मुखपृष्ठ पिछले अंक कविता कथा / कहानी आर. चेतन क्रांति की कविताएं
अप्रैल 2021

आर. चेतन क्रांति की कविताएं

आर. चेतन क्रांति

कविता

 

उत्तरप्रदेश के सहारनपुर के एक गांव में 1968 को जन्म। आर. चेतनक्रांति का पहला कविता संग्रह 'शोकनाच’ 2004 में आया और दूसरा 'वीरता पर विचलित’ 2017 में। 'सीलमपुर की लड़कियाँ’ कविता को भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार प्राप्त। मंगलेश डबराल लिखते हैं कि आर. चेतनक्रांति की ''बहुत सी कविताओं की छंद योजना और बयां करने का अंदाज़ भी आकर्षक हैं और चेतनक्रांति को नई पीढ़ी में सबसे अधिक छंद सजग और छंद को एक औज़ार की तरह इस्तेमाल करने वाला कवि भी बनाती है।’’

आर. चेतनक्रांति पिछले बीस वर्षों से राजकमल प्रकाशन समूह से जुड़े हैं।

सम्पर्क: मो. 9891199861

 

 

 

सिविल कथन

 

चैन से कोई नहीं सो रहा है

तुम वहां लड़ रहे हो

हम यहाँ

 

तुम मौत के सामने हो

हम यहाँ जिन्दगी के

 

हर सुबह आधी नींद और जलती आँखों उठते हैं

और पिछले दिन के हारे पैरों से

फिर चल पड़ते हैं

कुछ नया जोडऩे देश में

कुछ नया उगाने बंजर में

कुछ नया बनाने बेकार मलबे से

 

पुराने लोहे से पत्थरों से कागजों से

मिट्टी से गारे से टूटी बोतलों ज़ंग खाई स्टील से

फटे कपड़ों से

बनाने कुछ ऐसा

जिसकी हिफाज़त करते हुए

कोई बहादुर और शानदार लगे

शाम को जब लौटते हैं

तो न पैरों में ताकत होती है

न सर में फ़रागत

जीने की इच्छा सिरहाने रखकर बस सो जाते हैं

 

रोज़ हमें एक नया युद्ध लडऩा होता है

रोज़ एक नए मोर्चे पर घायल होकर हम आते हैं

रोज़ एक नया दुश्मन हमारे सामने होता है

 

हमें यूं हिकारत से मत देखो, सैनिक

तुम बहादुर हो तो कायर हम भी नहीं

जिसे बचाते हो

हम उसे बनाते हैं

 

हैरान होने वाले

 

सबसे ज्यादा हैरान करते हैं हैरान होने वाले

वे तुम्हें देखते हैं और हैरानी में लिख दिए जाते हैं

कि हाय कैसे यह बिना बीवी बिना बच्चों वाला आदमी जीता होगा

और क्यों तो भला!

 

दया से भरकर वे टपकने लगते हैं

उन्हें अपनी रसोई में एक धूसर और बेडौल औरत दिखाई देता है

सदियों से उसी एक रोटी को बेलते हुए और वे तय करते हैं

कि आधी रोटी कल इसके लिए भी लेते आएँगे

 

तुम उन्हें पीछे से देखते हो

और अपने नितम्बों के लिए अफसोस करते हो

जो इतने सुडौल कभी नहीं हो पाए

जबकि ईश्वर से यही तो तुमने माँगा था

 

तुम उन युद्धों को याद करते हो

जिन्हें वे तुम्हें बिना बताए

तुमसे लड़कर जीत भी गए

और तुम्हें कई दिन बाद किसी और से पता चला

 

वे अपनी दुनिया के भारी विषधर होते हैं

उन्हें चश्में दिए गए है

हलके-फुल्के सीधे सादे सरल सुसुन्दर

और सुनने के ऐसे ही बढिय़ा बढिय़ा आले

 

लेकिन जो उनकी परिधि से परे है

वह है तुम्हारा आते-आते रहना

बीच-बीच में तुम्हारा छीजना छीजते चले जाना

और फिर एक दिन वापस बनने लगना

इससे वे फिर हैरान होते हैं

कि जब इसके पास कुछ भी नहीं

न बीवी न बच्चा न घर

यह इतने सुंदर ढंग से कैसे जीता है

और भला क्यों!

