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अप्रैल 2021

मकडज़ाल

राजेन्द्र श्रीवास्तव

कहानी

 

 

यह संयोग ही था कि जब भी उसने मुझसे पैसे मांगे तब कोई बड़ी समस्य सिर पर थी मतलब मेरे सिर पर नहीं, सभी के सिर पर। यदि और ठीक से कहूं तो ऐेसी समस्या जो बहाना न लगे, जिस पर कोई अविश्वास न कर सके। तभी मैं हर बार उसके मकडज़ाल से बाहर आ पाया।

पहली बार जब उसने कहा था कि मुहल्ले के एक साहूकार के पास नाक की कील गिरवी रखी है, उसे आज शाम तक पांच हजार नहीं दिए तो फिर वो कील वह रख लेगा। कील भारी सोने की है, जिसकी कीमत बीस हजार से अधिक है। जब नोटबंदी चल रही थी, लेकिन मैंने डिमोनेटाइजेशन कहा। मुझे लगा इसका प्रभाव अधिक पड़ेगा। मैंने कहा मैं तो देना चाहता हूं, पैसे हैं भी मेरे अकाउंट में, लेकिन डिमोनेटाइजेशन के कारण न तो एटीएम से निकाल सकता हूं, न बैंक से। डिमोनेटाइजेशन।

उसने बैंक वालों के बारे में बुरा कुछ कहा। लेकिन उस बुरे में मुझसे पैसे न मिल पाने का दुख था। इसका दूसरा अर्थ यह था कि यदि मैं घर से लाकर या अपनी जेब से पैसे निकालकर दे देता, तो बैंक वाले शायद उतने बुरे नहीं लगते उसे।

दूसरी बार जब उसने पैसे मांगे दस हजार रुपए तब प्राइवेटाइजेशन के खिलाफ बैंक वालों की स्ट्राइक चल रही थी। उस समय तो इस विरोध और असंतोष से सबसे ज्यादा खुशी मुझे हुई थी। मैंने बताया कि हड़ताल के कारण बैंक आज बंद है, वरना पैसे देने में कोई बात ही नहीं थी। मुझे लगा कि बैंक वालों को हम पहले कई बार कोस चुके थे। अब सरकार को कोसना बेहतर होगा। लेकिन वह भड़क गई। ये बैंक वाले हमेशा ऐसा ही करते हैं। इन्हें बस मौका चाहिए पैसे न देने का। मैं ठीक प्रकार से उसकी बात नहीं समझ पाया।

मैं यह जरूर समझ गया कि नेपाल, चीन और पाकिस्तान से संबंध खराब होने के लिए और अर्थव्यवस्था में भारी गिरावट के लिए भी वह बैंक वालों को ही जिम्मेदार ठहराएगी।

मैं कोई सोच-समझकर तो दंगे, डिमोनेटाइजेशन, विरोध-प्रदर्शन और बैंकों की हड़ताल के समय इस लड़की को बुलाता नहीं। जब पत्नी बड़े दिनों तक एक ही अंदाज़ में या कहें कि नीरस और उबाऊ तरीके से लेटने लगती, तो मुझे मंदा की याद आने लगती।  याद तो मुझे बड़ी सारी लड़कियों की आने लगती, लेकिन संभव शब्द मंदा से ही बनता था। मतलब कालोनी वाली और दूर की और पहचान की अलग-अलग उम्र और चेहरे-मोहरे की उन तमाम लड़कियों को मैं बस कल्पना में ही अपने हिसाब से छू-पकड़ पाता था।

मैंने एक बार दसवीं कक्षा में अपनी टीचर से पूछ लिया था कि फैंटेसी शब्द का क्या अर्थ होता है, तो मार तो पड़ी ही थी और घर में शिकायत अलग से पहुंच गई थी। बाद में मुझे हालांकि पता चल गया था कि फैंटेसी के बहुत से अर्थ होते हैं। लेकिन मैं आज तक नहीं समझ सका कि इसमें गलत क्या था।

मैंने स्वाति डीलक्स होटल तय कर रखा था। मंदा को लेकर मैं वहीं जाता था। मैंने होटल के मैनेजर से भी नाटक किया हुआ था कि 'घर में भीड़ बहुत है। ज्वाइंट फैमिली है। घर पर साथ मिल नहीं पाते थे सहजता से, तो होटल के कमरे में एकांत में बैठकर लंच करना चाहते थे, फुरसत से।’ मैं मंदा को अपनी बीवी ही बताता था।

मैनेजर खुश होता था और तत्परता दिखाता था। शायद वह भी अनजान बनने का नाटक करता था। 'कहां रेस्टॉरेन्ट में खाएंगे साहब। 402 खोल देता हूं, रुम में आराम से बैठकर खाएं।’ दो-तीन घंटे के लिए रूम देने के लिए उसने कभी आधार कार्ड भी नहीं पूछा। जबकि कहां नहीं लगता आधार कार्ड? कई जगहों पर तो मॉल में और एक्ज़ाम हॉल में भी बिना आधार कार्ड के नहीं घुस सकते।

रुम में पहुंचते ही मैं मंदा के पसंद की चीजें ऑर्डर कर देता था। उसके तुरंत बाद मैं दरवाजा लॉक कर देता था और फिर जी-भरकर 'फोर-प्ले’ उसके साथ तय था मेरा। फिर हर बार तकरीबन आधे घंटे में खाना आ जाता था।

''अब हम आराम से खाएंगे, बाहर 'डू नॉट डिस्टर्ब’ का कार्ड लगा दो’’ - मैं वेटर को पचास रुपए का नोट देकर बताता था।

वेटर खूब मुस्कराते हुए बोलता था - ''चिंता मत कीजिए सर। कोई 'डिस्टर्ब’ नहीं करेगा अब। अब आप आराम से 'लंच’ कीजिए।’’

वेटर के जाते ही अपने काम में लग जाता। इसमें अब कोई डर नहीं रहता था। इसमें कोई रिस्क नहीं रहता था। मान ही लें कि कोई आ ही जाए, पुलिस या परिवारवाला कोई, तो हमारे पास ये कहने को होता, कि भई खाना खा रहे हैं। हालांकि ऐसी नौबात कभी नहीं आई और स्वाति के मैनेजर ने कभी हमसे पूछा नहीं कि आखिर खाना खाने में पूरे दो घंटे क्यों लग  गए? वह बस रुम चार्ज हजार रुपए बिल में अलग से जोड़ लेता था।

वह हर बार बचा हुआ खाना पैक करवा लेती थी। या खाना खत्म हो जाए तो 'पिज्जा विद एक्स्ट्रा चीज’ या आलू के पराठे बंधवा लेती थी। पूछने पर कहती थी कि - ''निचोड़ कर जो रख दिया तुमने। तुरंत भूख लग जाएगी,’’ फिर कुछ इठलाकर कहती - ''तुम्हारी याद आएगी ना... तो घर जाकर फिर खाऊंगी।’’

