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अप्रैल 2021

कैसे आ सकती है ऐसी दिलनशीं दुनिया को मौत

रमेश अनुपम

किताबें

गूंगी रूलाई का कोरस: रणेन्द्र

 

 

 

'बम-बंदूक-लाशों ने आज तक कोई मसला स्थायी तौर पर हल नहीं किया है। मजहब और सियासत की यह जुगलबंदी यूं ही चलती रही, तो दो-चार देश तो क्या, पूरी इंसानी नस्ल ही खात्में के कगार पर पहुंच जायेगी। इसने हमारे दिलों-दिमाग पर मैल की मोटी परत चढ़ा दी है। इसे धोने के लिए एक साथ कई तरह की कोशिशें करनी होंगी, जिनमें मौसीकी या कोई भी फनकारी, क्रियेटिविटी की भी एक भूमिका होगी। मौसीकी यह काम करती रही है। मजहब की दीवारें इसके सामने टिक नहीं पातीं। इसके कई सबूत हैं मरहूम बड़े गुलाम अली खां साहब बहुत डूब कर मशहूर भजन हरी ऊं तत्सत गाया करते थे। कहते हैं कि उनके पूर्व पुरूष उस्ताद पीर दाद खां साहब को मौसीकी की देवी ने खुद गायन का वरदान दिया था। बहरहाल एक बार खां साहब के इस भजन के गायन से कर्नाटक संगीत के मशहूर गायक पं.जी.एन. बालासुब्रह्नण्यम, इतने अभिभूत हुए कि उनके कदमों जा गिरे।’

'लगता है हमारे संगी-साथी, हमारे अजीज़ घरों की गोरैया हो गए हैं। अब हमारा चहचहाना लोगों को नहीं भाता। हर कोई ताली बजाकर उन्हें भगाना चाहता है। एक-एक कर सब गुम होते जा रहे हैं। लेकिन हरेक के गुम होते इस कायनात झील की लहरें कांपती हैं और उनमें से एक लहर मेरी रातों को कंपकंपाती मुझ तक पहुंचती है। फिर मेरी रूह और मेरा इकतारा कांपते रहते हैं। हो सकता है कि गोरैया ने अपनी सारी चहचहाहटें खर्च कर दी हों, सारे गान गा लिए हों। फिर भी किसी दरख्त को उसे आसरा तो देना था। यूं सैयादों के भरोसे तो नहीं छोडऩा था ऐसा क्या हुआ कि हर दरख्त ने अपनी शाखें समेट लीं, सबों की दीद की रोशनियां राख हो गईं। सड़क के दोनों ओर के घरों के दरवाजे-खिड़कियां-रोशनदान सब बंद हो गए और हमारे अजीज़ की अपनी ही पुकार उनके पास लौटकर आती रही...आती रही और सैयाद मुस्कुराता रहा।’

एक ऐसे त्रासद और भयावह समय में जब पूरा देश फासीवाद के सबसे खतरनाक दौर से गुजर रहा है और हम सब धार्मिक कट्टरता और उग्र राष्ट्रवाद के सबसे घातक मंजर को देखने के लिए अभिशप्त हैं, रणेन्द्र का नवीनतम उपन्यास 'गूंगी रूलाई का कोरस’ हमारे सबसे बुरे दौर को न केवल साहस के साथ देखने और दिखाने का प्रयत्न करता है वरन् संगीत की तहजीब वाले इस महादेश की साझी संस्कृति को याद दिलाने की कोशिश भी करता है।

रणेन्द्र ने अपने इस उपन्यास में विलक्षण कथा प्रसंगों तथा विभिन्न चरित्रों के माध्यम से हमारे आज के समय को उसकी पूरी कुरूपता और नग्नता के साथ चित्रित किया है। एक ऐसे मुश्किल दौर में जब अपने समय की साम्प्रदायिक शक्तियों से लडऩे और तथाकथित राष्ट्रवाद का मूंहतोड़ जवाब देने की कोई सार्थक पहल राजनीति या साहित्य में कहीं नहीं दिखाई दे रही है, रणेन्द्र का यह उपन्यास हमें आश्वस्त करता है, भरोसा दिलाता है कि हिंदी उपन्यास ने अपनी तरह से यह कोशिश प्रारंभ कर दी है।

भारतीय शास्त्रीय संगीत और बंगाल लोक संगीत के ताने-बाने में बुने गए इस उपन्यास के केन्द्र में बड़े नानू उस्ताद माहताबुद्दीन खान का घराना और 'मौसीकी मंजिल’ है। इस संगीत घराने की चार पीढिय़ों के माध्यम से तथा बंगाल की सुप्रसिद्ध लोक संगीत बाउल को आधार बनाकर रणेन्द्र ने हमारे इस धूसर समय के अनेक स्याह और श्वेत बिंबों को, जीवन के आरोह और अवरोह को तथा अनेक खोई हुई स्वर लहरियों को एक सूर में बांधने का उपक्रम किया है।

'गूंगी रूलाई का कोरस’ हिंदी का पहला प्रामाणिक उपन्यास है जिसमें संगीत घरानों को और संगीत की बारीकियों को गंभीरता से चित्रित करने का प्रयास किया गया है। यह उपन्यास शास्त्रीय संगीत और बाउल के माध्यम से इस देश की साझी संस्कृति को भी गहरे रूप में रेखांकित करता है। जिस तरह हिंदुस्तानी मौसीकी, भाषा, धर्म और सरहदों की सीमाओं को पार कर समस्त मानव ह्रदय के तारों को एक सूर में झंकृत करने का प्रयास करता है उसे भी रणेन्द्र ने गंभीरता के साथ अपने इस उपन्यास में लक्ष्य करने का प्रयत्न किया है। मार-काट और नफरत से भरे हुए साम्प्रदायिकता के इस बूरे दौर में इस देश को जिस तरह से खत्म करने की सुनियोजित कोशिशें हो रही हैं, उसे भी रणेन्द्र ने बेहद निर्भीकता और पूरी सच्चाई के साथ इस उपन्यास में प्रतिबिंबित किया है।

