(1) मैं खैरियत से हूं लेकिन कहो कैसे हो तुम 'राजा' बहुत दिन क्यों रहे तुम फिल्म की दुनिया में गुम 'राजा' ये दुनिया-ए-अदब से क्यों किया तुमने किनारा था अरे ऐ बे-अदब क्या शेर से ज़र तुम को प्यारा था जो नज़्में तुमने लिखीं थीं कभी जन्नत के बारे में छपी थीं वो यहां भी 'खुल्द'(1) के पहले शुमारे(2) में 1 स्वर्ग 2अंक अदब की, शेर की दुनिया में तुम लौट आए, अच्छा है अरे लिखवा लो नज़्में! फिर से तुम चिल्लाए, अच्छा है मगर फिर सोचता हूं शेर लिखकर क्या करोगे तुम? ये अन्दाज़ा है मेरा गालिबा भूखे मरोगे तुम ये बेहतर है किसी मिल में नौकरी कर लो करो तुम शायरी तफ़रीह को और पेट यूं भर लो
(2)
ये वह दुनिया है जिसने केस चलवाए अदीबों पर बहुत की बारिशे-मश्के-सितम (3) हम खुश नसीबों पर 3. कहर बरपाना हुआ पैदा यहां जो नुक्त:दां(4) सदियों में, सालों में 4. आलोचक, कला मर्मज्ञ मरा सड़कों पे वह या सड़ गया फिर हस्पतालों में हों ज़िन्दा हम तो नाक और भौं चढ़ाकर नाम धरते हैं यकायक एक दिन रोएंगे ये, बरसी मना लेंगे ये गाज़ी हम शहीदों के लिए झंडे उठा लेंगे पढ़ेंगे मर्सिये, तड़पेंगे कर डालेंगे तकरीरें! हमारा नाम करने की करेंगे लाख तदबीरें हमारे बाल-बच्चों से न पूछेंगे कि कैसे हो अदीबों-शायरों की कद्रदानी हो तो ऐसी हो करें क्या, न ये दुनिया न वो दुनिया अदीबों की ये दुनिया है सज़ाओं की, वो दुनिया है खतीबों(5) की 5. धर्मोपदेशक
(3)
ज़मीं वाले हों कैसे भी वो हर दम याद आते हैं जो दुनिया में उठाए वो हसीं गम याद आते हैं ज़मीं वालों की सुहब्बत में कभी जो दिन गुज़ारे थे कलम लिखने से कासिर(6) है कि वो दिन कितने प्यारे थे 6. असमर्थ वह गलियां बायकला की दूर से मुझको बुलाती हैं वहां के घर की यादें दिल में अब तक गुनगुनाती हैं मुझे उस घर में सफ़िया की मुहब्बत याद आती है मुझे जन्नत में भी वो घर की जन्नत याद आती है जहां बच्चों की सूरत देखकर मैं मुस्कराता था जहां आकर मैं दुनिया का हर ग़म भूल जाता था बिला-नागा जहां हर शाम तुम मिलने को आते थे जहां सब दोस्त आकर इक नई जन्नत बसाते थे वो जन्नत लुट चुकी दिल में मगर आबाद है अब तक फ़िज़ा उस घर की, वक्फा-ए-मातम-ओ-फरियाद है अब तक तुम अक्सर अब भी उस घर की सड़क पर से गुज़रते हो वह सब कुच्छ लुटचुका बेकार तुम क्यों आहें भरते हो? यही उजड़ा हुआ घर फिर बसाना चाहता हूं मैं बुलंदी छोड़कर पस्ती पे आना चाहता हूं मैं
(4)
फलक पर मैं हूं और तुम हो ज़मीं पर, जी नहीं लगता जहां भी जाऊं जन्नत में कहीं पर जी नहीं लगता मैं चाहूं भी तो अब दुनिया में वापस आ नहीं सकता खुशी बनकर तुम्हारी महफिलों में छा नहीं सकता ज़मीं वालों से ऐ मलऊन(7) कब तोड़ेगे तुम नाते? 7. दुष्टात्मा बा-आसानी तुम आ सकते हो ज़ालिम, क्यों नहीं आते? फलक से रोज़ मैं आवाज़ देता हूं तुम्हे राजा तुम्हे मालूम है राजा का है इक काफिया 'आजा' ज़मीं से बोरिया-बिस्तर उठाओ और चले आओ मेरे घर आओ, मेरा बेल बजाओ और चले आओ करोड़ों मर गए चुपचाप लेकिन तुम नहीं मरते जो मर्द नेक हैं जीने पे इतनी ज़िद नहीं करते अगर कुछ उम्र बाकी है तो कर के खुदकशी आओ मैं हूं जब तक यहां खौफ-ए-जहन्नुम से न घबराओ मैं जुर्मे खुदकशी को लड़-झगड़ के बख्शवा लूंगा तुम्हारा नाम जन्नत के हर पर्चे में उछालूंगा चले आओ, चले आओ मुझे तुमसे मुहब्बत है चले आओ, चले आओ यहां राहत ही राहत है
(5)
