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अप्रैल 2021

निजता को बचाये रखने की अंतर्गाथा

सूरज पालीवाल

किताबें

कुलभूषण का नाम दर्ज कीजिए-अलका सरावगी

 

 

 

'भाड़ में जाये कुल ! जब उसे बंगाली लड़की से लव हुआ, तब उसने कुछ उमंग से सोचा था । उसे अच्छी तरह मालूम था कि उसका जैनी कुल चिकन-मछली खाने वाली लड़की को कभी घर में घुसने नहीं देगा । अच्छा ही हुआ कि उसने अपने नाम से पहले ही कुल को हटा दिया । जिंदगी से तो कुल को हटना ही था ।’

'तुम्हें मैं भूलने का बटन बताता हूं। कभी भी मन पर कोई परछाई घिरने लगे, तो बस बटन दबाना और चमत्कार देखना। लोग तुम्हें देखकर अचरज करेंगे कि गोविंदो धोबी का बेटा श्यामा ऐसे खुश कैसे रहता है जबकि दुनिया के बड़े से बड़े सेठ साहूकार अपनी सुंदर काया में भी कुढ़ते-चिढ़ते-जलते रहते हैं।’

'सारी बस्ती जलाकर राख कर दी उन लोगों ने। जो जवान आदमी मिला, उसे गोली मार दी और जिसे नहीं मारा, उसे पूछताछ के लिये उठाकर ले गये। हमारे इलाके से सारी जवान औरतों को उठाकर ले गये। किसी को नहीं छोड़ा दरिंदों ने। हमने पाकिस्तान का झंडा बस्ती पर फहराया पर उससे कोई फर्क नहीं पड़ा। कौन-कौन मुक्तियोद्धा है यहां-पूछते रहे और गोली मारते रहे। हिंदू-मुसलमान किसी को नहीं छोड़ा।’

'वे लोग बंगालियों की नस्ल को खत्म करना चाहते हैं। इसीलिये सब जवान औरतों को उठाकर ले जा रहे हैं।’

'कलिकथा वाया बाइपास’ के बाद अलका सरावगी के 'शेष कादंबरी’, कोई बात नहीं, एक ब्रेक के बाद, जानकीदास तेजपाल मेंशन तथा एक सच्ची झूठी गाथा’ उपन्यास प्रकाशित तो हुये जो इस बात की गवाही देते हैं कि अलका सरावगी निरंतर उपन्यास लिखती रही हैं पर इन सभी उपन्यासों पर 'कलिकथा वाया बाइपास’ की प्रसिद्धि की छाया हमेशा मंडराती रही। 'कलिकथा वाया बाइपास’ उनका पहला उपन्यास था लेकिन वह उनकी रचनात्मक यात्रा में मील का पत्थर साबित हुआ इसलिये सुधी पाठक और आलोचक उनके अन्य उपन्यास पढ़ते हुये भी 'कलिकथा वाया बाइपास’ के प्रभाव से मुक्त नहीं हो सके। यह अपवाद नहीं है ऐसा कई लेखकों के साथ हुआ है-श्रीलाल शुक्ल का उपन्यास 'राग दरबारी’, राही मासूम रज़ा का 'आधा गांव’ तथा उषा प्रियंवदा की कहानी 'वापसी’ इसी प्रकार के उदाहरण हैं लेकिन इस बात के भी उदाहरण हैं कि कई लेखक अपने रचनात्मक कौशल से उस बंद छवि से बाहर भी निकलते रहे हैं । रेणु इसके नायाब उदाहरण हैं 'मैला आंचल’ तथा 'तीसरी कसम’ जैसी विराट फलक को उकेरते कथा-विन्यास की छवि से आगे निकलना कठिन था पर रेणु निकले और ऐसा महत्वपूर्ण लिखा जिसमें वे बहुत आगे जाते हैं। अलका सरावगी के इसी वर्ष प्रकाशित उपन्यास 'कुलभूषण का नाम दर्ज कीजिए’ को पढऩे के बाद यह आश्वस्ति होती है कि इस उपन्यास में अपनी वे अपनी रूढ़ छवि से बाहर निकली हैं । कहना न होगा कि इस उपन्यास का फलक बड़ा है इसलिये पूर्वी पाकिस्तान की निर्मिति से लेकर बांग्ला देश की निर्मिति तक इस उपन्यास के सूत्र फैले हुये हैं। कुलभूषण की आत्मकथा के बहाने उन्होंने उन मूल समस्याओं को उठाया है जो केवल किसी देश के टूटने और बिखरने की कहानियों तक ही सीमित नहीं है। इतिहास की भूलें भी ऐतिहासिक ही होंती हैं इसीलिये केवल धर्म के नाम पर डेढ़ हजार किलोमीटर की दूरी पर स्थित बंगाली मुसलमानों को पाकिस्तान में शामिल किया गया जो भाषा, संस्कृति और रूप-रंग से पश्चिमी पाकिस्तान के मुसलमानों से अलग थे। पूर्वी पाकिस्तान ने धर्म की उस खोखली व्याख्या को भी धराशायी कर दिया जो धर्म को व्यक्ति की स्थायी पहचान और उसका आधार मानती रही है।

