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दिसम्बर 2013

नये कहानीकारों पर \ प्रचलित समझदारी के दायरे को फैलाती कहानियाँ

राहुल सिंह


कहानियों के बनिस्बत कहानीकारों पर बात करना अक्सरहां खासा मुश्किल होता है। यह दुश्वारियाँ थोड़ी तब बढ़ती हैं, जब कोई कहानीकार कहानी के प्रचलित तौर तरीकों को नहीं मानता है। और थोड़ी तब और जब इस क्रम में उसकी कहानियों का ग्राफ काफी ऊँचा-नीचा हो। ऐसे में उस कहानीकार के बारे में समझदारी विकसित कर पाना मुश्किल हो जाता है। क्योंकि इसमें दोहरा जोखिम होता है। एक तो जिसने उसकी ढंग की कहानियाँ पढ़ रखी है, उसकी राय उन लोगों से बिलकुल जुदा होती है जिन्होंने उसकी अपेक्षाकृत कमजोर कहानियाँ पढ़ रखी हों। समकालीन कहानी आलोचना इस चुनौतीपूर्ण स्थितियों में एक उदासीन चुप्पी ओढ़ लिया करती है। क्योंकि इन मसलों पर बोलना अपनी साख को भी दांव में लगाने सरीखा होता है। बहरहाल, हमारे समय के एक ऐसे ही कहानीकार हैं अनिल यादव।
अब तक कुल जमा ग्यारह कहानियाँ, जिनमें से छह उनके पहले कहानी संग्रह 'नगरवधुएं अखबार नहीं पढ़ती' में संकलित हैं और बाकी पाँच उसके बाद विभिन्न पत्रिकाओं में। अनिल यादव की कहानियों के साथ सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि बहुत कोशिशों के बावजूद कोई ऐसा सूत्र आसानी से हाथ नहीं लगता, जिससे उनकी कहानियों की किसी पद्धति को पहचाना जा सके। या उनकी एकमुश्त व्याख्या की जा सके। परम्परा की कसौटी भी इस मामले में बंजर साबित होती है। हर कहानी के साथ बदलता कहानीगत परिदृश्य उन पर अलग से श्रम की मांग करता है। और यहीं से वह राह फूटती है, जहाँ से अनिल के कहानीगत अभिप्रायों को समझा जा सकता है। नमूने के बतौर उनकी कहानी 'नगरवधुएं अखबार नहीं पढ़ती' से बात आरंभ करते हैं।
अनिल के यहाँ ऐसी कहानियाँ भी हैं जो अपनी लम्बाई के साथ न्याय नहीं करती हैं जैसे 'लोक कवि का बिरहा' या हालिया प्रकाशित 'कतरीसराय'। पर, लम्बी कहानियों की परम्परा में लिखी गई 'नगरवधुएँ अखबार नहीं पढ़ती' अपनी लम्बाई के साथ न्याय करती है। कहानी रैखिक तरीके से चलते हुए एक वृत्त का निर्माण करती है, जिसके घेरे में राजनीतिज्ञ, नौकरशाह, पत्रकार, भू-माफिया, आम जन, वेश्याएँ और उनके द्वारा साझा की जाने वाली जमीन-आसमान और हवा आदि आते हैं। कहानी के केन्द्र में प्रकाश नामक चरित्र है जो पेशे से पत्रकार (फोटो जर्नलिस्ट) है। गर किसी किरदार का पेशा भी कहानी में एक किरदार के माफिक हो सकता है तो इस कहानी में पत्रकारिता का पेशा भी एक चरित्र के बतौर विकसित होता है। अनिल का पेशा उसे अपने देश-काल के एक इनसाइडर होने की सुविधा उपलब्ध कराता है। और अनायास ही समकालीन कथा साहित्य के संदर्भ में यह सूत्र हाथ लगता जान पड़ता है कि समकालीन कथा साहित्य में चरित्रों के बतौर पत्रकारों की बढ़ती उपस्थिति एक साहित्यिक युक्ति भी है। इसके जरिये कथाकार एक ओर तो कहानी में विश्वसनीयता का संचार करता है और दूसरी ओर अनेक शिल्पगत झंझटों से मुक्ति भी प्राप्त करता है। मसलन् कहाँ 'मैं' शैली का इस्तेमाल करें और कहाँ 'अन्य' शैली का, इसके अलावे भी अन्य कई 'क्यों' के जवाब देने से इस युक्ति के जरिये बचा जा सकता है।
