पोस्टर कविता/एक
मृत्युंजय तिवारी सल्फास
किसानों की आत्महत्या की खबर जैसे सागर में तैरते हुए आइसबर्ग दिखने में कितने छोटे लेकिन समझदार जहाजी चौकन्ना होता है अपने जहाज की दिशा बदल देता है फिसफिसाती हुई चलती हैं उत्तर दक्खिनी हवाएं समझदार जहाजी चौकन्ना होता है अपने कानों में रुई के फाहे डाल लेता है मुसाफिरों के लिए चला देता है कोई उत्तेजक, भड़कीला संगीत और किसान? उसके पास बचाव के लिए सिर्फ बिजूका है। खेतों में भी, घर पर भी। खेत का बिजूका-हाथों में लाठी, आँखों पर ऐनक घर का बिजूका- मूर्तियां, तस्वीरें, माला मनके, एक छोटी सी रामायण किसान अक्सर लम्बी उसांस लेकर रामायण का पाठ करता है। धूपबत्ती जलाता है उपवास करता है हर शनीचर या मंगलवार को हनूमान मंदिर जाता है लेकिन कोई भी पूजा पाठ, टोटका किसी काम का साबित नहीं होता कोई नहीं डरता ना ढोर डाँगर, ना चिरई चुरुङ्ग व्यर्थ हो जाते हैं गंडे तावीज किसान को हमेशा किसी न किसी की नजर लग ही जाती है कभी रामजी की कभी किसी अलाय बला की किसान के माथे की लकीरें गहरी होती जाती हैं हर रात पूस की रात बन जाती है खेतों के पार से आती हैं गुर्राहटों की आवाजें जिसे सिर्फ किसान ही सुन पाता है सपने में किसी की लाल आँखें घूरती नजर आती हैं किसान का मन उस बछड़े की तरह हुलसता है जिसे उसकी माँ के थन से मुँह लगने के बाद ही खींच लिया गया हो किसान भरी जवानी में ही अपनी झुर्रियों से भरी चमड़ी को देखता है फिर हाथों में आई दमड़ी को फिर गाडिय़ों में भरकर जाते हुए अनाज को देखता है और उसका कलेजा फटने लगता है अभी कल ही महाजन आया था तकाजा करने। आज बैंक वाले लोन उगाही के लिए पहुंचेंगे बेटियाँ ब्याहने लायक हो गई हैं अब किससे कर्ज लेगा? लड़का ताड़ी गाँजा में डूब रहा है दिन रात कान में मोबाइल? शहर का परनाला गाँव में भी बहने लगा है कितनी छोटी हो गई है दुनिया लेकिन कितनी बढ़ गई हैं दूरियाँ? कहाँ तक भागेगा? किस किस से भागेगा? इस बार होली में किसी को कपड़ा नहीं दे सका न बीबी को लूगा न बेटियों को सलवार शमीज अपनी बात छोड़ो अपनी तो एक बंडी में ही बारह महीने कट जाते हैं पहले खेतों को परिधान पहनाना जरूरी है पिछले साल विधायक जी आए थे कन्धे पर हाथ रखकर बोले थे चिन्ता मत करो, सब ठीक हो जाएगा तुम्हारी सारी समस्याएं सरकार देख रही है तबसे साल लग गया विधायक जी राजधानी की धूप सेंक रहे हैं किसको अपना दुखड़ा सुनाए? छोटी बेटी मुनिया की नाक दिन रात चूती है माध्यमिक पास रमेसरा गाँव का सबसे बडा डाक्टर है वह आकर दवाई दे जाता है कभी कभार अखबार वाले आते हैं उसके हडिय़ल शरीर का फोटू खींचने किसान बिफर उठता है कैमरे पोज लेते हैं आप लोग तो धरती पुत्र हो जरा मुस्कुराइए किसान कहता है- मैं मुस्कुराना नहीं जानता मुस्कुराते तो आप लोग हैं। हम लोग तो बस दाँत चियारते हैं कभी भोकार पारने के लिए कभी घिघियाने के