मुझे मालूम था कि मंदा की समझ में यह बात आ गई है कि उसे बस उसके पांच सौ ही मिलेंगे। मैं उसे खिलाने-पिलाने और होटल के कमरे के खर्च के अतिरिक्त तीन-चार घंटे के लिए पांच सौ रुपए नकद देता हूं, लेकिन अलग से पांच हजार, दस हजार, बीस हजार के किसी झांसे में कभी नहीं आता। कभी नहीं फंसता उसके मकडज़ाल में।

होटल के कमरे में एक स्थानीय अखबार में 'टॉवर ऑफ यूनिटी’ की फोटो देखकर उसने मुझे बताया कि सरदर पटेल महान इन्सान थे। अपने आपको समझदार जताने का कोई अवसर वह छोडऩा नहीं चाहती। मैंने अचानक सोचा कि खादी भंडार जाकर 'सत्य के प्रयोग’ गांधी जी की आत्मकथा खरीदूंगा। सरदार पटेल की कोई किताब मेरे ध्यान में नहीं आई इसलिए। पिछली बार सौ रुपए थे। किताब सत्तर रुपए की थी। लेकिन उस दिन मुझे नेताजी स्मारक के सामने वड़ा-पाव भी खाना था। गर्म वड़ा-पाव बहुत चलता था वहां का। चालीश रुपए कीमत थी। वहां जाकर वड़ा-पाव न खाएं यह कैसे संभव था? नतीजतन मैं किताब खरीद नहीं सका था।

मैंने जब नेताजी स्मारक कहा था तो उसने कहा कि ''पता है, नेताजी स्मारक सुभाष बाबू के नाम पर है। सुभाष बाबू बंगाल की शान हैं’’- उसने कहा।

मुझे लगा कि मैं कहूं कि सुभाषचंद्र बोस तो पूरे देश की शान हैं। लेकिन वह बात में से बात जोड़कर फिर किसी नेता की बात करने लगती। मैं चुप रहा। मुझे लगता था कभी गाजापट्टी अैर फिलीस्तीनियों पर बात न करने लगे, इसलिए ज्यादा बात न करना ही श्रेयस्कर था।

'अब हम कश्मीर में फ्लैट खरीद सकते हैं...’ वह मुस्कुरा रही थी। उसकी आंखों में संपन्नता और संतोष दिखा।

मैंने भी खुशी जताई।

मुझे पता था कि वो किराए के एक दड़बे से मकान में रहती है और उसका पंद्रह सौ महीना किराया चुकाना भी उसके लिए बहुत मुश्किल था। ऊपरी कपड़े उतारे जाने के बाद उसके अंतर्वस्त्रों की खस्ता हालत देखकर मैं यकीन से कह सकता था कि वह डेढ़ हजार महीना किराया देने वाली हरगिज नहीं हो सकती थी।

मैं इसे भी फैंटेसी ही मानता हूं कि कश्मीर में मॉल रोड के पास एक आलीशान फ्लैट में बैठा हुआ सेब और अखरोट खाते हुए सामने बहती हुई व्यास नदी को देख रहा हूं। फ्लैट क्यों, मैं बंगले में बैठकर यह नज़ारा देख सकता हूं, लेकिन मंदा ने फ्लैट खरीदने की बात कही तो फ्लैट की फैन्टेसी में आता था। हालांकि मुझे पता है कि व्यास नदी वहां है नहीं। पर मेरी फैन्टेसी में बहती है। कश्मीर में बहती है। क्योंकि व्यास नदी मैंने मनाली में देखी थी और जिसके किनारे बैठकर मैंने एक रुपए में चाय पी थी और टट्टू पर से गिरा भी था धड़ाम से। मैंने मनाली देखा है। मनाली में मॉल रोड देखा है। कश्मीर नहीं देखा। कहना चाहिए कि मैंने स्वदेश दीपक की तरह माण्डू भी नहीं देखा, बल्कि यूं कहना चाहिए कि मैंने भी माण्डू नहीं देखा।

मैंने सुनील कुमार से स्पष्ट कहा था कि भाई मैं रिस्क-विस्क नहीं लेना चाहता। लड़की मिले चाहे न मिले।

अरे भाई, एकदम घरेलू औरत है, न बीमारी-वीमारी, न इमोशनल फंडा, न बाकी कोई झंझट!! सुनील कुमार ने कहा।

बीमारी-वीमारी का अच्छी क्वालिटी का इंतजाम है अपने पास, घर या ऑफिस में किसी को भनक न लगे बस...

सुनील कुमार हंसा था जोर से -अरे, विजय कुमार तुम कुमार ही रहोगे जीवन भर। फिर विजय हासिल नहीं कर पाओगे...

मुझे उसकी फोटो अच्छी लगी थी। मोबाइल पर वह अंग्रेजी के 'डिसेन्ट’ शब्द को परिभाषित कर रही थी। उसके कंधे तक के फोटो से उसके सुडौल वक्षों का अनुमान लगाया जा सकता था। फोटे के आधार पर इसे साठ फीसदी नंबर दिए जा सकते थे। दफ्तर की कुछ लड़कियों को भी मैं ऐसे ही नंबर देता था।

सुनील कुमार कई बार दफ्तर में किसी काम से आई किसी सुंदर-सी लड़की के बारे में पूछता था कि भई इसे सौ में से कितने नंबर देगा।

मंदा के लिए मैंने कहा कि वह साठ प्रतिशत के लायक थी। औसत से बेहतर। तब सुनील कुमार ने मुझसे पूछा था कि 'भई सौ परसेन्ट किसे देगा? सौ नंबर वाली लड़की कौन है तेरी नज़र में? वह मुझसे मधुबाला या माधुरी के नाम की अपेक्षा रखता था। पर मेरे मानदंड अलग थे।

'अच्छा नब्बे के ऊपर कोई है तो बता अपने परिचय में...’

मेरे जेहन में तब जो नाम आते थे, उनका जिक्र मैं सुनील कुमार से नहीं कर सकता था। एक तो खुद उसकी बीवी थी इसलिए भी! वह मेरे मापदंडों पर खरी उतरती थी।

दो-तीन घंटे के लिए पांच सौ में मंदा उपलब्ध हो जाएगी, ऐसा सुनील कुमार ने खुद मुझे बताया था, हां... लेकिन रात भर के दो हजार। उसका मोबाइल नंबर भी दिया था। रात भर का भारी जोखिम मैं उठा नहीं सकता था और हमेशा दो-तीन घंटे के लिए उसका समय लेता था। इतनी देर के लिए पांच सौ रुपए में वह संतुष्ट भी हो जाती थी।

उससे मिलने के लिए मुझे तय करना पड़ता था। कुछ दिन पहले से। ये नहीं कि मन में आया, बस उठे और चले। योजना बनाता था। यानी पूरा मज़ा लेने के लिए मैं हफ्ते भर व्रत रखता था। मतलब पत्नी को हाथ नहीं लगाता। जैसे शाम को जोरदार पार्टी हो, तो हम दोपहर को फल खाकर रह जाते हैं। एकाध माइल्ड-फिल टैबलेट और उड़द की दाल-वाल अलग से। बस!

