़्श साहब के किरदार के कुछ दिलचस्प रंग तो सामने आते ही हैं साथ ही इंसानी फ़ितरत की तब से अब तक न बदलने वाली ख़सलतें भी दिखाई दे जाती हैं।
''... एक शेख़ साहब जिनका भला सा नाम था - हुसैन बख़्श या हैदर बख़्श - ये बहुत आला दर्जे के ख़ुशनवीस थे और ख़ुशनवीसी में जनाब मिर्ज़ा (रुस्वा) के उस्ताद थे। इसके साथ ही बेमिसल जालसाज़ भी थे। इन्होने दस-पंद्रह लाख के सरकारी स्टाम्प बनाए और बेचे। लुत्फ़ ये कि मामूली रंग और मूक़लम (चित्रकार की कूची) से यह काम होता था। न कोई मशीन थी न औज़ार थे। उन पर धूम-धामी मुक़दमा चला। मुंशी महंगा लाल स्टाम्प फ़रोश या ख़ज़ांची और ख़ुदा जाने कितने कलकता और लखनऊ के आदमियों ने इस मुक़दमे में सज़ा पाई। शेख जी ने पहले तो मिर्ज़ा को (जायदाद हड़प करने वाली)  ख़ाला के मुक़ाबले पर उतारा लेकिन जनाब को ये गवारा न हुआ तो कह दिया कि साहबज़ादे मेरे पास न आया करो, इसलिए कि एक न एक दिन मैं पकड़ा जाऊंगा। और मेरे साथियों पर भी आफ़त आएगी। अपनी उस्तानी से जितनी ज़रूरत हो उतना ख़र्च मांग लिया करो। मेरी कोई आल-औलाद नहीं। तुम्ही सब कुछ हो। जब तक मेरा क़ाबू चलेगा तुम्हें नंगा-भूखा न रखूंगा। उस्तानी जी नसबन कोई शरीफ़ज़ादी न थीं मगर अमलन बहुत ही वफ़ादार, शरीफ-अफआल थीं। दस रुपए मांगते तो बीस हवाले करतीं।
मकानों की आमदनी और उस आमदनी से वो शेख़ जी का दस्ते-ग़ैब (अदृश्य हाथ) दोनो मिलकर जनाब मिर्ज़ा के वास्ते काफ़ी हो गए। इस हालत को दो-तीन बरस गुज़रे थे कि अमल दस्ते-ग़ैब बातिल हो गया। यानी शेख़ जी जेल पहुंच गए और वहां से अदम आबाद की राह ली। अब मिर्ज़ा को बसर औकात में तंगी महसूस हुई। आबाई मकान एक-एक करके बिके।''
इन अजीबो-ग़रीब और नासाज़गार हालात से गुज़रते हुए भी रुस्वा ने अपने इल्मी सफ़र पर कभी आंच न आने दी। क्वेटा में रेल्वे की नौकरी के दौरान इल्मे-कीमिया (केमिस्ट्री) ने दिमाग़ को इस क़दर जकड़ लिया कि नौकरी छोड़-छाड़ कर वापस लखनऊ पहुंच गए। घर की चीज़ों को बेच-बाचकर इंग्लिस्तान से केमिस्ट्री की किताबें और तजुर्बे के सामान मंगवा लिए। इस इल्म की तह तक पहुंचने की कोशिश में अरबी ज़बान पर उबूर हासिल करने में लग गए।
इन्हीं तमाम फितरती कामों को अंजाम देने के लिए मिशन स्कूल में नौकरी भी कर ली। साथ ही प्राईवेट ट्यूशन भी देना शुरू कर दिया। रुस्वा के इन जुनूनी कारनामों का ज़िक्र जनाब तमक़ीन क़ाज़मी ने अपने एक मज़मून में निहायत तफ़सील के साथ किया है। क़ाज़मी साहब, वो शख़्स हैं जो हैदराबाद में रुस्वा के गुज़ारे हुए आख़िरी बरसों में उनके काफी करीब रहे। उनका यह मज़मून 'उर्दू अदब' के दिसम्बर 1952 के अंक में छपा था। उस वक़्त अलीगढ़ से (अब दिल्ली से) शाया होने वाले इस अज़ीम रिसाले के एडीटर आले अहमद सुरूर थे।
तमक़ीन साहब लिखते हैं; ''... वे एक लोहार के लड़के को पढ़ाने भी लगे। दिन भर स्कूल में पढ़ाते, शाम को लोहार के पास पहुंच जाते उसके लड़के को पढ़ाते और रात भर उसकी धौंकनी से काम लेते। और फिर घर पहुंच कर इम्तिहानात की तैयारी करते। इसी तरह प्राईवेट तौर पर इम्तिहानात देकर एफ.ए. और बी.ए पास कर लिया। और सेंटियल हाई स्कूल में मुलाज़िम हो गए। और 'इशराक़' नामी एक माहवार रिसाला जो फ़लसफ़ा और हैयत (खगोल विद्या) के मज़ामीन पर मुशतमिल होता था निकाला। उन्हीं दिनों क्रश्चियन कालेज खुला तो मिर्ज़ा साहब उसमे अरबी-फ़ारसी के प्रोफ़ेसर हो गए। और गल्र्स कालेज में भी लेक्चर देने लगे। जहां रात को तालीम होती थी। यह रातों के लेक्चर्स रंग लाए और मिर्ज़ा साहब एक एंग्लो इंडियन पर आशिक हो गए। इस आशिक़ी में अख़्तर शुमारी (तारे गिनना) और ''मसनवी उम्मीदो-बीम'' कही जो मिर्ज़ा का शाहकार है। इसी के साथ-साथ नुजूम और फ़लकियात का मुताला शुरू किया। ''ज़ीच-मिर्ज़ई'' (मिर्ज़ा की जंतरी) (देढ़ सौ जुज़) की तैयार की और अपने मज़ामीन अमरीका भेजकर पी.एच.डी और डी.एस.ओ की डिग्रियां लीं।'' 