'कुलभूषण को याद कीजिए’ उपन्यास पढ़ते हुये कथा एवं उप-कथाओं के संदर्भ जैसे-जैसे खुलते जाते हैं वैसे-वैसे बेचैनी बढ़ती जाती है। यह उपन्यास एक प्रकार से देश विभाजन का पुनर्पाठ भी है, जो उन गलतियों का बार-बार अहसास कराता है, जो हमारे राजनेताओं ने कीं या धर्म के नाम पर जिन्हें करना जरूरी समझा गया। इसलिये यह कुलभूषण तक सीमित न रहकर श्यामा धोबी, कार्तिक चक्रवर्ती, अनिल मुखर्जी और डॉ. कासिम जैसे जीते-जागते पात्रों के संघर्ष और जिजीविषा का दस्तावेज बना है, जो बिना किसी निजी कारण के इतिहास की चक्की में पिसते रहे पर अपनी उदारता, सहिष्णुता और धर्मनिरपेक्षता के कारण धार्मिक युद्धोन्माद और सत्ता के क्रूर दमन में भी अपनी अलग पहचान बनाकर उभरे हैं । इसलिये नाम बदलकर गोपाल चंद्र दास बने अकेले कुलभूषण का नाम ही दर्ज नहीं होता बल्कि अन्य पात्र भी अपना नाम दर्ज कराने में सफल हुये हैं । कहना न होगा कि देश विभाजन के समय धार्मिक आधार पर पूर्वी बंगाल को पाकिस्तान का हिस्सा बनाया गया तभी से इस कृत्रिम विभाजन पर प्रश्न उठने शुरू हो गये थे। पाकिस्तान की केंद्रीय सत्ता पर पंजाब के धनाढ्य और बड़े ज़मीदार राजनेता हावी थे, जो बाद तक अपना दबदबा बनाये रहे इसलिये पूर्वी पाकिस्तान उनके शोषण और लूट का हिस्सा तो रहा पर बराबरी के स्तर पर एक देश के आत्मीय रिश्ते कभी भी सामान्य नहीं रहे। भारत ने जिस प्रकार राजभाषा के रूप में हिंदी को स्वीकार किया उसी प्रकार पाकिस्तान ने उर्दू को स्वीकार किया लेकिन यह हकीकत है कि पाकिस्तान में उत्तर प्रदेश और बिहार से गये मुहाजिरों की भाषा ही उर्दू रही बाकी पंजाबी का ही बोलबाला रहा इसके कारण बंगाली, सिंधी, बलूची एवं अन्य भाषाओं की लगातार उपेक्षा होती रही। बांग्लादेश बनने के प्रमुख कारणों में से एक बंगाली मुसलमानों पर उर्दू भाषा थोपा जाना भी था जिसे अलका सरावगी ने प्रमुखता से उठाया है 'पाकिस्तान वाले बांग्ला भाषा को हटाकर उर्दू लाना चाहते थे। स्कूलों में सुबह की प्रार्थना बांग्ला की जगह अचानक उर्दू में होने लगी थी। कुछ समझ में नहीं आता था कि जो बोला जा रहा है, उसका मतलब क्या है? सरज़मीन शाद बाद। मरकज ए यकीन शाद बाद। ... पश्चिम पाकिस्तान के हुक्मरानों को लगता था कि बंगाली मुसलमान बांग्ला भाषा और रवींद्रनाथ के गीतों के कारण सच्चे मुसलमान नहीं हो पा रहे। वे हिंदुआनी हैं, मतलब उनकी संस्कृति में बहुत हिंदूपन है। बंगाली औरतें नाचती गाती हैं । यह इस्लाम में कुफ्र  है। रवींद्रनाथ की जन्मशती पर उनका जन्मोत्सव मनाने पर भी पाबंदी लगाने की कोशिश की गई।’ पूर्वी बंगाल को धर्म के नाम पर पाकिस्तान में तो मिला लिया गया लेकिन भाषा का फर्क तो स्थायी भाव से हमेशा जीवित रहा, जिसे मिटाने की जितनी कोशिशें की गईं उतनी तेजी से पूर्वी पाकिस्तान का बंगाली मुसलमान पश्चिमी पाकिस्तान से अलग होता गया और धर्म की एकता के बावजूद उनके मन में एक दूसरे के प्रति कटुता लगातार बढ़ती ही गई। कहना न होगा कि भारत में भाषाई आधार पर प्रांतों के निर्माण का जब-तब विरोध होता रहा है लेकिन बांग्ला देश की निर्मिति ने भाषाई आधार को स्थायित्व प्रदान करते हुये भारतीय निर्णय को सही ठहरा दिया है। भाषा किसी भी व्यक्ति की स्थायी पहचान भी होती है और उसकी सहज अभिव्यक्ति का सहज माध्यम भी इसलिये वह अपनी भाषा के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होता है। यही कारण है कि बहुत खराब स्थितियों में भारत से बाहर गये लोगों के मन में अपनी मातृभाषा के प्रति लगाव है इसलिये परदेश में अपनी जड़ें जमा लेने और वहां के स्थायी नागरिक होने के बाद भी वे अपने पूर्वजों की भाषा के प्रति उतने ही संवेदनशील हैं। मॉरीशस, फिजी, गुएना इत्यादि देशों में भारत से गये लोगों के मन में भोजपुरी के प्रति जितना आदर और सम्मान है, उसका वजऩ भोजपुरी भाषी भारतीयों से कहीं अधिक है। अपने देश और अपने भाषाई क्षेत्र से दूर रहने पर यह आदर और सम्मान और बढ़ जाता है। इसे थोथे गुरूर में डूबे पश्चिम पाकिस्तान के हुकमरान समझने में असमर्थ रहे।

