चंबल के बीहड़ और दो बेड़नियों की कथा
नरेश सक्सेना
कविता कथा
नरेस सक्सेना हिन्दी की सभी कविता पीढिय़ों में गहरे रूप से सम्मानित हैं। उनकी रचनाओं के लिए लम्बी प्रतीक्षा करनी होती है। कागज़ पर बिना उतारे कविता पंक्तियाँ बरसों उनकी जुबान पर रहती हैं। वे बांसुरी और माउथ-आर्गन तन्मय होकर बजाते हैं। कविता पर लम्बी-लम्बी बतकहियों के लिए नरेश जी जाने जाते हैं; लगभग भिड़कर बात करते हैं। जब भोपाल में उन्हें 'पहल-सम्मान’ दिया गया तो उनके ग्वालियर के मित्र निदा फाजली वहाँ उपस्थित थे। कश्मीर से केरल तक नरेश जी ने अपने काव्य-पाठ किये हैं। वे सुंदर पाठ करते हैं। नरेश जी ने 'पहल’ को अपनी अनेक उपस्थितियों से यादगार बनाया हैं। पेशे से नरेश जी इंजीनियर रहे हैं। लखनऊ में स्थायी निवास।
एक थी गुल्लो, जो निरीह और निर्दोष गौरैया सी, बेरहमी से मारी गई और जिसे अब कोई नहीं जानता। और दूसरी थी पुतलीबाई, जिसे सारी दुनिया जानती है। जिसने बेरहमी का जवाब उससे भी ज्यादा बेरहमी से दिया और आतंक का पर्याय बन गयी। एक थी मुश्किल से पंद्रह की और दूसरी पच्चीस वर्ष की शायद। दोनों बेड़नियां थी, जिन्हें नाचने और गाने के सिवा और कुछ न आता था। पहल के पिछले एक अंक में 'चंबल एक नदी का नाम’ के पहले खंड में दोनों नाम आते हैं। गुल्लो के बारे में कुछ पंक्तियां दोहराई गई है, जो संदर्भ की निरंतरता के लिए जरूरी थी। बाकी घटना आगे की है। अब यह कितनी कथा है और कितनी कविता यह कहना मुश्किल है। इसका दूसरा खंड तो अभी मैं लिख ही रहा हूं...
गुल्लो बेड़िन (उसकी मा को डायन बता कर मार दिया गया था )
छतियन से नै फूटी दूधन की धार ओठों से नै फूटी कजरी मल्हार पथरन पर फूटें ज्यूँ कोरी गगरियाँ फूट गए उनके कपार
चौदह की या पन्द्रह की गुल्लो बेडिऩ ने जब देखा पूरी पंचायत हत्यारी है और अगली उसकी बारी है तो जान बचा कर भागी
कुछ कहते गुल्लो नागिन थी कुछ कहते बस, नचने वाली बैरागिन थी कैसी दाग़ी, कैसी बाग़ी कहते हैं डाकू लाखन ने पीछे से और पुलिस ने उसके सीने पर गोली दागी
भागी गुल्लो चंबल के बीहड़ भरको में गिरती-पड़ती, भूखी-प्यासी खाई-खाई, खंदक-खंदक अंतत: हुई जाने कैसे रूपा, लाखन के गिरोह की बेबस बंधक फिर भी खुश थी उसने सोचा अब हूँ निर्भय जिसके रक्षक डाकू हों उसको किसका भय
पर एक शाम हो गई बहस उसको लेकर दोनों को लगता गुल्लो सिर्फ उसी की है खतरा गिरोह के बंटने का उठ खड़ा हुआ गुस्से में तब डाकू लाखन आपा खोकर उठ खड़ा हुआ चिल्लाकर बोला दे मेरी बंदूक अभी मैं इसका किस्सा खत्म करूं सन्नाटा सा छाया तत्क्षण
