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अक्टूबर 2015

एक बेहूदा क़सीदा अम्मीजान के लिए

किनफाम सिंग नांकिनरिच

शुरुआत






किनफाम सिंग नांकिनरिच का जन्म अप्रैल 1964 में सोहरा (चेरापूँजी) में हुआ। वे जवाहर लाल नेहरू (केंद्रीय) विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के प्रोफेसर हैं। यद्यपि वे खासी एवं अंग्रेजी में समान रूप से लिखते हैं, कवि के रुप में खासी भाषा-साहित्य में वे कबीराना तेवर लाने के लिए प्रसिद्ध हैं। दोनों भाषाओं में उनकी सात से अधिक केवल कविता की पुस्तकें प्रकाशित हैं। कविता का अनुवाद उदयभानु पाण्डेय ने किया है।

आर. के नारायण स्वर्गवासी हो गए।
आज की रात बॉस की कुर्सी पर वे विषादग्रस्त हो
बैठे हैं और 'एक दुर्लभ आत्मा' की चर्चा कर रहे हैं।
अचानक मेरा मन लुहुर-लुहुर करने लगा है
कि मैं भी अपनी 'दुर्लभ आत्मा' के लिए
लिखूँ एक क़सीदा इस सिरे से उस सिरे तक।
मुझे यह कहकर शुरु होने दीजिए कि मेरी अम्मी जान
नारायण की माताश्री की तुलना में ज़्यादा बेलौस
और खर हैं।
मेरी अम्मीजान पेंशन-याफ्ता, दंतहीन, मधुमेहग्रस्त,
भयंकर सिर-दर्द से लतियाई हुई और मोतियाबिंद से पीडि़त हैं।
मुख्तसर-सी बात है वह एक झगड़ालू बुढिय़ा हैं।
मुझे वे दिन भूले नहीं जब वे एक तेज़-तर्रार
अलमस्त युवती हुआ करती थीं।
दुपहरिया के बाद सोने समय वे शेरनी हो जातीं;
''ओ योनि पुत्रो!'' भौंकती ''क्या तुम लोग
एक क्षण के लिए चैन लेने न दोगे शैतान की औलादो!!!''
ज़रा यहाँ तो आओ पशुओं के बेटो!
लँगड़े हो जाओगे अगर मेरे पल्ले पड़े!
अपाहिज बना के छोडूँगी, चीलर के बच्चों!
तुम उसी गोश्त को चबाओगे जिसने तुम्हें जना है!
मेरी नींद में और खलल डालो।
फिर देखो तुम्हें इस तरह धुनूँगी
कि तुम कूकुर की तरह पुपुवाओगे!
ओ गैर जिम्मेदार उल्लू के पट्ठो!
मैं तीर के अंक कैसे खेलूँगी
अगर मुझे कोई सपना न पड़ा।
फिर तुम्हारे पेट में दाना कैसे पड़ेगा
अधम की औलादो!
और इस भयंकर हमले के बाद खडख़ड़ाते हुए आते
काठ के स्टूल, लोहे की सँड़सी और काँसे की धौंकनियाँ
जब हम अपनी जान बचाकर बेतहाशा
दौड़ रहे होते और वह खदेड़ रही होतीं हमें
बेंत और काठ के चैले लेकर,
तब उड़ रहे होते उनके खुले बाल,
आँखें बरसाती होतीं अंगारे
पागल क्रोध की अग्नि में लपलपाती हुई उनकी जीभ।
और हम महज लड़कपिल्ली थे
इसलिए हमले से बचने का कोई रास्ता नहीं था
उनके गैर पारंपरिक अस्त्रों से कन्नी काटने के सिवा।
मुझे याद है किस तरह वह मुझसे धुलवातीं
अपने उन अधोवस्त्रों को जिनमें होते खून के धब्बे
- वे केवल बेटों की माँ थीं,
सवाल ही नहीं था ना-नुकुर करने का।
सो मैं उठाता था उन पावन वस्त्रों को
लाठियों से एक पुरानी बाल्टी में तब तक
कूटता जब तक साफ पानी न निकलने लगे।
लेकिन खबरदार! यह सब होता लुक-छिप कर।
मेरी शामत आती अगर वह देख लेती कि
मेरे हाथों ने नहीं छुवा उनके पुनीत वस्त्रों को।
उन दिनों चेरापूँजी के इलाके में नहीं जानते थे लोग
कि टॉयलेट किस चिडिय़ा का नाम है।
न मेरे यहाँ कोई सेप्टिक टैंक था
न ही सर्विस लैट्रिन।
उन दिनों हम पवित्र झाडिय़ों में ही
करते थे सत्कर्म।
लेकिन अम्माजी कभी-कभी
कूड़ेदान को ही नवाज़ती थीं।
फिर इस पोतभार को पवित्र झाडिय़ों
तक ले जाने की ज़िम्मेदारी मेरी होती।
इनकार करने का सवाल ही कहां था?
इसलिए उसे मैं राख से ढक देता
जिसके ऊपर होते डली के छिलके
और दूसरी चीज़ें, मैं लंगोटिया यारों
और प्रपंची पड़ोसियों से बचने की करता कोशिश।
वे समझ सकेंगे मेरे छरछंद को
जिन्होंने पुष्पक में कमल हासन को देखा है।
मैं ऐसी हजारों नज़ीरें पेश कर सकता हूँ
यह साबित करने के लिए कि कितनी
दुर्लभ कलहप्रिय जंतु हैं मेरी माँ!
और मैं उनके बारे में एक भी अच्छी बात
कहने से इनकार करता हूँ।
मैं नारायण नहीं हूँ और यह कहने से इनकार करता हूँ
कि वे कितनी हैरान-परेशान होती थीं
जब मेरे शराबी बाप जीवित थे या
उन्होंने किस तरह दु:ख सहे पिता के मरने के बाद!
यह भी नहीं कहूँगा कि कितना कुछ सहा उन्होंने
अपने दो बेटों और मृत बहिन के शिशुओं को
इंसान बनाने के लिए।
माँ के बारे में केवल एक बात काबिल-ए-तारीफ़ है
जिसे मैं डंके की चोट पर कहूँगा
अगर उन्होंने दुबारा घर बसाया होता
और इस तरह की कर्कशा न हुई होंती
तो शायद आज मैं खड़ा न हुआ होता
यह कविता सुनाने के लिए।


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