अब वह फिर पैसे मांग रही थी तो 'कभी देखी न सुनी ऐसी तिलिस्मात’ वाली बीमारी हुई थी। इसका सकारात्मक पहलू यही था कि ऐसे में बैंक में जाना जोखिम भरा था। कहा जाए तो संभव नहीं था। बैंक वैसे भी ग्राहकों के लिए दो घंटे भर के लिए खुल रहे थे।

उसका फोन देखकर मैं चौंका। आखिर आज क्यों फोन कर रही है।

''डी.जी. बोल रही हूं।’’

उसका नंबर भी मैंने डी.जी. नाम से सेव कर रखा है मोबाइल में। कभी पत्नी या कोई और देख-पूछ ही ले, तो मैं डेक्कन जिमखाना क्लब का नंबर कह सकता था, दीपक गुप्ता कह सकता था। मुझे याद आया कि मैंने एक बार उसे 'ड्रीम गर्ल’ कहा था। तुम मेरी ड्रीम गर्ल हो - डी.जी.। यह भी याद आया कि वह उसके तुरंत बाद दो महीने का किराया भरने के लिए तीन हजार मांगने लगी थी। जरा सी ढील देने पर वह मकडज़ाल में फांसना शुरु कर देती थी। 'तीन हजार... हंह... पैसे पेड़ पर उगते हैं!’ - तभी मैंने अंदाजा लगाया था कि वह डेढ़ हजार महीने के मकान में रहती है। मैंने बताया कि सीएए के विरोध के कारण पैसे निकाल नहीं सकता। बैंक के बाहर शामियाना लगा है। भारी बीढ़ है और एटीएम कार्ड लाया नहीं। सीएए का विरोध चल रहा था। शाहीन बाग के समर्थन में हमारे शहर में भी असंतोष था। उस सेन्सिटिव एरिया में मेरा बैंक है, जो कि आज बंद कर दिया गया है। पैसे मैंने वही हर बार के पांच सौ रुपये दिए थे। गाज उस दिन भी बेचारे बैंक वालों पर ही गिरी थी।

''मिलना नहीं है तुम्हें अपनी डी.जी. से। कितने दिन हो गए।’’ - वह मादक स्वर में फुसफुसा रही थी।

''हां... हां... मंदा मिलना तो है। लेकिन देख रही हो ना, चारों तरफ मास्क लगाकर घूम रहे हैं लोग...’’

''फिर क्या हुआ... घूंघट है घूंघट... घुंघट तो होता ही है उतारने के लिए...’’- वह अदा से बोल रही थी, ''और पूरा शहर तो खाली पड़ा है। सूना-सूना। हमें देखने वाला भी कोई नहीं। बस मैं और तुम...’’ उसकी आवाज में कशिश तो थी ही। ऐसे ही थोड़ी मैं महीने में दो बार उस पर पांच सौ रुपए खर्च कर देता था। उसकी पसंद का खाना अलग से खिलाता था। होटल के कमरे का खर्च मिलाकर भी सौदा महंगा नहीं लगा कभी मुझे।

बल्कि मैं तो कहूंगा कि उसकी खनकती आवाज में नशा था। मैंने सोचा तीन-चार महीने से मुलाकात नहीं हुई है। किसी होटल में जाने का सवाल ही नहीं था। कम से कम कुछ मन ही बहल जाएगा। होटल में न सही, कार में बैठकर कहीं एकांत में बात-वात करेंगे। अच्छा है पसंद की जगहों पर हाथ-वाथ लगा लूंगा। पकड़ा-पकड़ी में भी मजा है। इस पर न होटल का खर्च, न खाने का खर्च - थमा दूंगा सौ-दो सौ रुपए!

मैं कार लेकर उसकी बताई जगह पहुंच गया। कार में एफ.एम. पर अमिताभ बच्चन की आवाज गूंज रही थी। 'जब तक दवाई नहीं, तब तक ढिलाई नहीं।’ एक डॉक्टर भी अदनान सामी के अंदाज में नसीहत दे रहा था कि 'स्ट्रैन्जर से संपर्क... कभी नहीं... कभी नहीं...’

बीमारी की बस एक ही मजे वाली बात थी कि लोगों की भारी भीड़ से अंटा-धंसा यह इलाका भी सुनसान पड़ा था। मेरे लिए यह महामारी का सकारात्मक पहलू था। हालांकि नीलोत्पल की यह पंक्ति मेरे स्मरण में थी कि - 'आपदा में अवसर.. यह सदी का सबसे वहशी वाक्य है।’

सामने एक मंदिर और उससे सटी एक मस्जिद भी सूने थे। यहां जब भी गुजरो, तो मंदिर की घंटियों और मस्जिद की अजान - दोनों को सुनकर संपूर्णता का एहसास होता था। पर आज वहां किसी बदमाश ने बाहर फाटक पर चॉक से लिख रखा था - ओ भक्त, कल आना!!

मैंने सोचा कि अनूप जलोटा के भजन आज घर जाकर जरूर सुनूंगा। फिर मैंने सोचा कि अनूप जलोटा अब नया पॉप एलबम लेकर आ रहा है, तो क्या उसके भजन सुनने में कुछ अनुचित तो नहीं? नहीं, इससे क्या। मैं जरूर सुनूंगा उसके भजन। एक सीरियल में सीता का किरदार निभाने वाली अभिनेत्री को वास्तविक जीवन में सिगरेट पीते देखकर मैंने सीरियल देखना तो बंद नहीं कर दिया था। मैंने भजन सुनने का इरादा इसलिए भी खारिज नहीं किया क्योंकि पंकज उधास को सुनने में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है। 'उधास’ शब्द ही मुझे उदास से भी ज्यादा उदास लगता है। जब मैं अनूप जलोटा का एक भजन गुनगुना रहा था, तो यह विचार अंत:सलिला के रूप में बह रहा था कि 'पॉप सुनने वालों, तुम क्या जानो भजन की ताकत।’ हालांकि यह भी था कि यह पूरे समय मेरी आंखों में स्कर्ट-टॉप पहनी हुई जसलीन घूमती रही।