इन तमाम बातों से अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है कि रुस्वा किस हद तक जुनूनी इंसान थे। अपनी इल्मी काबलियत को उरूज़ तक पहुंचाने के लिए ख़ुद को जिस्मानी तौर पर शदीद तक़लीफ़ पहुंचाने से भी उन्हें गुरेज़ न था। सौ-सवा सौ साल के फ़ासले पर बैठकर दिया गया मेरा बयान इस मामले में महज़ एक बयान होगा, लिहाज़ा इस जगह एक बार फिर मुमताज़ हुसैन उस्मानी साहब को ज़हमत देनी होगी। 
''जनाब मिर्ज़ा में एक लाजवाब आदत यह थी कि जिस बात की तरफ़ ज़रा भी तबीयत रजू हुई बस यह चाहते थे कि उसी वक़्त उस में कमाल भी हासिल हो जाए। कैसी भूख-प्यास, कैसा आराम, कैसा सोना। नींद न आने के लिए तरह-तरह तदबीरें करते थे। कड़कड़ाते जाड़ों में रात को दो बजे उठकर नहाते थे। माजून ब्रश (एक ख़ास किस्म का तिब्बी माजून) खा लेते थे, नौसादर और चूना मिलाकर सूंघते थे। शौक़ का ये आलम कि लम्हा भर आंख लगी और फिर घबराकर उठ बैठे। मुश्किल से मुश्किल मसला हो जब तक हल न कर लेते जगह से न हिलते।''
उन्नीसवीं सदी का वह दौर एक बड़ा तारीख़ी दौर था। मिर्ज़ा रुस्वा की पैदाइश का साल 1857 हिंदुस्तान की जंगे आज़ादी में अहम मोड़ था। समाजी उत्थल-पुत्थल के उस ज़माने में भी मिर्ज़ा रुस्वा अपनी ही धुन डूबे इल्म और अदब की ज़मीन में अपनी जड़ें ढूंढते रहे।
उर्दू अदब का यह वही दौर था जब हाली, अकबर इलाहाबादी, अल्लामा शिबली नोमानी, मुज़तर ख़ैराबादी, रतननाथ सरशार, अब्दुल हलीम शरर जैसे लोग अपने रंग बिखेर रहे थे। रुस्वा को शायरी का शौक लड़कपन से ही था। 'दबीर' की शागिर्दी का शर्फ़ भी हासिल था, लेकिन उनकी शायरी को बहुत ज्यादा तव्वजा न मिल सकी। बल्कि आलोचना ही ज्यादा हुई. 1875 में 'दबीर' की वफ़ात के बाद बेहतरी की गुंजाइश भी कम हो गई। इस सबके बावजूद मिर्ज़ा रुस्वा, जो 1899 में 'उमराव जान अदा' के छपने तक मिर्ज़ा मुहम्मद हादी के नाम से ही लिखते थे, बाकायदा शायरी करते रहे।
उनकी शायरी के कुछ नमूनो से उनके अदबी मायार का अंदाज़ा हो जाता है। मसलन यह ग़ज़ल।
ला-उबाली है तबीयत मेरी !
क़ैस से बढ़कर है वहशत मेरी
लायके रहम हूं क्या पूछते हो
आंख से देख लो हालत मेरी
वाह क्या ख़ूब मेरी इज़्ज़त की
इसी क़ाबिल थी मुहब्बत मेरी
ये तो कह दो कि बुराई क्या है
क्यूं न इस दर पे हो तुरबत मेरी
तुम पे मरता हूं ये सब जानते हैं
इसी बाइस से है शुहरत मेरी
अपनी तक़दीर पे शाकिर हूं मैं
तुमसे बेजा है शिकायत मेरी
याद है याद है अब तक 'मिर्ज़ा'
हश्र यानी शबे फ़ुरक़त मेरी
लेकिन एक बात ज़रूर काबिले-दाद है कि मज़हबी नज़रिए से मिर्ज़ा रुस्वा ने उस दौर में भी कठमुल्लों की तंग नज़री की धूल उड़ाने में कोई कसर न छोड़ी। उन्होने अपनी शायरी को इस काम के लिए बख़ूबी इस्तेमाल किया है। मुलाहिज़ा फ़रमाइये;
नीम मुल्ला से तो अज़हद डरना  (अज़हद - असीम)
उनकी तक़लीद न हरगिज़ करना  (तक़लीद - अनुसरण)
उनकी तश्ख़ीस है अज़बस के सक़ीम ( बीमार किरदार वाले)
मार ही डालेंगे ये नीम हकीम
ज़ाहिरा शराह पे वाजिब है अमल
ताकि बातिन में न आए कुछ ख़लल
ना कि बातिन हो तो बिल्कुल अबतर
और ज़ाहिर पे अमल हो यकसर
और यहां आकर तो मिर्ज़ा रुस्वा की बामानी शायरी हसीन लगने लगती है। मज़हब के ठेकेदारों और सौदागरों को इससे बेहतर किस तरह बयान किया जा सकता है।
न कियास उनका न अक्ल उनकी ठीक
फ़लसफ़ा कुफ्र है उनके नज़दीक
अहले तक़लीद से रग़बत है उन्हें
अहले तहक़ीक़ से नफ़रत है उन्हें
फ़लसफ़े से न हो उनको अनाद
दुश्मने अक्ल हैं ये अहले फ़साद
मिर्ज़ा जी की शायरी के सिलसिले में एक दिलचस्प और काबिले दर्ज बात यह भी है कि इसी शायरी ने जिसे हल्की शायरी मानकर आलोचकों ने नकार दिया, उसी की बदौलत ही मिर्ज़ा जी के हाथ उमराव जान जैसी दिलकश दास्तान हासिल हुई। याद रहे, नाविल 'उमराव जान अदा' की शुरूआत एक महफ़िले मुशायरा से होती है। इसी मुशायरे के दौरान मिर्ज़ा जी की मुलाक़ात उमराव जान से बताई गई है, जो कि दीगर बयानों से सही भी मालूम होती है।
