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अप्रैल 2021

वैकल्पिक की अति रिक्तता में अशांत प्रवेश देवी प्रसाद मिश्र की अन्य कथाएँ

देवी प्रसाद मिश्र

कहानियां

 

 

 

 

इन  कथाओं के ढांचे को पाने का मामला काफी संगीन था जो बरसों में धीरे धीरे मिल पाया। मैं अनिश्चित जाने- अनजाने कविता और कहानी के बीच में कोई जगह  तलाशता रहा ताकि अपने समय के संकुल-संश्लिष्ट को कह सकूँ। इस तरह कविता में कथा और कथा में कविता बचती रही। लगता तो नहीं कि यह गद्य कविता है। चकित करने वाले विन्यास में लिखी जाती या बाज़ दफ़ा चुटकुला बन जाने के डेंजर ज़ोन में घूमती निष्कर्षवादी लघु कथा तो यह क़तई नहीं है । ये वृत्तांत मुझे ज़जीरें तोडऩे की खुशी देते हैं और तब मैं एक आविष्कारक के उज़ाड़ और उल्लास में भटकता हूँ।  तो ये अन्य कथाएँ हैं जिनका अन्यत्व इनका बियाबान है, और इनके पात्रों का  निर्वासन भी जो आसपास के संतुलनवाद, सत्तात्मक विन्यास, गिरोहात्मक पारस्परिकता, असमानता और विषमता, धार्मिक हिंसा, सर्वानुमतिवादी बौद्धिक पर्यावरण, आविष्कार विरोध,  दमन और सेल्फ़ सेंसर और तरह तरह से स्वतंत्रता के अपहरण से पैदा होता है ।

देवी प्रसाद मिश्र

 

आँख का नंबर टेस्ट करने वाली लड़की

आँख का नंबर टेस्ट करने वाली लड़की जब मेरे बहुत नज़दीक आ गई तो मेरे कांपने का जवाब उसने मुस्कुराकर दिया। मेरा अपराध यह था कि मैं बूढ़ा हो रहा था और उसकी विशिष्टता यह थी कि वह युवा होती जा रही थी। मैंने निराशा के साथ कहा कि समय देह पर कुल्हाड़ी की तरह गिरता है। उसने मेरी नाक पर टिके चश्मेनुमा खांचे में एक के बाद दूसरा शीशा डालते हुए कहा- देह पर समय फूल और बारिश की तरह गिरता है। फिर उसने कहा रात और इतिहास और बर्फ़ की तरह भी गिरता है काल।  वह मेरी आँखों को जांचती रही । फिर वह मेरे सामने बैठ गई। उस समय रात के जाड़े के नौ बज रहे थे। उसका साथी सेल्समैन यह कहकर चला गया कि सर की आँखें टेस्ट करके और चश्मे का ऑर्डर लेकर दुकान बंद कर देना। उस लड़की ने कहा, फिकर मत कर। इसके बाद वह लड़की मेरे सामने बैठ गई और बोली कि आपकी इन आँखों ने क्या क्या देखा। मैंने कहा कि मैंने एक साफ नदी को देखा। फिर एक दिन उसे गंदा होते देखा। मैंने स्त्रियों की नग्न देहें देखीं और उन पर पड़े नीले निशान। तानाशाहों को सलामी देती परेड देखी। मैंने संगीतकारों और गायकों को सुना जो दुनिया बचाने की अराजनीतिक बेख़ुदी थी । मैंने गोली चलाते आदमी को देखा और गोली खाकर न मरते आदमी को। मैंने  एक स्त्री को देखा जिसे एक पुरुष अगवा करके ले जा रहा था - स्त्री उस समय एक लोकगीत गा रही थी । मैने कवियों को ईर्ष्याग्नि में धधकते देखा- नष्ट होने के पहले नष्ट करने के उन्माद से ग्रस्त।  मैंने कलाकारों  की तटस्थ होने की विस्मृति को देखा। मैंने एक के बाद दूसरी अमरताओं की धज्जियाँ उड़ते देखा । मैंने एक आदमी को बहुत लोगों का खाना खाते देखा। मैंने मज़दूरों को शहर बनाने के बाद उन्हें वहाँ से हटाये जाते हुए देखा।