नहीं मैं खुदगर्ज़ सुन लो तुम्हे मैं क्यों बुलाता हूं मेरे राजा तुम्हे मैं एक खुशखबरी सुनाता हूं खबर ये गर्म थी कुछ दिन से जन्नत की हसीनों में तुम्हारा नाम भी शामिल है जन्नत के मकीनों(8) में 8. निवासियों ये सुनकर मैं नई आबादियों में दौड़ता आया जो की इंक्वायरी तो इस खबर को मैने सच पाया तुम्हारा महल भी देखा, बहुत ही खूबसूरत है ये समझो जगमगाते नूर और चीनी की मूरत है तुम्हारी मुंतज़िर हूरें वहां बेख्वाब रहती हैं चमन की अंदलीबों(9) की तरह बेताब रहती हैं 9. बुलबुल वह मुझसे पूछती रहती हैं बतलाओ वह कैसे हैं फरिश्ते हैं कि शैतान हैं, वो ऐसे हैं कि वैसे हैं तुम्हारी झूठी तारीफों के पुल मैं बांध देता हूं खुदा से बाद में रो-रो मुआफी मांग लेता हूं जवां हूरें कहीं बूढ़ी न हो जाएं, चले आओ ये जंगल में मुहब्बत के न खो जाएं चले आओ उन्हें छुप-छुप के एक कम्बख्त मुल्ला घूरा करता है बचा लो इनको ऐ राजा कि वो उन सब पे मरता है ये चंचल हिरनियां तकती हैं उसको भाग जाती हैं मेरी हूरों को आकर हाल अपना सब सुनाती हैं
(6)
बहुत जो याद आती हैं अब उनके नाम लेता हूं ज़मीं के दोस्तों के नाम कुछ पैगाम देता हूं बहिन इस्मत से कहना कब तलक फिल्में बनाओगी ये हालत हो गई है आह क्या अब भी न आओगी जा याद आ जाए इस्मत की तो शाहिद भी चला आए वो ज़िद्दी आते-आती अपनी फ़िल्में सब जला आए महिंदरनाथ को और कृश्न को भी खत ये दिखलाओ जो मुमकिन हो तो दोनों भाइयों को साथ ले आओ अगर दुनिया न आती हो मुवाफिक फैज़-ओ-राशिद को तो उनसे पूछकर लिखो, मैं भेजूं अपने कासिद को न आएं गर तो कहना पतरस ने बुलाया है तुम्हारी याद में 'तासीर' तड़पा तिलमिलाया है तुम्हे हर रोज़ 'हसरत' और 'सालिक' याद करते हैं तुम्हें दोनो अखबारों के मालिक याद करते हैं मुझे उम्मीद है ये सुन के दोनों दौड़े आएंगे मेरी जन्नत में आकर इक नई जन्नत बसाएंगे दुआ है या खुदा सब ज़मीं के दोस्त मर जाएं। ये जन्नत के चमन, ये घर, ये सड़कें उनसे भर जाएं * * *
मशहूर शायर और फिल्म गीतगार राजा मेहदी अली खान और सादत हसन मंटो की दोस्ती के अनेक किस्से प्रचलित हैं। मंटो की बेवक्त मौत ने उनके तमाम दोस्तों और उनके चाहने वालों को बुरी तरह से हिला कर रख दिया था। लेकिन उनके दोस्तों की जमात, चाहे वो कृश्न चंदर हो या इस्मत चुगतई या फ़िर राजा, सब के सब ज़माने से निराले लोग थे। न सब की तरह जीते थे और न सब की ही तरह मरे। राजा मेहदी अली खान ने पहले तो मंटों को याद करते हुए लिखा है ''मैं, मंटो, काली सलवार और धुआं'' और बाद को जब दिल बहलाने के बहाने न रहे तो एक दिन मंटो की तरफ से ही खुद को एक खत लिखकर जन्नत का बुलऊवा ले लिया। लगे हाथ ज़माने और खासकर अदबी दुनिया की भी खबर ले डाली। इस नज़्म में एक जगह बायकला (बम्बई का उप-नगर भायखला) का ज़िक्र आता है, जहां कभी मंटो का घर होता था। साफिया उनकी बीवी थीं। शाहिद लतीफ इस्मत चुगतई के पति थे और जिस फिल्म 'ज़िद्दी' का ज़िक्र है वह उसके डायरेक्टर थे। 'पतरस' से मुराद उर्दू के मशहूर हास्य-व्यंग लेखक पतरस बुखारी (1898-1958) से है। 'तासीर' से आशय डा. दीन मोहम्मद तासीर (1902-1950) से है जो नामवर शायर और अंग्रेज़ी के विद्वान थे। इसी तरह अब्दुल मजीद 'सालिक' (1894-1959) एक शायर होने के अलावा लेखक, पत्रकार और रेडियो ब्रोडकास्टर भी थे। अजब सा संयोग है कि 1955 में मंटो का जाना हुआ तो उनके ग्यारह बरस बाद 1966 में राजा भी वहीं जा पहुंचे। ग्यारह बरस और इंतज़ार के बाद 1977 में कृश्न चन्दर भी कूच फरमा गए। उनके छोटे भाई महेन्द्रनाथ तो उनमें भी पहले वहां जा पहुंचे थे। शाहिद लतीफ तो 1967 में ही चल दिए थे अलबता इस्मत आपा ने इस जहान में अपने इन तमाम दोस्तों की नुमाइंदगी 1991 तक कायम रखी। |