यही वह अफसाना है जिसने मिर्ज़ा मुहम्मद हादी को 'रुस्वा' बना दिया। असल में मिर्ज़ा जी ने हक़ीक़ी उमराव जान की ज़िंदगी को अफ़साना बनाकर पेश करते हुए एहतियातन अपना असल नाम न देकर एक नया नाम 'रुस्वा' बरत लिया। हालांकि उन्होने अपना लिखा नाविल उमराव जान को पढऩे के लिए भेज ज़रूर दिया। नाविल में वह तमाम बातें जो उमराव ने मिर्जा को एक हमदर्द और भरोसे का दोस्त मानकर बांटी थी, उन बातों का इस तरह मंज़रे-आम पर आना बेहद नागवार गुज़रा। ज़रा जो ख़ुद को संभाला तो नाविल में मिर्ज़ा की ग़लतियां भी सुधारकर वापस भेज दिया। लेकिन उमराव के इंतक़ाम की आग बुझी न थी। उसने इस धोखे का क़रारा जवाब देने का दिल ही दिल एक अहद ले लिया। उसका यही अहदे इंतक़ाम एक जवाबी किताब की शक्ल में सामने आया, जिसका नाम था; 'जुनूने-इंतज़ार यानी फ़साना-ए-मिर्ज़ा रुस्वा।' रुस्वा की किताब जो आई और उसी के पीछे-पीछे उमराव की यह किताब भी आ गई।
यह 1899 का साल था जब यह दोनों किताबें आमने-सामने थीं। मिर्ज़ा रुस्वा का नाविल 'उमराव जान अदा' राय साहब गुलाब सिंह के प्रेस से छपकर बाहर आया। इस पहले एडीशन के कवर पर मौजूद इबारत इस तरह थी।
''वर्मा सीरीज़ नम्बर 3
हंस के कहता है मुस्सविर से वह ग़ारतगरे होश
जैसी सूरत है मेरी वैसी ही तस्वीर भी हो
उमराव जान 'अदा'
एक तवायफ़ की सवाख़ उमरी उसी की ज़बानी / जिसमे लखनऊ के तर्ज़े मुआशरत की हू-ब-हू तस्वीरें, सच्चे वाक़ियात और असली मक़ामात के बईना नक़्शे / हर शख्स और हर हालत के मुनासिब बोल-चाल, आला दर्जे का सुथरा मज़ाक़।  
मुअलिफ : आली जनाब मिर्ज़ा रुस्वा साहब बाइसमा अलक़ाबा , लखनवी
मतबूआ इदारा-ए-साहब मुंशी गुलाब सिंह एंड संज़ प्रेस लखनऊ
(कोने में) - रजिस्ट्री शुदा'' 

रुस्वा की किताब के बाज़ार में आने की देर थी कि उमराव जान ने भी तड़ाक से अपनी जवाबी मसनवी पेश कर दी। इस मसनवी को, जैसा कि पहले कहा जा चुका है 'जुनूने-इंतज़ार यानी फ़साना-ए-मिर्ज़ा रुस्वा', का नाम दिया था। इस किताब का दीबाचा उमराव जान ने बड़े दिलचस्प अंदाज़ और पूरी अदबी सलाहियत के साथ लिखा है।
यहां इसे पेश करने का एक और मक़सद यह भी है कि मिर्ज़ा हादी रुस्वा के हालाते-ज़िंदगी के बारे में काफ़ी बारीक चीज़ें भी दिखाई दे जाती हैं। देखिए।
''नाज़रीन, मिर्ज़ा रुस्वा साहब ने जो मेरी सर गुज़िश्त तहरीर की है वो ग़ालिबन आपकी नज़र से गुज़री होगी। ख़ैर, ये मैं अब नहीं कहती कि अच्छा किया या बुरा। मगर पहले से उसका इक़रार न था। इसीलिए किसी क़दर मलाल हुआ। अगर मुझे यह मालूम होता कि मेरी आवारगी का अफ़साना छापकर शाया किया जाएगा तो शायद मैं उसे बयान करने पर राज़ी न होती। वाकई मिर्ज़ा साहब का चकमा चल गया। लुत्फ़ यह है कि आप फ़रमाते हैं कि मैने तुझ पर एहसान किया। अगर दर-हक़ीक़त यह एहसान है तो मैं भी उनके साथ इसका एवज़ करती हूं।
दिशनाम दे के मुझको बहुत ख़ुश न होजिये
क्या कीजियेगा आप जो मेरी ज़बां खुली?
मिर्ज़ा रुस्वा साहब के हालात का दरयाफ़्त करना सहल न था। ये वो शख़्स हैं जो अपना नाम तक लोगों से छुपाते हैं (किताब में छद्म नाम 'रुस्वा' इस्तेमाल करने पर तंज़)। अब तो माशा आल्लाह, गुलदस्तों में ग़ज़लें भी शाया होने लगी हैं। रहते ऐसी जगह हैं जहां किसी की मुश्किल से रसाई हो सकती है। मैं सिर्फ़ एक मर्तबा आपके दौलतख़ाने पर हाज़िर होकर उसकी ज़ियारत से मुशर्रफ़ हो चुकी हूं। मगर उस वक़्त कि जब मुझे मालूम था कि आप घर पर नहीं तशरीफ़ रखते। बात ये थी कि जब से आपने मेरी सवाख़ उमरी शाया करने का कसद किया, मुझे भी कद हो गई कि आपके बाज़ इसरार से दुनिया को वाक़िफ कर दूं। इसके लिए मुझे ख़ास एहतिमाम करना पड़ा। आपका एक मुलाज़िमे ख़ास जिसके नामो-निशान से मैं मुतला नहीं कर सकती, मुझसे मुवाफिक़ हो गया। एक दिन आप एक दोस्त के घर पर मशायरे में तशरीफ़ रखते थे बंदी ने फ़ौरन गाड़ी किराया की और आपकी कोठी पर पहुंची। आपका आदमी जो मुझसे मिल गया था, उसने चप्पा-चप्पा मुझे दिखाया। इसी आदमी के ज़रिए से आपकी एक किताब जिसमे एक तस्वीर और बहुत से ख़ूतूत और एक नातमाम मसनवी 'नाला-ए-रुस्वा' मेरे हाथ आ गई। कुछ हालात बाज़ दोस्तों से मालूम हुए गरज़ कि इन वाक़यात को मैने बतौर ख़ुद लिख के छपवा लिया है। जिस दिन मिर्ज़ा साहब ने मेरी सवाख़ उमरी शाया की और एक जिल्द मेरे मुलाहिज़े के लिए भेजी उस दिन मैने इस मुख़्तसिर तहरीर की एक जिल्द उनकी ख़िदमत में रवाना की। यक़ीनन मिर्ज़ा साहब ख़ुश तो न हुए होंगे मगर क्या कर सकते हैं?
