मुखपृष्ठ पिछले अंक दास्ताने-सुंबरान*
जनवरी 2016

दास्ताने-सुंबरान*

आनंद विंगकर / मराठी से अनुवाद - गोपाल नायडू

लंबी कविता/मराठी


भारतीय समाज बड़ा ही मजेदार है। इस आधुनिक विज्ञान के दौर में जहाँ चाँद-तारे और सूरज, आदि के लोक गीत और भक्ति-भाव को जीवन के साथ लेकर चलने वाला आदिम समाज आज भी मौजूद है। लिहाजा आधुनिक विज्ञान में इन जटिल संबंधों का विश्लेषण और उन्हें विकसित कर पाना दूभर कार्य जैसा है। महाराष्ट्र की 'धनगर' जाति सदियों से चली आ रही इस परंपरा का निर्वाह आज भी कर रही है। धनगर जाति को हिन्दी पट्टी में गड़रिया कहा जाता है, जो भेड़-बकरियों को जंगल में चराती है। यह समाज विशेष अवसर पर रात भर गीत, नृत्य आदि की प्रस्तुति करता है ताकि उनका देव उनके प्रकृति की रक्षा कर सके। उनके लिए प्रकृति ही देव है और देव ही मनुष्य है। यह उनकी परंपरा का अटूट हिस्सा है।
मराठी के कवि आनंद विंगकर ने इस लंबी कविता में आदिवासियों की आदिम संस्कृति का, प्रकृति के साथ उनका संवाद और नागरी संस्कृति की तस्वीर  को दर्ज किया है। आधुनिक जीवन से हम जैसे-जैसे भूतकाल की ओर जाते हैं प्रकृति के साथ हमारा संवाद बन नहीं पाता और अधिक गूढ़ होता जाता है। प्रकृति के साथ संवाद की स्थिति तो दूर की कौड़ी जैसे है। वहीं हर आए दिन प्रकृति नष्ट हो रही है। जो भुक्तभोगी हैं वे जानते हैं इसके परिणाम। उन लोगों की हताशा कितनी कड़वी और असमय होती मृत्यु को उजागर करती है यह कविता।
इस लम्बी कविता में कवि ने जो तस्वीर उकेरी है वह एक इशारा है आधुनिकता के ढोंग का। यह कविता स्थितियों को बदल नहीं सकती है लेकिन जो प्रकृति को बचाने के लिए लड़ रहे हैं, वे लोग भूमिका के करीब नजर आते हैं।
मराठी साहित्य में आनंद विंगकर का कथा, उपन्यास और कविता के क्षेत्र में एक बड़ा नाम है। वे पश्चिम महाराष्ट्र के कराड़ जिला के छोटे से 'विंग' गाँव के हैं। विचारों से वे माक्र्सवादी हैं और सामाजिक, राजनीतिक रूप से सक्रिय हैं। वे शब्दों से परे जाकर सामाजिक-राजनीतिक और सांस्कृतिक आंदोलन में भूमिका भी निभाते हैं।
इसके पहले हम 'पहल' में 'गांधी मले भेटला' मराठी की लम्बी, चर्चित और विवादास्पद कविता छाप चुके हैं।

 

आनंद विंगकर
दास्ताने सुंबरान*

एक घूमंतू गंधर्व जैसा
सायाळसिंगे इलाके का 'गणपा जानकार'
'विटापुर के खानापुर' पर
पेपर छापने के कारखाने के बारे में पूछते हुए मिला
वह बोला-
'चार बच्चे जनने वाली भेड़ की प्रजाति के बारे में'
ऐसा कोई समाचार था उसके पास।
'इसे कारखाना नहीं कहते हैं प्रेस'
- 'क्या नहीं जानते पढऩा-लिखना आप!