वह लड़की एक पूरी सदी की तरह उदास हो गई। उसने कहा कि यह दुनिया उसके लिए एक सतत कोपभवन है और वह पता नहीं कितने राजनीतिज्ञों की अंत्येष्टि में जाने के लिए उत्सुक है। यह सब कहकर वह हँस दी और बोली मैं जो चाहती हूँ वह कभी नहीं कह पाती। उसने कहा ज्यादा देखने की वजह से आपके चश्मे का नंबर बढ़ा है । इस चश्मे के बाद आप बेहतर देख पाएंगे। उसने पूछा कि नये चश्मे से आप क्या क्या देखना चाहेंगे। मैंने कहा- सौंदर्य और आत्मा और जागते हुए मर जाना । उसने कुर्सी से उठते हुए कहा- मतलब जीवन। मैंने कहा - कह नहीं सकता लेकिन मैं उससे ऊबा हुआ हूँ। मैंने अपना पुराना चश्मा लगा लिया और उठने लगा तो उसने कहा कि मैं जितना भी दिख रही हूँ तो आप मुझे देखकर क्या देख रहे हैं। मैंने कहा- पराधीनता और अंधेरा। इस बीच एक फोन आया तो उसने फोन पर कहा कि अभी वह दुकान में ही है और बाहर डरावनी धुंध है तो वह दुकान में ही रुक जाएगी। वह दुकान का दरवाज़ा बंद करके लौट आई और कुर्सी पर मेरे सामने बैठ गई। वह उठी और उसने मेरी जेब में हाथ डाला और कहा कि मैंने सोचा कि आपके पास माचिस होगी। मैंने थोड़ा झेंप कर कहा कि मेरी एक जेब में अलाव और दूसरी में बदलाव रहता है। उसने कहा कि कविता से पता नहीं क्या होता है। मैंने कहा कि मैं भी यह नहीं जानता। उसने मेरे हाथ पर अपना हाथ रखते हुए कहा कि वह बार बार क्यों भूलती है कि इच्छाएँ स्वतंत्र करती हैं।

 

बेंच पर न बैठता आदमी

मैं नीचे उतरा तो एक आदमी जून की धूप में नीचे घूम रहा था। मैं उसे खंभे के पीछे खड़े होकर देखने लगा। वह गहरे रंग की खाली बेंच को अजीब भय के साथ देख रहा था जबकि मेरी कोशिश यह थी कि एक बहुत थके आदमी को मैं बैठते हुए देखूं बिल्कुल वैसे ही कि जैसे एक हिंदी कवि ने कहा कि एक भूखे आदमी को खाते हुए देखने से बड़ा कोई दृश्य नहीं हो सकता। मुझे लगा कि मैं जहां रहने आया हूँ वह अमानवीय रहस्यों से भरी है। मसलन एक दिन जब मैं लिफ्ट से नीचे की तरफ जा रहा था तो एक लड़की दरवाज़े की तरफ पीठ करके स्टील की दीवार से सिर टिकाकर खड़ी हुई थी। मैंने सोचा कि उसके कंधे पर हाथ रख दूं लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया।

मैं खंभे के पीछे से एक पतले से आदमी को देख रहा था तो अचानक लगा कि पीछे से किसी ने मुझे छुआ। यह वही आदमी था जिसको मैं अभी तक सामने देख रहा था। उस आदमी ने मुझसे कहा, आप कौन हैं। मैंने थोड़ा हल्के अंदाज़ में कहा कि मैं यह जानने ही निकला था कि मैं कौन हूं। मैंने उससे पूछा कि तुम यहां क्या कर रहे तो उसने कहा कि उसका काम इधर उधर टहलते हुए संदेह करने का है। मैंने उससे कहा कि क्या तुम मुझ पर संदेह कर रहे हो तो उसने कहा, हां। मैंने उसका मंतव्य समझते हुए कहा कि मैं यहाँ नया हूँ, मेरा नाम प्रबोध है और मैं यहाँ 201 में रहता हूं। उसने थोड़ा बिहंसते हुए कहा कि मैं नहीं जानता कि अपने को खोजते हुए आप अपने को मिल गये या नहीं लेकिन आप मेरे साहब हैं। उसने कहा कि जितने भी फ्लैट के मालिक हैं वे सब उसके साहब हैं। मैंने कहा कि जीवन में इतने सारे साहबों का होना ठीक नहीं है। मैंने कहा कि अगर मैं साहब होना न चाहूँ तो । उसने कहा कि तब आपके खतरे बढ़ जाएंगे। मैंने कहा किस तरह तो उसने कहा मेरी तरह। मैंने कहा कि थोड़ा मिसाल देकर बताओ। उसने कहा -सुनिए। मैं यहाँ खड़ा रह सकता हूँ लेकिन बैठ नहीं सकता। मेरा काम खड़े रहने या चलते रहने का है। इसलिए यह हरी बेंच मुझे डराती है। मैं बैठना चाहता हूँ लेकिन बैठ नहीं सकता। सीसीटीवी कैमरे लगे हैं जो मेरे बैठने के विरुद्ध हैं। मैं रखवाली कर रहा हूँ। मैंने पूछा कि किसकी रखवाली तो उसने कहा आप सबके साहबपन की रखवाली। मेरे बैठने से आप लोगों की साहबी नष्ट होती है। मैं वहाँ से जाने लगा तो उसने मुझे समझाने वाले अंदाज़ में कहा कि आपका कहानीकार मुझसे बिल्डर के मैनेजर पर एक दो गोलियाँ न चलवा दे। विद्रोह के तौर पर। क्योंकि एक दो गोलियाँ चला देने से कुछ नहीं होने वाला, सर।