कहानी की शुरूआत में परिच्छेदों की भीड़ में खो जाने वाला फोटो जर्नलिस्ट प्रकाश का एक अदना-सा वाक्य आता है कि ''सब कुछ इतनी तेजी से बदल रहा था कि कैमरा फोकस करते-करते दृश्य कुछ और हो चुका होता था और अदृश्य सामने आ जाता था।'' (पृ. 9) आँखें आम तौर पर किसी दृश्य की बारीकियों तक  एकबारगी नहीं पहुँच पाती हैं। किसी अच्छे कैमरे, जिसमें 'जूम इन' की सुविधा हो, के जरिये बाज दफा दृश्य के नेपथ्य में मौजूद अदृश्य बारीकियाँ आसानी से दिखने लगती हैं। पत्रकारिता के पेशे से जुड़े लोगों को अदृश्य नेपथ्य की खास जानकारी होती है। यह उनको संचालित करनेवाली ताकतें तय करती हैं कि कब किस अदृश्य को दृश्य करना है और दृश्य को अदृश्य। 'नगरवधुएँ अखबार नहीं पढ़ती' पत्रकारिता के क्षेत्र की जानकारियों की संरचना के स्तर पर कहानी में रूपान्तरित करती है। और जब अनिल ऐसा कर रहे होते हैं तब वह हमारे समय और समाज की परतदार संरचना की परतें उधेड़ रहे होते हैं। इससे परतदार संरचना में गुम हो चुकी सच्चाई धीरे-धीरे हमारे सामने प्रकट होने लगती है और अंत तक आते-आते 'दृश्यताओं के बीच का अदृश्य' हमारे सामने आ जाता है। यहाँ अनिल का लेखन एक सांस्कृतिक कर्म के दायरे से निकल कर राजनीतिक कर्म की परिधि में आ जाता है। लेखन को राजनीतिक कर्म के बतौर विकसित करने की उनकी इस कोशिश का विस्तार उनकी अन्य कहानी 'दंगा भेजियो मौला' में देखने को मिलता है।
प्रकाश का महज पत्रकार न होकर फोटो पत्रकार होना काफी महत्वपूर्ण है। इलेक्ट्रानिक मीडिया के दौर में दृश्य माध्यमों की मारक क्षमता जिस कदर बढ़ी है, उस पर अलग से किताबें लिखी गई हैं और आगे भी लिखी जायेंगी। यथार्थ को कुछ 'शॉट्स' के जरिये जिस कदर व्यक्त किया जा सकता है, उस तरीके से यथार्थ को व्यक्त कर पाने में बहुत सी विधायें हकला सकती हैं। याद करें, वियतनाम युद्ध के दौरान नापाम बम की भयावहता को उजागर करती तस्वीर, भोपाल गैस त्रासदी की याद दिलाती उस आधे दफन शिशु की तस्वीर, गोधरा दंगों के दौरान हाथ जोड़े डर के आँखों में उतर आने की तस्वीर; यह सूची बेहद लंबी हो सकती है। खैर, इसी के साथ इस माध्यम से भयावह इस्तेमाल का एक दूसरा पक्ष भी हमारे सामने खुलता है, जिसमें दृश्यों के जरिये एक आभासीय यथार्थ की निर्मिति हमारे समय में की जा रही है। 'नगरवधुएँ अखबार नहीं पढ़ती' में इसके दोनों रूप देखे जा सकते हैं। वैसे इलेक्ट्रानिक मीडिया के बारे में सबसे भयावह वाक्य जेम्स बांड श्रृंखला की फिल्म 'टूमोरो नेवर डाईज' में खलनायक के मुँह से सुनी थी कि ''जंग के औजार बदल गये है अब मीडिया हमारा नया हथियार है और सैटेलाइट्स हमारे नये तोपखाने।'' इस वाक्य में निहित भयावहता के लिए आपको फिल्म देखनी होगी।
'नगरवधुएँ अखबार नहीं पढ़ती' कहानी के स्तर पर पंक्तियोंकी सतह पर तैरती है, पर यदा-कदा पंक्तियों के बीच भी कई अनकही बातें कौंध जाती हैं जिससे अनिल के रचनागत सरोकारों की सूचना मिलती है। कहानी के ऐन बीच में जब यह चौदह साल की लड़की के साथ (जो वेश्याओं के परिवार से है) पुलिस बलात्कार करती है तो ''पुलिस सुपरिटेंडेंट की तरह पत्रकारों को भी यह बात समझ में नहीं आती कि आखिर, किसी वेश्या के साथ बलात्कार कैसे संभव है।'' (पृ. 