लिए कभी कभार हँसते भी हैं तो ठठाकर फागुन की बौराई हवा जैसी जब अपने पसीने से खेतों में खड़ी फसल को झूमते हुए देखते हैं गँवार हैं ना साहेब! अब आपलोग जाओ मेरे पास समय नहीं है खेतों में दवा छिड़कने जाना है इस बार कीड़े मकोड़े काफी बढ़ गए हैं फसल भी अच्छी नहीं हुई खाद खरीदने के पैसे कम पड़ गए अपना कोई दिल्ली कलकत्ता में नहीं रहता पैसे कौन भेजेगा? हम छोटे किसान हैं खेत रेहन पड़े हैं मालगुजारी भर नहीं पाते। घर में गहना गुरिया भी नहीं बीवी की चाँदी की हँसुली गाँव के गलकटवा सोनार के पास गिरवी पड़ी है मुआ कहता है यह असली नहीं है क्या क्या देखें? कितना सहें? अब और बर्दाश्त नहीं होता किसान खेत की मेड़ के पास खड़ा है हे डीह बाबा! हे काली माई! हे महाबीर जी! हे शंकर जी! कहाँ हो तुम लोग? हे धरती मइया! देख रही हो ना यह सब? किसान के हाथ में सल्फास की शीशी है उसे खेतों में दवा छिड़कना है कीडे मकोड़ों से राहत पाने के लिए उसकी अपनी जिन्दगी भी तो साँसत से भरी है किसान तय नहीं कर पा रहा है पहले किसे राहत दे किसान को याद आता है चलते समय मुनिया ने कहा था- बापू! खेतों से पकी हुई बालियाँ लेते आना होरहा भूँजेंगे किसान की आँखों की मेड़ भरभरा कर टूट जाती है
पोस्टर कविता/दो
रूबीना सैफी वो सपने कहां दफ्न हैं क्योंकि हाशिमपुरा को एक कब्रगाह तो नहीं होना था
गुलमर्ग* तुम्हारी बूढ़ी और बेबस आंखों ने सड़क के इस पार खड़े-खड़े देखा है चुपचाप, जख़्मों को गलते जख़्मों को रिसते जख़्मों को सूखते कितनी ही बार लोग देखते रहे तुम्हारे पर्दे पर हत्याएं, लूट, नाइंसाफी पहली बार देख रहे थे तुम बगैर पर्दे के, बेपर्दा सच सुन रहे थे हथकरघों के शोर के पार चीखें और रुलाइयां और मौन जो पर्दे पर कभी नहीं देखा सुना गया फिर याद्दाश्त पर लगे अनगिनत जख़्मों के गवाह हो तुम उतने ही उजड़े हो तुम इस पार जितना उस पार हाशिमपुरा किसी की गवाही काम नहीं आई तुम्हारी भी नहीं * * * उस रोज़ तुमने तो देखा था सारा मंजर चीखें सुनी थीं साफ-साफ औरतों और बच्चों की नौजवानों की जवानी से डरे हुए लोग ले गए उन्हें मनहूस पीले ट्रक में भरकर वह कत्लगाह की सवारी गुस्सैल सांड की तरह चला गया अफरा-तफरी में उड़ाता हुआ धूल
पीछे छोड़ गया सिर्फ दस्तानों का सिलसिला जिसे सुनाया जाना था छूटे हुए लोगों के जरिये आने वाली कई पीढिय़ों तक * * *
तुमने तो देखी थीं हाशिमपुरा की बंद गलियों में दूर जाती नजर के दायरे में नालियों और सड़कों पर बिखरी पड़ी लावारिस टोपियां और चप्पलें बेबस और अनाथ इंतजार में अपने सिरों और पैरों के शिनाख्त करती रहीं महीनों अपने जिस्मों की पड़ीं रहीं गठरियों में बंद फिर न लौट सकीं अपने घरों को
फिर खबरें लौटती रहीं फेहरिश्त लौटती रही दास्तानें लौटती रहीं और लौटती रहीं चीखें और दर्द कुछ खुले जख़्म भी लौटे * * *