'कुलभूषण का नाम दर्ज कीजिए’ उपन्यास पढ़ते हुये कुलभूषण की सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक स्थितियां ब्योरेवार खुलती जाती हैं इसके साथ ही पूर्वी पाकिस्तान में 1964 के दंगों से लेकर 1971 में बांग्लादेश के निर्माण तक पश्चिमी पाकिस्तान की फौजों का क्रूर चेहरा भी बार-बार उजागर होता है, जो उनके प्रति नफरत से भर देता है । अलका सरावगी इसके साथ यह बताना भी नहीं भूलतीं कि 'ये मुसलमान तो बहाना खोज रहे थे कि कैसे हिंदुओं को यहां से मार भगायें। कश्मीर में हज़रतबल से मोहम्मद साहब की दाढ़ी का बाल ऐसे कैसे चोरी हो सकता है? चोरी हुआ है तो चोर को पकड़ो। हिंदुओं को हज़ारों मील दूर यहां बंगाल में मारने से क्या वहां वह बाल मिल जायेगा।’ सवाल पवित्र बाल का था ही नहीं उसकी आड़ में पूर्वी पाकिस्तान के अन्य लोगों की तरह मारवाडिय़ों को भगाकर उनकी सम्पत्ति हड़पने का षड्यंत्र चल रहा था 'हिंदू होना तो एक बहाना है। असल में तो जमीन-जायदाद मकान हड़पना ही मकसद है। ईस्ट बंगाल में ज्यादातर जमींदार और बड़े व्यापारी हिंदू थे। पार्टीशन के समय और उसके तीन साल बाद बरिसाल के दंगों के बाद यहां कितने मुसलमान रातोंरात मकान मालिक हो गये, सब जानते हैं। अब पार्टीशन के सत्रह साल बाद मुसलमानों की नयी पीढ़ी को लग रहा है कि बाकी बचे लोग भी चले जायें और हमें बिना कुछ किये उनकी जमीन-जायदाद मिल जाये। सबको पता है कि दंगों का डर होने से हजारों हिंदू सब कुछ छोड़छाड़ कर भाग निकलेंगे।’ इस ब्योरे में उपन्यास की आत्मा नहीं है बल्कि यह एक अंश मात्र है, जो मारवाडिय़ों के व्यापार, उनकी व्यापारिक बुद्धि तथा बाज़ार पर उनके प्रभाव को ध्यान में रखकर लिखा गया है। पर यह भी उल्लेखनीय है कि पाकिस्तान बनने के बाद पूर्वी पाकिस्तान में अधिकांश जूट मिलें और दैनंदिन का व्यापार मारवाडिय़ों के हाथों में ही था। इसके मूल में पूर्वी पाकिस्तान की बांग्ला संस्कृति थी, जिन लोगों ने इस्लाम कबूल भी कर लिया था वे भी बंगाली संस्कृति के रंग में रंगे हुये थे। यहां यह स्पष्ट कर देना जरूरी है कि जब अलका हिंदू और मुसलमानों की बात करती हैं तो उनकी दृष्टि में बड़े मारवाड़ी हैं और मुसलमानों में या तो पश्चिमी पाकिस्तान की क्रूर फौज है या बिहारी मुसलमान जो अपनी गरीबी दूर करने का कुत्सित रास्ता ढंूढ़ रहे थे। इस प्रकार के वर्गीकरण के अनेक खतरे हैं जिनसे अलका भलीभांति परिचित हें इसलिये वे आर्थिक और राजनीतिक कारणों का बार-बार उल्लेख करती हैं । यदि वे ऐसा नहीं करतीं तो सांप्रदायिक दृष्टि का दोष उन पर लगता और यह माना जाता कि पिछले कुछ समय में भारत में हिंदू और मुसलमानों का साफ-साफ वर्गीकरण और ध्रुवीकरण करके जिस तरह राजनीतिक लाभ उठाये जा रहे हैं, यह उपन्यास भी इसी प्रकार के दृष्टि दोष का शिकार है । पर ऐसा है नहीं इसलिये वे ऐसे मुसलमान पात्रों का भी सृजन करती हैं जो न केवल हिंदुओं के साथ खड़े हैं अपितु हिंदुओं की तरह कट्टरपंथियों के अत्याचारों को भी झेल रहे हैं । इतिहास गवाह है कि धर्म, संस्कृति और भाषा की आड़ में सत्ता और सम्पत्तियों पर अधिकार करने के लिये इस प्रकार के षड्यंत्र होते रहे हैं। पूर्वी पाकिस्तान अपने अस्तित्व में आने से लेकर स्वतंत्र होने तक पश्चिमी पाकिस्तान के हुकमरानों के अत्याचारों को लगातार झेलता रहा है, ये अत्याचार बंगाली मुसलमानों पर भी हुये और बंगाली हिंदुओं से लेकर मारवाडिय़ों तक पर भी। ये कहना मुश्किल है कि किस पर कितने अत्याचार हुये, जब सत्ता पूरे देश को तबाह करने पर आमादा थी तब हिंदू और मुसलमानों का भेद करना गैर-वाजिब था।

 मैं फिर से यह कहना चाहता हूं कि पूर्वी पाकिस्तान के निर्माण से लेकर बांग्लादेश बनने तक पश्चिमी पाकिस्तान के हुकमरान किसी एक व्यक्ति या एक धर्म के नहीं बल्कि पूरी तरह से पूर्वी पाकिस्तान के विरुद्ध थे । पूर्वी बंगाल का पाकिस्तान में विलयन तर्कपूर्ण नहीं था जिसके कारण शुरू से पश्चिमी पाकिस्तान के विरुद्ध विरोध का स्वर हावी रहा था। 1950 का भाषा आंदोलन, 1964 में हजरतबल के कारण बड़े दंगे तथा 1969 में व्यापक विरोध प्रदर्शन के कारण पाकिस्तान के सदर अयूब खान द्वारा इस्तीफा दिया जाना और जनरल याहया खान का सत्ताशीन होकर पूर्वी पाकिस्तान पर कहर ढाना मात्र संयोग नहीं था बल्कि यह बंगाली विद्रोहियों के विरुद्ध गहरी साजिश का नतीजा था। याहया खान ने विरोध को दबाने के लिये आम चुनाव का ऐलान किया जिसके परिणामस्वरूप नेशनल असेंबली में अवामी लीग को पूर्ण समर्थन मिला जो पश्चिमी पाकिस्तान के हुकमरानों को स्वीकार नहीं था। याहया खान को चुनावों में भारी पराजय का मुंह देखना पड़ा जिसके कारण पूर्वी पाकिस्तान में विरोध प्रदर्शन और अधिक उग्र हो गये। 25 मार्च, 1971 को पाकिस्तानी फौज ने जनरल टिक्का खान के नेतृत्व में ढाका पर कब्जा कर लिया और 26 मार्च को शेख मुजीबुर्रहमान को गिरफ्तार कर पाकिस्तान ले जाया गया। इसी दिन मेजर जियाउर रहमान ने बांग्लादेश की पूर्ण स्वतंत्रता की घोषणा कर दी और 27 मार्च को भारत की प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने बांग्लादेश के मुक्तिसंघर्ष को अपना समर्थन दिया। कहना न होगा कि पूर्वी पाकिस्तान में पाकिस्तानी फौजों ने जिस प्रकार का सामूहिक कत्लेआम और औरतों के साथ बलात्कार किया वह अपने ही देश में विरोध की आवाज को दबाने से अधिक शत्रुओं जैसे व्यवहार की तरह था। बांग्लादेश का मुक्ति संघर्ष इतिहास की भयंकर भूल को क्रूरतम अत्याचारों के द्वारा दबाने के विरुद्ध सशक्त प्रतिरोध था, जिसे भारत सरकार ने पड़ौसी होने के नाते अपना पूर्ण समर्थन दिया था। अलका सरावगी बांग्लादेश के मुक्ति संघर्ष का इतिहास नहीं लिख रही थीं बल्कि वे राजनीतिक घटनाओं के कारण सामाजिक आर्थिक जीवन मेें आये व्यापक परिवर्तनों को समाज के प्रमुख व्यक्तियों और संस्थाओं के माध्यम से रेखांकित करना चाहती थीं। इसलिये इतिहास के सूक्ष्म संकेतों के द्वारा वे उन घटनाओं और उनके प्रभावों को व्यापक स्तर पर उठाती हैं ।