फिदविया
'उमराव जान अदा'
यकुम अप्रेल 1899 ईस्वी
ख़ूबसूरत हो नेक सीरत हो
और क्या चाहिये बशर के लिए
''मिर्ज़ा साहब की वजाहत और तलाक़त लिसानी में ग़ज़ब की दिल आवेज़ी है। जिस महफ़िल में बैठ जाते हैं औरत-मर्द सब उन्हीं की तरफ़ मुतविज्जे हो जाते हैं। जब यह बातें करते हैं तो लोग हमातन गोश होकर सुना करते हैं। कोई शख़्स कैसा ही ग़नग़ीन हो उनके पास दो घड़ी बैठे ग़म-ग़लत हो जाए। रोते आदमी को हंसा देना, उनकी एक बात है। ख़ुदा की दी हुई ज़िहानत पर तुर्रा-ए-इल्मियत और तजुर्बाकारी इन औसाफ़ ने उनके जोहर-ए-ज़ाती को और जिला दे दी है। तबीयत की मौज़ूमी, शौके शेर-ओ-सुख़न को हुस्न परस्ती के मज़ाक़ ने चमका दिया है। इन सब औसाफ के साथ मिज़ाज में किसी क़दर सनक है। बाज़ तबीबों की यह राय है कि दुश्मनो को जुनून के दौरे का ख़लल है। किसी को यह ख़याल है कि आपको परियों की तस्ख़ीर (वशीकरण) का शौक़ है। ग़रज़ कि कुछ न कुछ इसरार ज़रूर है।
मिर्ज़ा साहब के एक दिली दोस्त ने फरज़ कर लीजिए कि मैने आपके औसाफ़ मसनवी 'नाला-ए-रुस्वा' के वज़न पर मौज़ू किए हैं। वो यहां हवाला-ए-कलम किये जाते हैं।
इक मेरे यार महरबां रुस्वा
वहशी,आवारा ख़ानमां रुस्वा
मस्त-व-आशुफ़्ता हाल व आवारा
मुख़तसिर यह कि दिल फंसा है कहीं
दिले बेगाना आशना है कहीं
किसी क़ाफ़िर को प्यार करते हैं
दीन-ओ-ईमां निसार करते हैं
दोस्त हैं मेरे क्या कहूं उनको
सच तो यह कि है जुनूं उनको''
इसके बाद 43 शेर नसीहत में कहे गए हैं। जिनका मिर्ज़ा साहब की रुस्वाई से कोई तालुक़ नहीं है। फिर मिर्ज़ा के घर का नक्शा खेंचा गया है। मगर शुक्र है कि यह नसरी ख़ाक़ा है। जो नकिल किया जाता है।
उमराव का पूरा का पूरा बयान ज़ाहिर है इंतक़ाम की आग में सुलगते हुए एक इंसान का बयान है। हर लफ्ज़ में शोले छुपाकर किसी को जलाने की कोशिश साफ़ नज़र आती है। लेकिन इस सब के बावजूद एक बात बिला शक़ो-शुबहा कही जा सकती है कि उमराव के खेंचे गए ख़ाक़े और इलाके की मंज़रकशी में ज़बान का हुस्न भी मौजूद है। मसलन वह हिस्सा जिसमें वह रुस्वा के रिहाइशी इलाके को वहशताबाद का नाम देती है और फिर इस वहशताबाद के मनाज़िर बयान कर सचमुच एक 'आलमे-हू' की तस्वीर बना देती हैं। और इस आलमे-हू (सुनसान) में वो अपने हरीफ़ मिर्ज़ा रुस्वा को तन्हा बिठा देती हैं।
''मुझ से दीवाने का क्या आप पता पूछते हैं
वहशताबाद में है ख़ास सुकूनत मेरी
ये शेर गोया मैने मिर्ज़ा साहब की ज़बानी कहा है। वाकई आप जहां रहते हैं उसको वहशताबाद कहना चाहिये। लखनऊ से दो कोस के फ़ासले पर इस सड़क से करीब जो लोहे के पुल से नवाबगंज को जाती है एक बाग की मुख़्तसर चार दीवारी नज़र आती है। चारों तरफ़ कोसों तक मैदान है। कहीं आबादी का नामो-निशान नहीं। पहले इस सड़क पर मुसाफ़िरों की आमदो-रफ़्त थी मगर जब से इस तरफ़ रेल निकली बहुत कम लोग आते-जाते हैं। इस आलमे-हू में मिर्ज़ा साहब की सुकूनत है। यहां आप मय दो-तीन मुलाज़िमों के रहते हैं। इस बाग़ के वस्त में एक छोटी सी कोठी बहुत ख़ुशनुमा बनी हुई है। कोठी के सामने थोड़ी दूर पर एक पुख़्ता गोल चबूतरा है। उसके गिर्द चमनबंदी है। यह सुबह और सरे शाम बैठने की जगह है। बाग़ से उत्तर की तरफ़ के गोशे में एक जालीदार चोबी अहाता है। उसमें पत्थरों की पहाडिय़ां बनी हुई हैं। उस पर अजीबो-ग़रीब इक्साम के दरख़्त इस करीने से लगाए गए हैं कि गोया वो इन्हीं पत्थरों से ऊगे हुए मालूम होते हैं। उसके वस्त में एक संगे मरमर का हौज़ पानी से भरा हुआ है। चारों तरफ़ नालियां बहती हैं, यह अहाता सरकियों से छुपा हुआ है। गर्मियों में यहां बड़ी ख़ुनकी होती है। क्योंकि सक़्क़े  मुतावातिर पानी छिड़का करते हैं। मिर्ज़ा साहब दोपहर को अक्सर यहीं तशरीफ़ रखते हैं। फ़िक्र-ए-अशार के लिए यह मुकाम बहुत मुनासिब है।
कोठी अंदर से ख़ूब सजी हुई है। उसके एक कमरे में मिर्ज़ा साहब ख़ुद आराम करते हैं। बाकी कमरे मुखफ़िल रहते हैं। मसनवी 'नाला-ए-रुस्वा' में इस कोठी के हालात ख़ुद मिर्ज़ा साहब ने इस तरह नज़्म फ़रमाए हैं।
''वही कोठी मैं जिस में रहता हूं
सदमा-ए-इंतज़ार सहता हूं
एक साहब थे पहले उसमे मुक़ीम
साहिबे-इल्म और अक़ील व फ़हीम
शोक था उनको इल्मो-हिकमत से
ज़ोक था नुक़्ता-ए-हाए फितरत से