 

होने की बातें

 

तुम्हारे पास कुछ होता है

मसलन तुम्हारा आपा

जो किसी दिन तुम्हें पराया लगने लगता है

और घर,

तुम उसमें मेहमान की तरह रहने लगते हो

और दुश्मन वे तुम्हें हास्यास्पद दिखते हैं सहसा

और दोस्त महज एक दलदल

जो भीतर-भीतर सड़ती-गंधाती रहती है

तुम अचानक सबसे अलग होकर हवा से बतियाने लगते हो

कि अब तक कहाँ थीं तुम

 

होना धीरे-धीरे बीतता है

उसे तुम एक झटके से उतारकर

ताजादम नहीं हो जाते

वह अपनी आग में थोड़ा-थोड़़ा गलकर गिरता है

 

जिनके पास वह बहुत ज्यादा है

तुम उनकी बगल में

बिना कोई आहट किए गुजर जाते हो

जब वे अपने होने से दूसरों की हवा को रूंधते

दनदनाते फिरते हैं

तुम उन्हें देखकर व्यंग्य से मुस्कुरा भी नहीं पाते

तुम जानते हो वे अपने कमजोर ढांचे पर क्या-क्या उठाए हुए हैं

 

वे पलट-पलट कर गिरते हैं

और उठकर फिर घिघियाने लगते हैं

जैसे हंस रहें हों जैसे चीख रहे हों जैसे धमका रहे हों

 

तुमसे मिजाजपुर्सी की तरह किस्म-किस्म के सवाल करते हैं

चुनौती देते हैं और चल देते हैं

और तुम्हें यह भी कहने की इच्छा नहीं रह जाती

कि सुस्ताकर जाते मित्र,

 

फर्क

 

बीड़ी दु:ख का धुआं है

और सिगरेट सुख का

यह जानने के लिए उनकी कीमत जानना जरूरी नहीं

यह सच है।

 

कुछ बाहर से सुखी

लेकिन अन्दर से दुखी लोग

हो सकता है

कि सिगरेट का इस्तेमाल बीड़ी की तरह करते हों

पर रहती फिर भी वह सिगरेट ही है

जो सिर के पिछले हिस्से को उजाला देती है

बीड़ी तुम्हें सामने से उठाकर

तुम्हारे पीछे ले जाती है

लगातार संकरी होती

भय की एक चाहरदीवारी में

जहाँ तुम सतत सिकुडऩे के लिए बैठ जाते हो

 

इसी जगह लोग मजूरों क्लर्कों चपरासियों और गरीबों की तलाश में आते हैं

जिनकी जरुरत हर जगह रहती है

बीड़ी उन्हें संस्कार की सबसे कमजोर टांगों वाले आदमी तैयार करके देती है

जो दुनिया की इधर और उधर से

बिला नागा मरम्मत करते रहते हैं

और अपनी ताकत को

गुद्दी के ऊपर सिर की खोखल में बूँद-बूँदे गोंद की तरह टपकते

देखते रहते हैं

 

वे थकते नहीं

अपनी मुर्दा इच्छाओं को सोखकर

वे बार-बार

काम पर आ जाते हैं

 

दु:ख

 

1.

आखिर में बस तुम हो

मैं तुम्हारे लिए ही आ रहा हूँ

सारे हरे मैदानों में

एक-एक रात सोते हुए

 

वहीं रुकना

वहां के बाद नहीं चला जाएगा मुझसे।

 

2.

वह भीतर कहीं बो दिया होगा

बहुत पहले कभी

और सींचा नहीं गया होगा

इसलिए पानी-पानी पुकारता रहता है

दु:ख का वह काला बीज।

 

3.

जब तुम अपने भीतर नहीं होते

बाहर जाने क्या क्या

तुम्हें घेरने लगता है

तुम अपनी धुरी ढूंढ नहीं पाते

अपना केंद्र

अपनी कील

 

दु:ख भी अपना

तुम्हारे हाथ से छिटक जाता है।

 

4.

मुझे पता है

दु:ख ने हर लिया है

मुझे तुमसे

और तुमसे मुझे

 

अब दु:ख को क्या कहें

चलो उसी के साथ रहें।

 

5.

बस दु:ख के साथ रहो

 

उसकी हथेली पर

बैठे हुए

चलते हुए

पूरे दीखते हो तुम

 

गोल, मनोयोग से बांधी हुई गठरी जैसे।

सहेजे हुए। संवारे हुए। रहस्यमय। सुन्दर। संपूर्ण।

 


Login