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मार्च - 2020

बदलते गांवों में राजनीति और स्त्री

सूरज पालीवाल

मूल्यांकन    

        

अग्निलीक- हृषीकेश सुलभ

 

 

 

'अग्निलीक’ हृषीकेश सुलभ का पहला उपन्यास है। उनके कई कहानी संग्रह इससे पहले प्रकाशित हो चुके हैं। वे रंगमंच से गहरे रूप में जुड़े हैं । 'मैला आंचल’ के नाट्यांतर के साथ उन्होंने भिखारी ठाकुर के 'विदेशिया’ का आधुनिक संदर्भों में प्रयोग किया है । शूद्रक के 'मृच्छकटिकम’ से लेकर रवींद्रनाथ ठाकुर की कई कहानियों को नाट्यरूप दिया है। नाटक दृश्य विधा है, इसलिये वह कठिन भी है, उसका सीधा संबंध जनसमूह से है। इस परिचय के बाद मैंने जब उनका यह उपन्यास पढ़ा तो मेरा विश्वास दृढ़ हुआ कि रंगमंच से जुड़ा व्यक्ति उपन्यास की वृहद् कथाभूमि को संभालने में सक्षम हो सकता है। 'अग्निलीक’ की कथा के मूल में बदलता ग्रामीण जीवन है। यह आजादी के तुरंत बाद के भारत का गांव नहीं है, बल्कि आजादी के चार दशक के बाद के भारत का गांव है, जो पांच पंचवर्षीय योजनाओं के परिणाम देख चुकने के बाद भी बहुत नहीं बदला है। यदि कुछ बदलाव आये भी हैं तो सत्ता पर बैठे लोगों में आये हैं, जिन्होंने पंचवर्षीय योजनाओं का लाभ सर्वाधिक रूप से उठाया है, जिसके संकेत 'मैला आंचल’ और परती:परिकथा’ में रेणु बहुत पहले दे चुके हैं। हृषीकेश सुलभ ने आजादी के चार दशक के बाद के भारत को एक बार फिर एक ग्राम पंचायत समिति को प्रातिनिधिक रूप में चुनकर उसका सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक विश्लेषण किया है। यह कार्य कठिन था, गांव जिस प्रकार बदले हैं उस बदलाव को गांव से गहरे तक जुड़ा व्यक्ति ही पहचान सकता है। सरकारी परियोजनाओं में काम कर रहे अधिकारी-कर्मचारी या एनजीओ में काम कर रहे लोगों के लिये यह संभव नहीं है। गांव के कुछ व्यक्तियों से मिलकर, गांव में पक्के मकान, सड़क और खड़ंजा, घरों में रखे ट्रेक्टर या खेतों में बिजली से चलने वाले नलकूप देखकर गांव के विकास का आंकड़ा सरकारी आंकड़ा ही होगा ।

 'अग्निलीक’ में किसी जमींदार का वर्णन नहीं है, जिसके आसपास गांव की दुनिया अब-तक घूमती रही है। यह सुविधाजनक स्थिति भी है इसलिये यह देखना जरूरी है कि जातियों में बंटे गांव में अब परंपरागत जातियों की स्थिति क्या है? 'ब्राह्मणों के पास खेती कम थी। पहले भी अधिकांश परिवारों का जीवन जजमानों के भरोसे कट रहा था। और आज भी लगभग वही स्थिति थी। कुछ परिवारों के बच्चे पढ़-लिखकर बाहर निकल गये थे, पर जो बचे थे आज भी पोथी-पतरा और शंख-घड़ीघंट के भरोसे जी रहे थे। पर बात अब पहले वाली नहीं थी। राजपूतों का जीवन सबसे विचित्र हो गया था। पूर्वजों की जंग लगी प्रतिष्ठा और गुरूर का बोझ लादकर जीवन की गाड़ी खींचने में कमर टूट रही थी। शादी-ब्याह और मरनी-जीनी में खेती बिकने लगी थी । जवान लड़कों की निकम्मी और जाहिल फौज रोजी-रोजगार और खेती-किसानी के बदले गांजे की चिलम में उलझी हुई थी। कोई ऐसा परिवार नहीं था, जो कलह में आकंठ डूबा हुआ नहीं हो। जवान बेटे बूढ़े बाप को पीटते और बहुएं सास को भात के एक-एक कौर के लिये तरसातीं। पूरा बबुआन टोला गंजहों से भरा हुआ था । बात-बेबात झगड़ा-फसाद और फौजदारी आम बात थी।’ तथा 'लगभग बीस घरों का कायस्थों का टोला उजड़ चुका था। कायस्थों की अस्सी प्रतिशत भूमि बिक चुकी थी। अधिकांश खेती यादवों और अंसारियों के हाथ थी। जो थोड़ी-सी खेती बची थी उसकी उपज लेने वाले बहुत दूर जाकर बस गये थे। केवल डीह बची थी। मकान ढह चुके थे या ढह रहे थे।’ यह गांव की जातिगत स्थिति है, जिसमें दलितों का केवल टोटहा टोला है, जिसकी उपस्थिति गांव में लगभग नदारद है। मुसलमानों के घर मनरौली में हैं, जो देवली ग्राम पंचायत का ही हिस्सा है या कहें कि दोनों गांवों को मिलाकर एक पंचायत बनती है। गांव का पूरा सामाजिक राजनीतिक चक्र जातियों के इर्दगिर्द ही घूमता है। यदि कोई यह कहे कि जातियां समाप्त हो रही हैं तो उसे भारत के गांवों का गहराई के साथ अध्ययन करना चाहिये, जहां जाति आज भी निर्णायक स्थिति में है तथा जहां व्यक्ति की पहचान उसकी जाति को समाहित करके जानी जाती है। तभी तो बहुत से राजनेताओं की जमीनी हकीकत जातियों में ही छुपी हुई है। वे अपनी जााितयों के नेता पहले हैं बाकी जनता के बाद में। 'अग्निलीक’ के लीलाधर यादव जो चार दशकों से पंचायत के मुखिया बने हुये हैं, उसके मूल में जातीय समीकरण ही हैं, जिसे साधने में वे अब-तक सफल रहे हैं ।    