एक लड़की थी उनकी हूरे लक़ा
हुस्न में मेहरो-माह से भी सिवा
क्या कहूं तुझसे कैसी सूरत थी
ले ये तस्वीर ऐसी सूरत थी
देख तो किस बला की सूरत है
यही मेरी क़ज़ा की सूरत है
यही क़ातिल है जाने बिस्मिल की
यही जल्लाद है मेरे दिल की
ऐसी क़ाफिर नज़र न देखी थी
ऐसी बेदाद गर न देखी थी
इसी क़ाफ़िर अदा पे मरता हूं
देख इस दिलरुबा पे मरता हूं
तू न कह मेरा दिल तो काइल है
बख़ुदा चाहने के क़ाबिल है''
उमराव जान की तो यह ऐलानिया कोशिश थी कि इस जवाबी किताब के ज़रिए मिर्ज़ा हादी को हक़ीक़तन ही 'रुस्वा' किया जाए मगर यह हो न सका। सौ बरस के ऊपर हुए जाते हैं कि मिर्ज़ा रुस्वा की तसनीफ़ 'उमराव जान अदा' अब तक न जाने कितनी पीढिय़ों का दिल जीतती चली आती है पर उमराव जान की इंतक़ामी तहरीर 'जुनूने-इंतज़ार यानी फ़साना-ए-मिर्ज़ा रुस्वा' महज़ अदबी बहसों और तहरीरों में ज़िक्र तक महदूद रह गया है।
इतना कह चुकने के बाद यह कहना भी ऐन ईमान की बात होगी कि उमराव जान 'अदा' बज़ाते ख़ुद एक अच्छी शायरा थीं। '...फ़साना-ए-मिर्ज़ा रुस्वा' की शक्ल में मौजूद तहरीर इस बात की शाहिद हैं कि उनमें नस्र लिखने की भी ख़ासी सलाहियत थी। बहरहाल, वक़्त अपना फ़ैसला सुना चुका है और उमराव जान 'अदा' का दर्जा मिर्ज़ा रुस्वा के एक किरदार की हद तक महदूद होकर रह गया है।
उमराव जान की दास्तान 'लैला मजनू', शीरीं फ़रहाद' और 'अनारकली' की दास्तानों के बाद ऐसी दास्तान है जिस पर बार-बार फिल्में बनती हैं। 1958 से 2006 के बीच 'उमराव जान' को लेकर चार फिल्में बन चुकी हैं। 1958 में एक साथ दो फिल्में 'मेहंदी' और 'ज़िंदगी या तूफ़ान' बनीं। 23 साल बाद एक बार फ़िर मुज़फ़्फर अली ने 'उमराव जान' को पूरी ईमानदारी से पर्दे पर पेश किया। इस फिल्म में मुज़्ज़फर अली की हमदर्दी उमराव के साथ साफ़ दिखाई दे जाती है। इस हमदर्दी को पुरअसर बनाने का बकिया काम फिल्म की हीरोइन रेखा, शहरयार साहब के कलाम और ख़य्याम की तरतीब दी गई तर्ज़ों ने बाकमाल अंदाज़ में किया है। इसी का नतीजा है कि लोगों के ज़हन में उमराव जान के नाम के साथ ही रेखा का चेहरा यूं उभर आता है जिस तरह शहंशाह अकबर के नाम के साथ 'मुगल-ए-आज़म' वाले पृथ्वीराज कपूर का चेहरा। 2006 में जब जे.पी. दत्ता ने एक बार फिर 'उमराव जान' को एश्वर्या राय की शक्ल में पेश किया तो यह कोशिश बुरी तरह नाकाम साबित हुई।
पाकिस्तान में भी 1972 में एक फिल्म बनी और बेहद कामयाब साबित हुई। इसी से मुतासिर होकर जियो टी.वी. ने 2003 में इसे एक सीरियल की शक्ल में पेश किया।
'उमराव जान' के बाद भी मिर्ज़ा रुस्वा बाकायदा अपने इल्मी सफ़र को जारी रखते हुए तरह-तरह की किताबें लिखते रहे। कुछ अंग्रेज़ी किताबों के अनुवाद भी किए। उनकी एक किताब का इश्तिहार 'उमराव जान अदा' के पहले एडीशन के पिछले कवर के अंदर के पन्नों पर दिखाए देता है। मिर्ज़ा जी के असल नाम से छपे इस ड्रामे की किताब का इश्तिहार काफ़ी दिलचस्प अंदाज़ में लिखा गया है, जिसकी मुख़्तसिर सी शक्ल यहां नक़्ल कर रहा हूं।
''मुअलिफ़ आली जनाब मिर्ज़ा मुहम्मद हादी साहब बी.ए.''
तिलिस्मे इसरार : यह ड्रामा एक नस्र में - इसमे हकीम अफ़लातून का मिस्र के तिलिस्म में दाख़िल होना, वहां के अजाइबात का देखना, क़दीम हुकमा से मुलाक़ात करना, तमाम तरह की ख़ौफ़नाक आज़माइशों में पड़कर निकल आना - ख़ूबसूरत सहरकार औरतों से मिलना - उनके फ़रेब - अफ़लातून की परहेज़गारी. इस बेश कीमत ड्रामे का एक-एक लफ्ज़ हिकमत और फ़लसफ़े से भरा हुआ है। इबारत ऐसी सलीस है जिसे हर शख़्स समझ सके। कोई सीन ऐसा नहीं जिसको देखने और ग़ौर करने से कोई नई बात मालूम न मालूम होती हो या कोई नसीहत न मिलती हो। एक मुसन्निफ मिज़ाज ने इस ड्रामे का मसव्विदा देखकर क्या अच्छी दाद दी थी - ''अगर मिर्ज़ा न होते तो इस किस्म की तसनीफ़ भी एक सदी तक हिंदुस्तानी ज़बान में न आती।''
मिर्ज़ा जी की अनेक किताबों में से कुछ किताबों, मसलन 'ख़ूनी शहज़ादा', 'ज़ात-ए-शरीफ़', अख़्तरी बेग़म और 'ख़ूनी आशिक़' के भी इसी तरह के इश्तिहार नज़र में आते हैं। 'ख़ूनी आशिक़' दरअसल 19वीं-20 वीं सदी के दर्मियानी वक़्फ़े में अंग्रेज़ी की बेपनाह मशहूर लेखिका मेरी कोरेली (1855-1924) के उपन्यास का अनुवाद है।