दरवाज़े खुले ही रहे महीनों म$गरिब के वक्त अज़ानें पुकार सी लगती रही महीनों दुआओं में मांगने को वापसी भी न बची थी। और भूख जो हफ्तों तक डेरा डाले रहती और ठंडापन, जो चूल्हों की किस्मत बन गया और बीमारियां, जो दवाओं से महरूम रहीं और किताबें, जिन्हें किसी आंख की रोशनी का साथ नहीं मिला
और फिर जिन हाथों की पतंगों के मांझे कई बार उलझे थे तुम्हारे फिल्मी पोस्टरों के ठीक सामने उनके हाथ हथकरघों के धागे थामने लगे इम्तेहान के नतीजों की जगह मिलती रही रोज़-रोज़ की दो तीन रुपए दिहाड़ी मोती-सितारे लगाती हुई औरतों की आंखों में चुभती रही तुम्हारे रंगीन पोस्टरों की चमक कपड़े पर बेलबूटे काढ़ती हुई लड़कियों की आंखों में सूई की नोंक में चुभते रहे सपने... * * *
तुम तो देखते ही होगे अपने सामने जनता हार्डवेयर स्टोर पर बैठे उस सलीम को जो अपने वालिद की लाश के साथ वापस लौटा था जेल से गुमसुम बैठा सोचता था इबादत के लिए तुझे चुनकर क्या दुश्मनी ली है मैंने इस निज़ाम से उदास रहता था रातों को चीखता था तुम्हारी ही आंखों के सामने सवालों और खौफ ने कई बार धकेला उसे गाड़ी के नीचे सपनों में अब्बा जमील और भाई नसीम आते दर्द में चीखते-चिल्लाते, आवाजें लगाते, बुलाते
और एक दिन वो अपने सपनों से भी लड़ न सका जैसे उस दिन उन टोपों, बूटों और बंदूकों से आज उसकी बेवा बैठती है उसी जनता हार्डवेयर स्टोर पर अपने बेटे, शाहनवाज के साथ
एक हाशिमपुरा ले गया जमील को एक हाशिमपुरा सलीम लेकर लौटा था जेल से एक हाशिमपुरा पीछे छोड़ गया सलीम अपने छह बच्चों के लिए बच्चे अपने हाशिमपुरा के साथ आज भी जिंदा हैं * * *
अब हाशिमपुरा के हर चौराहे पर दिखता है हाशिमपुरा मुफ्ती मो. हाशिम भी हैरान हैं हाशिमपुरा, हाशिमपुरा नहीं रहा धीरे धीरे देश हो गया है हाशिमपुरा
तुमने तो देखा ही होगा अपने दर्शकों की आंखों में रोज़ बनता नया हाशिमपुरा * * *
कितनी ही शकीला, जुबैदा, नसीबन हाजरा, नसीम, अनवरी, सुबरा, हनीफा हैं यहां जिनकी आंखों में इंतजार जम गया है निजाम ने छीन ली है आस और उम्मीद की तरावट भी इन आंखों से इनकी आंखों की पुतलियों पर सिर्फ तस्वीरें चलती फिरती तस्वीरें जिन्हें वक़्त बे वक़्त आते हैं रिपोर्टर और ले जाते हैं अपने कैमरे में बंद करके इन पुतलियों के पीछे की तस्वीरें डराती है उन्हें अब भी रातों में और सोने नहीं देतीं। * * *
तुम्हारे पर्दे पर मुसीबत की एक ठोकर ही काफी है बच्चों के बढऩे के लिए यहाँ रोज़-रोज़ का खाद पानी चाहिए रोज़-रोज़ तिल-तिल बढ़ता देखतीं हैं बच्चों को और डर जाती हैं आज भी हाशिमपुरा की मांएं * * *
कितने दिनों तक तुम्हारे पर्दे के सामने बैठे बच्चे सोचते होंगे कि वो भी बदला लेंगे सोचते होंगे अदालतों में होती जिरह के बारे में सबूत तलाशती सी आई डी के बारे लोग सोचते होंगे इंसाफ की जीत होती है सोचते होंगे हैप्पी एंडिंग के बारे में
तुम तो सपने भी नहीं दे पाए उन्हें ठीक-ठीक...