26) इस घटना पर कहानी में आत्ममंथन करता हुआ प्रकाश सोचता है कि ''दुनिया में बहुत सारे लोग हैं जो अपने साथ घट चुके को कभी साबित नहीं कर पायेंगे।'' न्याय की आकांक्षा, मनुष्य की आदिम आकांक्षाओं में से एक है। पर आधुनिक सभ्यता का इतिहास, न्यायतंत्र के शक्ति संरचना में बदलने का भी इतिहास है। साहित्य उन दमित और वंचित अस्मिताओं के पक्ष में खड़ा होने का काम करता है। अनिल यादव की उपरोक्त कहानी में इस प्रवृत्ति को लक्ष्य किया जा सकता है। पर इसे अस्मिता विमर्श के प्रचलित तौर तरीकों से देखने की बजाय आदमियत की निगाह से देखने पर जरूर काफी कुछ हासिल हो सकता है। यदि अनिल की कहानियों को इस लिहाज से देखें कि अपनी कहानियों के मार्फत् वह किन सामाजिक वर्गों के प्रति अपनी पक्षधरता प्रदर्शित कर रहे हैं, तो तस्वीर थोड़ी और साफ होती है। इसका अंदाजा उनके पहले कहानी संग्रह के समर्पण से भी कुछ-कुछ लगाया जा सकता है। समर्पण में वे लिखते हैं - 'कहानी की यह पहली किताब तमाम वेश्याओं के लिए'। प्रचलित संस्कारों पर चोट करता यह समर्पण अनिल की एक दूसरी सचेष्टा का सूचक है। और वह है प्रचलित साहित्यिक और सामाजिक संस्कारों पर चोट की कोशिश। जैसे 'दंगा भेजियो मौला' किसी भी हिन्दू मन को आहत कर सकता है।
'नगरवधुएँ अखबार नहीं पढ़ती' यह शीर्षक की पहली निगाह में ध्यान खींचता है कि आखिर नगरवधुओं के अखबार न पढऩे में कौन सी नयी बात हो गई। लेकिन नगरवधुओं के अखबार न पढऩे की तान जहां टूटती है, वहाँ हमारे समय और समाज की शक्ति संरचनाओं की आपसी गठजोड़ बेपर्दा होती है। लोकतन्त्र एक आभासी लोकतन्त्र में तब्दील हो जाता है। अनिल की यह कहानी हमारे समय-समाज की गतिकी को उसकी ऐतिहासिक प्रक्रिया में पकडऩे के कारण उल्लेखनीय हो जाती है। लोकतन्त्र के खम्भों को यहां दरकते और ढहते देखा जा सकता है कि जनसंचार माध्यम कैसे इस लूट और झूठ के खेल में महत्वपूर्ण साझीदार बन कर लोकतन्त्र के चौथे खंभे की बुनियाद हिला रहा है। किस कदर जनसंचार माध्यम झूठ के अनवरत उत्पादन में रत कारखानों में तब्दील हो गये हैं। कहानी का एक बड़ा हिस्सा उस प्रक्रिया को संबोधित है। इस सिलसिले में कहानी से कुछ टुकड़े साझा कर रहा हूँ। डीआईजी के द्वारा काशी को वेश्याओं से मुक्त करने की मुहिम के दौरान एक अधेड़ औरत अखबार के दफ्तर पहुँच जाती है। वहाँ जाकर ''वह एक ही रट लगाती है कि उसे अखबार के मालिक से मिलना है। दरबान ने उसे कई बार समझाया कि यह फैक्ट्री नहीं है और यहाँ मालिक नहीं, संपादक बैठते हैं। औरत जिरह करने लगी कि ऐसा कैसे हो सकता है कि अखबार का कोई मालिक ही न हो और उसे तो उन्हीं से मिलना है।'' (वही, पृ. 15) या फिर डीआईजी की पत्नी लवली त्रिपाठी की हत्या के मामले में सबूत होने के बावजूद उसे आत्महत्या का मामला साबित कर देने को लेकर प्रकाश की प्रेमिका छवि जब उसे इस मामले में हस्तक्षेप करने को कहती है और वह अपने वायदों के बावजूद नाकाम साबित होता है तब छवि प्रकाश से उसके पेशे के बारे में कहती है कि ''ये अखबार और चैनल मदारी की तरह खुद को सच का ठेकेदार क्यों बताते हैं? साफ कह क्यों नहीं देते कि उन्हें डीआईजी जैसे लोग ही चलाते हैं।'' (वही, पृ. 16) कहानी के अंत तक आते-आते धर्म, राजनीति, नौकरशाही, पत्रकारिता, उद्योग जगत (बिल्डर और इंडस्ट्रियलिस्ट) की उस गठजोड़ का खुलासा हो जाता है जिन्होंने असल लोकतन्त्र को बंधक बनाकर उसकी जगह एक आभासीय लोकतन्त्र को रच डाला है।