मैं ड्राइविंग सीट पर बैठा था।

वह कार का दरवाजा खोलकर झट से अंदर बैठ गई। मेरी बगल की सीट पर।

वह कुछ और दुबली हो गई थी। यहां दुबली मैं कमजोर के अर्थ में प्रयोग कर रहा हूं, अन्यथा कुछ लोग इसे 'कॉम्प्लिमेन्ट’ के रूप में लेते हैं। वैसी दुबली नहीं। चेहरा भी कुम्हलाया था। बदरंग साड़ी में थी वह। गुलाबी साड़ी थी, जिसका रंग फीका पड़ चुका था। बकवास। बहुत सस्ता और खराब कपड़ा था साड़ी का। देखकर ही लगता था कि उसकी कोमल त्वचा पर चुभ रहा होगा यह कपड़ा। लंबे बाल खुले हुए थे, जो कि रूखे थे। गले में दुपट्टा था, जो वह पहले भी हमेशा मुंह छुपाने के लिए इस्तेमाल करती थी। कानों में बाली नहीं थी और नाक की कील भी न होने के कारण चेहरा उजाड़ लग रहा था। आंखें गाय के बछड़े की आंखों की तरह मासूमियत से भरी थीं। हमेशा की तरह।

मैं जोर से बोला - ''मास्क... मास्क क्यों नहीं पहना तुमने। पता नहीं तुम्हें। ऐं...?’’

उसने घबराकर गले में डाला हुआ दुपट्टा मुंह पर लपेट लिया -

''मुझे कोरोना नहीं है बाबू’’ - वह कुछ अचकचाकर बोली।

''अरे प्रधानमंत्री बोल रहे हैं घर से मत निकलो...’’

''लेकिन प्रधानमंत्री को पता नहीं ना कि हमारे पास खाने को कुछ नहीं... बाहर तो जाना ही पड़ेगा। प्रधानमंत्री को हमारे बारे में कैसे पता चलेगा...’’ अबकी उसने संभलकर और कुछ दृढ़ता से कहा।

''क्या बात करती हो। कैसे नहीं चलेगा पता। प्रधानमंत्री से भी कुछ छिपा है भला। वो प्रधानमंत्री हैं। ये टी.वी. वाले दिखाएंगे ही लोगों की तकलीफें...’’

टी.वी. पर तकलीफ कौन देखता है बाबू... टी.वी. तो मजे के लिए देखते हैं ना, सनसनी के लिए। उसमें ये सब दिखाने लगे तो देखेगा कौन?

वह फिर बड़ी आत्मीयता से दिलकश अंदाज में बोली - ''देखो साब, मैं मंदिर नहीं जा रही, लेकिन तुमसे मिलने आई मंदिर जाने के बहाने...’’

ऐसी फिल्मी और भावुकतापूर्ण बातें मुझे कभी भी प्रभावित नहीं करतीं। नौटंकी देखना होता है तो मैं सिरोहापुर गांव जाता हूं, जहां हर शनिवार की रात नौटंकी में जबर्दस्त नाच होता है। हां नहीं तो।

''तुम पहली बार हमारे एरिया में आए हो। हमारे एरिया में तो किसी को भी काम नहीं मिल रहा बाबू... आते भी है तो कुछ पुलिस वाले और कुछ गुंडे... लेकिन पैसे दोनों ही नहीं देते...’’ बड़ी अजीब बात कर रही थी वह। ''एक बाबा हैं हमारे, जो सारे जगत का हाल जानते हैं, अंतर्यामी हैं... वो इस समय भी बुलाते हैं कभी-कभी... उन्हें बीमारी का डर नहीं लगता... उन्हें विश्वास है कि मुझे कोरोना नहीं है... पर तुमसे झूठ नहीं कहूंगी... मैं उनसे पैसे नहीं लेती। वो सर्वज्ञाता हैं।’’ - उसने दाएं हाथ को ऊपर उठाकर अपार श्रद्धा से उंगलियों को माथे पर छुआया।

मुझे लगा था कि वह कुछ 'डर्टी टाक’ करेगी, लेकिन अब मुझे डर लगा कि कहीं पैदल चलने वाले मजदूरों का जिक्र न करने लगे। हालांकि शायद कोई एक चैनल था, जो अब भी हत्या, आत्महत्या और ड्रग्स की बजाए मजदूरों और किसानों पर बात कर रहा था, लेकिन मंदा ने ठीक कहा कि उसमें सनसनी वाली कोई बात नहीं होती थी।

एक चैनल में दीपिका की कार का पीछा किया गया था सिगनल पर रुकने पर दिखाया गया कि दीपिका अपने बाल संवार रही है। एक और चैनल पर एक अभिनेता से पूछा गया कि 'आपके मोबाइल के मैसेज के अनुसार आज ग्यारह लोग कुछ पीने और कुछ लेने के लिए इस पैंडेमिक में मुंबई से लोनावाला के फॉर्म-हाउस तक क्यों गए? आपने व्हाट्सएप मैसेज भेजा था कि कुछ पीने और कुछ लेने फॉर्म-हाउस जा रहे हैं। अभिनेता ने बताया कि महामारी के दौर में काढ़ा पीने और भाप लेने वे लोग लोनावाला गए थे, न कि शराब पीने और ड्रग्स लेने। ऐसी बातों में और कुछ हो न हो, मजा था। मज़ा निश्चित था।

सच ज्यादा जरूरी था या मजा, बस! ये मैं तय नहीं कर पाता था। क्योंकि उसी दिन दूसरी तरफ बंदा मजदूरों के अधिकारों पर बाद किए जा रहा था, सिरफिरे की तरह। अचानक मुझे महात्मा गांधी की याद पता नहीं क्यों आई।

मैंने इसी क्षण तय किया कि या तो अधिक पैसे लेकर जाऊं, चाहेबड़ा-पाव छोडऩा पड़े, लेकिन इस बार पहला मौका मिलते ही खादी भंडार में उपलब्ध 'सत्य के प्रयोग’ अवश्य खरीदूंगा और न केवल खरीदूंगा, जैसा कि अधिकांश लोग करते हैं, बल्कि पढंूगा भी।

मैं ऐसे कितने ही लोगों को जानता हूं, जिनके पास सैकड़ों किताबें भरी हैं। गोर्की, लेनिन, मार्क्स, प्रेमचंद, मंटो, राहुल सांकृत्यायन, मुक्तिबोध - लेकिन बेचारों को पढऩे का मौका ही नहीं मिला। हालांकि एक ही फिल्म को वो चार-चार बार देख लेते हैं और बाकी तमाम मजेदार चीजों के लिए भी वे समय निकाल लेते हैं। लेकिन ऐसी किताब पढऩे के लिए गंभीरता चाहिए, एक माहौल चाहिए। गोविंदा की फिल्म किसी भी समय देखी जा सकती है। फिल्म में कहीं से भी एक ही सीन उठाकर बार-बार देख सकते हैं।

