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अप्रैल 2021

कृष्णमोहन झा की कविताएँ

कृष्णमोहन झा

 कविता

 

 

 

 

ओ मेरी पृथ्वी

 

ओ मेरी पृथ्वी

यदि मेरी जिह्वा पर मेरे कंठ में मेरी धमनी में

हवा सी सरसराती

पहाड़ी नदियों-सी कलकल करती बिछलती

या तडि़त सी तमकती कौंधती उज्जर झकझक भाषा होती

तो मैं तुम्हारी दिव्यता

और तुम्हारे गर्भ में पल्लवित सदा

जीवन-स्रोत की महिमा का बखान कर पाता

और तुम्हारे पार्थिव आलोक के शीतल वृत्त के नीचे

शायद अर्जित कर पाता थोड़ी अमरता

 

पर मैं

स्वयं अपनी भाषा से पराजित

एक

बधिर

कवि

हूँ

मात्र

तुम्हारी सर्जना और सम्मोहन के आगे

विनीत और अवाक्

 

मगर जब तुम्हारे हिरन्यमय अंक में उन्मत्त

इस जीवन-प्रपात को

असंख्य रंगों अनगिनत रूपों में नृत्य करता हुआ पाता हूँ

 

तो अपनी विकल आकांक्षा के संघटित बिन्दु पर आकर

कृतज्ञता के आवेश से

तिनका-तिनका तिनका हो जाता हूँ

 

जी करता है अपनी मुट्ठी में बटोरकर ख़ुद को

स्वयं छींट आऊँ वहाँ-

रक्त को अनगिनत रंगों में सतत अनूदित करते

उन प्राचीन जड़ों के पास

जहाँ निरंतर अंकुरित होने की अनंद प्रक्रिया में है आकाश

लेकिन दूसरी तरफ

इस दुनिया में लगातार पसर रही कुरुपता को लेकर

तुम्हारी अप्रत्याशित सहनशीलता को देखते हुए हताश हो जाता हूँ

 

समझ नहीं पाता

कि तुम्हारी गोद में बैठे हुए जो लोग

दूसरे के खेत का पानी

रातोंरात मेड़ काटकर अपने खेत में पसा लेते हैं

आखिर क्यों लहलहाती ही रहती है उनकी फसल?

 

जो लोग गँड़ासा उठाकर और फरसा भाँजकर

किसी निर्बल के आम का पेड़ कटवा लेते हैं

गाय खुलवा लेते हैं

जेठ महीने में भी उनके आँगन में क्यों

अनाज की तरह बिछी रहती हैं

किसी फलदार वृक्ष की मीठी छाया?

 

कनपटी में दोनाली सटाकर

जो लोग किसी पंद्रह बरस की बच्ची को उठा ले जाते हैं

किसी निरीह की गरदन उड़ाकर

उसकी विधवा की ज़मीन हड़प लेते हैं जो

आख़िर क्यों उनके घरों से इस तरह खिलखिलाने की आवाज आती है?

हर ड्योढ़ी हर चौराहा हर घाट हर बाट पर क्यों हमेशा दुत्कारा जाता है सत्य

तुम्हारी हथेली पर

रोज़-ब-रोज़ क्यों कलंकित होती रहती है उसकी काया

जिधर अन्याय है क्यों उधर ही संघनित रहती है शक्ति?

समझ नहीं पाता

है तुम्हारी यह कैसी माया!

 

जबकि तुम अपनी छायाओं को समेट ले सकती हो उनके ऊपर से

जो छुपकर दूसरों के पौधे की जड़ों में पेशाब करते हैं

लेकिन तुम देखती रहती हो टुकुर-टुकुर

जबकि तुम अपने मीठे जल से वंचित कर सकती हो उन अपराधियों को

जो दूसरों के कुएँ में जबरन ज़हर घोलते हैं

लेकिन तुम उदासीन रहती हो

जबकि एक बार तुम अपने शरीर को थोड़ा हिला दो

तो वे नेस्तनाबूद हो जाएँ

जो दूसरों की जिह्वा पर अपना घर बनाते हैं

लेकिन तुम कुछ कहती नहीं

करती नहीं कुछ

निरीह गाय की तरह चुपचाप देखती रहती हो

और अत्याचार की वैतरणी तुम्हारी देह पर अनवरत बहती रहती है..

 

तुम्हारी इस अनैतिक चुप्पी को देखकर

खिन्न रहता हूँ अक्सर

मन करता है कभी-कभी

कि बहिष्कृत कर दूँ तुम्हें अपने जीवन से

नहीं तो उठाकर फेक दूँ एक दिन

इस ब्रह्माण्ड से बाहर कहीं किसी महाशूण्य के अतल में

मगर फिर यह सोचकर वेदना से भर जाता हूँ

कि तुम पहले से ही कितनी अकेली हो!

अपने पिता के खरबों कोस दूर

किसी अनकिए अपराध का कोई महादंड भुगतती हुई

चाँद जैसे भाई के साहचर्य से वंचित

किस तरह करोड़ों वर्षों से प्रतिक्षण मायके का चक्कर काटती हुई तुम

अपने ठिठुर एकांत में बेबस बिसूरती रहती हो

 

और तब इच्छा होती है मुझे

कि अपनी नन्हीं बेटी की तरह उठाकर तुम्हें गोद में रख लूँ

तुम्हारे मूँ-हाथ धुलवा दूँ और फ्राँक बदल दूँ

और कंधे पर लेकर धीरे-धीरे थपकी दूँ तुम्हें

 

ओ मेरी बेटी

मैं अपने पास लिटाकर तुम्हें

रंग-बिरंगी परियों की कहानियाँ सुनाना चाहता हूँ

मैं अपनी बरौनियों के घोंसले में तुम्हें

जुगनू की तरह खोंसकर रखना चाहता हूँ

इस दुनिया के तमाम पागलपन से बचाकर तुम्हें मैं

अपनी आँखों के कोर में छुपा लेना चाहता हूँ

 