यदि वेश्याओं को सामाजिक इकाई के बतौर देखें तो वे एक साथ दलित, दमित, वंचित, शोषित, अल्पसंख्यक और असहाय अस्मिता के रूप में उभरती हैं। वेश्याओं से जुड़े सवाल अस्मितामूलक विमर्श का हिस्सा होने के बावजूद उन विमर्शों में अपना प्रतिनिधित्व तलाश नहीं कर सकी हैं। 'नगरवधुएँ अखबार नहीं पढ़ती' हमारे समय की सर्वाधिक विडम्बनामूलक (आयरॉनिकल) कहानी बनती जान पड़ती है। वे समाज की कई विडम्बनाओं को उजागर करती हैं। देह का धंधा करने के कारण वे सामाजिक तौर पर बहिष्कृत हैं। लेकिन ईमान का धंधा करनेवाले समाज में सबसे ज्यादा समादृत हैं, जबकि ईमान का धंधा करनेवाले देह की मंडी के ग्राहक और ठेकेदार दोनों हैं। हमारे समय के शक्तिशाली माध्यमों में से एक जनसंचार माध्यमों के लिए मनुष्यों के जीवन से ज्यादा मूल्यवान टी.आर.पी. और सर्कुलेशन का सवाल है, विज्ञापन का सवाल है, शेयर का सवाल है। इस अशक्त मनुष्यविरोधी समय में सब कुछ अस्तित्व के सवाल से जुड़ गया है। यह असहायों के बेदखली का समय है। यह असहायों के नरसंहार का समय है। इन विचारों के आलोक में अनिल की एक अन्य कहानी 'दंगा भेजियो मौला' को देखें तो अनिल की सोच और सरोकार पर थोड़ी और रोशनी पड़ती है।
'दंगा भेजियो मौला' फिर से बिल्कुल एक नये धरातल से हमारे समय के चेहरे को पकडऩे की कोशिश करती है। यहाँ वेश्याओं के मामलों की तरह यह समझदारी विकसित करनी नहीं पड़ती कि मुसलमान भी अल्पसंख्यक हैं। यह कहानी दंगे के बारे में हमारी प्रचलित समझदारी को नये सिरे से व्याख्यायित करने का काम करती है। मोमिनपुरा में बरसात के कारण बढ़ते जलस्तर से उस बस्ती के जलमग्न हो जाने की संभावना बढऩे लगती है। हर संभावित जगह पर मदद की गुहार के बावजूद नतीजा सिफर रहने पर वे सोचते हैं कि इस बस्ती में बाहर लोग दो ही मौकों पर आते हैं; एक चुनाव और दूसरा दंगा। इस पर पानी बोलती है कि ''ये दंगा नहीं तो और क्या है। सरकार ने अफसरों को इधर आने से मना कर दिया है। डॉक्टरों ने इलाज से मुँह फेर लिया है। जो पम्प यहां लगने चाहिए उन्हें नदी में लगाकर पानी इधर फेंका जा रहा है। करघे सड़ चुके, घर ढह रहे हैं, बच्चे चूहों की तरह डूब कर मर रहे हैं। सबको इसी तरह बिना एक भी गोली-छुरा चलाए मार डाला जाएगा। जो बेघर-बेरोजगार बचेंगे, वे बीमार  होकर लाईलाज मरेंगे।'' (वही पृ. 62) कहना न होगा कि उपरोक्त विश्लेषण दंगा की हमारी प्रचलित समझदारी को बदलने का काम करती है। और जब वह ऐसा कर चुकी होती है, तो अनायास हमारा ध्यान देश भर में तारी ऐसे हालात की ओर जाता है। तब  हमारा ध्यान इस ओर जाता है कि प्रशासकीय अनदेखी भी एक किस्म की हिंसा है और स्वतंत्र भारत में अलग-अलग समुदाय, जाति, जमात, धर्म, वर्ग और लिंगों के प्रति नीतिगत स्तर पर ऐसी प्रशासकीय अनदेखी की जाती है। अचानक से यह पूरा मामला 'संगठन की संरचनागत हिंसा' का हो जाता है। इन्हीं कारणों से अनिल यादव की ये कहानियाँ हमारे समय की राजनीतिक कहानियाँ हो जाती हैं। लेकिन ऐसा नहीं है कि अनिल की सभी कहानियों में इसी राजनीतिक चेतना की सतत अभिव्यक्ति दिखती है। इस दिशा में वे अपनी लेखनी को बहुत आगे नहीं बढ़ाते हैं। 'लोक कवि का बिरहा' इस दिशा में उनकी तीसरी कोशिश मानी जा सकती है। इसके बाद वे  एक दूसरी कथा भूमि की ओर प्रयाण कर जाते हैं।
इस दूसरी कथा भूमि में उनकी छुटपन की स्मृतियाँ हैं। हर मनुष्य के जीवन में स्मृतियाँ का एक स्वायत्त क्षेत्र होता है। जिसमें जीवन के गाढ़े वक्त में वह गाहे-बगाहे आकर चुपचाप सुस्ताता है। अमूमन स्मृतियों की दृष्टि से बचपन सर्वाधिक उर्वर हुआ करता है। अखिलेश जैसे सधे हुए कथाकार बचपन को किश्तों में कहानियों में न ढाल कर, 'वह जो यथार्थ था' जैसा कुछ बेशकीमती रच डालते हैं। अनिल इस लिहाज से स्मृतियों के खुदरा कहानीकार हैं। स्मृतियों के मूल में किसी शरणस्थली की तलाश हुआ करती है। जहाँ वर्तमान से उपजे 'निजड़पने' का एक गहराता बोध होता है। और अपनी जड़ो की तलाश में एक किस्म की 'नास्टेल्जिया' हावी होती चली जाती है। अनिल की स्मृतिमूलक कहानियों में भी इस 'नास्टेल्जिक सेन्स' को महसूस किया जा सकता है। स्मृतियों की पगडंडियों से बचपन में दाखिल होने के उपक्रम को उनकी 'उस दुनिया को जाती सड़क' और 'एक स्कूली आत्मकथा' में देखा जा सकता है। 