'कुष्टिया’ को केंद्र में रखकर उपन्यास की कथा बुनी गई है। उपन्यास पढ़ते हुये मन में यह प्रश्न उठता है कि कुष्ठिया में ऐसा क्या खास था, जिसने लेखिका को आकर्षित किया। विभाजन से पहले कुष्टिया नादिया जिले का एक कस्बा था, जिसे बाद में जिला बना दिया गया। कुष्टिया के पास शालिदा में रवींद्रनाथ टैगोर का बचपन बीता था। यह कस्बा मीर मुशर्रफ हुसैन, बाघा जतिन और लालन फकीर के लिये प्रसिद्ध है। लालन फकीर जो हिंदू और मुसलमानों का भेद नहीं मानते थे, की मज़ार अब भी कुष्टिया में मौजूद है जहां दोनों धर्मों के लोग मन्नत मांगने जाते हैं । बांग्लादेश की मुक्ति में कुष्टिया का विशेष महत्व है ।  27वीं बलूच रेजिमेंट की 147 सदस्यीय कंपनी 25 मार्च, 1971 को जैस्सोर छावनी से कुष्टिया पहुंची थी, जिसका अंसार, पुलिस और छात्रों ने विरोध किया और 1 अप्रेल को कुष्टिया को अपने कब्जे में ले लिया था। यह फौज और जनता का सीधे-सीधे संघर्ष था, जिसमें कुष्टिया विजयी हुआ। अप्रेल में ही कुष्टिया के निकट बैद्यनाथतला में स्वतंत्र बांग्लादेश सरकार की घोषणा की गई थी। कुष्टिया में गोराई नदी बहती है, जो कुलभूषण की आत्मा में समाई हुई है, इसे यहां के लोग गंगा कहते हैं। कलकत्ते में भी गंगा है लेकिन वहां के लोग गंगा के साथ जीते नहीं हैं, जबकि कुष्टिया के लोग अपनी गोराई नदी के साथ जीते हैं। यद्यपि कुष्टिया के चयन के बारे में अलका सरावगी ने कुछ नहीं लिखा लेकिन मुझे लगता है कि यही कारण रहे होंगे जिनके कारण वे कुष्टिया को अपने उपन्यास के केंद्र में रखती हैं। उपन्यास में कई कथाएं एक साथ चलती हैं लेकिन मुख्य कथा तो कुलभूषण की है, जिनके दादा भजनलाल राजस्थान के शेखावटी अंचल के गांव बिसाउ से व्यापार करने के लिये कुष्टिया गये थे। अलका सरावगी कुलभूषण के बारे में दो जानकारियां प्रमुखता से देती हैं, पहली, 'वह अपने मां बाप का चौथा बेटा था यानी बेटों की भरमार के बाद पैदा हुआ था। उपर से उसका गाढ़ा रंग और पूरे चेहरे को घेरती नाक और मिचमिची छोटी आंखें। जाने क्या सोचकर उसे कुलभूषण की पदवी दी गई थी।’ यह परिचय उसके रंग रूप का है लेकिन दूसरा परिचय उसकी व्यापार बुद्धि का है 'भूषण बाबू जैसी खरीदारी तो इनके दादा भजनलाल बाबू ने भी नहीं की होगी-कुष्टिया में दुकान का मुनीम जगमोहन हमेशा कहता। चटगांव से सुल्तानिया ऑयल मिल का सरसों का तेल हो या चांदपुर से लाल मिर्च या सिलहट से दालचीनी, लौंग, इलाइची का सौदा हो, भूषण हमेशा सबसे कम दाम में सबसे बढिय़ा चीजों की खरीदारी करता। वह किराने के सामान के डिब्बों-पीपों के साथ ही कभी-कभी चांदपुर से नौका पर खुद सवार होकर कुष्टिया में गोराई नदी के घाट पर उतरता। क्या मजाल कि कोई एक पीपा तेल का बदलकर पुराना तेल दे दे। यहां तक कि लदाई और उतराई में भी वह खुद मुटिया-मजदूर की तरह जुट जाता। कोई नहीं कह सकता था कि वह सेठों का लड़का है। कभी-कभी तो वह किसी मजदूर से बीड़ी मांगकर सुलगा लेता और उन्हीं की तरह गोराई का विशाल प्रवाह देखते हुये उकड़ू बैठकर कश लगाता । शुरू-शुरू मेंं कुली-मजदूर घबराकर उसके पास से उठ जाते थे । पर बाद में वे उसे अपनी बिरादरी का मानने लगते। उससे दो पैसे उधार भी मांग लेते और अपने घर शादी -ब्याह-रतजगा का भजन होने पर उसे न्योता भी देते।’ उनकी सहजता के बारे में अलका एक और जगह लिखती हैं 'कुलभूषण ने एक सप्ताह में इधर-उधर घूम-फिरकर माना कैम्प में बहुत-सी दोस्तियां कर ली थीं। कुष्टिया की तरह ही उसने पाया कि गरीब तबके और छोटी जाति के लोग उसे बहुत जल्दी अपना बना लेते हैं।’ कुलभूषण जिस मारवाड़ी परिवार से आते हैं उसमें इस प्रकार की विशेषताएं दोष ही मानी जाती हैं। बंगाल या अन्य कहीं भी मारवाड़ी व्यापार करने गये थे इसलिये उनकी व्यापारिक बुध्दि ने उन्हें समझा दिया था कि व्यापार में सफल होने के लिये सारा कौशल व्यापार तक ही सीमित रखना चाहिये। भजनलाल बाबू से लेकर कुलभूषण के तीनों भाई मारवाडिय़ों के इसी कौशल से आगे बढ़ते गये लेकिन कुलभूषण ऐसा नहीं कर पाया। सवाल उसके रंग रूप का नहीं था, रंग रूप तो उसके पिता, उसके बहनोई और उसके दोस्त श्यामा का भी ऐसा ही था। सुंदर होने या न होने का कोई कारण व्यापारिक बुद्धि में सहायक या बाधक नहीं बनता। कुलभूषण जैसे लोग अपने स्वभाव के कारण अलग दिखाई देते हैं, यह अलगाव उन्हें आम लोगों के बीच विशिष्ट बनाता है लेकिन अपने परिवार में उतना ही उपेक्षित कर देता है।

