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जनवरी 2016

क्यों करते हैं इंसान धरती पर राज

युवा नोह हरारी / अनुवाद एवं प्रस्तुति : आशुतोष उपाध्याय

आरंभ-दो/व्याख्यान

अमेरिका, गूगल और विश्वबैंक का मनोगत संसार




लाखों साल पहले हमारे पुरखे मामूली जानवर थे। प्रागैतिहासिक इंसानों के बारे में सबसे महत्वपूर्ण बात हम यही जानते हैं कि वे ज़रा भी महत्वपूर्ण नहीं थे। धरती में उनकी हैसियत एक जैली फिश या जुगनू या कठफोड़वे से ज्यादा नहीं थी। इसके विपरीत, आज हम इस ग्रह पर राज करते हैं। सवाल उठता है: वहां से यहां तक हम कैसे पहुंच गए? हमने खुद को अफ्रीका के एक कोने में अपनी ही दुनिया में खोए रहने वाले मामूली वानर से पृथ्वी के शासक में कैसे बदल डाला? अमूमन हम अपने और अन्य सभी जानवरों के बीच व्यक्तिगत स्तर पर अंतर खोजते रहते हैं। हम यह विश्वास करना चाहते हैं - मैं यह विश्वास करना चाहता हूं - कि मुझ में कुछ तो खास है, मेरे शरीर में, मेरे दिमाग में, जो मुझे एक कुत्ते या एक सूअर या एक चिम्पैंजी से श्रेष्ठ बनाता है। लेकिन सच यही है कि मैं शर्मिंदगी की हद तक एक चिम्पैंजी जैसा ही हूँ। अगर आप मुझे और एक चिम्पैंजी को साथ-साथ किसी निर्जन द्वीप पर छोड़ दें, और पूछें कि खुद को जिन्दा रखने के संघर्ष में कौन बेहतर साबित होगा तो इस सवाल पर मैं खुद अपने बजाय चिम्पैंजी पर दांव लगाना चाहूंगा। ऐसा कतई नहीं कि व्यक्तिगत रूप से मुझमें कोई गड़बड़ी है, मेरा अंदाज़ा है कि आप में से किसी को भी अगर चिम्पैंजी के साथ उस द्वीप में छोड़ दिया जाय, चिम्पैंजी हर हाल में आप पर भारी पड़ेगा।
मनुष्य और अन्य सभी जानवरों के बीच वास्तविक अंतर व्यक्तिगत स्तर पर नहीं होता; दरअसल यह अंतर सामूहिक स्तर पर होता है, इंसान पृथ्वी पर इसलिए राज कर पाते हैं, क्योंकि वे अकेले ऐसे जानवर हैं जो बड़े लचीलेपन से और बहुत बड़ी संख्या में सहयोगपूर्ण व्यवहार कर पाने में सक्षम हैं। हाँ, कुछ और जीव भी हैं - जैसे सामाजिक कीट, मधुमक्खियां, चीटियां - ये भी बहुत बड़ी संख्या में सहयोगपूर्ण व्यवहार करते हैं, लेकिन उनके सहयोग में लचीलापन नहीं होता। वे अत्यंत अनम्य तरीके से सहयोग करते हैं। मधुमक्खियों के छत्तों का कामकाज सिर्फ एक ही तरीके से चलता है। और अगर कहीं कोई नई संभावना या कोई नया खतरा पैदा हो जाये तो मधुमक्खियां अपनी सामाजिक व्यवस्था को रातों-रात नहीं बदल सकतीं। उदाहरण के लिए, वे अपनी रानी को फांसी के तख्ते पर टांगकर मधुमक्खियों का गणतंत्र या फिर कामगार मधुमक्खियों का साम्यवादी अधिनायकत्व स्थापित नहीं कर सकतीं।