किताबों के कलेक्शन पर हालांकि गर्वित हो सकते हैं। ये देखो भई फ्रेड्रिक एगेल्स की 'ऐतिहासिक भौतिकवाद’। गोविंदा की फिल्मो की सीडी पर गर्वित नहीं हो सकते, लेकिन, मजा ले सकते हैं। छुट्टी लेकर फिल्म देखी जा सकती है - पॉपकॉर्न खाते हुए और कोक पीते हुए। छुट्टी लेकर राहुल सांकृत्यायन पढऩे की कौन सी तुक है भला? मैंने आज तक नहीं सुना कि कोई कोक पीते हुए 'दास कैपिटल’ पढ़ रहा था।

मैंने यह भी तय किया कि इस महामारी के दौरान नियमित रूप से काढ़ा भी पियूंगा और भाप भी लूंगा।

वह कभी मुझे साब कहती, कभी बाबू। साब की तुलना में बाबू में कुछ अपनापन होता है संभवत:। ''होटल में चलोगे बाबू...?’’ - उसने दुपट्टे के उपर नजर आती अपनी सहमी-सी आंखों में एकटक मुझे देखते हुए पूछा।

''होटल...’’ मैं चिहुंक गया। ''कैसी बात कर रही हो तुम। अभी सब तरफ जोखिम है। स्वाति डीलक्स तो खुला भी नहीं अभी। मंदिर तक बंद हैं।’’

उसने कहा - ''हां ना, मंदिर बंद है... ये लोग हिंदू-विरोधी हैं...’’

उसने ऐसा किसके लिए कहा - पता नहीं। शायद इलाके के कारपोरेटर, एम.एल.ए. या मंदिर में प्रवेश से रोकने वाली पुलिस को लक्षित करके उसने ऐसा कहा होगा।

मैंने कहा - ''मस्जिद भी तो बंद है। और तो और रास्ते में एसजीएस मॉल और उसके साथ लगा हाई-ब्लिस चर्च भी बंद और उदास था। इसलिए विधर्मी शब्द ज्यादा ठीक होगा... या निधर्मी... या ऐसा ही कोई शब्द... लेकिन हिन्दू-विरोधी का तो प्रश्न ही नहीं।’’ मैंने कहा।

''तुम ठीक कहते हो...’’ उसने कहा। ''ऐसे कठिन समय में भी अयोध्या में तो मंदिर बनना शुरु भी हो गया है। वो तो ज़रूरी है।’’ वह कुछ सुकून भरे स्वर में बोली - ''मैं तो सही मानती हूं तुम्हारी बात...’’ वह सहमति जता रही थी।

फिर अचानक उसकी आवाज़ में अवसाद भर गया - ''लेकिन अभी तो बोलो कि मेरी चार साल की बच्ची को खाना कहां से खिलाऊं। काम नहीं मिल रहा... इसमें मेरी क्या गलती?’’

ये ऐसी ही बेवकूफ औरत है। जो मन में आए कहे जाती है। गलती कहां से आ गई इसमें?

''मैं जिंदा रही... और मेरी बच्ची... तो मैं भी जाऊंगी अयोध्या... दर्शन करने’’ - आंख बंद करके कुछ कल्पना-सा करते हुए वह बोली। आस्था और श्रद्धा का एक भाव उसकी आंखों में दिखा, जिससे मै विचलित हो गया।

''जीने-मरने की बात क्यों कर रही हो, ये तो मामूली बीमारी है... बस कुछ दिनों में खतम हो जाएगी...’’

''भूख से बड़ी बीमारी कौन सी हुई है बाबू... वो बीमारी तो हमारी कभी खतम नहीं होगी ना...? शहर बंद कर देने से भूख थोड़ी बंद हो जाती है?’’ - फिल्मी तरीके से बात करना इसकी आदत में शुमार है।

मुझे उसकी बात बड़ी बकवास लग रही थी। बकवास इसलिए भी कि मैं दिल बहलाने के लिए आया था और वह अपनी समस्याएं खोलकर बैठ गई थी। मुझे याद आया कि एक बार ठेले पर से ट्रिपल एक्स सीडी लेकर आया था कि उस दिन घर में अकेला हूं... चैन से देखूंगा। लेकिन उसमें नेल्सन मंडेला की जीवनी निकली। मैंने उम्मीद में पूरी सीडी दो घंटे की देख डाली, लेकिन नेल्सन मंडेला... नेल्शन मंडेला। पूरे जीवन के अनुभव से यह दावे से कह रहा हूं, यकीन मानिए, कि इसका उलटा कभी नहीं होता... 'गांव में शौचालय निर्माण’ या 'पांच ट्रिलियन इकॉनॉमी’ की सी डी में 'जवानी की बंदूक’ कभी नहीं निकलेगी। वही उस दिन वाली अनुभूति मुझे आज हो रही थी।

'भूख... हंह...’ जब भी वह ऐसी बातें करती थी, मैं समझ जाता था कि वह मुझे मकडज़ाल में फंसा रही है और अब पैसे मांगेगी... वह भी सौ-पचास नहीं, पांच हजार... दस हजार....

मैंने कहा - ''इतना दस-बीस लाख करोड़ का इंतजाम किया गया है सबके लिए, पैकेज पर पैकेज... तुम कह रही हो खाना भी नहीं मिल रहा...’’

मुझे जो उम्मीद थी, वही उसने कहा - ''बीच के लोग सब खा जाते हैं। दस-बीस-लाख करोड़ तो छोड़े, हमें तो दस बीस रुपए नहीं दिए किसी ने...’’ वह बेचारगी से बोली।

एक बात मुझे प्रभावित कर रही थी कि वह सारी दुनिया पर यकीन करते हुए बड़ी विनम्रता से अपनी बात कहे जा रही थी। उसके स्वर में आक्रोश लेशमात्र नहीं था। मासूम बच्चे की तरह बात कर रही थी वह। इससे ज्यादा कड़ाई से तो, कुछ बुरा होने पर, हम भगवान को बोलते हैं कि 'हे भगवान... ये तूने क्या कर दिया।’ या फिर 'हे भगवान तू इतना निर्दयी कैसे हो सकता है?’

पर ऐसे मामलों में या 'बीच के लोग’ बोलने पर किसी की एकाउंटेबिलिटी फिक्स नहीं की जा सकती। किसी का दोष और किसी की जिम्मेदारी तय नहीं की जा सकती। अमूर्तन की स्थिति में कोसा किसे जाए?