बड़ो नानू उस्ताद माहताबुद्दीन के दो बच्चे हैं बेटा नानू उस्ताद अय्यूब खान और बेटी शारदा स्वरूपा रागेश्वरी देवी। नानू उस्ताद अय्यूब खान की बेटी है सूर सरस्वती रागेश्वरी देवी जो स्वयं शास्त्रीय संगीत की मशहूर गायिका है। सूर सरस्वती रागेश्वरी देवी के पति उस्ताद खुर्शीद जोगी हैं जो आदि गुरू गोरखनाथ के शिष्य हैं। उस्ताद खुर्शीद जोगी की खासियत यह है कि देश में जब भी दंगे या फसाद होते थे वहां अपने जैसे फकीर जोगियों के साथ इकतारा लेकर निकल जाया करते थे। 1965 के गुजरात दंगे, 1976 के दिल्ली के तुर्कमान गेट दंगे और 1984 के सिक्ख विरोधी दंगे में भी इसी तरह वे अपने जान की परवाह किए बगैर अपने जैसे फकीर जोगियों के दल को लेकर निकल गए थे। उस्ताद खुर्शीद जोगी इस उपन्यास के एक विरल और विलक्षण पात्र हैं।

सूर सरस्वती रागेश्वरी देवी और उस्ताद खुर्शीद जोगी की एक मात्र संतान विदूषी के. शबनम भी शास्त्रीय संगीत की मशहूर शख्सियत हैं। माता-पिता उसे सिम्बायोसिस कॉलेज पूणे में साउंड इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए भेजते हैं ताकि वह भविष्य में अपने स्वयं की साउंड रिकार्डिंग स्टूडियों खोल सके। लेकिन शबनम की शास्त्रीय संगीत में गहरी अभिरूचि को देखते हुए उसे पूणे के ही गंधर्व महाविद्यालय में मौसीकी की तालीम के लिए भी भेजा जाता है। पूणे में ही शबनम की मुलाकात बाउल कमोल कबीर से होती है जो बीरभूम के सुप्रसिध्द बाउल गायक रोबिन दादू के पौत्र और उस्ताद मदन बाउल के सुपुत्र हैं। पूणे में रहते हुए शबनम और कमोल एक-दूसरे के प्रति आकर्षित होते हैं। संगीत में गहरी दिलचस्पी दोनों को एक सूत्र में जोडऩे का कार्य करती है।

इस उपन्यास में बड़ो नानू उस्ताद मोहताबुद्दीन के जीवन का जो चित्रण किया गया है वह भी अद्भुत है, जो एक रात पैदल स्टीमर और रेल द्वारा किसी तरह कलकत्ता पहुंच गए थे और वह भी दक्षिणेश्वर काली मंदिर। वहां उन्हें गदाई-गदाधर ( रामकृष्ण परमहंस ) और मांमोनी शारदा अम्मा ने शरण दी थी। इस उपन्यास में रामकृष्ण परमहंस और मां शारदा का जिस तरह से चित्रण किया गया है वह इस देश की विलुप्त होती हुई साझी संस्कृति का विलक्षण उदाहरण ही कहा जाएगा। रामकृष्ण परमहंस और मां शारदा इस मुसलमान बच्चे का जिस तरह से खयाल रखते हैं, जिस तरह से मां शारदा इस बच्चे पर अपनी ममता की वर्षा करती है, वह अतुलनीय है। रामकृष्ण परमहंस और मां शारदा के संबंधों को जिस तरह से इस उपन्यास में चित्रित किया गया है वह भी विरल है।

बड़ो नानू और बड़ो बाबा (उस्ताद अलाउद्दीनखान) को एक दिन जब राजा साहेब के छोटे भाई किरण बाबू के यहां से खाने का निमंत्रण आया तो बड़ो बाबा ने रसोई घर के दीवार पर टंगी हुई मां अन्नपूर्णा की तस्वीर देखी। 'मां..गो...की छोवि! बादाम सी बड़ी-बड़ी आखें! ललाट पर बड़ी सी लाल टिकुली! ‘ दादा ने उन्हीं देवी मां की याद में अपनी सबसे सुंदर बेटी का नाम अन्नपूर्णा रखा। मैहर के सुप्रसिद्ध संगीतकार बाबा अलाउद्दीन खान के बारे में यह सर्वविदित है कि उन्होंने अपनी सबसे सुंदर बेटी का नाम अन्नपूर्णा देवी रखा था। जिसका बाद में सुप्रसिद्ध सितार वादक पंडित रविशंकर के साथ ब्याह हुआ। इस उपन्यास में अन्नपूर्णा देवी की भी कथा को क्षेपक के रूप में उपन्यासकार ने रचा है।

इस उपन्यास में 'सुआर्यन’, 'कच्छप रक्षक सेना’ तथा 'राष्ट्रवादी छात्रसंघ’ जैसे कट्टरपंथी संगठनों की भी विस्तारपूर्वक चर्चा है। ये संगठन धर्म और मजहब के नाम पर पूरे देश में नफरत का जहर फैलाते हुए नजर आते हैं। इन संगठनों को न इस देश की साझी विरासत से कोई मतलब है और न ही इस देश की करोड़ों जनता से। ये केवल नफरत के नाम पर, एक धर्म विशेष के खिलाफ षड्यंत्र रचने का काम करते हैं। इस तरह के सारे संगठन किसी भी देश को फासीवाद के रास्ते पर ही ले जा सकते हैं क्योंकि इनके आदर्श तो कोई हिटलर या मुसोलिनी ही हो सकते हैं। इस तरह के सारे संगठन इस समय हमारे देश में तेजी से फल-फूल रहे हैं, भले ही उनके नाम कुछ हो। 