'अग्निलीक’ में अनेक घटनाएं हैं और खूब सारे पात्र।  हृषीकेश सुलभ की दृष्टि बिहार के सीवान जिले के गांव देवली और उसके आसपास के गांवों की छोटी से छोटी घटना पर केंद्रित है इसलिये बहुत सारी घटनाएं और उनसे जुड़े हुये पात्रों का आना स्वाभाविक ही है। गांवों में कितना ही इकलखोरापन आ जाये, कितना ही हम भूमंडलीकरण की बात कर लें और कितना ही टी.वी. और मोबाइल को कोस लें लेकिन गांव में अब भी सामूहिक जिंदगी बची हुई है। यह सही है कि वह सामूहिकता पहले की तरह नहीं रह गई है लेकिन जो है वह भी अपने आप में पर्याप्त है। इसलिये छोटी-छोटी घटनाएं भी सामूहिक चर्चा और सामूहिक प्रभाव के कारण पूरे गांव और आसपास के गांवों में अपनी बतकही के साथ लोगों की जुबान पर होती हैं। मसलन उपन्यास की शुरूआत शमशेर सांईं की हत्या की सूचना के साथ होती है। हत्या जन्माष्टमी की रात के अंधेरे में हुई। गांव के किसी आदमी ने न हत्यारे को देखा और न हत्या होते किसी ने देखी। पर कनबतियों में हत्या के कारण और उसके प्रमाण ढूंढ़े जा रहे हैं, जिन्हें केवल पुलिस की नजर से नहीं देखा जा सकता। गांव के लोगों में सीधाई और चतुराई दोनों एक साथ होती हैं इसलिये न जानते हुये भी वे जानने का भ्रम देते हैं और जानते हुये भी यह संदेह उपस्थित करते हैं कि उन्हें कुछ नहीं मालूम। शमशेर सांईं की हत्या भी इसी संदेह के धुंधलके में अफवाहों में जीती है जिसका लाभ मुखिया लीलाधर यादव उठा रहे हैं।  उपन्यास में राजनेताओं की चतुराई को दिखाने के लिये मुखिया जी का संबंध हत्या से कहीं नहीं जोड़ा गया है, गांव का कोई आदमी और यहां तक कि शमशेर सांईं के पिता, उनकी पत्नी या उनका भाई नौशेर भी मुखिया जी पर संदेह नहीं कर रहे हैं। गांव की सबसे वाचाल जगह अच्छेलाल साह की कलाली की दुकान पर भी मुखिया जी के नाम की कोई चर्चा नहीं होती। पर सुलभ ने मुखिया जी के चरित्र को जिस प्रकार रचा है, उससे उंगली मुखिया जी की ओर ही उठती है।

लीलाधर यादव 1978 से 2016 तक गांव पंचायत के मुखिया रहे। राजनीतिक हल्के में उनकी गहरी पैठ है। पिछड़ी जातियों के साथ मुसलमानों के वे संरक्षक हैं। लीलाधर लालू यादव तो नहीं हैं पर यह तो सच है कि लालू की राजनीति का आधार भी पिछड़ी जातियों के साथ दलित और मुसलमान ही थे, जो बदलते हालात और उन पर लगे तमाम भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण धीरे-धीरे छिटक गये । लीलाधर यादव लालू से आगे के नेता हैं, वे किसी से बुरा नहीं बोलते, दूसरों की जमीन और संपत्ति से उनका कोई लेना-देना नहीं है, दूसरों की बहन-बेटियों का वे सम्मान करते हैं तथा गांव के सुख-दुख में हमेशा शरीक होते हैं। इसलिये उनकी राजनीति पर कोई उंगली उठाने वाला नहीं है। सरपंच के चुनाव को लेकर लोग पाले बदलते रहते हैं पर मुखिया जैसे महत्वपूर्ण पद पर अब-तक लीलाधर यादव का ही कब्जा रहा है। कहना न होगा कि लीलाधर यादव का कोई परंपरागत राजनीतिक आधार नहीं रहा है, वे किसी बड़े नेता के पिछलग्गू भी नहीं रहे हैं पर उनकी सूझबूझ और चाल-चलन उनकी राजनीति को लगातार मजबूत बनाता रहा है। देखा जाये तो पारिवारिक रूप से लीलाधर यादव की पृष्ठभूमि बहुत खराब रही है, उनके पिता अकलू यादव डकैती में मारे गये थे और गांव की बबुआन टोली की रामझरी से उनके देह संबंध थे, उपन्यास में अकलू यादव की डकैती के किस्से, रामझरी से प्रेम संबंध तथा उनकी मां के प्रेम संबंधों के चित्रण में लगभग सौ पृष्ठ भरे गये हैं। इसलिये पहली बार उपन्यास पढ़ते हुये यह भ्रम और शंका लगातार बनी रहती है कि उपन्यास के केंद्र में लीलाधर यादव हैं तो चित्रण उनके पिता की डकैतियों और मां के प्रेम संबंधों का क्यों हो रहा है? यहां यह स्पष्ट कर देना जरूरी होगा कि लीलाधर की मां जसोदा के प्रेम संबंधों में हृषीकेश सुलभ रस लेते हैं, इसलिये प्रेम संबंधों के चित्रण में उनका मन रमता है। इसी रमते मन के कारण वे लंबे-लंबे दृश्य उपस्थित करते हैं। इन अर्थों में सामान्य परिवार में जन्म लेने वाली जसोदा अपने समय की विलक्षण युवती थी, जो अपने ही गांव के लीला साह से खुला प्रेम करती थी। यह लगभग एक शताब्दी पहले की घटना है जब ससुराल से विदा होती 'जसोदा ने आंखें मूंदकर मन को स्थिर करने की कोशिश की थी। पर मन था कि थामे नहीं थम रहा था। बार-बार लौटता था पीछे। पहली बार नइहर से विदा होकर ससुराल देवली के लिये जाती हुई जसोदा ने राह में मन ही मन तय कर लिया था कि न सही लीला साह के हाथों मांग में सेनुर?, पर बेटा हुआ तो उसका लीला ही होगा। ... लीला ... लीलाधर।’