अन्य जानवर, जैसे सामाजिक स्तनधारी- भेडि़ए, हाथी, डोल्फिन और चिम्पैंजी- कहीं ज्यादा लचीलेपन के साथ सहयोगपूर्ण व्यवहार करते हैं। लेकिन वे ऐसा बहुत छोटी संख्या में कर पाते हैं। क्योंकि चिम्पैंजियों के बीच यह सहयोग एक दूसरे के बारे में बेहद करीबी जानकारी के आधार पर होता है। मैं एक चिम्पैंजी हूं और आप एक चिम्पैंजी हैं और मैं आपके साथ सहयोग करना चाहता हूं। इसके लिए मुझे आपको व्यक्तिगत तौर पर जानना होगा। आप किस किस्म के चिम्पैंजी हैं? क्या आप एक नेक चिम्पैंजी हैं? क्या आप एक दुष्ट चिम्पैंजी हैं। क्या आप पर भरोसा किया जा सकता है? अगर मैं आपको नहीं पहचानता तो मैं कैसे आपके साथ सहयोग कर सकता हूं? अकेला जीव, जिसे इन दोनों खूबियों - बहुत बड़ीसंख्या में और भरपूर लचीलेपन के साथ सहयोगपूर्ण व्यवहार करने में महारत हासिल है, वह हम मनुष्य ही हैं - होमो सेपियंस। एक बनाम एक या यहां तक कि 10 बनाम 10 के लिहाज से, चिम्पैंजी हम पर भारी पड़ेंगे। लेकिन अगर आप 1000 इंसानों को 1000 चिम्पैंजियों के सामने खड़ा कर देंगे, तो इंसान आसानी से बाज़ी मार ले जाएंगे। वजह बेहद मामूली कि हजार चिम्पैंजी सहयोगपूर्ण ढंग से कतई नहीं रह सकते, और अगर आप एक लाख चिम्पैंजियों को ऑक्सफोर्ड स्ट्रीट या बेम्बली स्टेडियम या तिएनमान चौक या वेटिकन में धकेल देंगे तो वहां पूरी तरह अफरा-तफरी मच जाएगी। जरा कल्पना कीजिए - एक लाख चिम्पैंजियों से भरे वेम्बली स्टेडियम की! पागल की हद।
इसके विपरीत, इंसान सामान्यतया हजारों-लाखों की तादाद में इकट्ठा होते हैं और आम तौर पर जरा भी अफरा-तफरी नहीं होती। बल्कि दिखाई देता है सहयोग का अत्यंत परिष्कृत और प्रभावशाली नेटवर्क। समूचे इतिहास में दर्ज़ महान इंसानी उपलब्धियां- चाहे वह पिरामिडों का निर्माण हो या फिर चांद का सफर- किसी की व्यक्तिगत क्षमताओं का नतीजा नहीं बल्कि बड़ी संख्या में भरपूर लचीलेपन के साथ मिलजुलकर काम करने की हमारी क्षमता का परिणाम है।
अब इस भाषण को ही लीजिए, जो इस वक्त मैं आपके - लगभग 300 या 400 श्रोताओं- के सामने दे रहा हूं। आपमें से अधिकतर को मैं बिलकुल नहीं जानता। इसी प्रकार, मैं आज के इस आयोजन की योजना बनाने वाले और उसे अंजाम देने वाले सभी लोगों को नहीं जानता। मैं उस विमान के पायलट और उसके क्रू मेम्बर्स को नहीं जानता जो कल मुझे यहां लन्दन लेकर आया। मैं उन लोगों को नहीं जानता जिन्होंने मेरी बातों को रिकॉर्ड करने वाले इस माइक्रोफोन और इन कैमरों को खोजा और बनाया। मैं उन लोगों को नहीं जानता, जिनकी किताबों और लेखों को मैंने इस भाषण की तैयारी के लिए पढ़ा। और निश्चय ही मैं उन तमाम लोगों को भी नहीं जानता जो ब्यूनस आयर्स या नई दिल्ली में कहीं बैठे इंटरनेट पर मेरे