'एक स्कूली आत्मकथा' में राजीव के प्रवेश से पहले की कहानी को 'उस दुनिया को जाती सड़क' के विस्तार के तौर पर पढ़ा जा सकता है। ऐसा लगता है कि इन दोनों कहानियों के लिए जुटाई गई कच्ची सामग्री का स्त्रोत एक ही है। बस अलग-अलग भावों और विचारों में जोर देने के कारण दोनों दो कहानियाँ हो गई हैं। अंचल के स्तर पर कुछ ऐसी ही समानता 'लोक कवि का बिरहा' और 'कतरीसराय' में दिखती है। बस नायक बदल जाते हैं, जमीन वही रहती है।
'एक स्कूली आत्मकथा' में बचपन की निष्पाप सी लगनेवाली मनोरंजकता में निहित क्रूरता की परतों को उधेड़ा गया है। उसकी गंभीरता और भयावहता को न देख पाने के मूल में व्याप्त एक किस्म की जन्मजात और संस्कारगत असमर्थता की ओर इशारा है। कहानी जिस मुकाम पर छूटती है, वह इस कटु सच को नंगा करती है कि जिन पर हमारे नौनिहालों के संवेदन तन्त्र को गढऩे की जिम्मेदारी है, वे खुद संवेदनशून्य हो चुके हैं। समाज में पसरी संवेदनहीनता के जड़ों की ओर इस कहानी में इशारा है। समाज में लगातार अपने पांव पसारती संवेदनहीनता को एक टेक की तरह अनिल की कहानियों में लक्ष्य किया जा सकता है।
यों तो 'एक स्कूली आत्मकथा' और 'उस दुनिया को जाती सड़क' छोटे कलेवर की कहानियाँ हैं। पर 'उस दुनिया को जाती सड़क', लम्बाई की दृष्टि से अनिल की लिखी सबसे छोटी कहानी है। 'उस दुनिया को जाती सड़क' की भाषा में वह वांछित तरलता दिखती है जो आमतौर पर स्मृतियों को धारण करने के लिए होनी चाहिए। और स्मृतियों की दुनिया में जब विचारों की घुसपैठ होती है तो उस भाषिक नमी को वैचारिक ऊष्मा किस कदर सोखने का काम करती है, इसे अनिल के यहाँ देखा जा सकता है। उदाहरण के लिए कहानी का यह शुरूआती हिस्सा देखिये, ''उन दिनों मैं जब घास की महक को सूँघ सकता था और हैंडपम्प के हैंडिल के स्वाद को चख सकता था। अब मैं इन दोनों चीजों को सिर्फ देख पाता हूँ। अब घास एक वनस्पति है और हैंडपम्प एक मशीन है। तब ऐसा नहीं था। बचपन में चीजों को उनकी ताजगी के साथ महसूस करने की जो क्षमता होती है, वह बाद के दिनों में कहाँ चली जाती है? शायद दुनिया के तय किए हुए तरीकों से जीने लायक जीव बनने का कठिन प्रशिक्षण उसे खा जाता है। काश वह क्षमता बची रहती तो उससे भी जितना चाहो उतने पैसे क्यों नहीं बनाए जा सकते थे? मसलन लोहे का स्वाद का ही स्टील की क्वालिटी से जरूर कोई न कोई रिश्ता होता होगा। दुनिया की सारी चीजों में एक पैटर्न होता है और उस पैटर्न को कोई जरूरी नहीं कि कुछ लोगों की मुट्ठी में कैद किसी खास तकनीक के जरिए ही जाना जाए। उसे संवेदना, झक, खिलवाड़ या कैसे भी पाया जा सकता है। अगर वह क्षमता बची रहे तो मशीनरी के भारी भरकम ताम-झाम की बजाय कोई सीधा-सा आदमी, बच्चे की सरलता से कई सौ मीटर लम्बी कुंडलाकार लोहे की छड़ के एक सिरे को मुँह में चुभलाता और झट से बता देता कि इससे पुल बन सकता है या फिर इससे...। अब यही देखिए कि लोहे की मजबूती के बारे में इतने दानवाकार मिथ मेरे दिमाग में भर दिए गए हैं कि उसके कमतर इस्तेमाल के बारे में मैं सोच ही नहीं पा रहा हूँ। यह भी उसी अस्तित्व के लिए पैसा कमाने के लिए मुझे दिए गए यातनादायक प्रशिक्षण का नतीजा है।'' (वही, पृ. 