'इसे प्रेस कहते हैं।'

''दो बीघा जमीन' के बलराज साहनी की तरह
वह आ बैठा बगल में और कहने लगा
''बाड़े में रहते समय
आई-बा
रात में झपकी ले रहे थे
उसी समय मेरा जन्म हुआ
तभी आखों में समा गए घनघोर बादल

कोई समझ नहीं पाता है मेरे आंखों की गहराई
काली परछाई ही नहीं मनुष्य के मन को भी ताड़ लेता हूँ।
पूछ रहे थे तुम पढ़ाई-लिखाई के बारे में
छोटी उम्र से ही साल के चार-छ: महीने हाँकता रहता हूँ भेड़ों को
इसीलिए पढ़ नहीं पाया चौथी तक ढंग से
सातवीं के पेपर के समय पिता ने सेंटर पर छोड़ दिया
इसके बाद मेरी पाठशाला मैंने खुद ही बनाई है।
साथी की तरह एकाध पुस्तक ले हाथ
खूँटे पर बंधे जानवर की तरह
और राह देखते रहते मेरे खेत में
बैठ जाता हूँ खाली-पीली समय में
खूंटे पर बंधे जानवर की तरह।
इसलिये पढ़ नहीं पाया एक गुंठा जमीन पर भी
मैं लोटा परेड करते समय तुड़े-मुड़े अखबार के अक्षरों को
उत्सुकता से घाई-घाई में पढ़ता था
और बगैर पढ़े चार शब्द सो भी नहीं पाता था।'
देर से खिले कपास के बोंड को चुनता रहता हूँ
फसल कट जाने के बाद भूखे इंसान को
उजाड़ खेतों में मिल जाता है मूँगफली का एकाध दाना
दिखाई देता है काँटों के बीच
असंख्य पंखुडिय़ों वाला कैक्टस का दुर्लभ फूल
और पके बालों वाली बुढिया के मुंह से निकले
एक-एक शब्द लाख मोल का
इन सभी से मिलता है मुझे ज्ञान।'

'खाने के इंतज़ार में'
तडफ़ते हुए रात में
अकेले ही लेट गया बाड़े पर
और ताकते रहता हूँ आकाश
आकाश में चमकता है केवल हमारे लिए
दूर-दराज एकाध तारा
झट से दिमाग होता है रौशन
हम केवल अकेले नहीं है इस दुनिया में
मेरी ही है यह धरती और सारा आसमान,
और...और... सब कुछ,
''अकेले नहीं हम इस जहाँ में
और क्षण भर में होता हैं आभास अपने ही विशाल हृदय का
इसे क्या कहते हैं आपकी भाषा में
'ज्ञान' या 'दृष्टिकोण'?
इस तरह है मेरा सृष्टि के जीव
और मनुष्य के बारे में आस्था का अध्ययन।
वह आदमी स्वार्थी है
जो तिरस्कार करता है अपने भाई के बच्चों का।''

वहीं मैं और मेरे सहयोगी
गजब के आत्मकेंद्रित हैं।
शिक्षा से कितना विस्तारित हुआ है हमारा ज्ञान
कितना विस्तृत हुआ है हमारे इर्द-गिर्द का क्षितिज?
और सामने है यह अनजान औलिया
'यह संसार ही है मेरा घर'
और करता है ऐलान।
बदली होते समय
कहा एक बैंक वाले दोस्त ने,
'गांव जा रहे हो, जरा संभलकर!
घातक होते हैं मीठा-मीठा बोलने वाले लोग।
और पकड़ में आ जाओ तो वहीं ठिकाने लगा देते हैं।
'कहने का मतलब है दूरी बनाकर रखो
और किसी को भी मत बताओ अपनी कमजोरियों को'

: इस इलाके में नौकरी के लिए आया हूँ
नहीं हुआ खाने और रहने का बंदोबस्त
इसलिए रोज आना-जाना पड़ता है
और ऊपर से यह इलाका पिछड़ा है
समय पर बस नहीं मिलती, गर्मी में पानी की किल्लत।
: 'मनुष्य यहाँ कैसे रहता हैं?'
मेरी तीखी प्रतिक्रिया पर वह थोड़ा सहम गया।