इस भाषण को देख रहे हैं। बावजूद इसके कि हम एक-दूसरे को नहीं जानते, हम विचारों के वैश्विक आदान-प्रदान के लिए एक साथ काम कर सकते हैं। एक ऐसी चीज है जो चिम्पैंजी नहीं कर सकते। बेशक वे आपस में संवाद कर सकते हैं, लेकिन आप ऐसे चिम्पैंजी को नहीं ढूंढ सकते जो कहीं दूर किसी और चिम्पैंजी झुण्ड को, केलों या हाथियों या उनकी दिलचस्पी के किसी अन्य विषय पर भाषण देने के लिए यात्रा कर रहा हो। हां, सहयोग बेशक हमेशा किसी अच्छी बात के लिए ही होता हो, ऐसा नहीं है। समूचे इतिहास में इंसानों ने जितने भी वीभत्स कृत्य किए हैं - और आज भी हम कई अत्यंत वीभत्स कृत्य कर रहे हैं- ये सभी काम बड़ी संख्या में किए जाने वाले सहयोगपूर्ण व्यवहार का परिणाम हैं, जेल सहयोग से पैदा होने वाली व्यवस्था है; जनसंहार केन्द्र सहयोग आधारित व्यवस्था है; यातना शिविर सहयोग आधारित व्यवस्था है। चिम्पैंजियों के पास जनसंहार केंद्र और जेल और यातनाशिविर नहीं होते। अब मान लीजिए मैं आपको यह समझाने में सफल हो जाता हूं कि हम धरती पर इसलिए शासन कर पाते हैं क्योंकि हममें लचीलेपन सहित बड़ी संख्या में सहयोग करने की क्षमता है। एक जिज्ञासु श्रोता के मन में इस दावे से तुरंत यह सवाल पैदा हो सकता है: ऐसा हम ठीक-ठीक कैसे कर पाते हैं? तमाम जानवरों से अलग वह कौन सी बात है जो एकमात्र हमें इस तरह सहयोग कर पाने लायक बनाती है?
इसका जवाब है हमारी कल्पनाशक्ति। हम असंख्य अजनबियों के साथ लचीलेपन सहित इसलिए सहयोग कर पाते हैं, क्योंकि इस ग्रह के सभी जीवों में अकेले हम कपोल कल्पनाएं करने व कहानियां गढऩे और उन पर विश्वास करने में सक्षम हैं। जब तक लोग इन कहानियों में विश्वास करते रहेंगे, वे इसके नियमों, उसूलों और मूल्यों का पालन करेंगे।
बाकी सभी जीव अपने संवाद तंत्र का इस्तेमाल यथार्थ को प्रकट करने भर के लिए करते हैं। एक चिम्पैंजी कह सकता है, ''देखो वहां शेर बैठा है, चलो भाग चलें!'' या, ''देखो! वो वहां केले का पेड़ है! चलो चलकर केले खाएं!'' इसके विपरीत, मनुष्य अपनी भाषा का इस्तेमाल यथार्थ का वर्णन करने मात्र के लिये नहीं करता, बल्कि नए यथार्थ, काल्पनिक यथार्थ गढऩे के लिए भी करता है। एक मनुष्य कह सकता है, ''देखो, वहां ऊपर आसमान में भगवान बैठे हैं! और अगर तुम मेरे कहे अनुसार आचरण नहीं करोगे तो तुम्हारी मृत्यु के बाद वह तुम्हें दंड देंगे। तुम्हें नर्क में भेज देंगे।'' अगर आप सब मेरी गढ़ी हुई इस कहानी पर विश्वास करेंगे तो आप उसमें सुझाए गए तौर-तरीकों, नियमों व मूल्यों का अनुसरण करने लगेंगे और उनकी मान्यताओं के आधार पर सहयोग करने लगेंगे। यह एक ऐसी चीज है जो सिर्फ इंसान ही कर सकते हैं.