 

आत्मा के इलाज के अगर कुछ नुस्खे हैं तो

जिस डॉक्टर को मैं अपनी त्वचा दिखाने के लिए गया था वह सांवले रंग का छोटे क़द का आदमी था जिसके बाल गायब थे: उसने बालों को काला कर रखा था। इस प्रक्रिया में कुछ काला उसकी चाँद में भी लग गया था। उसने कहा कि आपको  सोरायसिस है और यह रोग अधिक सोचने की वजह से है। उसने मुझसे कमीज़ ऊपर करने के लिए कहा और पूछा कि आपको किस बात की चिंता है तो मैंने कहा कि देश में फाशीवाद आ गया है और देश ख़त्म होने वाला है। डॉक्टर हताशा के साथ कुर्सी पर बैठ गया और बोला कि इस तरह के नकारात्मक सोच की वजह से ही आपको त्वचा पर यह एरप्शन हो रहा है। कितने दिनों बाद हिंदुओं को उनका अभिमान वापस मिला। उसने कहा कि अगर आप मुझे फासीवादी कहना चाहते हैं तो मैं वही हूँ। इस बीच अपने लिए इस शब्द का उपयोग मुझे अच्छा लगने लगा है। उसने कहा कि उसके पास एक बड़ी लाइब्रेरी है। आइए, मैं आपको वहाँ ले कर चलता हूँ। मैं कुछ नहीं कह पाया और उसके पीछे चल पड़ा। उसकी लाइब्रेरी बेसमेंट में थी। वहाँ पहले से धीमी सी रौशनी जल रही थी। नीचे पहुंचकर उसने ज्यादा रौशनी के लिए एक स्विच दबाया। मैंने आगे जाकर एक किताब निकाल ली और उसे देखने लगा । मैंने कहा कि आपकी यह लायब्रेरी हिटलर के तहखाने की तरह है जहाँ उसने अपने को गोली मार ली थी। इसे सुनकर वह काँप सा गया। जब मैं सीढिय़ों से घर की तरफ आ रहा था तो उसने कहा कि आपने यह क्यों कहा कि वह हिटलर के तहखाने की तरह है। मैंने उसकी बात का कोई जवाब नहीं दिया। उसने केबिन में आकर मुझे दवा लिखी तो मैंने कहा कि अगर अधिक चिंता से त्वचा पर यह उभार होता है तो अब तो यह और बढ़ेगा। आपकी लाइब्रेरी ने मुझे डरा दिया। आपकी लाइब्रेरी में जाने के पहले मुझे अंदाज़ा नहीं था कि किताबें संदेह पैदा करने का काम करती हैं । वह चुप रहा। और मेरी तरफ देखता रहा। मैंने उससे कहा कि तुम मुझे त्वचा के इलाज की दवा दो मैं तुम्हें तुम्हारी आत्मा के इलाज की दवा दूँगा।  मैं एक काग़ज़ और पेन निकालकर यह याद करने लगा कि पिछली कुछ शताब्दियों में आत्मा के इलाज के लिए कौन से नुस्खे आज़माये जाते रहे हैं।