'कलिकथा वाया बाइपास’ के किशोर बाबू पर यह आरोप लगे थे कि जिस कलकत्ता में वे रह रहे थे उसमें जीतोड़ मेहनत करने वाले लोगों का बाहुल्य है लेकिन अलका सरावगी के निजी सरोकारों के कारण उन बहुसंख्यक लोगों की उपेक्षा की गई। 'कुलभूषण का नाम दर्ज कीजिए’ उपन्यास एक प्रकार से उस कमी को पूरा करता है। इसलिये कुलभूषण के चरित्र को निर्मित करते हुये अलका बेहद चौकस हैं, उनकी यह चौकसी ही कुलभूषण को मारवाड़ी परिवारों से अलग कर आम लोगों से जोड़ती है। कुलभूषण अपना नाम गोपाल चंद्र दास रखने के बाद नॉर्थ कलकत्ते के जिस तेलीपाड़ा मुहल्ले में रहते हैं उसके बारे में अलका लिखती हैं 'मोहल्ले मेें एक भी घर ऐसा नहीं होगा जो गोपाल चंद्र दास के एहसान तले नहीं दबा होगा। चाचा ने किसी के घर में बत्ती लगवा दी, कहीं नल लगवा दिया, कहीं दीवार घड़ी टंगवा दी। मोहल्ले के लड़कों ने क्लब बना रखा है, जो कि पार्टी का दफ्तर भी है, उसमें तो कुर्सी-टेबल तक चाचा की दी हुई हैं। जब मकान-मालिक ने चाचा के घर को खाली करवाने के लिये कोर्ट का नोटिस भेजा था, तब पार्टी के आदमियों ने उन्हें पहले ही खबर कर दी थी। पुलिस थाने से उन्हें नोटिस आने के पहले ही चाचा ने अपने वकील से स्टे ऑर्डर ले लिया था। पार्टी के लोग चाचा को मानते हैं। सिर्फ सामान की ही बात नहीं है, चाचा मोहल्ले में रक्तदान कैम्प हो या मजदूर दिवस की सभा, सब जगह खड़ा मिलता है। अपने काम से छुट्टी लेकर सुबह से शाम तक फ्री में खड़ा रहने वाला आदमी किसे नहीं चाहिये? उसके बगल के मकान में साहा बाबू का अपने लड़के बहू के साथ झगड़ा हुआ तो पार्टी ने उनका फैसला करते समय साहा बाबू के साथ बहुत नाइंसाफी की थी। साहा बाबू को अपनी पेंशन का आधा हिस्सा लड़के को नौकरी लगने तक देना होगा, यह सुनकर साहा बाबू रो पड़े थे। शाम को गोपाल बाबू कहकर जैसे ही उन्होंने नीचे से आवाज दी, चाचा समझ गया था कि उसे इस फैसले को बदलवाना होगा। सचमुच उसके कहने पर पार्टी ने लड़के को आधी पेंशन की जगह चौथाई देना तय किया था। पड़ौस की गरीब विधवा रासमणि देवी की लड़की से जब जोगेश बनिक सुनार के लड़के ने प्रेम किया और जोगेश दोनों की शादी के लिये राजी नहीं था, तब पार्टी को बीच में डालकर चाचा ने रिश्ता तय करवाया था।’ इस लंबे विवरण को देने के पीछे जो दृष्टि काम कर रही है वह कुलभूषण को एक ऐसा सामाजिक व्यक्ति बनाती है, जो जरूरतमंद लोगों के साथ हर समय खड़ा मिलता है लेकिन उनका यही व्यवहार उन्हें अपने परिवार से अलग भी करता है। कहना न होगा कि मारवाड़ी परिवारों के लिये इस प्रकार के सामाजिक कार्य व्यापार में बाधा डालते हैं और जो काम उनके व्यापारिक मार्ग को बाधित करते हैं, वे उन्हें कदापि स्वीकार नहीं हैं । बंगाल की धरती क्रांतिकारी चेतना की उत्सर्जक रही है इसलिये उसने सामाजिक वर्जनाओं और रूढिय़ों को तोडऩे का सफल कार्य किया है पर मारवाड़ी उसी धरती पर रहकर केवल व्यापार करते रहे और जिन रूढिय़ों को लेकर बंगाल की धरती पर गये थे उन्हें किसी हद तक मानते भी रहे इसलिये प्रभा खेतान, मधु कांकरिया और अलका सरावगी के कथानकों में मारवाड़ी परिवारों में स्त्रियों से लेकर लीक से अलग चलने वाले युवकों को जिस प्रकार चित्रित किया गया है, वह महत्वपूर्ण है। कहना न होगा कि लेखिका के रूप में वे व्यापारिक बुद्धि की सीमित दुनिया से बाहर निकलती हैं और उन लोगों के साथ खड़ी होती हैं जो व्यापक सरोकारों से लैस है।

