दो कविताएं
जय गोस्वामी / अनुवाद : उत्पल बैनर्जी
दो लंबी कविताएं/बांग्ला
वनस्पति
ज़ंजीर बँधे हर घण्टे में दमघोंटू हर नाव तले तुमने छुपा लिए हैं अपने हाथ वह गतिमान वनस्पति जो छूती थी सैकत और पल्लव स्वनिर्मित पात्र की आभा घोंघे और यहाँ तक कि जलप्रपात का कुछ अंश भी उँगली से खींच लाती थी - अब, बोलो कौन हमें लाकर देगा पाताल से चुम्बक? रेत में गड्ढे खोदकर कौन लाएगा कछुए के अण्डे और तमाम काइयों को मिलाकर पकाएगा हरे केकड़ों का माँस? हमें कौन सिखाएगा कम्पमान नेत्रपल्लव, श्यामल पत्रावली और गगनचुम्बी चूल्हा? जिस चूल्हे के भीतर है वह गोल गेंद- धारीदार, धधकता घूमता हुआ। उस गेंद का घूर्णन देखते-देखते हमने देह से उतार कर ज़मीन पर बिछा दिया था अपना चमड़ा; धीरे-धीरे उसमें गड्ढा करके रहने लगे थे मैदानी चूहे, केंचुए, वज्रकीट और तमाम तरह के साँप और कभी-कभी तो दो-एक मनुष्य भी। नहीं, नहीं, ठीक मनुष्य नहीं, मनुष्य के कुछ टुकड़े उन्होंने हमारे चमड़े पर आग जलाकर ठण्ड भगाई थी भूनकर खाई थी साँप की पूँछ मरे कौए की अँतडिय़ाँ और अपने हाथों की उँगलियाँ भी। वाह! क्या स्वाद है - कहते-कहते ही उनके हाथों की उँगलियाँ ख़त्म हो गई थीं और वे अपेक्षाकृत छोटी पैरों की उँगलियों की ओर झाँकने लगे थे। इसके बाद उन्होंने क्रमश पसन्द किया था लिंग, पैरों के अण्डे और यकृत। नतीजतन, इसके कुछ दिनों बाद ही हमारे चमड़े के मैदान पर से हाहाकार करते जीभविहीन कुछ सिर लुढ़कते-लुढ़कते चले गए जिनका मुँह खुला था, आख़िरकार एक दिन समुद्र को खाने वे लुढ़क-लुढ़क कर समुद्र के भीतर चले गए- कहना न होगा, इसके बहुत पहले ही खत्म हो गए थे मैदानी चूहे और तितलियों के वंश। आज हमारे चमड़े पर मुँह फाड़े देख रहे हैं घावों से भरे बड़े-बड़े चेहरे - अब उन घावों में कौन भरेगा त्रुटिहीन भोर और अविस्मरणीय रूई! अब कहाँ हैं उस रूई के नरम और लंबे रोयें? कहाँ हैं, उस पर्वमाला के शिखर से नोचकर लाए गए बर्फ़-ढँके श्रृंग? पुरानी खाड़ी में क्यों पछाड़ खाता गिर रहा है नमक घुला जल? तुमने अभी कहाँ रखे हैं अपने हाथ? जिसने अभी सरकना शुरु किया उस ग्लेशियर के नीचे? उफ़ कितनी सफ़ेद है उसकी चीख़! क्यों इतनी सूखी है तुम्हारे हाथों की काई? तुम्हारी देह की रेत क्यों नहीं भीग रही है? और किस तरह, कितनी तरह से कहूं मैं? इस बार, हमारे चमड़े पर कुआँ खोद रहा था लोगों का एक झुण्ड साल भर खोदने के बाद पानी के बदले उन्हें मिली फनफनाती ख़ून की धार! कारण कि त्वचा के नीचे इतने दिनों में कई पेशी और धमनियाँ बनने लगी थीं! फनफनाकर उठ आए उस ख़ून को पल भर में आसमान ने सोख लिया था फिर शून्य के साथ उसकी घनिष्ट प्रतिक्रिया से तैयार हुई थी विचित्र छोटे-छोटे कीड़ों की श्रेणी; आसमान की बाहरी सतह पर वे घेरा बनाकर इंतज़ार कर रहे हैं; अगर कभी तुम्हारा हाथ छिप जाए मरे हुए घण्टे के नीचे अगर वह सचल वनस्पति दमघोंटू नाव में शरण ले तो फिर वे लगाएँगे छलाँग... वह देखो असंख्य छोटे-छोटे कीड़ों के झडऩे की शुरुआत हो चुकी है हवा को सोखते वे नीचे उतर रहे हैं... इसके बाद धीरे-धीरे थम गई लहरें; धीरे-धीरे सब समा गए समुद्र में, ग्लेशियर आगे बढ़ आए, पहाड़ के सिर से छलककर गिरने लगा लाल-काला ख़ून, फिर एक दिन लाल-काले तरल का विराट स्तर दसों दिशाओं में उभर आया और उसके बहुत गहरे तल में पड़ा रहा एक मरा हुए घण्टा एक नाव की डेक एक ठण्डी, सोई हुई वनस्पति।