92) उपर्युक्त उद्धरण का आखिरी वाक्य अनिल की कहानियों के सन्दर्भ में एक और जरूरी सूत्र मुहैया कराता है। अस्मिता के सवाल के साथ अस्तित्व का सवाल भी जुड़ा है। अनिल की कहानियों में भी अस्मिता की ओट में अस्तित्व की अनुगूंजें हैं। और तब इस ओर ध्यान जाता है कि अस्तित्व के व्यापक प्रश्न को अस्मिता के लघु वृत्तों में न्यूनीकृत पर देना उत्तर आधुनिकतावादी प्रपंच है। और इस राजनीति को न देख पाना उत्तर आधुनिकतावादी विमर्शों की कामयाबी है।
अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिए जूझते मनुष्य किसी कीमत पर 'सर्वाइव' करना चाहते हैं। अनिल इसे 'जीवन के प्रति एप्रोच नहीं, सेन्स ऑफ सर्वाइवल' कहते हैं। (देखें उनकी कहानी लिबास का जादू, पृ. 84-85) तमाम प्रतिकूलताओं के मध्य जब वह अपने अस्तित्व को बचाये रखने में कामयाब हो जाते हैं, तब उन्हें इस सच का भान होता है कि वे जो होना चाहते थे या हो सकते थे, की बजाय वे कुछ और ही हो चुके हैं। फुर्सत के क्षणों में जब आत्मावलोकन किया जाता ह तो एक विराट शून्यता का बोध गहराता जाता है। और ऐसे ही किसी उदास वक्त में उपजी उदासीनता और अवसाद की कोख से 'उस दुनिया को जाती सड़क' दिखलाई देती है। और आदमी का वजूद दो हिस्सों में बंट जाता है। सचेत होते ही वह कोई और होता है, और अचेत होते ही कोई और। वह एक अन्तहीन अंतद्र्वन्द्व का शिकार हो जाता है। जिसमें अचेतन (अन्तरात्मा) की हत्या अथवा उससे सुलह करके ही पुन: सहज-सामान्य हुआ जा सकता है। जिसे वास्तविक अर्थों में कतई सामान्य नहीं कहा जा सकता है। यों तो इसे 'लिबास का जादू' में नलिन के सन्दर्भ में भी देखा जा सकता है। पर, 'आर जे साहब का रेडियो' में इसी प्रविधि का इस्तेमाल ज्यादा उन्नत ढंग से हुआ है।
आर जे अर्थात् रतनजोत सांभरिया एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में एक्जीक्यूटिव हैं। ऐशो-आराम के तमाम साधनों के बीच उन्हें लगातार महसूस होता है कि ''सब कुछ ठीक होने के बाद भी मैं क्षुब्ध और दुखी ही तो हूँ।'' (वही, पृ. 100) और अनायास एक दिन रेडियो पर किसी पुराने गीत को सुनते हुए वह अपने वर्तमान के दुख और असंतोष के क्षणों का अतिक्रमण करते हुए अतीत के उन सुखद क्षणों में दाखिल हो जाते हैं। और फिर रेडियो पर बजते संगीत के साथ अतीत में आवाजाही का एक सिलसिला शुरू होता है। ''अतीत अचानक तभी झिलमिलाता था जब दूर कहीं रेडियो पर गाना बज रहा हो और वे स्त्रोत को नहीं देख पा रहे हों। हवाओं पर उड़ कर आने वाला यह गाना हर बार उनकी संवेदनाओं को भक्क से जगा देता था और अपनी आखिरी अनुगूंज के साथ सुलाकर चला जाता था। अंधेरे में डूबे उनके अतीत पर जैसे एक मद्धिम रोशनी लहराकर लुप्त हो जाती थी। इस बीच में उन्हें पुराने दोस्त, मां, भाई, रिश्तेदार, अधूरी इच्छाएं और पुराना संसार जीवंत दिखाई देते थे।'' (वही, पृ. 