- 'आप जो कह रहे हो उसमें कोई गलत बात नहीं है
है तो वैसे पिछड़ा हुआ यह इलाका।
लेकिन यह तुम्हारे जहन में कैसे नहीं आया
जमीन के स्तर पर ही हमारा हुआ है विभाजन
पहाड़ी इलाकों में धनगर, कुपोषित कातकारी,
इर्द-गिर्द रह गए भूमिहीन आदिवासी,
और नापी हुई जमीन पर मेरे जैसे उपेक्षित ओ.बी.सी., बी.सी.,एन.टी.
नदी के किनारे बसे श्रेष्ठ जाति के संभ्रात शहर
इस श्रेणी के आधार पर हुई है बसावट।'

: उत्तर देने का कोई मौका नहीं दिया उसने
किसी ने मुझे पहली बार दुविधा में डाला
अचानक वह सहज हो गया
कल-कल बहते झरने की तरह बोलता रहा
'नौकरी कौन से गाँव में करते हो?'

: ......, मैं
: 'यानि महाराज आपके ही गाँव में
वैसे रहते नहीं हैं गाँव में हम।
गाँव के बाहर पश्चिम की ओर कृष्णा नहर की बस्ती में
हमारा घर बहुत बड़ा है
बड़ी सी जगह है
सामने नीम का पेड़ है
बांस की बड़ी टोकनी,
आस-पास घनी झाड़ी है
बरामदे में झूला,
दिली इच्छा से कहीं भी पैर पसार लीजिये,
नींद में आभास होता है कोई झुला रहा है
झूले पर कभी सोया नहीं मैं,
अचानक जागने पर हिलता रहता है अन्धेरा
और जमीन से
मेरा है ऐसा पैदाईशी रिश्ता-नाता।
छायादार पेड़ों की ठंडक इस तरह
कि 'मायणी तालाब' के बगुले रात आते हैं इस बस्ती में।

गर्मी के दिनों में बिंदास पड़े रहते हैं आंगन में
नीचे जमीन ऊपर आकाश
अगर मन में आया तो
खेल समझकर गिनते रहो तारे आसमां के
किसी बात की कोई परवाह नहीं
सिर्फ पानी का उपयोग करो देख-देख कर
क्या स्वाद है गोश्त का,
ऐसी ही है मटकी की उसळ, बाजरे की रोटी
हर दिन है दूध-दही-मक्खन
सभी दिन ऐसे नहीं होते और न ही रातें
एकाध बार तो लोटा भर पानी से ही गुजारनी पड़ती है रात
जरूरतमंद को समय पर नहीं मिलते सौ-पांच सौ रुपये
'वैसे मूल से हम घूमन्तू हैं।
हमारे जीवन में सदियों से है पैसे पानी की कमी
इसीलिए साफ-सुथरे नहीं रह पाते
अगर यह सब ठीक लग रहा है तो बोलो 'हाँ'
जो कुछ होगा तो... ले आओ तुम्हारा बोरा-बिस्तर
तब तक मैं घर साफ-सुथरा कर लेता हूँ'

: शुरू में ही बता देना अच्छा है।
किसी को पटता हो या न
कि हम बौद्ध हैं
चाल चलन से लगता है आप पढ़े लिखे हो
हमने पूछा तो नहीं की आप कौन हो?
हमारे संस्कार कैसे हैं
राहगीर को पानी पिलाने से पहले ही
पूछ लेते हैं जाति
ऐसे में तो पानी अटक जाता है गले में
बेवजह धड़कती रहती है पीने वालों कि छाती
हमारे रहन-सहन से पहचान ही लिया होगा
वही टूटी-फूटी बोली
बगैर वर्तनी - अल्प-विराम, पूर्णविराम के
बोलने वाले 'धनगर' हैं।'

: यह कहकर वह हंस दिया
बस मिलने तक स्टैंड पर वह रात बिताई हमने
इस तरह शुरू हुआ हम दोनों के बीच संवाद
इस दो-ढाई साल में खूब सीखा उससे
बेखौफ प्रकृति में जीते हुए
धराशायी हो गए हैं मेरे मध्यमवर्गीय मूल्य
मुख्यत: छुपानी नहीं पड़ी मुझे मेरी जात
उठते-बैठते, साथ रहते,
नहीं बढ़ी दूरियां
नहीं आया बीच में परमात्मा,
बगैर किसी अवहेलना के,
पानी की तरह रही पारदर्शी मेरी आत्मा