कुलभूषण की परेशानी यह है कि वह अपने भाइयों की तरह अपने काम से काम रखने वाला व्यक्ति नहीं है । उसके स्वभाव की निर्मिति ऐसी है कि वह वैसा बनना भी नहीं चाहता। बचपन में उसकी दोस्ती श्यामा धोबी के साथ थी, जो उसके परिवार को स्वीकार नहीं थी। कुलीन परिवारों में ऐसी दोस्तियां विरोध का कारण बनती हैं पर कुलभूषण इस प्रकार की वर्जनाओं को तोडऩा चाहता है, वह क्रांतिकारी नहीं है और न इस प्रकार की बातें ही करता है लेकिन अपने आचरण में वह अपने समाज से एकदम अलग है। नॉर्थ कलकत्ता में वह पार्टी यानी वाम दल के साथ जुड़ा अवश्य है, जिसकी जानकारी उपन्यास में दी गई है पर पार्टी कार्यकर्ता के रूप में उसकी गतिविधियों की कोई जानकारी उपन्यास में नहीं है। अपने आसपास और मुहल्ले में जिस प्रकार वह लोगों के साथ खड़ा दिखाई देता है, वह उसके सामाजिक सरोकारों की निशानी है। उपन्यास में जिस समय का उल्लेख किया गया है वह समय बंगाल में नक्सलवादी आंदोलन और उसके बाद वाम मोर्चा के जमीनी संघर्ष का समय था, लेकिन अलका ऐसे प्रसंगों को छूकर निकल गई हैं । हो सकता है वे उस समय की सामाजिक गतिविधियों को रेखांकित करने के प्रसंग में पार्टी और उसके ऑफिस की जानकारियां दे गई हों क्योंकि उनके पहले उपन्यासों में भी राजनीतिक सरोकार नहीं हैं। ज्यादातर लेखिकाएं राजनीति और राजनीतिक विचारों से परहेज करती हैं जबकि वास्तविकता यह है कि राजनीतिक विचार किसी भी रचनाकार को अपने समय को समझने की दृष्टि प्रदान करते हैं । जब राजनीति समाज को प्रभावित कर रही है तो समाज में रहने वाले व्यक्ति उससे वंचित कैसे रह सकते हैं? मधु कांकरिया के उपन्यास 'हम यहां थे’ की दीपशिखा जिस प्रकार आदिवासी समाज में जाकर अपने जीवन की सार्थकता का अनुभव करती है, उसी प्रकार उसके कर्म और वाणी में ताप है जबकि किशोर बाबू से लेकर कुलभूषण तक अपनी परिस्थितियों में झूलते नज़र आ रहे हैं । कुलभूषण की समस्या यह है कि पूर्वी पाकिस्तान से आने के बाद वह अपने भाइयों पर आश्रित रहा और भाइयों का व्यवहार उसके प्रति अच्छा नहीं था-'कुलभूषण को कुष्टिया से हिंदुस्तान आये आठ महीने हो गये हैं। उसे समझ में नहीं आता कि वह रोज रात अपने लंबे-लंबे पैरों को कहां पसारे? कलकत्ता की ढाकापट्टी में चौक के मकान मेें दो तल्ले पर तीन छोटे-छोटे कमरे हैं जिनमें दो बड़े भाइयों के पास हैं और तीसरा सबसे छोटा मां के हिस्से में है। मंझले भैया अलग रहते हैं। मां सारी रात इतने तेज खर्राटे लेती हैं कि वह सो नहीं पाता। इस छोटे-से कमरे के साथ एक चार फुट का बरामदा भी है जिसमें सोने पर खर्राटे कम सुनते हैं, पर कुलभूषण को पैर मोड़कर सोना पड़ता है। मकान के इसी तल्ले पर दूसरी तरफ एक और मारवाड़ी परिवार रहता है । उनके पास एक छोटा कमरा खाली है जिसे कुछ रुपये देकर बात करने से वे कुलभूषण को दे सकते हैं। पर दोनों बड़े भाई अपनी बीवियों को लेकर आराम से सो जाते हैं-बिना यह सोचे कि उसकी उम्र ब्याह की सीमा को पार कर रही है। मां को कुछ कहते ही मां की आंखों से गंगा-जमुना बहने लगती हैं। कुष्टिया में छूटे हुये अपने गुस्सैल पति की गालियां खाये बिना उसका जीवन अधूरा है। किसी-किसी दिन यह अधूरापन सूरज उगने से पहले ही मां को खाने लगता है और खर्राटों की जगह मां के रोने की आवाज से कुलभूषण की नींद खुलती है। वह उठकर मां की पीठ पर हाथ फेरता रहता है। उसे मालूम है कि यदि दोनों बड़े भाइयों में से एक आकर मां की पीठ पर हाथ फेरे तो मां का दुख तुरंत सौ गुना हलका हो जाये। पर ऐसा कभी होता नहीं। वही बेकार-निठल्ला है। इसलिये वही यह काम करता रहता है। जानते हुये भी कि इससे कुछ फायदा होने वाला नहीं है।’ एक दिन सुबह-सुबह जब वह सो रहा था तब अचानक उसके छोटे भइया ने उसकी पीठ पर लात मारकर गालियां बकते हुये उसे जगाया और आरोप लगाया कि उसने अपनी भाभी की सोने की चेन चुरा ली है। उसने खूब सफाई दी लेकिन उसकी सुनने वाला वहां कोई नहीं था इसलिये उसने घर छोडऩे का निर्णय लिया और रिलीफ एंड रिहैबिलिटेशन डिपार्टमेंट में सीधे ननीगोपाल के पास पहुंच गया। वहां से रिफ्यूजी बनकर रायपुर के माना कैम्प में चला गया। लाखों शरणार्थी रेलों में भरकर भारत आ रहे थे, भारत सरकार ने उनके रहने और खाने-पहनने की व्यवस्था कर रखी थी पर इस सबकी एक सीमा थी। अलका सरावगी ने बहुत विस्तार से शरणार्थी कैम्पों की नारकीय स्थितियों का वर्णन किया है। जहां आदमी और जानवर में कोई फर्क नहीं है, एक वक्त का खाना खाने के लिये कोई भी जवान औरत अपना शरीर बेचने को तैयार हो जाती है और उनके नाबालिग बच्चे छोटी-मोटी चोरियां कर अपना पेट भरने को विवश रहते हैं। कुलभूषण ने अब-तक खूब अभाव देखे हैं पर इस तरह की नारकीय स्थितियों को वह पहली बार देख रहा है। इसलिये अचानक उसका मन उचट जाता है और वह अपने परिवार में लौटने का मन बनाता है वह रिफ्यूजी बनकर रहना नहीं चाहता। उसे लगने लगता है 'आदमी की पहचान तो उसको जन्म देने वाले मां-बाप से ही होती है, भले ही उससे जीने में कोई सहूलियत हो न हो।’ अचानक लिया गया यह निर्णय अविश्वसनीय-सा लगता है।