नानू उस्ताद अय्यूब खान को पूणे से संगीत का आमंत्रण मिलता है। नानू को पूणे जाना हमेशा से इसलिए पसंद रहा है क्योंकि वह संगीत की अद्वितीय नगरी तो थी ही साथ ही उनके गहरे मित्र डॉ. माजंरेकर की भी नगरी थी। डॉ. मांजरेकर केवल पूणे के सुप्रसिद्ध चिकित्सक ही नहीं थे वरन् अंधविश्वासी विरोधी संगठन के एक प्रमुख हस्ती भी थे, जो लगातार अंधविश्वास के खिलाफ पूरे महाराष्ट्र में अभियान चलाते रहते थे। पूणे में जब दोनों मित्र सुबह टहलने के लिए निकलते हैं तो इसी तरह के कट्टरवादी संगठन के लोग उन दोनों की हत्या कर देते हैं। नानू की हत्या इसलिए क्योंकि वे मुस्लिम थे और डॉ. मांजरेकर की इसलिए क्योंकि वे अंधविश्वास विरोधी संगठन के मुखिया थे।

उपन्यास में डॉ. मांजरेकर की जगह डॉ. नरेन्द्र दाभोलकर को रखकर देखें तो यह सारा वाक्या समझ में आ जायेगा। डॉ. नरेन्द्र दाभोलकर पूणे में अंधश्रध्दा निमूर्लन समिति के अध्यक्ष थे और कुछ वर्षों पहले उन्हें जानबूझकर कट्टरपंथियों ने अपना निशाना बनाया था। इसी के साथ एम.एम. कल्बुर्गी, गोविन्द पानसरे, गौरी लंकेश की जिस तरह से जघन्य हत्या हुई है यह प्रसंग हमें उसकी याद दिलाता है। यह अकारण नहीं है कि रणेन्द्र ने अपने इस उपन्यास को इन्हीं सबकी पावन स्मृति को समर्पित किया है।

सन् 2014 के बाद देश में सब ओर यही खतरनाक मंजर दिखाई दे रहा है। अगर वे सीधे एक्टिविस्टों, लेखकों-शायरों-अफसानानिगारों की कत्ल नहीं कर पा रहे हैं तो उन पर तरह-तरह के आरोप लगाकर, कानून की अनेक धाराएं लगाकर जेलों में सडऩे के लिए़ छोड़ दिया जा रहा है। वरवरा राव, सुधा भारद्वाज, गौतम नवलखा, आनंद तेलतुंबड़े, डॉ. कफील खान, सफूरा जरगर और अभी हाल में ही बैंगलोर की 22 वर्षीया दिशा रवि इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। न्यायालयों सहित मीडिया का जो चेहरा दिखाई दे रहा है उसमें न्याय, सच्चाई और विचारों के लिए कहीं कोई जगह अब शायद नहीं रह गई है। मुक्तिबोध ने जो लिखा था 'अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाने ही होंगे’ अब सच लगने लगा है।

सुआर्यन और कच्छप रक्षक सेना जैसे साम्प्रदायिक संगठन इस उपन्यास में वही काम करते हुए दिखाई दे रहें हैं जो देश में विभिन्न साम्प्रदायिक संगठन इस समय करते हुए दिखाई दे रहे हैं। सुआर्यन और कच्छप रक्षक सेना के लोग अब्बू, कमोल और मयंक के इसलिए खिलाफ हैं क्योंकि उन्होंने विभिन्न धर्म के बेसहारा बच्चों के लिए आश्रम खोला हुआ है। अब्बू ने सन् 1978 में सुंदर वन के दलित निम्नवर्गीय बांग्लादेशी शरणार्थियों के नरसंहार में बचे बच्चों एवं पश्चिम त्रिपुरा जिले के जिरनिया प्रखंड के मन्दई गांव के हादसे से बचे हुए अनाथ बच्चों, सन् 84 के सिक्ख दंगों में बचे सिक्ख बच्चे-बच्चियों, इसी तरह जम्मू के राहत शिविरों से कत्ल हुए पंडित परिवार के बच्चों को एकत्र कर एक आश्रम प्रारंभ किया था जिसमें इन बच्चों के लालन-पालन के साथ मौसीकी का रियाज और पेंटिग्स का अभ्यास करवाया जाता था।

सुआर्यन और कच्छप रक्षक सेना के नवयुवक एक बिल्डर के इशारे पर आश्रम की जमीन को इसलिए खाली करवाना चाहते थे क्योंकि बिल्डर उस जमीन पर एक स्टार होटल बनाने का सपना देख रहा था।जब वे इसमें कामयाब नहीं हो पाये तो उन्होंने इसको साम्प्रदायिक रंग देने का काम किया। चैनल 17 ने इसमें उसकी मदद की, जिसके चलते अब्बू, कमोल और मयंक की गिरफ्तारी हुई। कोर्ट में वकीलों के एक दल ने उन पर हमला किया। इस उपन्यास में लिखा है जो काम सुआर्यन और कच्छप रक्षक सेना की भीड़ ने नहीं किया, उस काम को कोर्ट की भीड़ ने कामयाब कर दिखाया। यहां थोड़ा रूककर जे.एन.यू. के छात्र नेता कन्हैय्या के साथ कुछ वर्षों पहले जो कुछ हुआ है उसे भी याद कर लेने की जरूरत है।

इसलिए 'गूंगी रूलाई का कोरस’ हमारे समय और देश का एक नया रूपक रचने वाला उपन्यास भी है। यह रूपक इतना त्रासद और भयावह है कि यकीन करना मुश्किल हो जाता है कि हम इतने बूरे दौर में जीने के लिए अभिशप्त क्यों हैं यह भी कि यह दौर अभी और किस तरह से इस देश को, इस देश की सभ्यता और संस्कृति को और कितना कलंकित करेगा।

इस उपन्यास में अंतत: अब्बू, कमोल और मयंक को आश्रम के मामले में न्याय तो मिल जाता है पर जिस तरह से उन्हें सुआर्यन, कच्छप रक्षक सेना, चैनल 17 के गठजोड़ के चलते कुछ दिन जेल में बिताना पड़ता है,यह कितना यातनापूर्ण एवं दुर्भाग्यजनक है। इस उपन्यास में साम्प्रदायिक संगठन के साथ मीडिया के गठजोड़ को भी रणेन्द्र ने साहस के साथ चित्रित करने का प्रयास किया है। दरअसल यह कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी की रणेन्द्र हमारे समय के एक बेहद सजग लेखक हैं। वे ऐसे लेखक हैं जिनके पास एक गंभीरदृष्टि और एक स्पष्ट विचारधारा भी है। इसलिए वे अपने समय के यथार्थ को आर-पार तक देख सकने की हिम्मत ही नहीं रखते हैं वरन् उससे टकराने का हौसला भी रखते हैं। दुर्भाग्य से इस समय हिंदी साहित्य की कथा धारा में रणेन्द्र जैसे लेखक कम ही होंगे।