 

महबूब वाल्मीकि के एक शाम में दो प्रेम

महबूब वाल्मीकि जब घर से निकला तो घर से काफी दूर आ जाने के बाद उसे लग गया कि उसकी कमीज़ का एक बटन नहीं है। घर पर तो वह था । वह रेस्तरां में अपनी दोस्त से मिलने जा रहा था । रेस्तरां महंगा था और महबूब ने कहा था कि दोस्त अगर किसी और जगह मिल सके तो बेहतर होता। लेकिन दोस्त ने कहा था कि उसे इसकी फिक्र करने की ज़रूरत नहीं है। दोस्त उससे बेहतर ओहदे पर थी और लगता था कि उससे प्यार करने लगी थी । वह सुंदर थी, बड़ी तनख्वाह थी, ज़बान थी, चीज़ों को काबू करने का हुनर था। कब किस चीज़ को किस तरह से होना चाहिए इसे वह जानती थी । महबूब को लगा कि क़मीज़ का बटन ग़लत वक़्त पर टूटा था। उसे यह भी लग रहा था कि सारे लोग उसके ग़ायब बटन पर ही निग़ाह लगाये हुए थे। चित्रा को यह बहुत बुरा लगेगा कि एक महंगे रेस्तरां में वह ग़ायब बटन वाली क़मीज़ पहनकर चला आया था। वह मेट्रो से एक स्टेशन पर उतर गया और एक बाज़ार में यह देखने लग गया कि उसे सुई डोरा और कमीज़ का वैसा ही बटन मिल जाय। दुकान मिल गई । बटन और सुई डोरा भी मिल गया। अब उसे लगाया कैसे जाय। तो दुकान में सामान बेचने वाली लड़की ने कहा कि ठीक है मैं लगा देती हूँ। उसने ही कहा तुम जल्दी में हो तो कमीज़ मत उतारो। बटन लगाते हुए वह उससे बात करता रहा। हल्के रंग के पतले सूती के कपड़े पहने वह लड़की जादुई तकनीक से बनाई गई थी। इतनी सरल और इतनी खिल खिल कि जैसे स्वतंत्र रहने और करने का रूपक हो। वह उस लड़की की सांसों को महसूस करता रहा। उसने तागे को दाँत से तोड़ा और खूब हंसकर  कहा कि अब आप आज़ाद हैं। उसने सुई धागे वाली लड़की से कहा कि वह उससे प्रेम कर सकती है तो उसने कहा कि वह पहले से ही एक लड़के से प्रेम करती है। महबूब ने कहा कोई बात नहीं। महबूब ने लेकिन रेस्तरां में न जाने का फैसला भी किया । उसने ख़ुद से कहा कि कहा कि जीवन प्रबंधित परिहास और सुख की फेहरिस्त नहीं है। वह रवा ए आब है, आबशार और नदी है - रुकेगा तो तालाब बन जाएगा।  जीवन नियंत्रण और नियोजन का नाम नहीं है। जीवन एक महंगे रेस्तरां में खाने की सेल्फी नहीं है।

महबूब एक ही शाम को जब दो तरह के प्रेमों को खोकर मेट्रो और कहानी से बाहर आकर घर की तरफ लौट रहा था तो उसे ऐसे बहुत से लोग मिले जिनके क़मीज़ की बटनें टूटी थीं। क़मीज़ उनके शरीर में कब थीं और कब नहीं रहेंगी इसका कोई भरोसा नहीं था। ऐसा लगता था कि उन क़मीज़ों से पूरी सभ्यता का कालिख़, कलंक और कलुष पोंछने का काम लिया गया है। महबूब ने अपनी क़मीज़ के सारे बटन खोल डाले और उसे कंधे पर रख लिया। उसके आसपास चलते लोगों ने उसकी पीठ पर बहुत सारे निशान देखे। उनमें से एक ने उससे पूछना चाहा कि क्या नीले निशानों को ढंकने के लिए वह क़मीज़ पहनता है।

 