1917 में उस्मानिया यूनीवर्सिटी, हैदराबाद में अंग्रेज़ी और दीगर ज़बानों की किताबों के ट्रांसलेशन का डिपार्टमेंट कायम हुआ तो मिर्ज़ा रुस्वा को भी न्यौता भेजा गया। मिर्ज़ा जी ने उसे क़ुबूल करते हुए लखनऊ छोड़ा और हैदराबाद जा बसे।
यहां रहते हुए उन्होने ख़ूब काम किया। गणित, खगोल और फिलासफ़ी के कई सारी किताबों के तर्जुमे किए। अक्टूबर 1931 में हैदराबाद में ही रहते हुए उन्होने इस दुनिया को ख़ैर आबाद कहा और अपने पीछे पढऩे वालों के लिए अनेक दास्तानें और लिखने वालों के लिए भी हज़ार पर्तों वाली अपनी एक रंग़ारंग दास्तान भी छोड़ गए हैं। ख़ूब-ख़ूब काम किए, ख़ूब-ख़ूब इश्क़ किए, चांद-तारों से मुहब्बत की तो रंगे-मौसीकी में डूबे रहे। आख़िर जो गए तो अपने पीछे एक ला-ज़वाल अफ़साना 'उमराव जान अदा' छोड़ गए। मगर सच तो यह है कि मिर्ज़ा हादी मुहम्मद रुस्वा की अपनी दास्तान-ए-ज़िंदगी भी कुछ कम नहीं।

 

 

 





''वर्मा सीरीज़ नम्बर 3
हंस के कहता है मुस्सविर से वह ग़ारतगरे होश
जैसी सूरत है मेरी वैसी ही तस्वीर भी हो
उमराव जान 'अदा'
एक तवायफ़ की सवाख़ उमरी उसी की ज़बानी / जिसमे लखनऊ के तर्र्ज़ मुआशरत की हू-ब-हू तस्वीरें, सच्चे वाक़ियात और असली मक़ामात के बईना नक़्शे / हर शख्स और हर हालत के मुनासिब बोल-चाल, आला दर्जे का सुथरा मज़ाक़।  
मुअलिफ : आली जनाब मिर्ज़ा रुस्वा साहब बाइसमा अलक़ाबा , लखनवी
मतबूआ इदारा-ए-साहब मुंशी गुलाब सिंह एंड संज़ प्रेस लखनऊ
(कोने में) - रजिस्ट्री शुदा'' 

रुस्वा की किताब के बाज़ार में आने की देर थी कि उमराव जान ने भी तड़ाक से अपनी जवाबी मसनवी पेश कर दी। इस मसनवी को, जैसा कि पहले कहा जा चुका है 'जुनूने-इंतज़ार यानी फ़साना-ए-मिर्ज़ा रुस्वा', का नाम दिया था। इस किताब का दीबाचा उमराव जान ने बड़े दिलचस्प अंदाज़ और पूरी अदबी सलाहियत के साथ लिखा है।
यहां इसे पेश करने का एक और मक़सद यह भी है कि मिर्ज़ा हादी रुस्वा के हालाते-ज़िंदगी के बारे में काफ़ी बारीक चीज़ें भी दिखाई दे जाती हैं। देखिए।
''नाज़रीन, मिर्ज़ा रुस्वा साहब ने जो मेरी सर गुज़िश्त तहरीर की है वो ग़ालिबन आपकी नज़र से गुज़री होगी। खैर, ये मैं अब नहीं कहती कि अच्छा किया या बुरा। मगर पहले से उसका इक़रार न था। इसीलिए किसी क़दर मलाल हुआ। अगर मुझे यह मालूम होता कि मेरी आवारगी का अफ़साना छापकर शाया किया जाएगा तो शायद मैं उसे बयान करने पर राज़ी न होती। वाकई मिर्ज़ा साहब का चकमा चल गया। लुत्फ़ यह है कि आप फ़रमाते हैं कि मैने तुझ पर एहसान किया। अगर दर-हक़ीक़त यह एहसान है तो मैं भी उनके साथ इसका एवज़ करती हूं।
दिशनाम दे के मुझको बहुत ख़ुश न होजिये
क्या कीजियेगा आप जो मेरी ज़बां खुली?
मिर्ज़ा रुस्वा साहब के हालात का दरयाफ़्त करना सहल न था। ये वो शख्स हैं जो अपना नाम तक लोगों से छुपाते हैं (किताब में छद्म नाम 'रुस्वा' इस्तेमाल करने पर तंज़)। अब तो माशा आल्लाह, गुलदस्तों में ग़ज़लें भी शाया होने लगी हैं। रहते ऐसी जगह हैं जहां किसी की मुश्किल से रसाई हो सकती है। मैं सिर्फ एक मर्तबा आपके दौलतख़ाने पर हाज़िर होकर उसकी ज़ियारत से मुशर्रफ़ हो चुकी हूं। मगर उस वक़्त कि जब मुझे मालूम था कि आप घर पर नहीं तशरीफ़ रखते। बात ये थी कि जब से आपने मेरी सवाख़ उमरी शाया करने का कसद किया, मुझे भी कद हो गई कि आपके बाज़ इसरार से दुनिया को वाक़िफ कर दूं। इसके लिए मुझे खास एहतिमाम करना पड़ा। आपका एक मुलाज़िमे खास जिसके नामो-निशान से मैं मुतला नहीं कर सकती, मुझसे मुवाफिक़ हो गया। एक दिन आप एक दोस्त के घर पर मशायरे में तशरीफ़ रखते थे बंदी ने फ़ौरन गाड़ी किराया की और आपकी कोठी पर पहुंची। आपका आदमी जो मुझसे मिल गया था, उसने चप्पा-चप्पा मुझे दिखाया। इसी आदमी के ज़रिए से आपकी एक किताब जिसमे एक तस्वीर और बहुत से ख़ूतूत और एक नातमाम मसनवी 'नाला-ए-रुस्वा' मेरे हाथ आ गई। कुछ हालात बाज़ दोस्तों से मालूम हुए गरज़ कि इन वाक़यात को मैने बतौर ख़ुद लिख के छपवा लिया है। जिस दिन मिर्ज़ा साहब ने मेरी सवाख़ उमरी शाया की और एक जिल्द मेरे मुलाहिज़े के लिए भेजी उस दिन मैने इस मुख़्तसिर तहरीर की एक जिल्द उनकी ख़िदमत में रवाना की। यक़ीनन मिर्ज़ा साहब ख़ुश तो न हुए होंगे मगर क्या कर सकते हैं?