रणेन्द्र के इस उपन्यास में मुख्य कथा के साथ-साथ अन्य कथाएं भी इस तरह से घटित होती चलती है, जिससे इस देश की साझी संस्कृति और मिली जुली विरासत की कई सुंदर और बदरंग तस्वीर एक साथ दिखाई देती है। इन्हीं तस्वीरों में से एक है बांग्ला के काजी नजरूल इस्लाम की कहानी। काजी नजरूल इस्लाम को बंगाल के एक विद्रोही कवि के रूप में जाना जाता है। उनसे कुमिल्ला की ही 16 वर्षीया प्रोमिला प्रेम करने लग जाती है। प्रोमिला हिंदू है और अल्पवयस्क भी सो विरोध होना लाजमी था। लेकिन प्रोमिला की मां गिरिबाला देवी अपनी बेटी प्रोमिला के साथ खड़ी हो जाती है। काजी नजरूल इस्लाम कुमिल्ला छोड़ देते हैं और प्रोमिला के 18 वर्ष के होने के बाद उससे निकाह कर लेते हैं किंतु प्रोमिला को अपना धर्म छोड़ कर इस्लाम अपनाने के लिए वे कभी मजबूर नहीं करते। काजी नजरूल इस्लाम ने मुल्ला-मौलवी को भी डांट कर भगा दिया था कि प्रोमिला कभी कलमा नहीं पढ़ेगी।

काजी नजरूल इस्लाम के गांव चुरूलिया से ही बाउल कमोल भी संबंध रखते थे। उनके दादू रोबिन बाउल इसी गांव में जन्मे थे उनके पिता मदन बाउल ने भी इस गांव को कभी नहीं छोड़ा। एक ओर शबनम के पिता उस्ताद खुर्शीद शाह जोगी, जोगी घराने से संबंध रखते थे तो शबनम के पति कमोल बंगाल के सुप्रसिध्द बाउल घराने से। इस उपन्यास में एक जगह उस्ताद खुर्शीद शाह जोगी, जोगी और बाउल घराने की चर्चा करते हुए कहते हैं 'हम जोगी है और बेटा कमोल बाउल। जोगी और बाउल न हिंदू होते हैं और न मुसलमां। वे बस जोगी और बाउल ही होते हैं। हम जोगियों के गुरू गोरखनाथ और दादा मछन्दरनाथ ने न पूजा करने से मना किया और न नमाज पढऩे से। वही सीख बाउलों को लालन शाह फकीर ने दी। दरअसल इबादत के हर दिखावे से हमारे गुरूओं को तकलीफ थी। वे भीतर के रहगुजर के राही और रहनुमा थे। दिल के भीतर शिव और शक्ति को, पांच तत्वों की मौजूदगी को महसूस किया और महसूस करवाया। हम भी भीतर-बाहर भटकते-आवारागर्दी करनेवाले गुरू गोरख के चेले हैं।’

आगे वे यह भी जोडऩा नहीं भूलते हैं कि 'आजकल हमसे ये सवाल थोड़े  ज्यादा ही पूछे जा रहे हैं... कभी मंदिर के दरवाजे पे... कभी मस्जिद की सीढिय़ों पे...। आप नई पीढ़ी के लोग ही मिलकर तय कर दीजिए। हमें तो इस उम्र में कुछ समझ में नहीं आ रहा, हम क्या बदलें...कैसे बदलें कि आप लोगों को अच्छा लगे।’ उस्ताद खुर्शीद शाह जोगी का यह कथन आज के इस खतरनाक दौर में पूछे जा रहे मजहबी सवालों की ओर इंगित करते हैं। जिसमें पहनावे से लेकर, खान-पान को भी निशाना बनाया जा रहा है। आदमी की पहचान उसकी वेशभूषा से की जा रही है। हर आदमी को एक ही ढंग से सोचने और जीने के लिए मजबूर किया जा रहा है। ठीक वैसा ही जैसे नाजी जर्मनी में कभी हिटलर के जमाने में यहूदियों के साथ हुआ था।

इस उपन्यास में रणेन्द्र ने जगह-जगह हिंदुस्तानी मौसीकी की खूबसूरती को चित्रित करने का कोई प्रयास नहीं छोड़ा है। हिंदूस्तानी मौसीकी की जितनी भी बारीकियां हो सकती हैं, जितनी भी खूबियां हो सकती है लगता है रणेन्द्र इस सबसे भली-भांति वाकिफ हैं।वे हिंदुस्स्तानी मौसीकी की न केवल सूरों की हर बारीकियों से वाकिफ हैं वरन् बाउल जैसी लोक संगीत की खूबियों से भी अच्छी तरह परिचित हैं। यही नहीं बंगाल की समृद्ध संस्कृति जो मिठास और खूशबू से भरी हुई है उसके चित्रण में भी वे पूरी तरह पारंगत हैं। बंगाल की संस्कृति वहां का खान-पान,पर्व-महोत्सव, लोक जीवन आदि से लगता है रणेन्द्र का एक लम्बा वास्ता रहा है। इस पूरे उपन्यास को पढ़ते हुए बार-बार हिंदुस्तानी मौसीकी के साथ-साथ बाउल और बंगाल की संस्कृति से पाठकों का साक्षात्कार होता रहता है।

इस उपन्यास में शबनम की मां सूर सरस्वती रागेश्वरी देवी का अपना एक अलग और विरल चरित्र है। वह नामी गायिका पद्म विभूषण विदूषी रागेश्वरी देवी के नाम से जानी जाती है। सूर सरस्वती रागेश्वरी देवी ने मौसीकी की दुनिया में अपनी एक अलग पहचान बनाई थी। एक संगीत समारोह में जब सूर सरस्वती रागेश्वरी देवी को नानू के बिना ही उस्ताद खुर्शीद शाह जोगी के साथ जाना पड़ा और वहां जिस तरह से उस्ताद खुर्शीद शाह जोगी ने अपने गायन से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध किया उसी दिन रागेश्वरी देवी ने तय कर लिया था कि उसके जीवन में खुर्शीद शाह जोगी के अलावा और कोई नहीं है।