लोग

 

प्रेम से अनभिज्ञ पुरुष

विवाह कर लेते हैं

सुबह दफ्तर जाते हैं बैग में टिफिन बॉक्स लेकर

और शाम होते-होते

झोले में सब्जियाँ ख़रीदते हुए वापिस आते हैं

कुर्ता-पाजामा पहनकर चाय पीते हैं

समय पर खाना खाते हैं

टीवी चैनलों का आनन्द उठाते हैं

और खुर्राटे भरते हुए सुख से सोते हैं

प्रेम से वंचित स्त्रियाँ

एक दिन ब्याह दी जाती हैं अनभिज्ञ पुरुषों से

दाम्पत्य के आरंभिक दिनों वे

पति के साथ रिक्सा पर सवार होकर

फ़िल्म देखने जाती हैं

जब-तब आलू की भुजिया और पराठे बनाती हैं

स्वेटर बुनती हैं

बच्चे जनती हैं

और धीरे-धीरे धार्मिक अनुष्ठानों में डूब जाती हैं

 

अनभिज्ञ और वंचित लोग

लड़ते-झगड़ते और सुलह करते हुए

एक आदर्श परिवार बनाते हैं

जिसमें टीवी सोफा फ्रीज़ मिक्सी इत्यादि सुख के तमाम साधन

अपनी-अपनी भूमिका निभाते हैं

 

जो स्त्री-पुरुष प्रेम करते हैं

और विवाह करते साथ-साथ जीने लगते हैं

धीरे-धीरे उनका पीछा करता हुआ

एक अव्यक्त समय उनके बीच भी पहुँच जाता है-

जहाँ तक आते-आते थक जाती है भाषा

और सुख का कोई साधन उनकी रक्षा कर नहीं पाता है

 

अकेले में

अपनी यात्राओं पर

चाहे-अनचाहे विचार करते हुए वे

उपलब्ध दृश्य की ओर चुपचाप देखते रहते हैं

 

दो पाटन के बीच

 

श्रीराम सेंटर के आगे

परिचित पेड़ों के नीचे और मित्रों के बीच

पेवपेंट पर बैठकर चाय पीते हुए बहस करता हूँ

अकादमी की लाइब्रेरी के चक्कर लगाता हूँ जब-तब

'त्रिवेणी’ के इर्द-गिर्द रंगों को चहलकदमी करते देखता हूँ

किसी नाटक के प्रकाश और अंधकार की वीथियों में चलता हुआ

जीवन के किसी अंतरीप में रहता आबद्ध

कि सुदूर गाँव से

धनिया के पत्ते की आती हुई सुगंध मुझे अधीर कर देती है

 

अपने गाँव में रहता हूँ-

तालाब में गरदन तक धँसकर पशु की तरह नहाता हूँ

मेड़ों पर टहलता फिरता हूँ हरे आदमी की तरह

साइबेरिया के अतिथि पक्षियों के समवेत कलरव के नीचे

रात के मचान पर

स्वाधीन मनुष्य की तरह सोता हूँ

कि सुदूर महानगर के किसी सभागार से

धीरे-धीरे ऊपर उठता हुआ प्रिय गायक का आलाप

मुझे बेचैन कर देता है

 

मैं अब क्या करूँ ईश्वर

मुझसे दूर

दूसरे किनारे पर ही क्यों बंधी रहती है मेरी नाव

 

सिर्फ़ मेरी नग्नता

 

जिस दिन मैं सफ़ेद कुर्ता-पाजामे में निकलता हूँ

परिचित लोग मुस्कुराते हुए कहते हैं-

आज तो पूरा नेता दिख रहे हैं आप

 

हरे कुर्ते में देखकर प्रोफ़ेसर वर्मा कहते हैं मुझे-

झा साहब, ईद-मिलन के लिए कहीं निकले हैं क्या?

 

लाल कुर्ते में मुझे देखकर मिश्रा जी मज़े लेते हैं-

वाह! आज तो सच्चे कॉमरेड लग रहे हैं कृष्णमोहन जी

 

शानदार नीला कुर्ता पहनकर अपने विभाग जाता हूँ

तो चौहान साहब चुस्की लेते हुए कहते हैं-

 

क्या सर, लगता है बहुजन समाज ज्वाइन कर लिया है आपने!

केसरिया कुर्ते में तो देखते ही मुझे

कुछ मित्र सीधा बाण चलाते हैं-

क्या साथी, आपके भी बदलने लगे हैं अब रंग...

 

मन ही मन तंग होकर

ऐसी उदार टिप्पणियों को मुस्कुराकर झेल लेने के अलावा

मेरे पास दूसरा कोई चारा नहीं है

 

रोज़-रोज़ सिकुड़ती इस दुनिया में

एक-एक कर छीन लिया गया है मुझसे

मेरा प्रिय रंग

मेरे पास बच रही है अब

सिर्फ़

मेरी

नग्नता

 

 

1968 को मधेपुरा बिहार के जीतपुर गांव में जन्म और उच्च शिक्षा दिल्ली और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में। वर्तमान में असम विश्वविद्यालय में हिंदी के प्रोफेसर। 'समय को चीरकर’ एक ही कविता संग्रह प्रकाशित। एक 'एकटा हेरायल दुनिया’ मैथिली कविताओं का संग्रह।

ये कविताएँ बीस साल पुराने आग्रह और इंतज़ार के बाद 'पहल’ को अपने आखिरी अंक के लिए प्राप्त हो सकीं।

सम्पर्क- मो. 9435073896, सिलचर

 


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