कुलभूषण का पूरा जीवन विद्रोही जैसा है वह अपनी मर्जी से बंगाली रीमा सरकार से विवाह करता है, जातीय व्यवस्था में निचले पायदान पर स्थित श्यामा धोबी से दोस्ती करता है, मारवाड़ी परिवार का होने के बावजूद जीविका के लिये बस की कंडक्टरी करता है, भतीजे की कमीज और मां की अंगूठी चुराता है तथा व्यापार में निपुण होने के बावजूद उससे किनारा कर लेता है पर क्या कारण है कि गोपाल चंद्र दास बने कुलभूषण को पत्रकार से बार-बार यह कहना पड़ता है कि उसका नाम कुलभूषण जैन है और यही नाम वह दर्ज करे। पूरे उपन्यास मेें कुलभूषण को अपने किसी व्यवहार या कार्य पर अफसोस नहीं है फिर वे क्या कारण हैं जिनकी वजह से वह पीछे लौटकर अपनी स्थायी पहचान अपने मां बाप के द्वारा कराना चाहता है । कहना न होगा कि कुलभूषण जैसे लोग राजनीतिक चेतना के अभाव में जीवन भर दुखी रहकर भी कोई महत्वपूर्ण निर्णय नहीं ले पाते हैं, इसलिये वे बार-बार लौटकर वहीं जाते हैं जहां उनके लिये कोई जगह बाकी नहीं है । यह कुलभूषण जैसे पात्रों की भी सीमा है और उपन्यास की भी।

जागेश्वरी मिल के मालिक कार्तिक बाबू, अनिल मुखर्जी, डॉ. कासिम तथा श्यामा धोबी की चर्चा किये बिना उपन्यास पर चर्चा अधूरी ही रहेगी। ये सभी पात्र अपनी-अपनी तरह से महत्वपूर्ण हैं। कार्तिक बाबू के दादा कालीप्रसन्न चक्रवर्ती ने जागेश्वरी मिल का निर्माण कराया था 'कालीप्रसन्न चक्रवर्ती एक मामूली सरकारी क्लर्क थे। अंग्रेज अफसर हंटर साहब ने परख लिया लिया कि इस आदमी में बहुत आगे जाने की क्षमता है। उन्हें सिविल परीक्षा दिलवाई परीक्षा पास करके वे फरीदपुर में डिप्टी मजिस्टेट बन गये। नौकरी से रिटायर होकर जागेश्वरी मिल खोली, तब उनकी उम्र सत्तर वर्ष से कुछ ही कम थी।’ इस मिल के वृहत् क्षेत्रफल तथा मालिकों की उदारता के कारण हिंदू और मुसलमान यहां पर सुरक्षित अनुभव करते थे। श्यामा अपनी पत्नी अमला को कार्तिक बाबू के बारे में बताते हुये कहता है 'मैं जानता हूं कार्तिक बाबू जैसा दयालु और बड़े दिल का आदमी धरती पर जल्दी से नहीं मिलेगा। जेहल खान भाई को तुम नहीं जानतीं। वे दफ्तर में कार्तिक बाबू के सबसे भरोसे के आदमी हैं। कल मुझे कहने लग गये कि कार्तिक बाबू के कारण ही कुष्टिया की हवा कुछ और है। क्लब, लाइब्रेरी, खेलकूद, गाना-बजाना-नाटक किस चीज का उन्हें शौक नहीं है। उनके सारे भाई पार्टीशन के समय कलकत्ता चले गये। कार्तिक बाबू ने यहीं रहकर कुष्टिया की मिट्टी को सींचा है। तुम्हें शायद पता नहीं होगा कि कार्तिक बाबू ने लालन शाह के दरगाह पर भी बहुत खर्च किया है। कुष्टिया शहर से दरगाह तक की पक्की सड़क उन्होंने ही बनवाई है। दरगाह पर बिजली की लाइन भी जागेश्वरी मिल से ली हुई है।’ लेकिन कार्तिक बाबू की यह उदारता पाकिस्तानी हुकमरानों को पसंद नहीं थी इसलिये पहले कार्तिक बाबू को गिरफ्तार कर उनके ही घर में नज़रबंद किया गया और बाद में उनके बेटे को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया, उनकी सारी सम्पत्ति 'शत्रु सम्पत्ति’ मानकर हड़प ली गई। कार्तिक बाबू की मृत्यु नज़रबंदी में ही हुई, उनकी पत्नी जैसे-तैसे करके भारत भेजी गईं और बेटा ढाका से नेपाल होते हुये भारत पहुंचा। यह सब केवल कार्तिक बाबू के साथ ही नहीं हुआ बल्कि पूर्वी पाकिस्तान के अद्भुत किस्सागो अनिल मुखर्जी के साथ भी ऐसा ही हुआ उनकी बेटी का अपहरण कर उसके साथ दुष्कर्म किया गया इसलिये वे अपने परिवार को लेकर भारत चले गये।  लेकिन जिस पीड़ा के साथ गये उसने उन्हें और उनकी बेटी को हमेशा के लिये पागल और बीमार कर दिया था। डॉ. कासिम पूर्वी पाकिस्तान के ऐसे डॉक्टर थे जो बंगाली संस्कृति और धर्मनिरपेक्षता को अपनी पहचान मानते थे। 1971 में उन्होंने चुनाव लड़ा और जीत भी गये लेकिन सत्ता ने उस चुनाव के परिणामों को स्वीकार नहीं किया। डॉ. कासिम स्वयं कहते हैं 'मुझे नहीं लगता कि याहया खान बंगालियों के जीते हुये इस चुनाव को मानेगा। वह फिर से मार्शल लॉ लगा देगा और अवामी लीग को गैरकानूनी घोषित कर देगा। उसके बाद वह अवामी लीग के लोगों को जेल में भर देगा।’  कहना न होगा कि ये सारे पात्र मिलकर पूर्वी पाकिस्तान की ऐसी पहचान बनाते हैं, जो पश्चिमी पाकिस्तान के लिये संभव नहीं थी। श्यामा की चर्चा किये बिना इस उपन्यास पर चर्चा अधूरी ही होगी। श्यामा कुलभूषण की तरह सुंदर नहीं था पर अपने पिता गोबिंदो से उसने जो विरासत पाई थी, उसको संभालते हुये वह बड़ा हुआ था। वह कुलभूषण का दोस्ता था इसलिये यह चाहता भी था कि हिंदू पूर्वी पाकिस्तान छोड़कर न जाये क्योंकि उसने तुलस्यान बाबू के भारत जाने के बाद अपने पिता की स्थितियों को देखा था इसलिये वह चाहता था कि जिन लोगों के बल पर उनका जीवन यापन होता है, यदि ये लोग चले गये तब उसका क्या होगा? उसके पास भूलने वाला बटन है जो उसे बचपन में किसी कनफटे जोगी ने दिया था, उस बटन को वह कुलभूषण को दे देता है और कुलभूषण अपनी मां की चुराई अंगूठी को उसे दे देता है। यह केवल वस्तुओं को आदान-प्रदान नहीं है अपितु संबंधों की दृढ़ता की पुष्टि का प्रमाण भी है। बांग्लादेश की मुक्ति के लिये किये जा रहे संघर्ष में श्यामा और उसकी पत्नी अमला का महत्वपूर्ण योगदान है, जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता। श्यामा चेहरे से जितना बदसूरत है, मन से उतना ही सुंदर है इसलिये अलका सरावगी ने उसे उपन्यास के महत्वपूर्ण पात्र के रूप में उभारा है ।  