दो कवियों को मार दिये जाने या मर जाने का संगीन मामला

एक ढहते हुए धूल भरे शहर में उन्हें कविता पाठ के लिए बुलाया गया। दो कवियों को। उन्होंने एक पुराने हॉल में कविता पाठ किया जिसके पंखे बहुत पुराने थे और घरड़ घरड़ करके चलते थे कि जैसे वे चाहते हों कि कोई कविता ठीक से सुनी समझी न जाय। लेकिन दोनों कवियों ने पहले धीमी और बाद में तेज़ आवाज़ में कविता पढऩा शुरू किया। उन्होंने नींद न आने की बात की और इस बात की कि मनुष्य और मनुष्य के बीच का भेद निरर्थ और नकली है। दोनों कवियों में इस बात के गहरे संकेत थे कि लोग कविताओं यानी नैतिक वाक्यों से विरत हो रहे हैं। दोनों कवियों ने हार न मानने वालों की बात की और नई दुनिया की जिसे बहुत कम संख्या में आए स्याह चेहरे वाले श्रोताओं ने सुना। कविता पाठ के बाद चाय के साथ समोसे भी थे जिसे लोगों ने इतनी ललक से खाया कि लगा कि वे बहुत दिनों से भूखे थे । साथ में रखी इमली की चटनी से कुछ लोगों को लाख की याद आई जिसे पिघलाकर पार्सल पर गोलाकृति में टपका दिया जाता था और जिन्हें तोड़कर डाक से आये सिंगारदान, ट्रांज़िस्टर, घड़ी या मूर्ति या बुलवर्कर वगैरह निकाला जाता था।

वे दोनों कवि एक दूसरे की कविताओं की तारीफ बिना मन के करने लगे। लेकिन वे एक दूसरे से मिलकर खुश थे, इस बात को भी वे बहुत जज़्बे के साथ कहते रहे। एक कवि ने कहा कि समोसा खाकर हम बुद्ध के इस वाक्य के आविष्कार को समझने की कोशिश करेंगे कि दु:ख का कारण तृष्णा है। इसके लिए एक यात्रा करने की ज़रूरत थी । लेकिन समोसा ख़त्म करने के बाद कवियों को पता लगा कि कार केवल गेस्ट हाउस तक के लिए ही है। इस तरह अनीश्वरवाद या ऐसी ही किसी सत्ताशून्यता  को आयत्त करने का उनका कार्यभार अधूरा रह गया।

उन दोनों कवियों को एक गेस्ट हाउस में दो अलग कमरों में रुकवाया गया था लेकिन कविता पाठ से लौटने के बाद वे एक ही कमरे में आ गए और शराब  पीने लगे और सच बोलने लगे। तो एक कवि ने दूसरे कवि से कहा कि तुम्हारी कविता में रेटरिक क्या इसलिए है कि तुम्हारे पास अनुभव कम है। दूसरे कवि ने पहले कवि में कला की अधिकता की बात की। उसने यह सवाल भी खड़ा कर दिया कि क्या किसी फेकरी को छिपाने के लिए वह बिंबों के पीछे छिप जाया करता है। तनाव बढ़ता देख वे सहमति के लिए ज़मीन ढूँढऩे लगे।  दोनों ने ही यह माना कि कितने कम लोग आये थे कविता सुनने- फिल्मी गानों और मंचीय काव्य पाठों के दौर में उन्हें सुनता कौन है। इस पर एक कवि ने दूसरे कवि से कहा कि उसकी ठस अति गद्य  कविताओं ने कविता को पाठक विरुद्ध कर दिया था । दूसरे कवि ने इसके जवाब में कहा कि लोकप्रियता कला को नष्ट करती है। पहले कवि ने कहा कि श्रोताविहीन और दर्शक विहीन कला का क्या अर्थ। उन्होंने एक दूसरे पर मक्कार बौद्धिकता के आरोप लगाये और जब एक ने दूसरे को  मदरफकर और इसके हिंदी अनुवाद वाली गालियाँ देनी शुरू कीं तो एक ने पूछ लिया कि तुमने एक पत्नी के अलावा एक और परिवार चला रखा था कि नहीं। पहले ने कहा कि हरामखोर, प्रेम करने के लिए बहुत दुस्साहस और किसी बड़ी नैतिकता की ज़रूरत होती है।  दूसरे कवि ने पहले कवि पर नमकीन की प्लेट फेंकी जबकि पहले कवि ने दूसरे कवि पर शराब की आधी भरी बोतल। इसके बाद पहला कवि बालकनी में यह कहकर चला गया कि वह ग़लत भाषा में निरर्थ काम करता रहा। यानी हिंदी में कविता लिखने का ।