फिदविया
'उमराव जान अदा'
यकुम अप्रेल 1899 ईस्वी
ख़ूबसूरत हो नेक सीरत हो
और क्या चाहिये बशर के लिए
''मिर्ज़ा साहब की वजाहत और तलाक़त लिसानी में ग़ज़ब की दिल आवेज़ी है। जिस महफ़िल में बैठ जाते हैं औरत-मर्द सब उन्हीं की तरफ़ मुतविज्जे हो जाते हैं। जब यह बातें करते हैं तो लोग हमातन गोश होकर सुना करते हैं। कोई शख़्स कैसा ही ग़नग़ीन हो उनके पास दो घड़ी बैठे ग़म-ग़लत हो जाए। रोते आदमी को हंसा देना, उनकी एक बात है। ख़ुदा की दी हुई ज़िहानत पर तुर्रा-ए-इल्मियत और तजुर्बाकारी इन औसाफ़ ने उनके जोहर-ए-ज़ाती को और जिला दे दी है। तबीयत की मौज़ूमी, शौके शेर-ओ-सुख़न को हुस्न परस्ती के मज़ाक़ ने चमका दिया है। इन सब औसाफ के साथ मिज़ाज में किसी क़दर सनक है। बाज़ तबीबों की यह राय है कि दुश्मनो को जुनून के दौरे का ख़लल है। किसी को यह ख़याल है कि आपको परियों की तस्ख़ीर (वशीकरण) का शौक़ है। ग़रज़ कि कुछ न कुछ इसरार ज़रूर है।
मिर्ज़ा साहब के एक दिली दोस्त ने फरज़ कर लीजिए कि मैने आपके औसाफ़ मसनवी 'नाला-ए-रुस्वा' के वज़न पर मौज़ू किए हैं। वो यहां हवाला-ए-कलम किये जाते हैं।
इक मेरे यार महरबां रुस्वा
वहशी,आवारा ख़ानमां रुस्वा
मस्त-व-आशुफ़्ता हाल व आवारा
मुख़तसिर यह कि दिल फंसा है कहीं
दिले बेगाना आशना है कहीं
किसी क़ाफ़िर को प्यार करते हैं
दीन-ओ-ईमां निसार करते हैं
दोस्त हैं मेरे क्या कहूं उनको
सच तो यह कि है जुनूं उनको''
इसके बाद 43 शेर नसीहत में कहे गए हैं। जिनका मिर्ज़ा साहब की रुस्वाई से कोई तालुक़ नहीं है। फिर मिर्ज़ा के घर का नक्शा खेंचा गया है। मगर शुक्र है कि यह नसरी ख़ाक़ा है। जो नकिल किया जाता है।
उमराव का पूरा का पूरा बयान ज़ाहिर है इंतक़ाम की आग में सुलगते हुए एक इंसान का बयान है। हर लफ्ज़ में शोले छुपाकर किसी को जलाने की कोशिश साफ़ नज़र आती है। लेकिन इस सब के बावजूद एक बात बिला शक़ो-शुबहा कही जा सकती है कि उमराव के खेंचे गए ख़ाक़े और इलाके की मंज़रकशी में ज़बान का हुस्न भी मौजूद है। मसलन वह हिस्सा जिसमें वह रुस्वा के रिहाइशी इलाके को वहशताबाद का नाम देती है और फिर इस वहशताबाद के मनाज़िर बयान कर सचमुच एक 'आलमे-हू' की तस्वीर बना देती हैं। और इस आलमे-हू (सुनसान) में वो अपने हरीफ़ मिर्ज़ा रुस्वा को तन्हा बिठा देती हैं।
''मुझ से दीवाने का क्या आप पता पूछते हैं
वहशताबाद में है ख़ास सुकूनत मेरी
ये शेर गोया मैने मिर्ज़ा साहब की ज़बानी कहा है। वाकई आप जहां रहते हैं उसको वहशताबाद कहना चाहिये। लखनऊ से दो कोस के फ़ासले पर इस सड़क से करीब जो लोहे के पुल से नवाबगंज को जाती है एक बाग की मुख़्तसर चार दीवारी नज़र आती है। चारों तरफ़ कोसों तक मैदान है। कहीं आबादी का नामो-निशान नहीं। पहले इस सड़क पर मुसाफ़िरों की आमदो-रफ़्त थी मगर जब से इस तरफ़ रेल निकली बहुत कम लोग आते-जाते हैं। इस आलमे-हू में मिर्ज़ा साहब की सुकूनत है। यहां आप मय दो-तीन मुलाज़िमों के रहते हैं। इस बाग़ के वस्त में एक छोटी सी कोठी बहुत ख़ुशनुमा बनी हुई है। कोठी के सामने थोड़ी दूर पर एक पुख़्ता गोल चबूतरा है। उसके गिर्द चमनबंदी है। यह सुबह और सरे शाम बैठने की जगह है। बाग़ से उत्तर की तरफ़ के गोशे में एक जालीदार चोबी अहाता है। उसमें पत्थरों की पहाडिय़ां बनी हुई हैं। उस पर अजीबो-ग़रीब इक्साम के दरख़्त इस करीने से लगाए गए हैं कि गोया वो इन्हीं पत्थरों से ऊगे हुए मालूम होते हैं। उसके वस्त में एक संगे मरमर का हौज़ पानी से भरा हुआ है। चारों तरफ़ नालियां बहती हैं, यह अहाता सरकियों से छुपा हुआ है। गर्मियों में यहां बड़ी ख़ुनकी होती है। क्योंकि सक़्क़े  मुतावातिर पानी छिड़का करते हैं। मिर्ज़ा साहब दोपहर को अक्सर यहीं तशरीफ़ रखते हैं। फ़िक्र-ए-अशार के लिए यह मुकाम बहुत मुनासिब है।
कोठी अंदर से ख़ूब सजी हुई है। उसके एक कमरे में मिर्ज़ा साहब ख़ुद आराम करते हैं। बाकी कमरे मुखफ़िल रहते हैं। मसनवी 'नाला-ए-रुस्वा' में इस कोठी के हालात ख़ुद मिर्ज़ा साहब ने इस तरह नज़्म फ़रमाए हैं।
''वही कोठी मैं जिस में रहता हूं
सदमा-ए-इंतज़ार सहता हूं
एक साहब थे पहले उसमे मुक़ीम
साहिबे-इल्म और अक़ील व फ़हीम
शोक था उनको इल्मो-हिकमत से
ज़ोक था नुक़्ता-ए-हाए फितरत से
एक लड़की थी उनकी हूरे लक़ा
हुस्न में मेहरो-माह से भी सिवा
क्या कहूं तुझसे कैसी सूरत थी
ले ये तस्वीर ऐसी सूरत थी
देख तो किस बला की सूरत है
यही मेरी क़ज़ा की सूरत है
यही क़ातिल है जाने बिस्मिल की
यही जल्लाद है मेरे दिल की
ऐसी क़ाफिर नज़र न देखी थी
ऐसी बेदाद गर न देखी थी
इसी क़ाफ़िर अदा पे मरता हूं
देख इस दिलरुबा पे मरता हूं
तू न कह मेरा दिल तो काइल है
बख़ुदा चाहने के क़ाबिल है''