आप किसी चिम्पैंजी को यह कहकर नहीं पटा सकते कि ''अगर तुम यह केला मुझे दे दोगे तो मरने के बाद तुम्हें चिम्पैंजियों का स्वर्ग नसीब होगा...'' ''...और अपने अच्छे कर्मों के लिए तुम्हें वहां केले के ढेर के ढेर मिलेंगे।'' कोई चिम्पैंजी इस तरह की कहानी में कभी भी विश्वास नहीं करेगा। सिर्फ इंसान ऐसी कहानियों में विश्वास करते हैं। और इसी वजह से हम इस दुनिया में राज कर पाते हैं, जबकि चिम्पैंजी चिडिय़ाघरों और प्रयोगशालाओं में कैद रहते हैं। अब आपको यह मानने में कोई दिक्कत नहीं होगी कि धर्म के दायरे में समान किस्से पर विश्वास करने की वजह से मनुष्य परस्पर सहयोग करते हैं।
लाखों लोग एक गिरजाघर या मस्जिद के निर्माण के लिए एकजुट होते हैं। जिहाद या क्रूसेड के नाम पर युद्ध में उतर जाते हैं। क्योंकि वे सब ईश्वर, स्वर्ग और नर्क के बारे में एक जैसी कहानियों में यकीन करते हैं। लेकिन मैं जोर देकर कहना चाहता हूं कि यह प्रक्रिया सिर्फ धर्म के क्षेत्र में ही नहीं बल्कि बड़े पैमाने पर संपन्न होने वाले मानव सहयोग के अन्य सभी कार्यक्षेत्रों पर भी लागू होती है। उदाहरण के लिए न्यायिक क्षेत्र को ही लीजिए। आज दुनिया की अधिकतर न्याय-व्यवस्थाएं मानवाधिकारों के ऊपर आस्था पर टिकी हैं। लेकिन ये मानवाधिकार आखिर हैं क्या? मानवाधिकार, ईश्वर या स्वर्ग की तरह हमारी खुद की गढ़ी हुई एक कहानी भर है। ये वस्तुगत यथार्थ नहीं हैं। ये होमो सेपिएंस सम्बंधी ठोस जैविक प्रभाव नहीं हैं।
एक आदमी के शरीर को काट कर खोलिए, अन्दर झांकिए। वहां आपको दिल, गुर्दे, तंत्रिकाएं, हार्मोन और डीएनए आदि मिलेंगे लेकिन कोई अधिकार कहीं नहीं मिलेगा। एकमात्र जगह जहां ये अधिकार पाए जाते हैं वह हमारी गढ़ी हुई कहानियां, जिन्हें हमने पिछली कुछ सदियों में खूब फैलाया है। ये निहायत सकारात्मक और बहुत अच्छी कहानियां हो सकती हैं, मगर फिर भी ये हमारी गढ़ी हुई निरी कपोल कल्पनाएं ही हैं।
यही बात राजनीतिक क्षेत्र पर भी लागू होती है। आधुनिक राजनीति के सबसे महत्वपूर्ण तत्व हैं राज्य और राष्ट्र। लेकिन ये राज्य और राष्ट्र हैं क्या? ये वस्तुगत यथार्थ नहीं हैं। एक पहाड़ वस्तुगत यथार्थ है। आप इसे देख सकते हैं, छू सकते हैं और यहां तक कि इसकी गंध महसूस कर सकते हैं। लेकिन एक राष्ट्र या राज्य, जैसे - इजराइल या ईरान या फ्रांस या जर्मनी - महज एक किस्सा है, जिसे हमने गढ़ा और जिसके साथ बेइंतहा चिपक गए। यही बात आर्थिक क्षेत्र पर भी लागू होती है। वैश्विक अर्थव्यवस्था में आज सबसे महत्वपूर्ण कर्ता हैं कम्पनियां और कॉर्पोरेशन। आप में से कई इनके लिए काम भी करते होंगे - जैसे गूगल या टोयोटा या मैकडोनाल्ड। ये चीज़ें दरअसल हैं क्या? ये वकीलों की गढ़ी हुई कहानियां हैं। ये उन शक्तिशाली जादूगरों की खोजी और संजोई हुई कहानियां हैं, जिन्हें हम कानूनविद कहते हैं। और ये कॉर्पोरेशन दिन-रात क्या करते रहते हैं? आम तौर पर वे पैसा बनाने की जुगत में लगे रहते हैं। मगर, यह पैसा क्या होता है? फिर से पैसा भी कोई वस्तुगत यथार्थ नहीं है। इसकी कोई वस्तुगत कीमत नहीं है। आप इसे खा नहीं सकते, पी नहीं सकते और न ही पहन सकते हैं। लेकिन फिर ये महान किस्सागो आते हैं- बड़े बैंकर, वित्तमंत्री, प्रधानमंत्री- ये सब हमें बेहद भरोसे लायक कहानी सुनाते हैं - ''देखिये, आप