कोई भी आदमी दिन भर मेहनत करके
कितना करता होगा काम?
क्या इसकी कोई है मर्यादा
अनिद्रा से मैं परेशान हूँ
साढ़े बारह एक बजे जैसे तैसे लगती है आँख
और शुरू हो जाता है दिन सुबह पांच बजे से
और खत्म नहीं होता रात के बारह बजे तक
कितने तरह के करने पड़ते काम हैं?
ऐसे अनेक प्रकार के काम हैं
जिन्हें गढ़ा नहीं जा सकता है भाषा में
जेब में हाथ डालकर ये सब अनुभव करता रहता हूं मैं।
वह कोल्हू के बैल की तरह जुटा रहता है
रह-रहकर प्रश्न पूछकर करता रहता हूँ उसे बेजार
मकसद सिर्फ इतना ही कि
उसके दु:ख दर्द की भाषा
सुन सकूँ दोबारा

उसे ज्ञान है
मुंह-जुबानी तारों की दिशाओं का
याद है उसे खेतों में रखवाली करते हुए सारी रात
आँखों में कैसे करवट लेता है आकाश
कभी जाग उठता है भोर का पक्षी 'रातवा'
पेड़ पर से फडफ़ड़ाते हुए पंख, उड़ जाता है दिगंत की तरफ

हवा के हल्के झोकों से
उसे पता लग जाता है मौसम का अनुमान
ठीक उसी समय आम के पेड़ों पर आ जाते हैं बौर
मोगरे के फूल की तरह जब खिलती है करवंद
समझो की आ गया बारिश का मौसम
वह बोलता है -
'एक भाषा होती है प्रकृति की भी अपनी
इसे समझ सकते हैं केवल अनुभवी ही
बंदरों की चिल्लाहट, मोरों के के..कराव की आवाज,
आधी रात अचानक कौवों की फडफ़ड़ाहट
रात में एक साथ कुत्तों का रोना
इन सबकी एक वजह होती है
हम चिढ़ जाते, और उठाते हैं पत्थर
जैसे पूरे परिसर की जागीरदारी
बस हमें ही मिली है

बोलता है वह-
हरी टहनी के अलावा मात्र हाथ के स्पर्श से,
धरती के गर्भ से पानी की कल-कल आती
आवाजें सुन लेता हूँ मैं
केवल सूंघ कर पता लग जाता है सांप का अस्तित्व
इसीलिए नहीं दिखाता हूँ-
शिकारियों को निरपराध प्राणियों के बिल
और एक लंबे समय से पृथ्वी में जमा हुआ पानी या पेट्रोल
क्यों करें हम फिजूल इसकी बरबादी?
वैसे बाप दादाओं ने हमें यह धरती विरासत में दी है
इसकी देख-भाल करते हैं अच्छे से
आने वाली पीढ़ी को सुपुर्द करने।
इसीलिए पेड़-पौधों की देखभाल करते हैं
सूखे पत्तों पर पैर रखते हुए विचार करता हूँ
किसने देखा है 'म्हसोबा-सतिआसरा'* को?
प्रकृति की रक्षा करने वाले अन्य देवताओं को
यहाँ-वहाँ, सारे जहां में
मौजूद है इन जीवों का जीवन
सबको जीने का अधिकार है।
: मैं भेड़-बकरियों के पीछे के पैरों के साथ-साथ चलने वाला
खूब भटका हूँ उसके साथ
बगैर पानी के बंजर प्रदेश में,
बगैर नहाये-धोए गुजारे हैं कई दिन
हवा के विपरीत जलता हुआ चूल्हा है
और अध-पकी भाकरी से गुजारी हैं कई रातें
रात ज्वार के खेत की निगरानी करते समय
उसने मुझे दिखाया चांदनी रात में
करीब से अनुभव हुआ उस धुंधले प्रकाश में
आधी रात यात्रा पर निकले हुए प्रवासी पंछी,
देखा है मैंने
धुंधले प्रकाश में लुप्त होती हुई वे लयबद्ध तस्वीरें
स्वागत...स्वागत है मन ही मन वह बुदबुदाया
उसने खुद से कहा,
'प्रवासी पंछियों के बाद मैंने ही खोज निकाली है