मुझे लगा कि बेकार में यहां फंस गया। पता नहीं किस झोंक में आ गया। मुझे आना ही नहीं चाहिए था आज।

मैंने समझाना चाहा कि यह सब तुम्हारी अपनी भलाई के लिए है। बीमारी किसी को भी हो सकती है। एक से दूसरे को फैल सकती है। जो आज स्वस्थ दिख रहा है, हो सकता है कि वह भीतर से बीमार हो। हो सकता है तुम्हें लगी हो यह बीमारी। तुम्हें न भी हो तो मुझे भी हो शायद।

लब्बोलुआब यह था कि मैं उसे लेकर किसी होटल में नहीं जा सकता।

'किस’ भी नहीं। उसने असहाय भाव से पूछा।

''इतना जोखिम...’’ मैंने उसे कहा, ''तुम भी मत लो।’’ हां, मास्क पहनकर छू-छा सकता हूं, लेकिन बाद में हाथ सैनिटाइज करुंगा। सैनिटाइजर की बड़ी बोतल कार में क्यों रखी है फिर?

सड़क सुनसान थी। समय दोपहर का था। कार में ए.सी. फुल चल रहा था। भीतर सुखद ठंडक थी, जिसके बाहर के मौसम का अंदाज लगाया ही नहीं जा सकता था। फिर भी मंदा बेचैन थी - ''वो तो मैं समझ गई बाबू। बीमारी है... तभी तो एक ग्राहक नहीं आ रहा मेरे पास। कितने महीने हो गए। और पता नहीं कब तक चलेगा ऐसा। बच्ची को खिलाऊं कहां से...’’

उसने दुबारा बच्ची का नाम लिया था। मैं पहले भी कुछ चौंका था। बच्ची वाली बात उसने पहले किसी मुलाकात में नहीं की थी। आज पहली बार बच्ची-बच्ची रट रही थी। मैं चिढ़ गया कि हर बार एक नया बहाना लेकर पैसे मांगती है। प्रत्यक्षत: मैंने बड़े सब्र से कहा कि 'अभी किसी से संपर्क मत करो। मुझसे भी नहीं। मास्क पहनो और हर दो घंटे में हाथ धोती रहो।’

एकदम मेरी आंखों में देखते हुए वह जोर से हंसने लगी - ''मैं समझी नहीं...’’ फिर वह बोली।

ऐसा भला क्या कह दिया था मैंने। मैं क्या पश्तो में कह रहा हूं - ''हाथ धोती रहो मतलब हाथ धोती रहो।’’ - मैंने कुढ़कर कहा।

''नहीं बाबू, मैं जिस इलाके में रहती हूं... पता है ना.... आओ देखोगे... चमचमाती सड़क से दिखाई नहीं देती वो गली... बगल में ही तो है, बाएं हाथ पर... अरे, बस सौ कदम पर... - वहां हफ्ते-हफ्ते पानी नहीं आता। सफाई की गाड़ी नहीं, कोई व्यवस्था नहीं। हाथ क्या दूध से धोऊं?’’

''अरे, तो तुम डेढ़ हजार महीना वाले किराए के मकान में रहती हो। बताया तो था तुमने।’’ मुझे कोफ्त हुई। प्रश्न था मेरे स्वर में।

वह फिर हंसने लगी, मानो कैसा बेवकूफ बनाया मुझे। बिना किसी अपराध-बोध के हंस रही थी वह।

''गांवों में बिजली आ गई विज्ञापन में बोलते हैं... तो पहले शहर में हमारी बस्ती में तो बिजली दो। पहले रात में तो रौनक के लिए बिजली रहती थी, उसके लिए बिजली बाबू को अलग से महीना जाता था। हमारे चंदे से। अब धंधा नहीं, तो चंदा कहां से दें।’’

मेरी समझ में आ गया। जहां वह चलने को कह रही थी वह वेश्याओं की बस्ती थी। रेड लाइट एरिया। मैंने सुनील कुमार को मन ही मन गाली दी, जिसने कहा था कि यह घरेलू औरत है। हालांकि मुझे पता नहीं था कि घरेलू औरत होने की अर्हताएं क्या हैं, पर मैं यह पक्का कह सकता था कि यह घरेलू औरत नहीं। खांटी घरेलू औरत तो हरगिज नहीं।

''बच्ची का बाप कहां है? वह कुछ नहीं देता... मतलब पैसे-वैसे...?’’

अबकी तो वह हंसते-हंसते दोहरी हो गई। उसकी आंखें छलछला गई हंसी के मारे। इस हंसी में यह भी था कि ऐसा बेवकूफ जीवन में कभी नहीं देखा।

''खाना तो खिलाओगे...?’’ वह हंसी रोककर अचानक बोली - ''मुझे भूख लगी है।’’ स्वर सशंक था उसका। कहीं मैं मना न कर दूं।

''समझने की कोशिश करो’’- मैं उसके मकडज़ाल से बाहर आने की कोशिश करने लगा,

''इस समय कहीं बैठकर खाना जोखिम भरा है। रिस्क है बीमारी का।’’

''तो मेरी बच्ची के लिए खाना पैक करा दो बाबू। फूटी कौड़ी नहीं मेरे पास। लोगों के हाथ-पांव जोड़कर इंतजाम कर रही हूं। लोगों को कहती हूं बीमारी नहीं है, कोई मानता ही नहीं। वे भी नहीं, जिन्हें हर दूसरे दिन में चाहिए थी। कोई पकड़ता नहीं मुझे। अच्छा, मजे की बात ये है कि कोई पकड़ता भी है तो दस-बीस रुपए ही देता है। कहना है पैसे ही नहीं हैं। अब दस-बीस रुपए में तुम ही बताओ कुछ होता है बाबू? और फिर तीन महीने कम होते हैं?’’ फिर अदा से बोली - ''ये मत भूलो कि तुम्हारी डी.जी. हूं...’’

अब यह हद से बढ़ रही थी। अति कर रही थी। पैसे मांगने का ही भी एक शिष्टाचार होता है। उसके इस रूप की मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था। कभी वह दुनिया को कोसने लगती थी, कभी मुझे रिझाने की कोशिशें करने लगती थी। मैं भड़क गया - ''हमारी क्या हालत है तुम समझ रही हो?’’ मैं चिल्लाकर बोला - ''समझ रही हो तुम, हमारी तनख्वाह आधी कर दी गई है। कार का पेट्रोल कंपनी देती है, इसलिए चला रहा हूं.. नहीं तो पैदल आया होता यहां पैदल... आधी तनख्वाह के मकान का इन्सटालमेन्ट देना पड़़ता है... ईएमआई नहीं भरी तो मकान जब्त कर लेंगे। बच्चों की फीस पूरी देनी पड़ रही है... स्कूल बंद हैं फिर भी। मैं कहां रोने जाऊं... मैं भी लोगों से उधार मांग-मांगकर काम चला रहा हूं। कल ही थोड़े पैसे लिए हैं सुनील कुमार से...’’