 गांव की राजनीति में संबंध शहर और देश की राजनीति की तरह नहीं होते। वहां दलगत राजनीति भी कोई खास मायने नहीं रखती। गांव की राजनीति में अधिकतर संबंध व्यक्तिगत राग-द्वेष या स्वार्थ के आधार पर होते हैं। कोई बहुत बड़ा एजेंडा या बहुत सोची-समझी राजनीति गांव में काम नहीं आती। इसलिये जो शहराती लोग गांव में जाते हैं वे यदि ताकतवर नहीं हैं तो वहां से जल्दी ही उखाड़ भी दिये जाते हैं। ऐसे कई लोगों के उदाहरण हैं, जो आजीवन शहर में रहे लेकिन अंतिम समय में अपने गांव की याद आई और भावुकता में गांव में बसने चले गये। चले तो अपने मन से गये पर वहां से भागे दूसरों के मन से। गांव में बहुत ज्यादा चुप भी नहीं रहा जा सकता और न बहुत वाचाल होकर जिया जा सकता है। वहां हरदम दुधारी तलवार पर चलना होता है, जिन्हें यह गुर आता है वह सफल होता है-लीलाधर यादव इसलिये सफल व्यक्ति हैं । इस सफलता के पीछे के कई कारण हैं पर पहला कारण तो यही है कि वे अपने काम से काम रखते हैं, दूसरों के फटे में अपनी टांग कम उलझाते हैं। अपने मन की बात शायद ही वे किसी से कहते होंगे। इसलिये शमशेर साईं की हत्या के समय वे अपने छोटे बेटे पवन के यहां अपना 66वां जन्म दिन मनाने चले गये थे। जन्म दिन तो गांव में भी मनाया जा सकता था पर भावी घटनाओं के चक्र से बचने के लिये वे पोते की जिद का बहाना बनाकर पटना चले गये। सुलभ  लिखते हैं 'शमशेर साईं की हत्या की रात देवली पंचायत के मुखिया लीलाधर यादव पटना में अपने एमएलसी समधी के घर अपना छासठवां जन्मदिन मना रहे थे। तीन बेटों और एक बेटी और उनकी संतानों से भरे-पूरे परिवार वाले लीलाधर यादव अपने आठ वर्षीय पोते अंशु की जिद पर अपना जन्म दिन मनाने पटना पहुंचे थे। अंशु उनके सबसे छोटे बेटे पवनसिंह यादव की इकलौती संतान था। पवन सिंह यादव के श्वसुर सुरंजन चौधरी सत्ताधरी दल के एमएलसी थे। सुरंजन चौधरी मुख्यमंत्री के नजदीकी लोगों में थे, सो पिछला विधानसभा चुनाव हारने के बाद भी मुख्यमंत्री ने उन्हें विधान परिषद में नामित करवा दिया था। इसके पहले वे दो बार विधानसभा का सदस्य और पिछले मंत्रिमंडल में मंत्री रह चुके थे। पवन सिंह यादव की शादी के बाद से मुखिया लीलाधर यादव के रुतबे में अचानक बढ़ोतरी हुई थी। मुखियागिरी का दबदबा पहले से था ही, पर मंत्री का समधी बनते ही पूरे जवार में डंका पिट गया था। लोगों की नजर बदल गई थी। जो लोग पहले हाथ जोडऩे में महटियाते-हिचकिचाते थे, वे अब लपक कर मिलते और हाथ जोड़ते हुये अघाते नहीं थे।’ यह जानकारी केवल यह बताने के लिये है कि लीलाधर यादव गांव में रहते हुये भी अब कितने बड़े आदमी और रसूखदार बन गये थे। रंगून मांझी ने शमशेर साईं की हत्या की सूचना मुखिया जी को सुबह ही दे दी थी और मुखिया जी ने अपने समधी को। 'सुरंजन चौधरी शमशेर साईं को वर्षों पहले से जानते थे। उन्होंने जिला मुख्यालय सीवान में अपने लोगों से मोबाइल पर संपर्क किया और पुलिस-प्रशासन का रुख पता किया। वे लीलाधर यादव को साथ लिये विधान परिषद पहुंचे। शून्यकाल तक परिषद में रहे। लीलाधर दर्शक-दीर्घा में बैठे परिषद की कार्यवाही देखते रहे। दोनों वहां से निकल कर डीजीपी के ऑफिस गये । लगभग आध घंटे तक डीजीपी के पास रहे। वहां से निकलने के बाद मुखिया लीलाधर यादव ने अपना मोबाइल चालू किया। सुरंजन चौधरी ने कहा- अब आप आज जाने का प्रोग्राम केंसिल कीजिये। कल भोर में निकल जाइयेगा।’