इस लोहे की धरतरी को
एकाध भेड़पालक उम्र भर भेड़ों के पीछे चलते-चलते,
कितनी लंबाई-चौड़ाई नाप लेता होगा जंगलों की
इसका है किसी को कोई अंदाज?
पहाडिय़ों पर जहाँ-जहाँ से गुजरा
वहाँ से शुरू हुए रास्ते और घाट
इन्सानों के बीच मैं ही सबसे पहले
बकरी, भेड़, घोड़े और कुत्तों को लाया।'
और बताता है बकरी और बंदर जिसे लगाते नहीं मुँह
वे झाड़ मनुष्य के खाने के लायक नहीं है।

झाड़ी-झूड़ी से जड़ी-बूटी खोजने में मेरी बेतहाशा मेहनत है
यही तो है आयुर्वेद की पहली पाठशाला
और मैंने आराम से खोज निकाला है
उसके प्रमाण और मात्रा को।

आर्थिक और सामाजिक वजह से
मेरा अधिकांश समाज अज्ञानी और दरिद्र है।
पहले ही योग्य उम्मीदवार नहीं मिलने की वजह से
मेरी हासिल की गई हिम्मत टूट जाती है
फिर भी आरक्षण के मुद्दे पर
उन लोगों का हो-हल्ला होता रहता है
ये सब अपनी समझ में नहीं आता।
चाहे फिर वर्ण से कोई श्रेष्ठ या छोटा हो
मेरे जैसे सभी गरीबों का मैं क्यों करूँ तिरस्कार?
फिर भी मेरी बुनियादी मांग है
सभी को मिले शिक्षा और काम।
यह सब बयां करते वक्त उसके चेहरे पर
कोई आक्रोश और संताप नहीं था।
अंत में खुद के हाथ को निहारते हुए नाराजी से बोला,
'हमारे हक में अंतत: बचता ही क्या है
केवल दु:ख, मेहनत,
इस पर ही है पूरा भरोसा!'

और अचानक लगता है
क्या इस विषय पर मुझे बोलना नहीं चाहिए?
बाजार, गोदाम और लोहा उठाने वाले हमाल,
ईंट-भट्टी और खदान में काम करने वाले असंगठित कामगार
कचरे की गाड़ी और मैला साफ करने वाले मेहतर,
बैलों की तरह कंधे पर बोरा लादकर,
रास्ते की भीड़ में हाथ गाड़ी खींचने वाले हमाल,
अपने कंधे पर हुक फंसाकर
दिन-रात खेत जोतने वाले खेत-मजूर-किसान
पृथ्वी को ही पीठ पर लादने के लिए तत्पर हमाल।
बस में प्रवास करते समय खिड़की से इन सभी को
'मनुष्य' समझकर क्या हमने सहज बर्ताव किया है?
बगल में बैठे गरीब से सहज बर्ताव किया है
क्या यह अपना मुल्क नहीं है?
कबूल है, यह कविता बढ़ रही है अनावश्यक

भेड़-बकरी के पीछे घूमने वाले इस गड़रिये के साथ
दूर-दराज घूमता रहा हूँ मैं,
बहती हवा जैसे वह बड़बड़ाता रहा
''इस पहाड़ को कुल्हाड़ से काटो मत
रोका जाए प्लास्टिक की थैली को
गाय-बछड़ों के पेट में जाने से,
धीरे-धीरे इनसे तैयार होते जाएंगे बंजर प्रदेश
जहाँ बारिश के दिनों में रहता है आसमां उदास
बरसने वाले बादल बिन बरसे निकल जाते हैं
प्रकृति की मार से हवालदिल है मनुष्य
और शाम को बीमारी के लक्षण लिए आ जाती है हवा
बकरियों के पीछे घूमने वाले इस घूमंतू के साथ
पहाड़ दर पहाड़ घूमता रहता हूँ
वहाँ एक निर्जन पगडंडी पर
झाडिय़ों में लटके हैं दुर्लक्षित प्रेत
उसने कहा,
'लोगों में संशय हैं,
यह आत्महत्या नहीं है,
किन्तु यह मानव विनाश की योजनाबद्ध साजिश है
इसलिए ऐसी हरकत कोई क्यों किसके लिये करेगा।
कहते हैं चौरासी लाख योनि के बाद
'मनुष्य' के रूप में प्राप्त हुआ दुर्लभ सुन्दर जीवन?'
सुनी है,
पानी के लिए भटकने वाली आत्माओं की दबी हुई रुदन
देखा है मैंने उसके साथ
पानी की तलाश में आग पर पैर रखकर चलने वाले लोग
उनकी आँखें धंस गई थीं गहरे सूखे कुएँ के खोल की तरह,
जान बचाने के लिए छाँव की तलाश में,
भूख से परेशान कुत्ते की तरह भटक रहा हूँ मैं उसके साथ।