गुल्लो उस क्षण थी नाच रही तन्मय होकर सहृदय एक बागी ने खाकर तरस इशारा किया जान के खतरे का गुल्लो भागी सन्नाटे और अंधेरे में झरबेरी और बबूलों के पीछे छिपती गुल्लो भागी लेकिन पीछा करते लाखन ने घुंघरू की हर छन-छन पर गोली दागी... झुटपुटा शाम का था बदली थी कुछ बूंदा-बांदी भी थी लाखन की आंखें खोज रही थी गुल्लो को जो छिपती हुई बबूलो औ झरबेरी में भगती जाती थी कमर झुकाकर दबे पांव लेकिन, पांवों के घुंघरू रह रह बजते थे
गहराते अंधियारे के संग गुल्लो को बचने की आशा भी गहराती जाती लेकिन कपड़े उसके कांटों के संग उलझते थे लाखन की चौकन्नी आंखों को रह रहकर गुल्लो की बस धुंधली छाया ही दिखती थी अंधा धुंध गोलियां लाखन दाग रहा था हर हिलती झाड़ी पर और बबूलों के पीले फूलों से भरी झूमती शाखों पर सुनकर आवाज गोलियों की बौछार पुलिस के गश्ती दस्ते ने कर दी गोलियां शांत हो गई और कुछ देर बाद घुंघरू बजने की आवाज़े भी शांत हो गई खून से लथपथ गुल्लो मिली तड़पती हुई पुलिस को कहते हैं तब पशोपेश में पड़े पुलिस के दस्ते को कुछ समझ न आया क्या जवाब देंगे कि तुम्हारी ओर भागती हुई निहत्थी लड़की पर गोली आखिर दागी ही क्यों अंतत: यही तय पाया इसको यहीं शांति से जल समाधि देकर किस्से को ख़त्म करें
जब अगले साल नदी सूखी तो मिला एक कंकाल कि जिसके दोनो पावों में घुँघरू थे यह गुल्लो थी सब जान गए लेकिन शिनाख्त के लिए नही कोई आया
उस पर ना कोई लेख नहीं अभिलेखों में उल्लेख पुलिस का कहना है किंवदंती है लेकिन बेसली नदी वाली राहों से राही बचते हैं कहते हैं सारी रात वहां गुल्लो के घुंघरू बजते हैं।
गुल्लो बेड़िन के लिए एक गीत
पिया जिन जइयो नदिया के तीर नदी में घुँघरू बजें
जियत डुबो दयी गुल्लो नदी में तड़पे जैसे मछरिया नदी में घुँघरू बजें
चुन चुन देह मछरियन ने खाई जिन डारो नदिया में जाल जाल में घुँघरू में बजें जल पाखिन ने खायीं मछरियाँ पंछी उड़ें जो गगन में गगन में घुँघरू बजें नादिया से जल भर लायी गगरिया गगरी जो छलके डगर में डगर में घुँघरू बजें।
पुतली बाई
(डेढ़ हाथ भर पुतली नाचे बीस हाथ भर घाघरा तीस कोस परछाईं नाचे कंपे भरतपुर आगरा...)
हरी-भरी धरती के नीचे खौलता हुआ लावा फूटता है, तो रास्ते में आने वाली हर चीज को भस्म करता संसार की सबसे सख्त चट्टान इग्नियस में बदल जाता है। इस लावे की न कोई दृष्टि होती है, न कोई दिशा। भूगोल के दबाव में वह पानी की तरह नीचे और नीचे ही बहता है क्या इसे आप लावा का पतन कहेंगे...
