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अप्रैल 2021

हरीशचन्द्र पाण्डे की कविताएं

हरीशचन्द्र पाण्डे

कविता

 

 

 

 

 

डूबना एक शहर का : प्रसंग टिहरी

 

अपने डूबने में यह हरसूद का समकालीन था

शहरों की बसासत के इतिहास को देखें तो

यह एक बचपन का डूबना था

 

इतिहास से बाहर जाएँ, जैसे मिथक में

तो यहाँ एक मुक्ति दा नदी बाँधी जा रही थी

और यह डूबना उसी का अभिशाप हो सकता था

 

यहाँ हर चीज़ अपने ही अंदाज़ में डूब रही थी

भरी हुई बाल्टियां, ड्रम, जग

समाधि जैसी ले रही थीं

ख़ाली बर्तन ना ना ना करते हुए डूब रहे थे... गुडूप

 

पानी की उठती दीवारों में वनस्पतियाँ छिनी जा रही थीं

आहिस्ता-आहिस्ता

 

जो जितना उम्रदराज़ था उसके उतने ही अधिक दिन डूबे

जिसके जितने अधिक दिन डूबे

उसकी उतने भर अधिक आयतन की यादें उभरीं

प्रारंभिक पाठशाला की दीवारें अधिक उम्रदराज थीं

बनिस्बत डिग्री के

जाने कितनी तबील उम्र लिए बैठा था श्मशान

सबसे पहले वही डूबा

 

आरतियाँ अजान अरदास सब डूबने में एक साथ थे

आंदोलनों की दरियां डूब रही थीं धूल के साथ

ज़माने से नीचे-नीचे बहती आई नदी ने

पुल के गुरुत्व को लाँघ लिया था

 

वह आदमी जो इकत्तीस जुलाय दो हजार चार को

शहर छोड़ कर गया बताया गया

उसकी पीठ देखने वाली कोई आँख न थी

सिवाय एक घंटाघर के

जो अपने डूबने से पहले

सबके डूब-समय का इंदराज करता रहा था

 

बाँध एक विचार था दो फाड़

कहना मुश्किल था

यह ख़ुशहाली का ऊपर उठता हुआ स्तर था

या एक दुखांत नाटक का रिहर्सल

 

बहरहाल

सावन-भादो इसे नगाड़े की तरह बजाते हैं

चाँद इसकी सतह पर जमकर स्केटिंग करता है

 

अभी यह शिवालिक की गोद में बैठा समुद्र का शावक है

 

पर्यटक आँखें, अपलक देख रहीं हैं इसका जल विस्फार

और विस्थापित आँखें मुँदकर

अतल में सोई अपनी सिंधु घाटी को देख रही हैं

 

तिब्बत-बाज़ार

 

गया तो था एक गफ्फ ऊनी मफलर के लिए

पर वहां ख़ुद को हींग खोजते हुए पाया

 

क्या ख़ुशबू भी उम्रदराज हुआ करती है?

 

मैं अभी एक लामा औरत की गोद में बैठे बच्चे में अनूदित हो गया हूँ

जो अपनी रुलाई से मां को हलकान किए है

मैं उसकी प्लास्टिक खिलौना-सीढ़ी से

उतर आया हूँ समय के बेसमेंट मे

जहां माँ अपना अंतिम हथियार इस्तेमाल करते हुए कह रही है मुझसे

चुप हो जा, नहीं तो लामा पकड़ ले जाएगा

 

मैं पीठ पर बँधा बच्चा हो गया हूँ

और लामाओं के आने की ऋतु में, फिर कभी नहीं रोता

 

हेमंत की निकासी में उनकी आमद छुपी रहती है

उनकी आमद में छुपी रहती है हींग

सारे बच्चे जब सोच रहे होते हैं कभी न जाए हेमंत

सारी रसोइयां बेसब्री से उनका इंतज़ार कर रही होतीं

 