मुखिया जी अपना मोबाइल बंद कर जिस प्रकार भागदौड़ कर रहे हैं उसके कारण या तो वे जानते हैं या उनके समधी। उपन्यास पढ़ते हुये कहीं यह आभास नहीं होता कि शमशेर सांई की हत्या के तार कहीं मुखिया जी की कूटनीति से जुड़े हुये हैं। पर मन में यह शंका जरूर होती है कि हत्या के समय मुखिया जी न तो गांव में थे और न गांव में उनका कोई नाम ही ले रहा था, तब उनकी सक्रियता का कारण क्या है? कुछ भोले लोगों की समझ में शायद यह बात न आये पर गौर से देखने पर सारे रहस्यों से परदा उठ जाता है। उपन्यास में बहुत छोटी घटना का जिक्र है कि  'थानाध्यक्ष गरभू पांडे ने अकरम अंसारी से पूछा-डांड़ में कवन हथियार खोंसे हो?  .. पिस्तोल... अकरम घिघियाए। थानाध्यक्ष गरभू पांडे ने उनका दायां हाथ छोड़ते हुये कहा-निकालो। अकरम अंसारी ने पिस्तौल निकालकर थानाध्यक्ष की मेज पर रख दिया। तीन सिपाही अकरम अंसारी के आगे दीवार की तरह तने थे। पीछे अकरम अंसारी की पीठ से छाती सटाये थानाध्यक्ष डटा था। थानाध्यक्ष गरभू पांडे के इशारे पर एक सिपाही आगे बढ़ा और कागज से पिस्तौल की नली पकड़ते हुये उठाकर मेज के ड्राअर में बंद कर दिया।’ और परिणाम यह निकला कि अकरम की पिस्तौल हत्या वाली जगह पर पाई गई, जो इस बात का सबूत है कि शमशेर संाईं की हत्या सरपंच अकरम अंसारी ने की है। मुखिया जी इस बात को जानते थे कि अपने गांव देवली में बैठकर यह सब प्रबंध इतने कौशल के साथ नहीं कर सकते थे। अकरम अंसारी का दोष यह था कि वह उनकी इच्छा के बगैर सरपंच पद पर जीत कर आया था और शमशेर सांईं का अपराध यह था कि हमेशा मुखियाजी के साथ रहते हुये इस बार अकरम के साथ चला गया। मुखिया जी को यह स्वाभाविक रूप से अच्छा नहीं लगा होगा पर उन्होंने कभी कुछ नहीं कहा।

उपन्यास में मुखिया जी के मन की टीस को बताना जरूरी लगा कि  'शमशेर साईं को अकरम असंारी ने तोड़ लिया था। जिस शमशेर को वह पालते रहे, ... जिसे उन्होंने समसेरवा से शमशेर सांईं बनाया वही पाला बदल कर अकरम के साथ हो गया।’ शमशेर सांई के पाला बदलने और अकरम की जीत के कारण इस बार मुखिया जी की जीत आधी रह गई थी। प्रभावशाली नेता न केवल चुनाव जीतना चाहता है बल्कि यह भी चाहता है कि वह सर्वाधिक मतों से जीते। इससे उसकी धाक जमती है और वह चर्चा में रहता है। मुखिया जी चर्चा में इसलिये बने रहना चाहते थे कि गांव में हुये सारे परिवर्तनों के बाद उन्हें हरा सकने की हिम्मत किसी में नहीं थी। वे न केवल अपनी पंचायत में बल्कि पटना तक यह संदेश भिजवा देना चाहते थे कि पंचायत के अधिकांश वोटों पर उनका अधिकार है, जो आगे भी बना रहेगा। यह अधिकार विधान सभा और लोक सभा के चुनावों में स्थानीय नेता के वर्चस्व का आधार होता है, पटना या दिल्ली में इसी आधार पर उसका रुतबा बढ़ता है। इसलिये लीलाधर यादव उस मुसीबत को ही जड़ से उखाड़ देना चाहते थे, जिससे आगे चलकर उन्हें कोई परेशानी न हो। आजकल की राजनीतिक शब्दावली में इसे कूटनीति कहते हैं लेकिन इसकी जड़ें कुटिलता से जुड़ती हैं। बगैर कुटिल राजनीति के अपने प्रतिद्वंद्वी और उसके समर्थक को एक ही तीर से समाप्त नहीं किया जा सकता। गांव में स्थानीय चुनावों की राजनीति विधान सभा और लोक सभा के चुनावों से अधिक गंदी और भयावह होती है। आजादी के बाद मुखिया और सरपंच घर फूंक तमाशा देखते थे, सरकार की ओर से कोई विशेष अनुदान पंचायतों को नहीं मिलता था। वे केवल नाम भर के मुखिया या सरपंच होते थे पर उन्हें इस बात पर गर्व होता था कि वे इस देश के लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा कर रहे हैं। पिछले कुछ दशकों से ग्राम पंचायतों और ग्राम सभाओं को इतना धन मिलना शुरू हो गया है कि अब वहां भी कई प्रकार का भ्रष्टाचार फैल गया है। चुनावों में वोट खरीदे जाते हैं और चुनावों के बाद योजनाएं खरीदी और बेची जाती हैं। यह सब बड़े राजनेताओं के सरक्षण में जिस कुशलता से होता है, उससे न किसी को कोई शिकायत है और न किसी के लिये परेशानी का कारण। इसलिये कहा भी जाता है कि भ्रष्टाचार का चक्र जिस भाईचारे और समन्वय से घूमता है, उतना ईमानदारी का नहीं। 