रागेश्वरी देवी के बारे में रणेन्द्र ने शबनम के मुंह से कहलवाया है कि 'नानू यूं ही अपनी रागेश्वरी बिटिया को स्वर हंस पर विचरने वाली गान सरस्वती नहीं कहा करते थे। लेकिन गान-सरस्वती की बुलन्दी तक पहुंचने के लिए अम्मू ने पिछले पांच दशक तक जो रियाज किया था या नानू ने करवाया था वह भी अनोखा था। अठारह-अठारह घंटों का रियाज। सुबह-भैरव, दोपहर-सारंग, ढलती-भीमपलासी, शाम-श्री और रात में दरबारी कांगड़ा।’ सूर सरस्वती रागेश्वरी देवी को ऐसे ही पद्म विभूषण जैसी उपाधि प्राप्त नहीं हो गया था।

हिंदुस्तानी मौसीकी में जितने भी बड़े फनकार हुए हैं उन्होंने मौसीकी में अपनी जगह बनाने के लिए इसी तरह के घंटों रियाज किए हैं। रणेन्द्र अपने इस उपन्यास में यह जोडऩा भी नहीं भूलते हैं कि मौसीकी में कोई शार्ट-कट रास्ता नहीं होता है। एक लम्बे और जी तोड़ परिश्रम के बाद ही कोई फनकार किसी ऊंचाई तक पहुंचता है। चाहे वह बड़े गुलाम अली खां हो या अमीर खां या भीमसेन जोशी जैसे महान संगीतज्ञ। रणेन्द्र ने इस उपन्यास को लिखने से पहले हिंदुस्तानी मौसीकी को लेकर न जाने कितनी तैयारी की होगी, कितना परिश्रम और अध्ययन किया होगा, यह बता पाना मुश्किल है। इस उपन्यास को पढ़ते हुए लगता है मौसीकी उनके रूधिर में बहती है और बंगाल की संस्कृति उनके ह्रदय में धड़कती है। 

उस्ताद खुर्शीद शाह जोगी जो इस उपन्यास के हरफनमौला चरित्र हैं जो धर्म और मजहब से बहुत परे अपने इकतारे के साथ देश में हो रहे दंगों के बाद अपने जैसे फकीरों की टोली के साथ अक्सर पहुंच जाया करते हैं। वे भी कट्टरपंथी संगठनों के निशाने पर आने से बच नहीं पाते हैं। नाम भले ही खुर्शीद शाह हो पर थे तो फकीर ही, जिनका हिंदूओं जैसा चोला था। ईद के दिन मस्जिद की सीढिय़ों के पास मुस्लिम कट्टरपंथी संगठन से जुड़े युवा उनसे उनके धर्म और मजहब के बारे में पूछते हुए, उन्हें अपमानित करते हुए मार डालते हैं।

उस्ताद खुर्शीद शाह जोगी जैसे फकीर जिनका न कोई धर्म होता है, न कोई मजहब, जिनके लिए ईश्वर और खुदा एक समान होते हैं। जिन्हें मंदिर और मस्जिद की सीढिय़ों पर कोई भेद नजर नहीं आता है, ऐसे ही लोग आज चुन-चुनकर कट्टर पंथियों द्वारा निशाना बनाए जा रहे हैं। जिनकी आज देश में सबसे ज्यादा जरूरत है ऐसे लोगों को ही इस देश से मिटाया जा रहा है। उस्ताद खुर्शीद शाह जोगी के साथ ही लगता है जैसे एक पूरी मानवता की ही हत्या कर दी गई हो। इस उपन्यास में इस तरह के कारूणिक दृश्य मन को विचलित कर देते हैं और हमें सोचने के लिए बाध्य। अगर यह फासीवाद नहीं है तो फासीवाद भला और किसे कहते हैं? यह अंधराष्ट्रवाद नहीं है तो भला अंधराष्ट्रवाद क्या है?

अब्बू के साथ हुए इस हादसे से सभी दुखी हैं। किसी ने सोचा भी नहीं था कि अब्बू जैसे जोगिया फकीर की कोई इस तरह से कभी हत्या करेगा, पर अब देश बदल चुका था, यह कहें तो गलत नहीं होगा कि इस देश को एक राजनैतिक दल की मंशा के अनुरूप बदला जा रहा था। यह उपन्यास हमें सचेत करता है कि इस महादेश को एक ऐसी अंधेरी सुरंग में ले जाने की कोशिशें हो रही है जिससे यह कभी भी अंधेरी सुरंग से वापस किसी रोशनी में लौट ही न सके। उपन्यासकार रणेन्द्र की यही मूलभूत चिंता है, जिसे वे हम सबकी चिंता में बदल देना चाहते हैं।

कमोल के बाबा जब कोलकाता से वापस अपने गांव शिउड़ी लौट रहे थे तब ट्रेन में उन्होंने जो दृश्य देखा वह देश में धर्म के नाम पर हो रहे नफरत और वैमनस्य को ही प्रदर्शित करता है। 'गूंगी रूलाई का कोरस’ में इस दृश्य का जिस तरह से वर्णन किया गया है वह इस समय, इस देश में एक आम दृश्य बन चुका है। तीन दाढ़ी टोपी वाले 18-19 साल के दुबले-पतले लड़कों को 10-12 तगड़े नौजवान घेरे हुए हैं। कोई उनकी टोपियां उछाल रहा है तो कोई उनकी दाढ़ी नोच रहा है। कुछ लोग उनके गालों पर थप्पड़ मारे जा रहे हैं, उन दुबले-पतले लड़कों के नाक और कान से खून लगातार बहने लगा है।