सीमांत पर जब कोई लाया डमरू बजाता दिखता

गांव खुशबू की दोशाला ओढ़ लेता

 

लामा हर साल आते मौसम विशेष पर

पेड़ों पर वसंत टाँक कर चले जाते

 

एक बार वे बेमौसम आ गए झुंड के झुंड

जैसे पक्षी विहार में किसी ने गोली चला दी हो

 

उनके दुर्दिनों ने सारे खंडहरों को आबाद कर दिया था

वहां जब-जब उनकी सिसकियों की दीवारें उठतीं

बच्चों की मुस्कान-छतें उन्हें ढक लेतीं

लो थो चंद्रसौर पंचांग फडफ़ड़ाते रहे इस बीच

... यह बज़ार उन्ही के जीने का विस्तार है

मुझे एक मफलर ख़रीदनी थी यहां

पर मैं हूं कि हींग की ख़ुशबू से बाहर नहीं आ पाया हूँ

 

एक बुजुर्ग ऊन के गोले बना रहा है, दत्तचित्त

मैं उसे कहीं से उधेडऩा चाहता हूँ

उसके नज़दीक जाकर हींग की ख़ुशबू के बारे में पूछता हूँ धीमे से

वह मुझे तिब्बत के बारे में बताने लगता है

 

इसीलिए

 

बना तो था अक्षरों से ही

पर वह शब्द अब काट दिया गया है

 

काटा भी गया तो इस तरह कि

वह सीखचों के भीतर चला जाए

यात्राएँ शाखों की तरह काट दी गईं

 

ख़ारिज करने का यह कितना नायाब शिल्प है

 

कहीं इसीलिए तो नहीं

कि कोई चीन्ह न ले

कि यह कहीं बेहतर शब्द था उससे

जो कथा में अब राज कर रहा है प्रकाशित हो-होकर

 

कोई नई बात भी नहीं है यह

जाने कैसे-कैसे ज़हीन चेहरे सीखचों के पीछे खड़े हैं

 (रवीन्द्रनाथ ठाकुर पर अशोक भौमिक के एक लेख को पढ़ते हुए)

 

वे जब भी आए

(करौना काल में प्रवासी मज़दूर)

 

पूर्वी तटों से आए हों या फिर पश्चिमी

जब भी आए वे

वे मानसूनों की तरह आए भरे-भरे

होली-दीवाली-ईद की तरह आए अपने वापसी टिकटो के साथ

सबकुछ लुटाकर कभी नहीं आए

 

इस तरह कैमरे पहले कभी नहीं आए उनके सामने

किसी द्रोण ने नहीं देखा पहले

घूमती पृथ्वी के भीतर तेज़-तेज़ डगें भरती स्त्री को

जिसके हाथ उस सूटकेस के पहियो को गति दे रहे थे

जिसके ऊपर, चलते-चलते थका एक बच्चा

नींद की एक फाँक चुरा रहा था

 

उनकी दूरियां सैकड़ों-हज़ारों किलोमीटर की थीं

उन्होंने ज़मीन को मेज़ पर बिछा हुआ नक्शे का काग़ज़ मान लिया

और हज़ार मीटर को एक सेंटीमीटर

 

उन्हें अपारावार देख

घबरा रहे थे पुल

जबकि उनकी कुल जेबें ख़ाली थीं

उनके पास दिलों के अलावा कोई भारी सामान न था

 

अभी राज्यों का बर्ताव देशों जैसा था

जिलों का राज्यों सा

ने अभी अपने गाँवों के बाहर शिविरों में पड़े हैं

अपने-अपने घरों को निहारते

 

घर और उनके बीच

ध्रुवों सा एक लंबा सूर्यास्त है

 

 

हरीशचंद्र पाण्डे हमारे प्रमुख और वरिष्ठ कवि। पहाड़ों की दुनिया से आकर लम्बे समय से इलाहाबाद में बसे हैं।

सम्पर्क: मो. 9455623176

 


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