मादर.. कहकर गुर्रायीं वे उस गुर्राहट में उनकी पिछली चीख़ें थीं रिरियाना था, सिसकियाँ, बिलखकर रोना था उन फूलों को कुसुमा, पुतली को, फूलन को देखो क्या से क्या होना था (मुरैना बस स्टैंड पर बच्चों को गाते सुना मैंने) चाहे रोना दिन रैना पर जाना न मुरैना लेके रूप का खजाना लूटे डाकू सुल्ताना तो खजाने पे खजाना पुतली नाचती तो एक-एक रुपैया के लाने धरती तक झुक-झुककर करती जुहार सौ-सौ बार जैसे हर दर्शक उसका भरतार, और वह उनकी जनम जनम की कर्ज़दार पुतली घूमती ज्यों, बाढ़ आई नदी में भंवर और आंधी में चक्रवात थिरकती तो रोम-रोम दर्शकों के थरथराते थमती तो थम जाती सांसें जब भाई के सीने पर रखकर बंदूक सुल्ताना डाकू पुतली को उठा ले गया तो पुलिस - पत्रकारों ने इसे एक डाकू और नर्तकी की प्रेम-कथा कहकर प्रचारित किया
बीहड़ के उस मृत्युलोक में प्रवेश की राहें हज़ार थीं किंतु एक भी नहीं लौटने की फिर भी जाने कैसे पुतली वापस लौटी लेकिन तब तक सुल्ताना के और पुलिस के डर से उसको नृत्य-गान के न्योते मिलने बंद हो गए बंद हो गए पड़ोसियों तक के दरवाज़े भूखों मरने तक की नौबत
पुतली दहकी अंगारे सी लाल हुई फिर राख हो गई जग के लेखे धीरे-धीरे लाश हो गई कुत्तों, गिद्धों और चील कौवों ने आकर घेरा डाला और चीथना शुरू कर दिया
माने आप न माने लेकिन एक रात यह हुआ कब्र से बाहर निकली लाश उतारा कफ़न और चंबल के बीहड़ में जाकर अदृश्य हो गई
आख़िर समझ लिया पुतली ने भूखों मरने, बलात्कार और बर्बरता से तो चंबल के बीहड़ बेहतर झुकी कमर जो तानी तो बंदूक तानकर पुतली ने दतिया में मारे ग्यारह मुखबिर एक बार में धोखा देकर जब कल्ला डाकू ने सुल्ताना को मारा तो पुतली ने कल्ला को भी ढेर कर दिया फिर गिरोह ने मान लिया पुतलीबाई को अपना मुखिया
पुतली बोली अब राह यही हो फूलों सी या ख़ून सनी यह दुनिया सिर्फ़ नहीं मर्दों के लिए बनी
डाकुओं के गिरोह में ये लड़कियाँ, बच्ची से किशोरी और किशोरी से युवती कैसे हुई होंगीं। कैसे पहनी होगी फूलों की जगह कारतूसों की माला। पुतली की लाश मैंने देखी थी, ग्वालियर कम्पू के मैदान में धूल उड़ रही थी। मेरी साँस फूल रही थी। मैंने दूर से उसे देखा। मित्र जगदीश तिवारी ने उसे पास से देखा था। दुबली, पतली, सांवली, दूर से पंद्रह-सोलह की लगती थी। हो चाहे जितने की। खाटसे बाँधकर, ट्रक में खड़ाकर दिया था। ताकि लोग पुलिस की सफलता देख सकें। उसके चेहरे पर तेज रोशनियाँ पड़ रही थीं लेकिन उसकी आँखें खुली की खुली थीं, वो गर्दन हिला नहीं सकती थी। आंखों पर बालोंकी लटें आ गयी थी, लेकिन वो हटा नहीं सकती थी। उसका सिर्फ एक हाथ था, वह भी रस्सी से बंधा हुआ। एक हाथ पहले से कटा था। पता नहीं एक हाथ से बंदूक कैसे चलाती होगी। कहते हैं आखिरी वक़्त में उसने बन्दूक फेंक दी थी। वह क्वारी नदी में कूद गई थी और अपना हाथ ऊपर उठा दिया था।
पुतली मुरैना के बरई गाँव की थी। वहीं जहां के राम प्रसाद बिसमिल थे आज भी पूछने पर कहते हैं लोग पुतली थी पानीदार
(पचास पैंसठ वर्ष बीत गए हैं फिर भी ललितपुर झाँसी और ग्वालियर में डाकुओं की लाशों के प्रदर्शन के दृश्य, मेरी कल्पना में धुंधले और गड्ड मड होने के बावजूद दु:स्वप्न की तरह झिलमिलाते हैं)।
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