मुझे आश्चर्य हुआ कि मेरी आवाज लरजी क्यों नहीं? आत्मविश्वास कम क्यों नहीं हुआ। आवाज कमजोर क्यों नहीं पड़ी? क्योंकि सरकारी उपक्रम में हमें कोरोना के कारण छुट्टियां जमकर मिली थीं। वर्क फ्रॉम होम। वर्क ऐट होम। न्यूनतम स्टाफ में कार्य। इसी तरह की अन्य योजनाएं। लेकिन तनख्वाह हमारी कुछ कटी नहीं थी... ऊपर से राहत निधि के रूप में एक लाख अस्सी हजार का सैलरी एडवांस दिया गया था। डिस्ट्रेस रिलीफ! बिना ब्याज का। इसी महीने साढ़े पांच हजार का डी.ए. बढ़ा था सो अलग।

''सुनील कुमार ज़िन्दा है?’’ उसने मासूमियत से पूछा था।

''क्यों? उसे क्या हुआ?’’ मैंने हैरानी से पूछा।

''नहीं, मैंने उसको दो बार फोन किया और कुछ पैसे मांगे। पहली बार उसने कहा कि सुनील कुमार का ट्रांसफर हो गया है कोलकाता। दूसरी बार फोन किया तो कहा कि सुनील कुमार मर गया।’’

मुझे कोफ्त हुई। मैंने हताशा से हाथ मसले।

'वाह रे सुनील कुमार...’ मैंने मन ही मन उसे गाली दी, 'खुद तो कन्नी काट गया, तो मुझे भी इशारा कर देता। मैं आता ही क्यों इसके मकडज़ाल में फंसने। कोलकाता न सही मुझे मुंबई ही ट्रांसफर करा देता। बगल में कोल्हापुर ही करा देता। या फिर जब तू मर ही गया था, तो मैं भी मर जाता। मैं नहीं मर सकता था?’

''सुनो ना बाबू... अभी बीमारी है... मानती हूं... ठीक है...’’ - उसने सोच-समझकर अगला पांसा फेंका... - ''ऐसा करते हैं, तुम मुझे पैसे दे दो। अभी दे दो तरस खाकर। दया कर दो बाबू। बाद में... बाद में साब... मतलब बीमारी खत्म होने के बाद... मैं तुमको दस बार...’’ वह उंगलियों पर कुछ हिसाब लगाकर बोली... ''हां दस बार फ्री में सब करने दूंगी। चाहे तो पूरी रात रुकूंगी। नहीं तो मैं मर जाऊंगी। मुझे बस पांच हजार दे दो...’’

''कितने...?’’ मैंने आवाज में आश्चर्य भरकर कहा।

''पांच... प... पांच हजार।’’ वह मेरे स्वर में आश्चर्य की अधिकता और स्वर की तीव्रता से सहम गई - ''एक बार का मेरा पांच सौ बनता ही है, नहीं क्या? मेरा तो फिक्स रेट है। कभी ज्यादा लिया तुमसे? तो दस बार कुछ मत देना... एक कोड़ी नहीं। चलो, ब्याज का भी एक ले लो। एक बार एक्स्ट्रा... एक बार का फ्री... एक बार का फ्री!!!’’

झूठी और घटिया औरत... इस काम में भी स्कीम लेकर आई है। मैंने मन में सोचा। हमेशा ऐसे ही फंसाती है। मुफ्त में होंडा सिटी में ए.सी. में बैठी है।

''पांच हजार का मतलब समझ में आता है...’’ मैं अचानक गरजकर बोला, ''अरे राशन के पैसे नहीं बचे हैं मेरे पास...’’ मेरे चेहरे पर उत्तेजना थी।

''क्या कहते हो बाबू... क्या सबका यही हाल है...?’’ उसने आश्चर्य से पूछा। उसकी आंखों में आश्चर्य था।

''हाल पूछती हो.. हम लोगों के ऑफिस का प्राइवेटाइजेशन कर रहे हैं...’’

''बेच रहे हैं क्या...?’’ उसने कुछ चिन्ता दिखाते हुए पूछा, - ''जैसे एयरपोर्ट वगैरह...’’

आज तो इसे पांच रुपए भी नहीं देना। मैंने तय कर लिया - ''बेच ही देंगे कुछ दिनों में....’’  चिढ़कर मैं बोला... ''कोरोना के कारण कंपनी का धंधा ठप हो गया है हमारा क्या होगा? हम तो सड़क पर आ जाएंगे...’’ अथाह दुख भरकर मैंने कहा। यही एक उपाय था जिससे इस औरत के मकडज़ाल से मैं बाहर निकल सकता था।

''अरे...!!’’ वह हैरानी से मुझे ताकती रही। गनीमत थी कि वह हमेशा मेरी बात पर यकीन कर लेती थी। वरना आज तो मेरा मूंडा जाना तय था।

''यही स्थिति रही - दो-एक महीने तो खाने के लाले पड़ जाएंगे। हम लोग बाहर से ही क्रीज वाले कपड़ों में दिख रहे हैं... अंदर से खोखले हो गए हैं। सच कहता हूं राशन के पैसे नहीं इस महीने। नहीं तो तुम्हारे लिए... अपनी डी.जी. के लिए पांच क्या... पंद्रह हजार दे देता।’’

मुझे हर बार इस औरत को ऐसे ही मना करना पड़ता है।

उसकी आंखों में मेरे लिए आत्मीयता और सहानुभूति थी।

''सुनो बाबू, थोड़ा आगे ले लो... उस गली के अंदर... दाई तरफ आगे जो टीन की टपरी है... मानो मेरी बात...’’

मैंने गाड़ी कुछ आगे बढ़ाई। लेकिन मेरी आंखों में प्रश्न था, दरअसल मैं उसके अगले पैंतरे का इंतजार कर रहा था।

''देखो, ठीक उस दूकान के सामने...’’ उसने कहा। गली में इक्का-दुक्का लोग दिखाई दे रहे थे। एक-दो अनाज और पान-बीड़ी की दूकान खुली थीं और एक-दो खोमचेवाले थे। मैंने निर्विकार भाव से दूकान के सामने कार रोकी। बंद कार के भीतर भी सड़ांध भीतर आ रही थी। किसी जानवर के मरने की दुर्गंध जैसी। लेकिन यहां जो लोग थोड़े से दिखाई दे रहे थे कचरे के ढेेर के पास या छज्जे पर... उन्हें शायद यह सब सामान्य लग रहा था। आदमी, कुत्ते और सुवर.. सब एक भाव में मगन थे। कहां आ गया था मैं।

''पान खाना है तुम्हें...?’’ मैंने जब्त करते हुए किंचित कठोर स्वर में पूछा।

''रुको ना बाबू... बस दो मिनट... मैं आई आई बस...’’ वह फुर्ती से कार से उतरी। बदन में उसके लोच था।

मेरे लिए एक-एक मिनट यहां रुकना भारी पड़ रहा था।

लगभग पांच मिनट वह पानवाले से बात करती रही। मुझे लगा कि वह बहस कर रही है या झगड़ रही है उससे फिर पान वाले के दोनों हाथ पकड़कर झुलाने लगी। बड़ा अटपटा लग रहा था। पता नहीं क्या चाहती है ये औरत। सौ-दो सौ में छूट सकूं, तो वो तो मैं ही कर देता। लेकिन पांच हजार! हंह...!! वो भी बिना इस्तेमाल किए। माथे पर पागल लिखा है क्या मेरे?