उपन्यास पढ़ते हुये यह बात हमेशा खटकती है कि क्या कारण हैं कि अमला, रीमा, मालविका, कुलभूषण की मां और दोनों भाभियों के साथ कई स्त्री पात्र अपनी पहचान बनाने में असमर्थ रहती हैं। मसलन अनिल मुखर्जी की बलात्कृत बेटी की गहरी पीड़ा का केवल जिक्र किया गया है, मालविका की मृत्यु का कारण कुलभूषण का बेटा प्रशांत था या और कोई अन्य कारण थे, इसे भी उपन्यास में रहस्य ही बने रहने दिया गया है, कुलभूषण के भाइयों के व्यापार और कुलभूषण के प्रति उनके व्यवहार के बारे में तो बताया गया है लेकिन उनकी भाभियां, बड़ी भाभी को छोड़कर, कुलभूषण, उसकी पत्नी रीमा और उसकी बेटी मालविका के बारे में क्या सोचती हैं, यह कहीं नहीं बताया गया। कुलभूषण की मां उसके पिता से बीस साल छोटी थीं, उसके पिता उन्हें बुरी-बुरी गालियां दिया करते थे पर मां का व्यवहार उनके प्रति कैसा था, क्या व्यापारी वर्ग अपनी पत्नियों के प्रति इतना क्रूर है-यह भी अलका सरावगी ने नहीं बताया। कुलभूषण की पत्नी रीमा का भाई नक्सल आंदोलन से जुड़ा था, अपने भाई की गतिविधियों और वैचारिक यात्रा का असर रीमा पर भी था या नहीं, उपन्यास में इसकी कोई चर्चा नहीं है, वह केवल कुलभूषण की शांतचित्त और अभावों में पलती पत्नी है। अमला ने परिवार की इच्छा के विरुद्ध भागकर अली से विवाह किया था और अली की मृत्यु के बाद श्यामा उसे अपने घर ले आया था, तब मल्ली उर्फ मालविका उसके गर्भ में थी। अमला का बाद का जीवन त्याग और उदारता का जीवन है, अलका सरावगी ने श्यामा के साथ उसकी केवल चर्चा की है, जबकि वह अतिरिक्त चर्चा की पात्र थी। स्त्री पात्रों की उपेक्षा से उपन्यास एकपक्षीय हो गया है जबकि बंगाल की धरती हमेशा से स्त्री पुरुष समानता की हामी रही है, वहां स्त्रियां केवल चपल और वाचाल ही नहीं हैं अपितु अपने अधिकारों के प्रति सजग और सतर्क भी हैं।

'कुलभूषण का नाम दर्ज कीजिए’ उपन्यास को पढ़ते हुये बांग्लादेश की स्वतंत्रता की जितनी अनुगूंजें सुनाई देती हैं उतने ही भाषा और संस्कृति को बचाये रखने के अमिट संकल्प भी पुरजोर आवाज में सुनाई देते हैं। यह उपन्यास सजग रूप में कट्टरता का विरोध करता है और मिली-जुली संस्कृति को आधार प्रदान करता है, जो भारत और बांग्लादेश की अमिट पहचान है ।

 

 

सूरज पालीवाल पहल के नियमित लेखके हैं। वे हमारे महत्वपूर्ण आलोचक हैं।

सम्पर्क: मो. 9421101128, 8668898600

 


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