 2016 का पंचायत चुनाव मुखिया जी के लिये महत्वपूर्ण था। इससे पहले 2011 के चुनाव को वे देख चुके थे, जिसमें उनके अपने ही आदमी ने उनके अपने चहेते सरपंच को हरवा दिया था। पांच वर्षों में उन्होंने गांव पंचायत में हो रहे परिवर्तनों के साथ समाज और बिरादरी में हो रहे परिवर्तनों को निकट से देखा था। 2011 में वे 1978 वाले मुखिया जी नहीं रह गये थे, इस बात का उन्हें गहरा अहसास भी था और दुख भी। इसलिये 2016 के चुनाव में वे अपने प्रतिद्वंद्वियों से हिसाब भी चुकता करना चाहते थे और अपनी धाक को फिर से कायम भी करना चाहते थे। 2016 में बड़ा परिवर्तन यह हुआ कि देवली पंचायत के दोनों पद महिलाओं के लिये आरक्षित कर दिये गये।  महिलाओं के लिये दोनों पद सुरक्षित होने पर उन्होंने निर्णय लिया कि अपनी पोती रेवती को मुखिया पद के लिये और रेशमा को सरपंच पद के लिये चुनाव लड़वायेंगे। इस निर्णय के पीछे छुपे रहस्य उपन्यास में एक जगह पर नहीं बल्कि कई जगह बिखरे पड़े हैं।  पोती रेवती पटना में कोचिंग कर रही थी, वह अपने साथ कोचिंग कर रहे मनोहर रजक को प्रेम करती थी, यह बात पूरे खानदान को पता थी। मुखिया जी का पोता सुजीत इस बात से बेहद क्रुद्ध रहता था। पर मुखिया जी क्रोध में या जल्दबाजी में कोई निर्णय लेने के आदी नहीं थे। उनकी माई ने उनसे वचन लिया था जिसका वे निर्वाह करते हुये दिखना भी चाहते थे और यह भी चाहते थे कि आसानी से कांटा भी निकल जाये। उनकी माई ने अपनी मृत्यु के तीन दिन पहले उनसे कहा था 'हमको नहीं पता कहिया तक जिनगी है हमारी! आज हैं, कल न रहें। ... बस एक बचन दो कि इसके साथ घर-परिवार में कौनो आदमी अनियाय ना करेगा। ... इसकी पढ़ाई हर हाल में बंद ना होगी। जितना चाहे पढऩा, उतना पढ़ाओगे। ... इसका बियाह बिना इसकी मरजी के मत करना।’ और 'लीलाधर ने अपनी माई की ओर सजल आंखों से देखा और बोले, 'तुम्हारा कहा कहियो टाले हैं माई? जो तुम कह रही हो, वैसा ही होगा। और तुमको अभी सौ बरिस पूरा करना है।’ रेवती को भरोसा था कि उसके बाबा उसके मन की बात पूरे घर में सबसे अधिक समझते हैं, इसलिये वे उसके साथ खड़े हैं। इसी कारण वह सुजीत या घर के किसी अन्य सदस्य के विरोध की परवाह भी नहीं करती थी। लेकिन बाबा जानते थे कि धोबी के लड़के को प्यार करने का मतलब क्या होता है? वे चुप थे इसका यह अर्थ कदापि नहीं था कि वे रेवती के समर्थन में थे। इसलिये उन्होंने मुखिया के पद का महिलाओं के लिये आरक्षण होने पर मन ही मन प्रसन्नता का अनुभव किया और रेवती को पटना से हमेशा के लिये छुट्टी दिला कर मुखिया का चुनाव लड़ाने का निर्णय किया। अकेले जाने का साहस वे अपने अंदर नहीं समेट पाये इसलिये अपने दामाद मनन चौधरी के साथ रेवती के पास पहुंचे और उसे अपने आने का मंतव्य सुनाया। रेवती के फूफा मनन चौधरी ने उसे समझाया कि 'अभी तुमको इंसाफ-नाइंसाफी की समझ नहीं है बबुनी। चुनाव के बाद ... जीतने के बाद भी तुम्हारी पढ़ाई चलती रहेगी। आई.ए.एस. बनकर किसी नेता के पीछे डोलने से बेहतर है राजनीति। यह शुरूआत होगी तुम्हारी। छपरा से अंग्रेजी में एम.ए. कर लेना। देवली और छपरा के बीच दूरी ही कितनी है। जब जी किया आना-जाना करना। देवली में तुम्हारा तीन सौ पैंसठ दिन रहना जरूरी नहीं। तुम्हारे बाबा देखेंगे सारा काम। हम लोग सब देख लेंगे। तुम पढ़ी-लिखी हो। तुम्हारा परिवार राजनीतिक परिवार है। मुखिया की कुर्सी जल्दी ही बहुत छोटी हो जायेगी तुम्हारे लिये। तुम बस हामी भर दो। एक लीक पकड़ कर चलने से कुछ नहीं होता। कई बार बेहतरी के लिये रास्ता बदलना पड़ता है।’

घर के दो बुजुर्ग रेवती को उसका भविष्य समझा रहे थे पर उसकी कुछ समझ में नहीं आ रहा था। वह हतप्रभ थी अपने ही बाबा के निर्णय से, जिनके बल पर वह अपने भाई और समाज से लड़ सकने का साहस रखती थी। पर बाबा एक तीर से दो निशाने साध रहे थे-रेवती के मुखिया बनने पर मुखियागिरी उनके पास ही रहेगी तथा रेवती के पटना छोडऩे पर मनोहर रजक का झंझट भी खत्म हो जायेगा। इतनी दूर तक रेवती देख नहीं पा रही थी इसलिये वह हतप्रभ थी। राजनीति में व्यक्तिगत संबंधों का कोई अर्थ नहीं होता इसलिये कहा जाता है कि युद्ध और प्रेम में कुछ गलत नहीं होता मैं इसमें राजनीति को भी जोडऩा चाहता हूं। राजनीतिक निर्णय मानवीय संबंधों से परे होते हैं, जो नितांत व्यक्तिगत स्वार्थ से भरे होते हैं, जिनमें किसी की भी बलि चढ़ाई जा सकती है चाहे वह कितना भी अपना हो। 