अकबकाकर मैंने कार की खिड़की खोल दी। उसकी तरफ की खिड़की। ताकि पूछूं कि क्या माजरा है?

वह तत्क्षण लौटी। उसके चेहरे पर प्रसन्नता थी। आंखों में सफलता की चमक।

''लो बाबू... बड़ी मुश्किल से मिले हैं... रख लो... ये तुम्हारे लिए...।’’ खुशी। हां खुशी थी उसके स्वर में भी।

फिर मालूम नहीं अचानक क्या हुआ। मुझे लगा कि मेरे शरीर का सारा खून किसी ने निचोड़ लिया है।

मैं अवाक् था। मेरे कुछ समझने से पहले ही उसने कार की खिड़की से हाथ अंदर कर दिए - ''ये पांच सौ रुपए लाई हूं बाबू... रख लो...’’ उसने मुड़े-तुड़े पान की पीक लगे नोट मेरी तरफ बढ़ाए।

''अरे, नहीं... नहीं...’’ मैंने जल्दी से कहा... ये क्या कर रही हो...?’’

''नहीं... नहीं... साब... जब हालत ठीक हो जाएगी तब लौटा देना... ठीक?’’

अविश्वसनीय था यह और अपमानजनक भी। लेकिन फिर भी मैंने कामना की कि 'काश! वह मेरा मजाक उड़ा रही होती...’, 'काश! वह मुझे जलील कर ही होती।’ तब शायद मुझे इतनी शर्म नहीं आती। तब शायद मेरा चेहरा काला नहीं पड़ जाता। लेकिन नहीं... वह तो सचमुच मदद करने पर उतारू थी। पूरी सहानुभूति के साथ

''अरे, तुम्हें जरूरत है अभी... बच्ची भूखी है तुम्हारी।’’ मेरी आंखें फटी पड़ी थीं।

तब मैंने उसकी बात सुनी भर थी। अब मैंने उसकी हर बात महसूस की। अचानक सब सामने दिखने लगा। बिना पानी के घर की गंदगी। घर और बाहर की बदबू। गड्डमड्ड हो चुका गीला और सूखा कचरा। बजबजाती नालियां। बिजली के कटे-फटे तार। कमरों का पीलापन और सीलन। कथरी। लिथड़ा हुआ बिस्तर। भूख से बिलबिलाती उसकी बच्ची।

''हमारा क्या है साब.. हमें आदत है। मुझे ऐसी-वैसी मत समझना! मैं कोशिश करती हूं ना, तो कुछ न कुछ मिल जाता है साब।’’ वह पुलकित थी - ''तुम्हारे बस का नहीं है ये सब... तुम किससे मांगने जाआगे राशन के पैसे?’’

मेरा कलेजा चाक हो गया था।

पता नहीं क्यों अचानक मुझे देवतागण दिखाई देने लगे और शीर्ष मंत्री भी। वे कुछ कर नहीं सकते थे, लेकिन हमेशा की तरह मुस्कुरा रहे थे। आशीष देने के भाव में।

मैंने उस औरत के चेहरे को ध्यान से देखा। वह एक सघन मकडज़ाल में फंसी दिखाई दी मुझे। जिसमें वह छटपटा भी नहीं रही थी। इस मकडज़ाल की यातना को उसने स्वीकार कर लिया था। अबकी बार यह कोई फैंटेसी नहीं थी। सारा ईमान बेचकर खा चुके नेता मुझे दिखाई दिए। अंतर्यामी ढोंगी बाबाओं ने भी उसे घेर लिया था। फिर बिना पैसे दिए उसके बदन को रौंदते हुए भ्रष्ट पुलिस वाले और लार टपकाते सरकारी प्राधिकारी। चंदा लेकर बिजली पहुंचाने वाले बाबू। उसकी जरूरत का लाभ उठाते मवाली और गुंडे। न्याय का दंड उठाए छद्म पैरोकार। समाजसेवी का मुखौटा लगाए घिनौने लोग। आत्मरति में लीन बिना रीढ़ के पत्रकार। केवल पैसे के कारण सच को जानते हुए भी चैनलों में पूरे विश्वास से सफेद झूठ बोलती हुई संवेदनशील बेशर्म महिलाएं और अनीति के पक्ष में उन्माद में चिल्लाते हुए क्रूर पुरुष। हैरानी की बात यह थी कि इस भीड़ में जो सबसे तेजी से दुम हिला रहा था, वही सबसे जोर से भौंक रहा था। दिखाई दिए अभ्यारणों में बिना हिले-डुले पड़े हुए किसी लाभ के अवसर और पुरस्कार का इंतजार करते हुए कायर लेखक। फेन्स पर तटस्थ बैठे हुए बहुत से अनजाने चेहरे। मनुष्य होकर अलग जात, अलग धर्म, अलग देश, अलग रंग... यहां तक कि अलग दल और अलग विचारधारा होने के कारण भी दूसरे मनुष्य से नफरत करने वाले और सोशल मीडिया पर नफरत फैलाने वाले लोग भी नज़र आने लगे। आश्चर्यजनक यह था कि इस भीड़ में सुनील कुमार और मेरा चेहरा भी स्पष्ट नज़र आ रहा था। यह मकडज़ाल घना बूना हुआ था। उसे इल्म भी नहीं था कि वह मकडज़ाल में बुरी तरह फंसी हुई थी।

उसके दिए हुए पांच सौ रुपए मेरे हाथ में थे। पूरी पृथ्वी अपनी धुरी पर थम गई थी। आसमान बदरंग हो गया था। मैं सौ में से सौ नंबर वाली औरत को बदहवास देख रहा था। निर्निमेष।

 

 

 

 

राजेन्द्र श्रीवास्तव वरिष्ठ कथाकार हैं। आपने सारिका, धर्मयुग जमाने से कहानियाँ लिखना शुरू कीं। आज तक उनकी कलम सक्रिय है। 'पहल-107’ में आपकी एक कहानी प्रकाशित और चर्चित हुई। राजकमल प्रकाशन समूह ने कहानी संग्रह छापा है। इन दिनों पुणे में रहते हैं और एक राष्ट्रीयकृत बैंक में महाप्रबंधक हैं।

सम्पर्क : मो. 9604641228

 


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