उमराव जान की तो यह ऐलानिया कोशिश थी कि इस जवाबी किताब के ज़रिए मिर्ज़ा हादी को हक़ीक़तन ही 'रुस्वा' किया जाए मगर यह हो न सका। सौ बरस के ऊपर हुए जाते हैं कि मिर्ज़ा रुस्वा की तसनीफ़ 'उमराव जान अदा' अब तक न जाने कितनी पीढिय़ों का दिल जीतती चली आती है पर उमराव जान की इंतक़ामी तहरीर 'जुनूने-इंतज़ार यानी फ़साना-ए-मिर्ज़ा रुस्वा' महज़ अदबी बहसों और तहरीरों में ज़िक्र तक महदूद रह गया है।
इतना कह चुकने के बाद यह कहना भी ऐन ईमान की बात होगी कि उमराव जान 'अदा' बज़ाते ख़ुद एक अच्छी शायरा थीं। '...फ़साना-ए-मिर्ज़ा रुस्वा' की शक्ल में मौजूद तहरीर इस बात की शाहिद हैं कि उनमें नस्र लिखने की भी ख़ासी सलाहियत थी। बहरहाल, वक़्त अपना फ़ैसला सुना चुका है और उमराव जान 'अदा' का दर्जा मिर्ज़ा रुस्वा के एक किरदार की हद तक महदूद होकर रह गया है।
उमराव जान की दास्तान 'लैला मजनू', शीरीं फ़रहाद' और 'अनारकली' की दास्तानों के बाद ऐसी दास्तान है जिस पर बार-बार फिल्में बनती हैं। 1958 से 2006 के बीच 'उमराव जान' को लेकर चार फिल्में बन चुकी हैं। 1958 में एक साथ दो फिल्में 'मेहंदी' और 'ज़िंदगी या तूफ़ान' बनीं। 23 साल बाद एक बार फ़िर मुज़फ़्फर अली ने 'उमराव जान' को पूरी ईमानदारी से पर्दे पर पेश किया। इस फिल्म में मुज़्ज़फर अली की हमदर्दी उमराव के साथ साफ़ दिखाई दे जाती है। इस हमदर्दी को पुरअसर बनाने का बकिया काम फिल्म की हीरोइन रेखा, शहरयार साहब के कलाम और ख़य्याम की तरतीब दी गई तर्ज़ों ने बाकमाल अंदाज़ में किया है। इसी का नतीजा है कि लोगों के ज़हन में उमराव जान के नाम के साथ ही रेखा का चेहरा यूं उभर आता है जिस तरह शहंशाह अकबर के नाम के साथ 'मुगल-ए-आज़म' वाले पृथ्वीराज कपूर का चेहरा। 2006 में जब जे.पी. दत्ता ने एक बार फिर 'उमराव जान' को एश्वर्या राय की शक्ल में पेश किया तो यह कोशिश बुरी तरह नाकाम साबित हुई।
पाकिस्तान में भी 1972 में एक फिल्म बनी और बेहद कामयाब साबित हुई। इसी से मुतासिर होकर जियो टी.वी. ने 2003 में इसे एक सीरियल की शक्ल में पेश किया।
'उमराव जान' के बाद भी मिर्ज़ा रुस्वा बाकायदा अपने इल्मी सफ़र को जारी रखते हुए तरह-तरह की किताबें लिखते रहे। कुछ अंग्रेज़ी किताबों के अनुवाद भी किए। उनकी एक किताब का इश्तिहार 'उमराव जान अदा' के पहले एडीशन के पिछले कवर के अंदर के पन्नों पर दिखाए देता है। मिर्ज़ा जी के असल नाम से छपे इस ड्रामे की किताब का इश्तिहार काफ़ी दिलचस्प अंदाज़ में लिखा गया है, जिसकी मुख़्तसिर सी शक्ल यहां नक़्ल कर रहा हूं।
''मुअलिफ़ आली जनाब मिर्ज़ा मुहम्मद हादी साहब बी.ए.''
तिलिस्मे इसरार : यह ड्रामा एक नस्र में - इसमे हकीम अफ़लातून का मिस्र के तिलिस्म में दाख़िल होना, वहां के अजाइबात का देखना, क़दीम हुकमा से मुलाक़ात करना, तमाम तरह की ख़ौफ़नाक आज़माइशों में पड़कर निकल आना - ख़ूबसूरत सहरकार औरतों से मिलना - उनके फ़रेब - अफ़लातून की परहेज़गारी. इस बेश कीमत ड्रामे का एक-एक लफ्ज़ हिकमत और फ़लसफ़े से भरा हुआ है। इबारत ऐसी सलीस है जिसे हर शख़्स समझ सके। कोई सीन ऐसा नहीं जिसको देखने और ग़ौर करने से कोई नई बात मालूम न मालूम होती हो या कोई नसीहत न मिलती हो। एक मुसन्निफ मिज़ाज ने इस ड्रामे का मसव्विदा देखकर क्या अच्छी दाद दी थी - ''अगर मिर्ज़ा न होते तो इस किस्म की तसनीफ़ भी एक सदी तक हिंदुस्तानी ज़बान में न आती।''
मिर्ज़ा जी की अनेक किताबों में से कुछ किताबों, मसलन 'ख़ूनी शहज़ादा', 'ज़ात-ए-शरीफ़', अख़्तरी बेग़म और 'ख़ूनी आशिक़' के भी इसी तरह के इश्तिहार नज़र में आते हैं। 'ख़ूनी आशिक़' दरअसल 19वीं-20 वीं सदी के दर्मियानी वक़्फ़े में अंग्रेज़ी की बेपनाह मशहूर लेखिका मेरी कोरेली (1855-1924) के उपन्यास का अनुवाद है।
1917 में उस्मानिया यूनीवर्सिटी, हैदराबाद में अंग्रेज़ी और दीगर ज़बानों की किताबों के ट्रांसलेशन का डिपार्टमेंट कायम हुआ तो मिर्ज़ा रुस्वा को भी न्यौता भेजा गया। मिर्ज़ा जी ने उसे क़ुबूल करते हुए लखनऊ छोड़ा और हैदराबाद जा बसे।
यहां रहते हुए उन्होने ख़ूब काम किया। गणित, खगोल और फिलासफ़ी के कई सारी किताबों के तर्जुमे किए। अक्टूबर 1931 में हैदराबाद में ही रहते हुए उन्होने इस दुनिया को ख़ैर आबाद कहा और अपने पीछे पढऩे वालों के लिए अनेक दास्तानें और लिखने वालों के लिए भी हज़ार पर्तों वाली अपनी एक रंग़ारंग दास्तान भी छोड़ गए हैं। ख़ूब-ख़ूब काम किए, ख़ूब-ख़ूब इश्क़ किए, चांद-तारों से मुहब्बत की तो रंगे-मौसीकी में डूबे रहे। आख़िर जो गए तो अपने पीछे एक ला-ज़वाल अफ़साना 'उमराव जान अदा' छोड़ गए। मगर सच तो यह है कि मिर्ज़ा हादी मुहम्मद रुस्वा की अपनी दास्तान-ए-ज़िदगी भी कुछ कम नहीं।


Login