* गुलमर्ग, हाशिमपुरा के सामने एक सिनेमा हॉल है जो अब बंद हो चुका है।
पोस्टर कविता/तीन
बल्ली सिंह चीमा की चार ग़ज़लें
एक सियासत इस तरह रिश्वत को चंदा मान लेती है। कि माँ जैसे बुरे बेटे को अच्छा मान लेती है। सबूतों और गवाहों पर पड़े भारी अगर पैसा, अदालत भी खुली आँखों को अंधा मान लेती है। हकूमत की नजर से देखती है जब अदालत भी, तो इक तरफा हुए कत्लों को दंगा मान लेती है। सियासत में भी जब हमदर्दियों की लहर है चलती, तो जनता एक नाली को भी दरिया मान लेती है। कभी किस्से हक़ीकत में बदल जाते हैं ऐ ''बल्ली'', कभी दुनियाँ हक़ीकत को भी किस्सा मान लेती है।
दो दंगे ने इक दरिंदे को नेता बना दिया। सुअर ने फिर से शहर में दंगा करा दिया। पापों की लिस्ट पुण्य से लम्बी न होने दी, मंदिर में या मजार पे लंगर लगा दिया। पूँजी व मीडिया मिल सकते हैं ये कमाल, मोहन बिठा दिया कभी मोदी बिठा दिया। भारी है एक ऐब कई खूबियों पे भी, इक शख्स को बुराई ने नीचे गिरा दिया। इतनी सी राजनीति है करता विपक्ष भी, दस लोग मिल गए तो पुतला जला दिया। होता रहा अजूबा 'बल्ली' के साथ ये, गैरों ने जब हँसाया, तुमने रुला दिया।
तीन चेहरे बदल गये हैं हकूमत वही रही। मालिक बदलने पर भी इमारत वही रही। वे कर रहे हकूमत जनता को बाँटकर, गोरी दिखे या काली सियासत वही रही। कुत्ता बना है राजा चक् की है चाटता, सिर पर रखा के ताज भी आदत वही रही। मेहनत को लूटने के तरीके बदल गये, ताजिर बदलने पर भी तिजारत वही रही। हाकिम बदल गये हैं या रावण बदल गये, सीता कहो कि दामिनी औरत वही रही। संसद में हों कि जेल में सुविधाएँ हैं वहीं शासन की दागियों पे इनायत वही रही।
चार पहले बाँधों ने घेरा है हर इक छोटी नदिया को। शहरों ने फिर ज़हर पिलाया प्यासे मरते दरिया को। आधा सरिया और मसाला आखिर कब तक टिक पाता, पहली बाढ़ ने मार गिराया नई-नवेली पुलिया को। पीपल से नहीं प्यार है तुझको उसकी ठंडी छाया से, जेठ-अषाढ़ ने समझाया था गाँव की काली कुतिया को। इक बच्चे और पति को छोड़ के भाग गई वो पर किसने? सुंदर जीवन का कोई सपना दिखलाया है फुलिया को। होरी के मरने पे देखो आज भी रोती है धनिया, गोबर की बेकारी देखो, लुटते देखो सिलिया को। सरकारी ऐड में हँसते-गाते जिसको देखा है तुमने, देख सको तो गाँव में देखो रोते भी उस बिटिया को।
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