100) अतीत और वर्तमान की आवाजाही के इस सिलसिले में उसे एक ओर जमीनी वास्तविकता का बोध होता है तो दूसरी ओर अपने जीवन की वायवीयता और कृत्रिमता का भी। एक स्तर पर यह समाज की छीजती संवेदना और अपने पास-पड़ोस से लगातार कटते आधुनिक मनुष्य की कहानी है। अस्तित्व की इस लड़ाई में संवेदनाओं का क्षरण सबसे तेजी से हो रहा है। और दिलचस्प तथ्य यह है कि उन क्षरित होती संवेदनाओं के कारण हमारे आस-पास जिस किस्म की क्रूरतायें पनप रहीं हैं, उससे अधिसंख्य लोग अनजान हैं। एक बहुत बड़ी आबादी केवल अगले दिन खुद को जिन्दा रखने के लिए जो कीमत अदा कर रही है, वह कल्पना से परे है। आर जे साहब जिंदगी की तलाश में जब अपने रोजमर्रे के जीवन को फलांग कर अपने आस-पास पसरी दुनिया में दाखिल होते हैं तो उन्हें विस्मयकारी अनुभव होते हैं। इनमें पाँच-दस रूपये में अपने जिस्म का सौदा करती औरतें और बच्चियाँ हैं। शहर के कूड़े से पकड़े गये चूहों को पकाते इन्सान हैं। मजदूरों के द्वारा अपने बच्चे के मरे जाने पर उसे रेलवे स्टेशन की यार्ड में दफनाकर चुपचाप सफर में आगे चलते जाने का दृश्य है। उनके घर का एक घूँट पानी आर जे साहब के लिए एक साथ फूड प्वायजनिंग, डायरिया और गैस्ट्रो का सबब बन जाता है। यह चाल्र्स डिकन्स की 'अ टेल ऑफ टू सिटीज' की कहानी नहीं है। यह हम सबके घर और उसके आस-पास की कहानी है। अपने आस-पास को भाषा के जरिये जिस कदर अनिल रचते हैं। इसके लिए उनकी निगाह तारीफ की हकदार है। परिवेश की बुनावट के लिए इस्तेमाल तो अनिल भी भाषा की उसी प्रविधि का करते हैं जिसे हम ब्योरा या डिटेलिंग कहते हैं। पर भूमण्डलों पीढ़ी के रचनाकारों की डिटेलिंग की ट्रिक से जो बात अनिल को अलग साबित करती है, वह है यथार्थ की निर्मिति के लिए जरूरी ब्योरों के अनुपात की तमीज। वह अपनी कहानी को उन ब्यौरों में न्यूनीकृत नहीं कर देते हैं। बल्कि उनका कहानीगत अभिप्राय हमेशा उनके सामने रहता है। भाषा से वे खेलते नहीं हैं। माध्यम के बतौर भाषा की महत्ता को समझने के साथ कहानीगत अभिप्राय को वे सर्वोपरि रखते हैं। इस कारण वे उनकी कहानियों की कमजोरियों की अनदेखी करने के लिए उकसाती हैं। पर बावजूद इसके यह कहना जरूरी है कि जहाँ वे इस साभिप्रायता को भूल कर भाषा से खेलने की कोशिश करते हैं, वहाँ अपना पिछला कमाया भी गंवाने की कगार पर पहुँच रहे होते हैं। उनकी ऐसी ही एक निहायत कमज़ोर कहानी है, 'कारपोरेट इंडिया'।
अनिल पर अब तक की गई बातों से इस बात का अनुमान तो किया जा सकता है कि उनकी कहानियाँ इकहरी नहीं होती हैं। गर उन कहानियों में कोई बात केन्द्रीयता हासिल करती हैं, तो वह है 'सरोकार'। इस सरोकार की जद से बाहर उनके यहाँ कुछ भी नहीं है। इसलिए उनकी कहानियों के विषय पर उंगली रख पाना मुश्किल होता है। उनकी कहानियों को विषय के खांचों की तुलना में 'थीम' के आधार पर ज्यादा सहजता से अलगाया जा सकता है। विषय के इकहरेपन की तुलना में 'थीम' में निहित बहुध्वन्यात्मकता अनिल की कहानियों के साथ ज्यादा न्यायसंगत लगती हैं। यही कारण है कि उनके यहाँ प्रेम भी 'विषय' न होकर थीम हो जाता है। 'लिबास का जादू' की सतह पर दिखनेवाला प्रेम नेपथ्य में चला जाता है और बाजार के कारण पैदा होने वाला एक किस्म का दुचिरापन कहानी के केन्द्र में आ जाता है। या 'अप्रेम' शीर्षक से लिखी गई कहानी गाढ़ी प्रेम कहानी हो जाती है। 'अप्रेम' कहानी के केन्द्र में गौरी के कहे वे छह शब्द या तेरह अक्षर हैं, जो एक पल को किसी भी गंभीर साहित्य के अध्येता के लिए 'शॉकिंग' हो सकते हैं। एक नियमित अंतराल पर केडी के मन-मस्तिष्क पर उभर आने वाले वे छह शब्द और हर बार उन छह शब्दों की चीर-फाड़ करके उसके मर्म तक पहुँचने की कोशिश और उस कोशिश के साथ एक के प्रेम का दूसरे के अप्रेम में बदलता जाना और उस अप्रेम के आलोक में प्रेम का प्रकाशित होना, बस शानदार है। 