सरपंच पद के प्रत्याशी के लिये मुखिया जी ने रेशमा को चुना। इससे पहले रेशमा से उनकी सामान्य बातचीत तक नहीं थी। कलाली पर वे जाते नहीं थे और औरतों के प्रति आसक्ति जैसी कोई बीमारी उनके अंदर थी नहीं। रेशमा के किस्से जरूर सुनते थे, जो ग्रामीण जीवन में आम बात थी। लेकिन जब सरपंच के प्रत्याशी के चयन का समय आया तो उनकी कूटनीतिक बुध्दि ने रेशमा का नाम तय किया। यह निर्णय न केवल रेशमा के लिये वरन् पूरी गांव पंचायत के लिये आश्चर्यजनक था।  रेशमा से अकरम अंसारी के संबंध थे, इस बात को सारा गांव जानता था, अकरम अपनी बीवी नाज बानो और रखैल मुन्नी बी के होते हुये भी रेशमा के यहां पड़ा रहता था, यह भी जगजाहिर था। लेकिन यह भी जगजाहिर था कि रेशमा ने ही उसे सड़क पर पटक कर पीटा भी था। मुखिया जी यह जरूरी बात भी जानते थे कि रेशमा ने नाराज होकर अकरम को कह दिया है कि वह उसके विरुद्ध गवाही देगी। रेशमा और अकरम के इन बिगड़े हुये संबंधों का लाभ मुखिया जी उठाना चाहते थे। इसलिये उन्होंने अच्छेलाल साह और उसकी पत्नी रेशमा को अपने दामाद की उपस्थिति में घर पर बुलाया और दामाद को साह से अपने संबंधों का परिचय देते हुये कहा 'पाहुन, अच्छेलाल साह भाई मेरे संगतिया हैं। हम उमिरिया भी हैं। एक-दो साल आगे-पीछे होंगे। हम लोग मिडिल स्कूल तक साथ पढ़े हैं। हम देवली में मिडिल तक पढऩे के बाद सहुली हाई स्कूल में पढऩे लगे और अच्छेलाल भाई अपने बाबू की गद्दी संभाल लिये। कुछ प्राइवेट बात थी, सो बुलवाये।’ रेशमा की ओर मुखातिब होते हुये कहा 'तुमको चुनाव लडऩा है इस बार। सरपंच का चुनाव।’ उपन्यासकार मुखिया जी के इस निर्णय पर टिप्पणी करते हुये लिखते हैं 'महाजाल फेंक कर जैसे कोई सधा हुआ मछुआरा धीरज के साथ दम साधे इंतजार करता है, वैसे ही मुखिया लीलाधर यादव ने अपनी बात कह कर चुप्पी तान ली और निहारते रहे रेशमा को। मनन चौधरी की भी नजर रेशमा पर टिकी हुई थी। वे अपनी नजरों से रेशमा को तौल रहे थे।’ रेशमा ने बहुत सोच-विचार कर कहा 'हम तैयार हैं। लड़ेंगे सरपंच का चुनाव। आपका आसीरवाद मिल रहा है यही बड़की बात है मेरे लिये। रेशमा ने अपना मौन तोड़ा। इस बीच उसकी आंखों के सामने सरपंच अकरम अंसारी की सूरत नाचती रही। सीवान जेल के मुलाकाती फाटक के सामने वह दृश्य बनते-मिटते रहा, जब अकरम ने उसे गरभू पांडे के साथ सोने के लिये कहा था। वह रात भी इस बीच फिर से उसकी आंखों के सामने पिशाच बनकर नाचने लगी, जिस रात उसकी देह और मन में अनगिन कीलें ठोक कर गरभू पांडे चला गया था और वह अपनी कोठरी में तड़पती रही थी। ये सारे दृश्य इन कुछ ही पलों में उसकी आंखों में भरते रहे और दुख के अथाह वेग से भंवर बनकर उसे अपने भीतर खींचते रहे। वह रोना नहीं चाहती थी। रोई भी नहीं।’   

देवली और मनरौली में पंचायत चुनावों को लेकर तरह-तरह के दांव-पेंच चले जा रहे थे पर मुखिया जी ने अपना पांसा तैयार कर लिया था, उचित समय पर उसे फेंकने की तैयारी थी। चुनावों की घोषणा होने पर गांव की आम सभा में मुखिया जी ने मुखिया और सरपंच पद के लिये रेवती और रेशमा के नामों की घोषणा की तो सब आश्चर्यचकित रह गये। किसी ने इन दो नामों के बारे में सोचा भी नहीं था। 'मुखिया लीलाधर जब बोल रहे थे, रेशमा दोनों हाथ जोड़े और सिर झुकाए भीड़ का अभिवादन कर रही थी। भीड़ ने तालियों से रेशमा का समर्थन किया। रेशमा की उम्मीदवारी पर अधिकांश लोग चकित थे। ढोंढ़ाई बाबा तो आसमान से गिरे थे और अभी बीच में ही लटके हुये थे। सोच रहे थे, वाह रे लीलाधर! अपरम्पार है तुम्हारी लीला! इसको कहते हैं राजनीति। पचास डेग की दूरी पर हैं पर हवा तक न लग लगी!’  इसे उनकी सूझबूझ कहें या कूटनीति, इसे गांव वाले तो क्या रेवती और रेशमा भी नहीं समझ पा रही थीं। वे गांव जवार के ऐसे नेता थे, जिनकी पहुंच पटना तक थी। उनके समधी न केवल एमएलसी थे वरन् मुख्यमंत्री के प्रिय और निकट भी थे। गांव में तो थानेदार तक से निकटता का लाभ उठाकर चतुर लोग बारे-न्यारे करते रहते हैं, मुख्यमंत्री तो बहुत बड़ी तोप थे। कहना न होगा कि मुखिया जी ग्राम पंचायत के संबंध में कोई भी निर्णय अपने परिवार या गांव के अपने किसी चहेते के साथ बैठकर नहीं लेते थे वरन् अपने दामाद और समधी से विचार-विमर्श किया करते थे। इससे सबसे बड़ा लाभ तो यह होता था कि उनके निर्णय लेने से पहले कोई सूंघ भी नहीं सकता था कि मुखिया जी अब क्या चाल चलने वाले हैं। जो नेता बकबक करते रहते हैं उन्हें लोग गंभीरता से नहीं लेते। 