कमोल के बाबा मदन बाउल उन लड़कों को समझाने की कोशिश करते हैं तो लड़के उन्हीं से भिड़ जाते हैं किसी तरह कमोल की मां अपने पति को खींचकर अपने सीट पर बैठाती है ताकि उसकी जान बच सके। उपन्यास में आया हुआ यह दृश्य कोई नया दृश्य नहीं है। सन् 2014 के बाद यह दृश्य हर कहीं आम है। एक विशेष कौम को जानबूझकर निशाना बनाए जाने को शासकीय संरक्षण भी प्राप्त हो चुका है। फासीवाद का इससे बेहतर नमूना और क्या हो सकता है? यह उपन्यास बार-बार हमें याद दिलाने का प्रयत्न करता है कि हम एक ऐसे दौर में जी रहे हैं जो इस देश के इतिहास में अब तक का सबसे कलंकित और वीभत्स दौर है।

इस उपन्यास में कालिन्दी जैसी पात्र भी हैं, जो मन ही मन कमोल से प्रेम करती है। चुरूलिया में एक विवाह समारोह में जिसमें कमोल भी आया हुआ है कालिन्दी की मुलाकात कमोल से हो जाती है। कालिन्दी कमोल के मामी की भतीजी अर्थात् उनके बड़े भाई की बेटी थी, जो कोलकाता के सुप्रसिध्द लोरेटो वीमेन्स कॉलेज की बी.ए. अंग्रेजी आनर्स की छात्रा थी साथ में एन.सी.सी. की कैडर भी। स्वभाव से बहुत तेज और बात-बात में रोष जताने वाली कालिन्दी को कमोल भा गया था। कमोल भी उसकी ओर आकर्षित होने लगा था। यह तब की बात है जब शबनम और कमोल की शादी नहीं हुई थी।

उसी विवाह समारोह में सब लोग कमोल से उनका गाना सुनना चाहते हैं लेकिन कमोल इसके लिए तैयार नहीं है, वह अपनी मां के कहने पर तैयार होता है और गाता है। उसके गाने से जैसे गति सिमट जाती है और ब्रह्मांड घूमर भरने लगता हैं। उनके गायन के दृश्य का वर्णन करते हुए रणेन्द्रभाषा का ऐसा माधुर्य रचते हैं जो अपने-आप में विलक्षण है। जिससे पाठकों का मन उसके आस-पास ही कहीं ठहर सा जाता है 'अनहद आनंद के आंसुओं ने न केवल पुरूष-स्त्री बल्कि गाय-गोरू, पंछी-पखेरूओं के कोरों को भी गीला कर दिया। नीलाकाश के नौ लाख तारों ने बहुत धीरज रखा, किन्तु अंत में उनके आंसू भी ओस बनकर टपक पड़े। मुझे लगा, अन्तस में एक प्राण नहीं, हजार-हजार प्राण हों और सबके-सब बाहर आने को मचल रहे। परम आनन्द में सबों की आंखें मुंदी थीं। पलकें खुशी का बोझ नहीं उठा पा रही थीं।’

कालिन्दी और उसके परिवार के लाख चाहने के बावजूद बाउल कमोल का ब्याह कालिन्दी के साथ न होकर विदूषी के. शबनम के साथ होता है। कुछ दिनों पश्चात् कालिन्दी भी मि. बी.बी. गुप्ता से ब्याह कर लेती है। कालिन्दी के पति गुप्ता एक ऐसे शख्स है जो नानू के आश्रम को खरीदने में बिल्डर का साथ देते हैं तथा जिनके संबंध कट्टरपंथी संगठनों से भी है। लेकिन कालिन्दी अपने पति से ठीक उलट है। वह बाउल कमोल और आश्रम के बच्चों को दिल से चाहती हैं। वह यह भी चाहती है कि इनमें से किसी का भी कभी कोई अहित न हो। वह हर बार कमोल की सहायता के लिए तत्पर नजर आती है।

कमोल और कालिन्दी जब 'शिउड़ी-जुटान’ में भाग लेने के लिए कोलकाता से ट्रेन से शिउड़ी के लिए निकलते हैं तो उसी समय उनके साथ एक दुर्घटना घटित होती है। कमोल जब खाने के लिए अपना टिफिन खोलता है तो वहां बैठे कच्छप रक्षक सेना के युवकों को मौका मिल जाता है। कमोल के टिफिन में कटहल का कोफ्ता है जिसे वे लोग चीख-चीखकर भगवान कच्छप महाराज का गोश्त बताते हैं। वैसे भी फकीराना वेशभूषा और दाढ़ी देखकर कच्छप रक्षक सेना के युवक उसे अधर्मी ही समझ रहे थे और उस पर एक तरह से शुरू से ही नजर लगाए बैठे हुए थे।

कमोल और कालिन्दी के लाख समझाने के बावजूद वे मानने को तैयार नहीं थे कि यह भगवान कच्छप महाराज का गोश्त नहीं है, बल्कि कटहल का कोफ्ता है। कच्छप रक्षक सेना के दरिंदें दोनों को ट्रेन से बाहर पटरियों पर फेंक देते हैं। कालिन्दी तो जैसे-तैसे बच जाती है और उसे कोलकाता के एक बड़े हास्पिटल में भर्ती करवा दिया जाता है। लेकिन कमोल की मौत ट्रेन से नीचे फेंकते ही हो जाती है। यहां कच्छप महाराज की गोश्त की जगह गाय का गोश्त रख दीजिए तो दृश्यपटल एकदम बदल जायेगा। गाय के नाम पर या बीफ के नाम पर सन् 2014 से लेकर अब तक कितने निर्दोष लोग इस देश में मारे गए होंगे इसकी सूची आज किसी के पास नहीं होगी।