सूखी नदी के रेत से निकलते लावे की उष्मा,
जैसे रेगिस्तान में तप्त मृगतृष्णा
और पंछी पलायन कर देश छोड़ गए थे
पेड़ों ने छोड़ दिया था अपना हरा रंग,
आम के मरे हुए पेड़ खड़े हुए थे
कंधों पर लादे हुए खुद का कलेवर
वह स्वयं से खुद की तारीफ करता रहता
'आग जो लग गई है इस सृष्टि में
मैं और ईश्वर ही जाने
तुम्हें इससे क्या,
किसे क्या पड़ी है और कैसे बताएं?'

अनुभव के लिए भी मैं सहन नहीं कर सकता
यह सर्वग्रासी अकाल
और अंत में मैंने ही खीझकर कहा उससे,
'लोगों से दूर, निर्जन वन में,
कहाँ छुप गया है तेरा ईश्वर?'
क्या पीछे छूट गया
पैदल तीर्थ यात्रियों की तरह गुन-गुनाता हुआ
-'बेर के इस जंगल में,
हिवर (जंगली फल) के इस जंगल में
खुले हुए इस मैदान में या वीरान जगह में
यही है ईश्वर मेरा'

और शाम ढलते हम वहाँ पहुंचे,
बेर, हिवर और पीपरणी के पेड़ों के बीच
ध्वस्त हुए पुराने गाँव के मुहाने पर
आकाश उठाए माथे पर
फैल रहा था आदिम मंदिर
: यह क्या है? यह कैसे है?
सिन्दूर लगे उबड़-खाबड़ पत्थरों की प्रदर्शनी?
कहा उसने-
'इन्हें कहो मत पत्थर
हमारे 'रखवाले' हैं
हमारे पूर्वज हैं
जिन्होंने गए-गुजरे दिनों में राह दिखाई है,
जिन्होंने इशारा किया भविष्य के बारे में
और बचाया है बुरी आत्माओं से।
ये धरती माँ के उपासक हैं।
यहाँ के हरेक पत्थर को रखा है हमने संभालकर,
उनके स्मरणों को जीवित रखा है।
यही है हमारा 'सुंबरान'
गुजरे अतीत का
उलझनों का
भविष्य की संभावनाओं का
आज मुझसे प्रस्तुत करने को कहा है
अपने वर्तमान की
'भाकनूक'*

: भाकनूक क्या होती है ये भाकनूक?
समझदारी से मेरे हाथ को दबाते हुए वह मुस्कराया।

पहले से ही वहाँ लोग बाग जमा हो गए थे,
उनके पहनावे में कई रंग का था तालमेल।
बाल बिखरे हुए
विमुक्त घूम और नाच रही थीं स्त्रियाँ
मन्दिर के सामने बज रहे थे ढोल
जैसे प्रत्येक शरीर घूम रहा था हवा की तरह
इन सभी बिखराव के बीच से
उभरकर आया नृत्य
'गजी-घाय'**
- पूरी तल्लीनता से उन लोगों ने पैदा की देह में
सदियों की अन्तर्मन की लीनता