'अग्निलीक’ उपन्यास में दो धाराएं साथ-साथ चलती रहती हैं। एक ओर गांव की राजनीति है तो दूसरी ओर स्त्री पुरुष संबंधों की सामाजिकी।  गांव का पूरा नक्शा इन सतत प्रवाहित धाराओं के बिना नहीं बन सकता। मानवीय संबंध कभी इकहरे नहीं होते, जो आदमी बाहर लड़ता है, वह अंदर प्रेम भी करता है।  राजनीतिक कूटनीति, प्रेम और घृणा यह सब मनुष्य के जीवित रहने के प्रमाण हैं। इसके उदाहरण उपन्यास में बिखरे पड़े हैं। जो रेशमा अकरम अंसारी से बेहद प्रेम करती है वही उससे घृणा भी करती है। प्रेम और घृणा के लिये दो अलग-अलग व्यक्तियों की जरूरत नहीं है। यह महज संयोग नहीं है कि मुखिया जी के परिवार में उनकी मां जसोदा, उनकी पोती कुंती और उनकी पड़पोती रेवती प्रेम करती हैं। लेकिन यह भी सच है कि तीनों अपने प्रेम में सफल नहीं होतीं। दरअसल, प्रेम कथाएं अमर इसलिये हैं कि वे सफलता के सोपान पर जाकर समाप्त नहीं होतीं बल्कि बीच में ही उन्हें खत्म कर दिया जाता है। 'उसने कहा था’ के कालजयी होने का कारण प्रेम और त्याग के समर्पण के साथ अधूरापन भी है जो सूबेदारनी और लहना सिंह के जीवन में अंत तक बना रहता है।  उपन्यास में आये इन प्रेम संबंधों में मानवीय संबंध और उनकी कमजोरियों के साथ समाज की सामंती सोच भी अपना काम करती है। इसी वजह से कुंती के मुचकुंद मास्टर और रेवती के मनोहर रजक की हत्या कर दी जाती है। उपन्यासकार ने यह भी संकेत दिये हैं कि जसोदा के लीला साह को भी बाद में गांव में नहीं देखा गया। कहना न होगा कि यह ऐसा समाज है जो प्रेम भी करता है और हत्या भी करता है, एक ही समय में समर्पण और क्रूरता से भरा हुआ यह समाज स्त्रियों के प्रति उतना संवेदनशील नहीं है, जितना मानवीय समाज को होना चाहिये।

स्त्री जीवन का सबसे दुखद पक्ष रेशमा कलवारिन और मुन्नी बी में देखने को मिलता है। रेशमा 'जब सोलह-सत्रह की थी तब सत्तर साल के बूढ़े मरद से गंडक पार उसका पहला ब्याह हुआ था।’ बूढ़े के छोटे बेटे ने 'उसे धर दबोचा। यह सिलसिला तीन सालों तक चलता रहा । एक दिन बुढ़ऊ ने उसे छोटे बेटे के साथ बेपरदा हालत में देख लिया’ तो उसे खूब पीटा पर छोटा बेटा बचाने नहीं आया। एक रात वह बूढ़़े को सोते हुये छोड़कर अपने नइहर टंडवा चली आई। टंड़वा में तिवारी टोला के चंदन तिवारी को वह अपने आंचल के खूंट में बांधकर बिहरती रही।’ पर जब चंदन तिवारी की पत्नी ने उससे अपने सोहाग की भीख मांगी तो रेशमा के अंदर बैठी संवेदनशील स्त्री ने चंदन तिवारी से संबंध तोड़ लिये। इसी बीच उसकी बुआ पतिया हजामिन ने अच्छेलाल साह के साथ उसका टांका भिड़ा दिया। उसे लगा 'नइहर में पड़े रहने से अच्छा था किसी नये ठौर पर जाकर टिक जाना, सो वह आ गई।’ अच्छेलाल साह बेटे बहू और पोते पोतियों वाले भरे-पूरे परिवार के उम्रसुदा आदमी थे।  'रूप-देह से दीन-हीन अच्छेलाल देखने में मरियल और रीढ़हीन लगते थे, पर धंधे के मामले में चंट थे। रेशमा के सामने उनके घुटने टेकने के कारण और थे। वे जानते थे कि सुंदर और कम उम्र बीवी को घर में टिकाए रखने के लिये आंखें मूंद कर जीना पड़ता है।’ इसलिये उन्होंने अकरम अंसारी के साथ रेशमा के साथ होने और सोने को स्वीकार कर लिया था। रेशमा 'देवली आने से पहले जिंदगी के सारे हुनर सीख चुकी थी। पिंटू सिंह के बल पर उसने अच्छेलाल साह के बेटे-बहुओं की नकेल कसी और कलाली के धंधे को फिर से जमाया। अब सरपंच अकरम अंसारी की आंखों में सुरमा की तरह सजी हुई जमाने को निहार रही थी और अच्छेलाल साह की तिजोरी भर रही थी। रेशमा ने अच्छेलाल को इतना ताकतवर बना दिया था कि बिना किसी से डरे-दबे वे दारू का धंधा कर सके। ... बाबू पिंटू सिंह से अच्छेलाल साह को शुरू-शुरू में डर लगता था पर अंत आते-आते रेशमा ने उनको गोबर कर दिया था। सरपंच से अच्छेलाल साह को डर नहीं लगता।’ यह रेशमा के जीवन का सच है, जो बाहर से देखने पर विचलित करता है और कई तरह के प्रश्न भी उठाता है पर बचपन से उसकी स्थितियों को समझा जाये तो उसके निर्णय स्त्री जीवन के ऐसे निर्णय हैं जिनके बिना उसका जीना कठिन होता। कहना न होगा कि रेशमा को परिस्थितियों ने जिस जगह लाकर छोड़ दिया था, उनमें वह जो भी कर रही थी, वह सब उसके जीने की जरूरतें थीं। कई बार परिस्थितियां कलंक और सम्मान का भेद मिटाकर उस दोराहे पर लाकर खड़ा कर देती हैं, जहां चयन का भेद स्वत: समाप्त हो जाता है। पर रेशमा का जीवन यहीं समाप्त नहीं हो जाता उसकी संवेदनशीलता उस समय उभरकर आती है जब वह शमशेर सांई की बेवा गुल बानो को अपनी बहन की तरह मानकर उसकी सहायता करती है। अब-तक के जीवन में रेशमा पहली बार किसी की सहायता करने की स्थिति में थी।  