कच्छप रक्षक सेना के बारे में रणेन्द्र ने इस उपन्यास में एक जगह विस्तारपूर्वक लिखा है 'भगवान कच्छप के लाकेट वितरण कार्यक्रमों, माननीयों के अनवरत प्रबोधनों एवं बॉलीवुड की सुपर-डुपर हिट फिल्म के बाद कच्छप बाबा केन्द्रित दर्जनों फिल्मों-सीरियल्स के अथक प्रयासों से राष्ट्र का वातावरण निर्मित हो रहा था....अब और नहीं...बस और नहीं...भगवान कच्छप महाराज पर अत्याचार और नहीं। जगह-जगह मछली-वैन, ट्रक, जीप, टोकरियों की जांच में कच्छप रक्षक संघ के जागृत युवा संलग्न हो गए। दुर्घटना से सावधानी भली की तर्ज पर जांच में कच्छप महाराज मिलें या ना मिलें दुष्टों को दंडित किया जाना अपरिहार्य कर्तव्यों में सम्मिलित था।... यह खास ध्यान रखा कि ऐसे हर एक्शन की वीडियोग्राफी की जाए और उसे सोशल मीडिया पर वायरल किया जाए।’

कमोल की हत्या इसी का दुष्परिणाम था। उसका फकीरों जैसा ताना-बाना और बेतरतीब दाढ़ी उसकी हत्या का कारण बना। इस देश में कच्छप रक्षक सेना और इस तरह के संगठन आज हर जगह फलते-फूलते दिखाई दे रहे हैं। सोशल मीडिया, टी.वी. चैनल, प्रिंट मीडिया ये सब जगह पर कब्जा किए हुए बैठे हुए हैं। मीडिया का हश्र तो यह है कि वे या तो बिक चुके हैं या फिर पतन के कगार पर लोट-पोट हो रहे हैं। इस समय कहीं से भी इन कट्टरपंथी संगठनों के खिलाफ कोई बड़ा या व्यापक प्रतिरोध होता हुआ दिखाई नहीं दे रहा है। आशा की सारी किरणें भी धुंधली सी दिखाई दे रही हैं। इस सबके बावजूद देश में चारों ओर अमन-चैन नजर आ रहा है। सब अपने-अपने घरों में कैद अपनी छोटी-छोटी खूशियों में डूबे हुए नजर आ रहे हैं। ऐसे समय में यह उपन्यास प्रतिरोध का एक व्यापक परिप्रेक्ष्य निर्मित करने का साहस दिखाता है। हमारी नजरों के सामने जो कुछ भी घट रहा है उसे उसकी पूरी कुरूपता के साथ जस का तस रखने का प्रयास करता है। अपनी तरफ से बिना कुछ अतिरिक्त जोड़े हुए हमारी दृष्टि के धुंधलेपन को साफ करने की कोशिश करता है।

उपन्यास का अंत 'शिउड़ी-जुटान’ के आयोजन से होता है। 'शिउड़ी-जुटान’ में भले ही भालो बाउल कमोल नहीं पहुंच पाते हैं लेकिन उनके सारे शिष्य दस दिन पहले से ही 'शिउड़ी-जुटान’ में एकत्र होने लगते हैं। सबसे पहले दिन कालिन्दी पहुंचती है जो अस्पताल से स्वस्थ होकर अपने घर लौट चुकी थी। घर लौटने के बाद वह अपने पति बी.बी. गुप्ता से तलाक ले लेती है। वह एकदम नवबोधु के रूप में कमोल दा के घर में पग धरती है। 'एकदम मांमोनी के सपनों वाली बोंग बोधु...केवल सिर पर मांगटीका के ऊपर मुकुट नहीं था और न ललाट पर चन्दन-कुमकुम की सजावट और हां! पान पत्तों की ओट भी मुखड़े के सामने नहीं थी। बाकी सारे के सारे सौभाग्य चिन्ह मौजूद थे। सोलहों श्रृंगार के साथ।’

इधर शबनम भी अपनी बेटी बुलबुल के साथ ससूरबाड़ी पहुंच गई है। बुलबुल तो अपने बाबा बाउल कमोल की अपने आप में पूरी झलक है। नख से शिख तक बातचीत तथा चाल-ढाल में भी कमोल दा की हीझलक उसमें दिखाई दे रही थी। कालिन्दी और शबनम एक-दूसरे को देखकर बच रहे थे। एक-दूसरे से नजर ही नहीं मिला पा रहे थे, फिर अचानक क्या हुआ कि दोनों की आंखें एक साथ डबडबा गई और दोनों की रूलाई रूक ही नहीं पा रही थीं। दोनों की वेदना समान थी। दोनों के लिए भालो कमोल आदर्श थे। कमोल की अनुपस्थिति ने जैसे दो विपरीत नारी ह्रदयों को आपस में मिला दिया था। अब शबनम पहले की शबनम नहीं रही और कालिन्दी भी अब वही कालिन्दी कहां रही। दोनों के प्राण जैसे एक तत्व में समाहित हो गए थे।

रणेन्द्र ने अपने इस उपन्यास में कालिन्दी जैसी चरित्र के साथ भी पूरी तरह से न्याय किया है। वह अपने पति को छोड़कर अपने पूर्व प्रेमी कमोल के घर पर यह जानकर भी आई हुई है कि वह जीवन में केवल छली ही गई है। इसके बावजूद कमोल के प्रति उसका प्रेम उसे कमोल के गांव और घर तक खींच कर ले आया है। हिंदी उपन्यास में इस तरह की नारी चरित्र कम ही मिलेंगे। रणेन्द्र ने अपने इस उपन्यास में कालिन्दी के चरित्र को भी एक अविस्मरणीय चरित्र बना दिया है। प्रेम और त्याग की साक्षात् देवी की तरह कालिन्दी का चरित्र भी एक अद्वितीय चरित्र बन पड़ा है।

बुलबुल अपने साथ दो ट्रकों में मशीनों के बड़े-बड़े बाक्स लेकर आई है। वह नीचे के बड़े हाल में साउंड रिकार्डिंग स्टूडियों खोलना चाहती है। यह अब्बू-बाबा और कमोल का वर्षों का बड़ा सपना था जिसे बुलबुल संभव करने जा रही थी। वही बुलबुल जो उस्ताद माहताबुद्दीन खान के घराने की चौथी पीढ़ी है। इस पीढ़ी ने भी हिंदुस्तानी मौसीकी के प्रति अपनी दीवानगी और मुहब्बत को अपनी रूह में बचाए हुए है। बुलबुल जैसी चरित्र भी इस उपन्यास की एक अहम किरदार है, जिसके बिना शायद यह उपन्यास अधूरा सा प्रतीत होता।