ढोल की ताल पर सम्पूर्ण आकाश में
लोगों के हाथों से उमड़ पड़ा 'भंडारा'
अचानक मुझसे हाथ अपना छुड़ाकर
ढोल के ताल पर वह झूमने लगा हवा में
लोग इसी की राह देख रहे थे।
वह बयां करने वाला था अपने समय की 'भाकनूक'।
उसने अपने शरीर को दी खूब तकलीफ।
कच-कचा कर निम्बुओं को फोड़ दिया दातों से,
हाथ पर जलते हुए कपूर की
प्रदीप्त अग्नि को मुँह से निगल लिया उसने,
लोगों ने ईश्वर से कहा मत करिए पेड़ों का बेहाल
कह डालो जो होगा विधी का विधान
अक्षरश: चिल्लाया, आग-बबूला होते हुए,
हिचकियों के साथ
आँखें मूं्द कर आकाश की ओर निहारते हुए
उसने कहा -

(साल 1997 में पर्यावरण को लेकर 178 राष्ट्रों के प्रतिनिधियों द्वारा तैयार किए गए क्वेटा प्रोटोकोल में लिए गए निर्णय के कुछ अंश काव्य रूप में जो इस कविता का ही हिस्सा है)

- 'अब नहीं सह पा रहा हूँ यह पीड़ा
कौन अपने निहित हितों के लिए
धरती के विनाश की राह ताक रहा है?

कौन निगल रहा है जमीन,
और आसमां को कर रहा है काबू में?
कौन कर रहा है समंदर के पानी को प्रदूषित विस्फोटक तत्वों से?
कौन बेच रहा है पहाडिय़ों को,
और नदी-नालों को कर रहा है नीलाम?
जहाँ धकेल दिया गया है मनुष्य हाशिए पर,
कहाँ चरायेंगे हमारे जानवर?
कौन फोड़ रहा है हमारी आत्मा पर एटम बम
कोई है,
है कोई तो रोको इसे
बेवजह बढ़ा रहे हैं उबाऊ तापमान,
तो डूबेंगे सबसे पहले समुद्र किनारे बसे शहर,
जैसे यादव की डूब गई थी समुद्र में द्वारका,
मेरे भोले-भाले शंकर के हिमालय को कभी भी लग सकती है आग,
बर्फों के शिखर भभक उठेंगे
और नदियाँ हो जाएंगी बाढ़-ग्रस्त
और अच्छे-खासे शहर तहस-नहस हो जाएँगे
बढ़ेगा सभी जगह का तापमान,
सूख जाएंगी नदियाँ, तालाब और बांध,
धरती के पेट में समां जायेगा
बचे-खुचे पानी का अंतिम तालाब
फिर कहां भटकेंगे मेरे पंछी?
कैसे जिन्दा रहेंगे पेड़ और जानवर?
तब मनुष्य ही मनुष्य की पहचान नहीं कर पाएगा
बाप अपनी बिटिया को,
भाई बहन को,
पति, पत्नी को,
बेचेगा बाजार में
सबसे पहले बच्चों को निपटाएगा
और बाद में अपनी थाली में जहर मिलाएगा।
इसीलिए रोको... रोको यह तापमान
धरती पर मालिकाना हक जताने वाले को
रोको,
रोको पृथ्वी के दुश्मनों को
रोको
नहीं तो अटल है, अटल है विनाश',
***
अंतत: वह थककर गिर पड़ा जमीन पर
जैसे अनजान हवा ने छोड़ दिया हो पेड़ों को
अब तक स्तब्ध था जन-समुदाय
हवा के झोंके से आया उन्हें होश
और मुरझाए बारिश के दिनों में
'येरला' नदी के रेत से
बगैर बाढ़ के फूटने लगे हैं झरने,
उन सभी के मुँह से अचानक शब्द निकले,
'बयां किया दास्ताने सुंबरान'
बयां किया सुंबरान


* सुंबरान महाराष्ट्र के 'धनगर' समाज में रात भर चलने वाले कार्यक्रम को कहा जाता है जिसे हिन्दी पट्टी में 'जगराता' कहते हैं

* धनगरों का आदि देव।

* धनगर समाज की भाकनूक का अर्थ है पूर्व-घोषित प्राक्कथन और आनेवाले समय का भविष्य कथन। ** 'गजी-घाय' - इन लोगों का आदिम देव।


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