रेशमा की तरह ही मुन्नी बी का जीवन भी बहुत तकलीफों में बीता था। रेशमा तो परिस्थितियों के अनुसार अपना रास्ता बना भी लेती है पर मुन्नी बी तो ऐसा भी नहीं कर पाती। यह दुखद है कि जो मुन्ना अकरम का फुफेरा भाई भी था और उसका ड्राइवर भी, वह अपनी सगी बहन को अकरम के द्वारा रखैल बनाये जाने पर विरोध नहीं करता। जबकि  रेशमा से अकरम के संबंधों को लेकर हरदम नाराज रहता है। उसे जहां नाराज होना चाहिये था, वहां वह शांत रहता है और जहां शांत रहना चाहिये था वहां गुस्से में रहता है। उपन्यास में ऐसा भी कोई प्रसंग नहीं मिलता कि मुन्नी बी ने ही अपने भाई मुन्ना से रखैल बनाये रखने की पीड़ा की कोई शिकायत की हो। मुन्नी चुप रहती है, बोलने के अवसर उसके पास हैं भी कम। बोले वह जिसके पास कुछ अधिकार हों, रखैल के पास क्या अधिकार हैं? वह जानती है कि मुन्ना की बीवी नबीहा उसे पसंद नहीं करती और मुन्ना की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि वह उसे अकरम के फंदे से निकालकर उसका निकाह कर सके।  उसके दुख की कथा लंबी है पर जब नाज बानो उसे घर से निकाल देती है तब उसे लगता है कि यदि अकरम उससे निकाह कर लेता तो ऐसी स्थिति नहीं आती।  लंगड़े और निकम्मे नौशेर सांई से निकाह करने का उसका निर्णय इन्हीं परिस्थितियों की देन हैं। मुस्लिम समाज में तो एक बीवी के रहते दूसरी औरत से निकाह कर सकने की आजादी है फिर इसका लाभ मुन्नी बी को क्यों नहीं मिला या उसने क्यों इस बात के लिये दबाव नहीं बनाया?

उपन्यास में एक दर्जन के लगभग स्त्रियों का चित्रण है, इनमें हिंदू और मुसलमान दोनों परिवारों की स्त्रियां हैं। स्त्री स्वतंत्रता दोनों ही जगह नहीं है, परिवारों के आपसी द्वंद्व और परस्पर कलह में स्त्रियां ही पिस रही हैं। आर्थिक दबावों को भी स्त्रियां ही अधिक झेल रही हैं। रेशमा को छोड़कर स्वतंत्र रहने और स्वतंत्र जीने के अवसर पूरे उपन्यास में और किसी औरत के पास नहीं है, रेवती अपनी तरह जीना चाहती थी पर यह अधिकार उसके बाबा ने ही उससे छीन लिया। क्या यह महज संयोग है कि मुखिया की बहुओं की कोई आवाज घर के बाहर कभी नहीं सुनी गई। हर प्रतिष्ठित परिवार अपने घर की औरतों को परदे में रखकर गौरवान्वित होता है। मुखिया जी केवल राजनीति में ही अपना आधिपत्य नहीं चाहते थे बल्कि घर में भी वह मुखिया जी ही बने रहना चाहते थे, इसलिये उनके सामने बोलने का साहस घर में कोई नहीं कर पाता था। बेटे बड़े हो गये थे, बेटों के बच्चे भी बड़े हो रहे थे पर घर के सारे निर्णय मुखिया जी ही करते थे। बाहर से लोकतांत्रिक दिखने वाले नेता अंदर से कितने लोकतंत्र के विरोधी होते हैं इसका उदाहरण मुखिया जी का चरित्र स्वयं है। उपन्यास में यह भी स्पष्ट किया गया है कि अकरम अंसारी के घर में भी सम्पत्ति आने और सरपंच बनने के बाद ही औरतों ने परदा करना शुरू किया था। मनुष्य के विकास के इतिहास को देखें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि जैसे-जैसे पुरुष ताकतवर होता गया वैसे-वैसे वह अपनी औरतों पर पहरे दर पहरे लगाता गया। इसलिये आदिवासी समाज में आज भी स्त्री अन्य समाजों की अपेक्षा अधिक स्वतंत्र है।

'अग्निलीक’ उपन्यास में बीसवीं-इक्कीसवीं सदी का गांव है, जो लगातार बदल रहा है। इस बदले हुये गांव में गरीब और औरत के जीवन में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया है। सारी योजनाओं के बावजूद गरीब अब भी गरीब ही है। औरतें वैसे ही जी रही हैं, यदि कोई अपनी तरह जीना चाहती भी है तो उसके पर जल्दी ही कलम कर दिये जाते हैं। पिछड़ी जातियों के उभार से यह उम्मीद बंधी थी कि उनके साथ उनकी स्त्रियां भी आगे आयेंगी पर ऐसा संभव नहीं हुआ। रेवती जैसी लड़कियोंं को उनकी स्वतंत्रता छीनकर मुखिया बनाये जाने के गहरे अर्थ हैं, जिन्हें वह भलीभांति अनुभव कर रही है। सामंतों की तरह अब भी गांव की सत्ता एक ही व्यक्ति के हाथ में है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि सत्ता के शिखर पर बैठा वह व्यक्ति किस वर्ग, जाति और धर्म से है । यह उपन्यास बिहार के सीवान जिले की एक पंचायत का लेखा-जोखा है, जिसे जातियों की वर्चस्व की लड़ाई के साथ स्त्री शोषण के अनेक आयामों के रूप में देखा और पढ़ा जा सकता है ।

 

मो. 9421101128, 8668898600, वर्धा

 


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