'शिउड़ी-जुटान’ के माध्यम से एक बार फिर से बिखरता हुआ परिवार जुड़ता हुआ नजर आता है। उदासी और निराशा उम्मीद की किरणों में बदलती हुई नजर आती है। एक बार फिर लगने लगता है कि उस्ताद माहताबुद्दीन खान और उनका पूरा घराना जीवित हो उठा है। इसी के साथ ही बाउल रोबिन दादू उनके पुत्र मदन बाउल और बाउल कमोल कबीर भी लगता है 'शिउड़ी-जुटान’ में साक्षात् शिरकत करने पहुंच गए हैं। फिर से हिंदुस्तानी मौसीकी और बाउल जैसे गले मिल रहे हैं। साझी संस्कृति और हमारी अनमोल विरासत एक बार फिर से धधकती हुई आग से निखर कर चमक उठी है।

यह उपन्यास अपने पूरे कलेवर में एक धधकती हुई आंच है। इस आंच को सह पाना बहुतों के लिए कठिन भी हो सकता है। यह उपन्यास हमारे समय को जिस तरह से देखता है और अपने विन्यास में जगह देता है, यह एक ऐसे विलक्षण उपन्यासकार के लिए ही संभव हैजो अपना सब-कुछ दांव पर लगाकर इस तरह के जोखिम उठाने को तैयार है। इस उपन्यास की रचना आनंद और मजे-मजे की रचना नहीं है, बल्कि स्वयं को आग में जलाकर ही कोई लेखक इस तरह के उपन्यास लिख सकता है, बिना यह सोचे कि इसके परिणाम या दुष्परिणाम क्या होंगे। वैसे कबीर और मुक्तिबोध जैसे कवियों ने भी परिणाम या दुष्परिणाम की चिंता कब की थी।

यह उपन्यास हिंदुस्तानी मौसीकी को लेकर जिस तरह के आख्यान रचता है वह असाधारण है। हिंदुस्तानी मौसीकी के साथ हमारे समय के बेहद कड़वे यथार्थ को मिलाकर रणेन्द्र अपने इस उपन्यास के लिए जिस तरह का रसायन तैयार करते हैं वह हमें चकित ही नहीं करता है वरन् हमारे विचारों को उद्वेलित भी करता है। रणेन्द्र का यह उपन्यास एक साथ उन बहुत सारी चीजों को अपने दृश्यपटल पर रखने का परिणाम है, जिससे आज यह पूरा देश जूझता और लहुलूहान होता दिखाई दे रहा है।

यह उपन्यास अपनी अद्भुत किस्सागोई में ही नहीं वरन् अपने संपूर्ण विन्यास में भी एक अद्भुत उपन्यास होने की क्षमता रखता है। उपन्यास के हर अध्याय के प्रारंभ में उद्धृत किए गए दोहों, कविताओं, शायरी में हमारे समय की बेहद निर्मम छवि प्रतिबिंबित होती हुई जान पड़ती है। रणेन्द्र ने अपने इस उपन्यास में अमीर खुसरो, नवारूण भट्टाचार्य, केदारनाथ सिंह, कुंवर नारायण, बहादुर शाह जफर, अली सरदार जाफरी, गोरखनाथ, सौदा, जगन्नाथ आजाद, मजाज लखनवी, अरूण कमल, असद जैदी, अशोक वाजपेयी जैसे कवियों एवं शायरों की पंक्तियों के माध्यम से प्रत्येक अध्याय का प्रारंभ किया है। यह प्रयोग भी इस उपन्यास की कथावस्तु के अनुकूल एक सार्थक और नया प्रयोग है।

अपने इस नवीनतम उपन्यास 'गूंगी रूलाई का कोरस’ के माध्यम से स्वयं रणेन्द्र ने अपनी औपन्यासिक सीमाओं का अतिक्रमण किया है। अपने दोनों पूर्ववर्ती उपन्यासों 'ग्लोबल गांव के देवता’  तथा 'गायब होता देश’ में उन्होंने झारखंड राज्य के आदिवासियों के संघर्ष और प्रतिरोध को दर्ज किया था। इस उपन्यास में कथावस्तु का फलक बहुत व्यापक तथा राष्ट्रीय चुना है। इस तरह उन्होंने अपनी औपन्यासिक यात्रा में एक लम्बी छलांग लगाने का प्रयास किया है, जो किसी भी लेखक के लिए किसी महत्वपूर्ण उपलब्धि से कम नहीं है।

एक मुद्दत के बाद 'गूंगी रूलाई का कोरस’ जैसा उपन्यास हिंदी में आया है जो धार्मिक उन्माद और साम्प्रदायिक दंगों के नर्क में जलते हुए इस लहुलूहान देश की निर्मम और निल्र्लज तस्वीर को दिखाने का साहस रखता है। यह यकीनन कहा सकता है कि रणेन्द्र का यह नवीनतम उपन्यास इस दशक का श्रेष्ठतम उपन्यास होने का दर्जा तो पायेगा ही, हमारे इस भयावह दौर का अप्रतिम चित्रण करने वाला तथा प्रतिरोध का व्यापक फलक बुनने वाला हमारे समय का एक अद्वितीय उपन्यास भी सिद्ध होगा। हिंदी उपन्यास की सुदीर्घ परंपरा में इस उपन्यास को एक नए प्रस्थान बिंदु के रूप में भी देखे जाने की आवश्यकता है।

मैं पूरी ईमानदारी और निष्ठा के साथ यह भी कह सकता हूं कि 'गूंगी रूलाई का कोरस’ जैसा उपन्यास ही हिंदी और हिंदुस्तान को बचा पायेगा। जब यह नफरत और झूठे राष्ट्रवाद का भयावह मंजर थम जायेगा तब हम यकीनन यह कह सकेंगे ऐसे दौर में भी 'गूंगी रूलाई का कोरस’ जैसा उपन्यास हमारे पास था।

 

पहल के सुपरिचित लेखक।

संपर्क: मो. 6264768849, 9425202505, रायपुर

 


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