सुबह हुई तो पता लगा कि काव्य पाठ के लिए आये दो कवि बालकनी से गिरकर मर गये थे। पुलिस की जांच में उनके मरने की तीन चार वजहों पर तफतीश चलती रही। एक अनुमान यह था कि तीन चार लोग गेस्ट हाउस में करीब दो बजे रात में घुसे और उन्होंने उन कवियों को उनकी कविताओं की वजह से बालकनी से नीचे फेंक दिया जिसमें उन्होंने नई दुनिया को बनाने की बात की थी। कहा गया कि वे रात में गेट से घुस आने वाले फासिस्ट थे जो पिछले कुछ समय से नया समाज बनाने की बात करते रहे थे । दूसरी संभावना यह व्यक्त की गई कि कवियों ने कवि होने की निरर्थकता के दबाव में आत्महत्या कर ली। जो वाक्य आसपास के कमरे के लोगों ने सुने उससे यह  निष्कर्ष भी निकलता दिख रहा था कि एक कवि अपने को दूसरे से बड़ा बता रहा था। लेकिन फिर कम से कम एक कवि ने थोड़ी देर बाद बहुत अवसाद के साथ यह भी कहा था कि जिस संकट या बात या तकलीफ़ को एक कवि नहीं कह पाता उसे दूसरा कहता है। इसलिए कोई कवि बड़ा या छोटा नहीं होता और एक कवि दूसरे कवि की जगह भी नहीं लेता। और जो अमर नहीं है वह समर है। अपने संवाद में इस तरह के विवेक को शामिल करने के बाद भी उन्होंने एक दूसरे को  मारकर घायल क्यों किया कहा नहीं जा सकता। और यह संभावना तो थी ही कि वे बालकनी से कूद गये यह सोचकर कि कवियों को कवियों की तरह जीना ही नहीं मरना भी उन्हीं की तरह  चाहिए- एक रहस्य लोक से निकलकर वैकल्पिक आश्यर्यलोक की अतिरंजनाओं में छलांग लगाकर।

 

मैंने साढ़े चार ख़रब साल पुरानी पृथ्वी पर पैर रखे

साढ़े चौदह खरब साल की सृष्टि से निकलकर मैंने साढ़े चार खरब साल पुरानी पृथिवी पर पैर रखे और उतनी ही पुरानी धूप को मैंने त्वचा पर महसूस किया। गेट से मैं निकला और बत्तीस सौ साल पुरानी चाय पीने की हुड़क को ख़त्म करने के लिए मैं एक दुकान पर गया जिसकी दीवार पर करीब डेढ़ हज़ार साल पहले खोजे गये एक ईश्वर की खुन्नस लटकी थी- पूरे हिंदू पर्यावरण में अस्सी साल पहले आविष्कृत माता का फिल्मी तर्ज वाला भजन विपत्ति की तरह बज रहा था। आठ सौ साल पुरानी खड़ी बोली में मैंने चाय की पत्ती को लेने के लिए एक वाक्य बनाने की कोशिश की जिसमें समकालीनता को तलाशने की ज़िम्मेदारी मैंने तेरह साल की लड़की को सौंप दी जिसे चाय का पैकेट मुझे देना था। वह इस बात पर हाय तौबा तो बहुत करती और इंकार भी लेकिन सच यही था कि दीवार पर टंगे कैलेंडर में फडफ़ड़ाते ईश्वर की तक़दीर भी उसी के हाथ में थी।

 

दीवाने

कहा जाता है कि सूअर बिना किसी हुज्जत के कटते थे अगर उन्हें यह पता चल जाता था कि उन्हें इक्कीस साल की कंजी आंखों वाली रोज़ा मारिया रोस्ट करेगी।

 

 

दोस्तों के बीच देवी, देवीप्रसाद मिश्र हमारी भाषा के सबसे अनूठे कवि-कथाकार हैं। नौकरियों को काफी पहले अंतिम तौर पर छोड़ चुके हैं। अपनी क़िताबें नहीं निकालीं। लिखा इतना कि रचनावली बन जाए। कविता में अनूठे और प्रतिबद्ध गद्य के प्रयोगशील रचनाकार हैं। देवी के बिना 'पहल’ की यात्रा अधूरी रहती। देवी ने आधुनिक हिन्दी को समृद्ध किया है।

सम्पर्क- मो. 9250791030

 


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