कागज़ के हरे टुकड़े को देख रहे हैं? यह असल में 10 केलों के बराबर है।'' और अगर मैं इस बात में विश्वास करता हूं, आप इसमें विश्वास करते हैं, और हर कोई इसमें विश्वास करता है, तो यह सचमुच काम करने लगती है। मैं कागज के इस बेमोल टुकड़े को लेकर बाज़ार जा सकता हूं और इसे किसी नितांत अनजान व्यक्ति, जिससे मैं अब तक कभी मिला नहीं, को देकर बदले में खाए जाने वाले असली केले ले सकता हूं। यह बात सचमुच आश्चर्यजनक है। आप ऐसा चिम्पैंजी के साथ नहीं कर सकते। लेनदेन बेशक चिंपैंजियों में भी होता है: ''हां, तुम मुझे एक नारियल दो, मैं तुम्हें एक केला दूंगा।'' यह काम करता है। लेकिन तुम मुझे कागज का एक बेकार सा टुकड़ा दो और उम्मीद करने लगो कि मैं तुम्हें एक केला दे दूँ? बिलकुल नहीं! तुम क्या सोचते हो मैं कोई इंसान हूँ? पैसा असल में मनुष्यों द्वारा खोजी और सुनाई गयी अब तक की सबसे सफल कहानी है। क्योंकि यही वह कहानी है जिस पर हर कोई विश्वास करता है।
हर कोई ईश्वर पर विश्वास नहीं करता। न ही हर आदमी मानवाधिकारों पर विश्वास करता है। राष्ट्रवाद पर भी हर किसी को यकीन नहीं। लेकिन नोटों की शक्ल में पैसे पर हर कोई यकीन करता है। ओसामा बिन लादेन को ही लीजिए। उसे अमेरिकी राजनीति, वहां के मजहब और संस्कृति से नफरत थी। लेकिन उसे अमेरिकी डॉलर से कोई दिक्कत नहीं थी। असल में वह उन्हें काफी चाहता था।
अंत में : हम मनुष्य धरती पर इसलिए राज कर पाते हैं क्योंकि हम दोहरी वास्तविकता में जीते हैं। शेष सभी जीव वस्तुगत यथार्थ में जीते हैं। उनके यथार्थ में वस्तुगत चीज़ें शामिल हैं, जैसे- नदी, पेड़, शेर और हाथी। हम इंसान भी वस्तुगत यथार्थ में जीते हैं। हमारी दुनिया में भी नदियां हैं, पेड़ हैं और शेर-हाथी वगैरह हैं। लेकिन सदियों से हमने अपने वस्तुगत यथार्थ के ऊपर मनोगत यथार्थ की एक और परत चढ़ा दी है। यह यथार्थ कल्पना से उपजी चीज़ों से बना है, जैसे- राष्ट्र, ईश्वर, पैसा और जैसे कॉर्पोरेशन। और हैरानी की बात यह है कि जैसे-जैसे इतिहास आगे बढ़ा, मनोगत यथार्थ और मज़बूत होता चला गया। आज दुनिया की सबसे बड़ी शक्तियों में यही काल्पनिक वस्तुएं हमारे सामने हैं। आज नदी, पेड़, शेर और हाथी जैसे वस्तुगत यथार्थ का अस्तित्व भी अमेरिका, गूगल, विश्व बैंक जैसी उन काल्पनिक शक्तियों के निर्णयों और इच्छाओं पर निर्भर है, जिनका अस्तित्व सिर्फ हमारे मनोगत संसार में है। धन्यवाद।






युवाल नोह हरारी- 24 फरवरी 1976 को जन्मे 40 वर्षीय हरारी जेरुसलम के हिब्रू विश्वविद्यीलय में इतिहास के अध्यापक हैं। 'मानव जाति का इतिहास' उनका बेस्ट सेलर है और वे यहूदी-लेबनानी अभिभावकों की संतान हैं। आपने मध्य-युग और सैन्य इतिहासों पर विशेष काम किया है। इन दिनों वे प्राय: कुछ दिलचस्प शीर्षकों पर काम करते हैं - जैसे क्या इतिहास की परतें खोले जाने पर लोग बेहतर खुश होते हैं? या क्या इतिहास में न्याय अन्तर्निहित है और क्या इतिहास की कोई दिशा है? हमारी को दो बार 2009 और 2012 में पोलंस्की पुरस्कार मिला और वे 2012 में ही इजराइल की अकादमी ऑफ साइंस के लिए चुने गये। हरारी जेरुसलम के एक संगीन इलाके में रहते हैं। फेसबुक के प्रणेता जुकरबर्ग ने हरारी के रचनाकर्म का आदर किया है।


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