'कटरी की रूकुमिनी' में वीरेन डंगवाल की एक प्रसिद्ध कविता 'कटरी की रूकुमिनी और उसकी माता की खंडित गद्य कथा' को अनिल कहानी में रूपान्तरित करने की कोशिश करते हैं। इन दोनों का तुलनात्मक आकलन किया जा सकता है। वह एक अलग विषय है। ऐसी कोशिशें मालूम नहीं कि और कितनी हुई हैं। कविता को कहानी में रूपान्तरित करने के उलट चन्द्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी 'उसने कहा था' को कविता में रूपान्तरित करने की सचेष्टा कवि-आलोचक पंकज चतुर्वेदी के यहाँ देखी जा सकती है। अनिल की इन कहानियों से एक दूसरा जरूरी सूत्र जो हाथ लगता है वह उनके स्त्री चरित्रों से जुड़ा है। 'नगरवधुएँ अखबार नहीं पढ़ती' की छवि, 'लिबास का जादू' की नीलिमा, 'अप्रेम' की गौरा और 'कटरी की रूकुमिनी', सभी अपनी शर्तों पर जीनेवाली नायिकायें हैं। कम से कम उनका अपना एक चरित्र है।
अनिल के यहाँ इकहरी और बहुध्वन्यात्मक दोनों ढंग की कहानियाँ मौजूद है। छोटे कलेवर की 'उस दुनिया को जाती सड़क' जैसी कहानी भी याद रह जाती है और 'नगरवधुएं अखबार नहीं पढ़ती' जैसी लम्बी कहानियाँ भी। 'दंगा भेजियो मौला' जैसी विरल कहानी भी उनके पास है। पर जहाँ भी उनकी कहानियों में अनायास विचारों को प्रत्यारोपित करने की कोशिश की गई है, वहाँ कहानी लडख़ड़ाने लगी है। बेहद बारीकी से देखें तो यह कमी 'लोक कवि का बिरहा' में दिखेगी। उसके बाद 'कतरीसराय' में। 'कारपोरेट इंडिया' के बाद अनिल की यह दूसरी कमजोर कहानी है। एक कहानीकार को पाठकों का सम्मान करना चाहिए। वह खेल-तमाशा नहीं दिखला रहे हैं कि चौदह पन्ने की कहानी के बाद कहें कि ''कहते हैं कि उसी क्षण नदी के पानी में बिजली चमकी, एक जोर का धमाका हुआ और सूरे उन लोगों को तेलियाकंद का पता बताकर अन्र्तध्यान हो गया जो आज तक वापस नहीं लौटा है। कुछ लोग यह भी कहते हैं कि प्रधानपति ने किसी अंग्रेज डाक्टर से उसकी आंखें खुलवा दीं हैं। उसे किसी बड़े शहर में छिपाकर रखा गया है। वह नेपाल, झारखण्ड, छत्तीसगढ़ और आंध्रप्रदेश के जंगलों में तेलियाकंद लाकर दवाएं बनाने के बाद उन्हें देता है। सकारात्मक सोच वाले भले लोगों की तरह हमें भी यह आशा करनी चाहिए कि सूरे के साथ कोई अनहोनी नहीं हुई होगी। वह जहाँ भी होगा ठाठ से होगा।'' (पृ. 204, पहल 93) दरअसल पूरी कहानी में कहानी को गढऩे की कोशिशें दिखती हैं। 'कतरीसराय' जैसा कि नाम से ही जाहिर है कि कहानी के केन्द्र में गांव को रखने की कोशिश है। फिर सूरे के जरिये कहानीकार कहना क्या चाहता है? क्यों उसे कथा में पिरोया गया? और पिरोया गया तो उसकी एक तार्किक परिणति होनी चाहिए थी। कहानी में और भी झोल हैं जिसका कोई जवाब कहानीकार देना पसंद नहीं करता। धमाकों से देश का ध्यान बांटकर देश चलाया जा सकता है, पर कहानियाँ नहीं। हर नई कहानी के साथ आपकी पिछली साख दांव पर लगी रहती है। इसे याद रखना चाहिए। बहरहाल, अनिल इस दौर की संभावनाओं में से एक हैं। कहानी को लेकर उनका अपना एक नजरिया है। कथ्य की तलाश में अनजान इलाकों की सैर, कथ्य के लिए संभावित फिल्म की तलाश, कहन का एक नया ढब खोजने की चाह आदि के आधार पर उनके संभावनाशील होने की बात कही जा सकती है। अब जिन्दगी की प्राथमिकतायें उन्हें इन संभावनाओं के दोहन के लिए कितना वक्त देती है या वे खुद इसके लिए कितना वक्त निकालते हैं। इस पर उनकी आगे की यात्रा निर्भर करेगी।


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