मोमबत्ती
ऐसी रात कि जड़ें भी आवाज़ करने लगी हैं ऐसा किनारा कि ज़ंजीरों की चोट से चीख़ रहा है पानी बाँह ऐसी कि मरकर भी मुट्ठी में भींचे हुए भाला ऐसा पात्र कि छोटा होकर भी सोख लेता है सारी हवा केवल एक ही झलक में फोड़ देती है ग्लेशियर.. चिनगारी ऐसी ऐसी बिजली की लंबी उँगलियों से खरोंच देती है आसमान ऐसा ताबूत कि निश्चल होकर भी जीवित हो उठा पलभर में तीखी और फुसफुसाहट भरी लेकिन बंद नहीं होती, ऐसी चीख़ धीरे-धीरे झर रहे हैं शांत, सुलानेवाले पंख सिर्फ़ एक प्रवाह को सम्बल बनाकर उठ खड़ी हुई है हवा पेड़े का एक भी पत्ता नहीं हिल रहा उसके नीचे पड़ी हुई है लंबी ज़ंजीर साँप का फटा हुआ फन और कमल की पंखुडिय़ाँ
दिगंत तक फैली इस्पात की पात और उसके ऊपर जानवरों की साँसें
इसके बाद ज़हरीले शहद और तेल के सिवा मुझे कुछ नहीं पता मुझे कुछ भी नहीं पता भूगर्भ के काले हृत्पिण्ड के सिवा जिसे एक दिन उखाड़ कर मैंने रख दिया था अपने पीछेवाले ताल में जिससे पैदा हुई थी प्रचुर जलकुंभियाँ, काई और छोटे पौथे पानी के तमाम कीट - वह हृत्पिण्ड भी अपने चारों ओर के घने और जकड़े हुए प्राणों को भेद कर बुलबुलों की तरह उभर आता है मेरे घर के सामने की छोटी-सी ज़मीन के ऊपर की हवा में भासमान रात भर धक-धक धड़कता है- मुझसे कहता है 'वह तो चमचमाती सफ़ेद मोमबत्ती तुम्हारे घर में जल रही है वह असल में इनसानों की जमी हुई चर्बी से बनी है।’ तभी मोमबत्ती अचानक टेबल से छलाँग लगा शून्य में उठ कर बड़ी होने लगी उसे दो हाथ मिल गए दो ओर से निकल आए दो पैर भी कंधे के ऊपर उसका लंबा-सा सिर पीले रंग की लौ-सा जलता रहा उसकी देह पर धीरे-धरे उभर आए कुछ दाग़- पतले, मोटे, लंबे वे क्या चाबुक के दाग़ थे? उन दाग़ों में से किसी में मुझे दिखाई दी बहुत प्राचीन और लुप्त कोई नदी तो किसी मेम चौड़े रास्ते अभिजात पुरुष और स्त्रियों की चहलपहल आकाशचुम्बी प्रासाद के शिखर दुर्गम सँकरे तकलीफ़देह पहाड़ी रास्ते जिन रास्तों से होकर सैकड़ों जरख़रीद गुलाम अपने मालिकों के लिए सोने के घड़ों से भरकर शहद ला रहे ते उनके साथ-साथ चल रहा था घोड़े पर सवार कवच पहना कुत्ते के मुँहवाला सेनापति इसके बाद उभर आया एक डबरा उसके भीतर तैर रहे थे पंखोंवाले विचित्र मगरमच्छ उनके अण्डे सूख रहे थे रेत पर रेत पर झिलमिल करता एक साँप आगे बढ़ आया और फिर गड्ढे में छिप गया; उसी रेत में चित पड़ा हुआ था एक कंकाल हाथ-पैरों में उसके ज़ंजीर के गहने थे अचानक उठ खड़ा हआ वह हड्डियों का ढाँचा और मैंने गौर किया क्रमश: छोटी और दुबली होने लगी थी उसकी देह सफ़ेद और चमचमाते मोम से ढँकी जा रही थीं बदरंग हड्डियाँ फिर ज़ंजीरों में जकड़े उसके दोनों पैर तेज़ी से खिर गए और दोनों हाथ भी उसका बचा हुआ शरीर डोलता-डोलता मेरी टेबल के बत्तीदान पर उतर आया बिना किसी कंपन के जलती रही लंबे चेहरे-जैसी शिखा... ताल के पीछे मकान ढहा हुआ उसके पास वाले बड़े पेड़ की टहनियों से निकलने लगे हैं जुन्हाई के पतले धागे उस मकान की छत पर धुएँ के देवता और कुहासे की देवी छिप-छिपकर मिलने उतर आते हैं ठीक तभी हिल उठती है ताल की जलकुम्भियाँ उठने लगते हैं बुलबुले और धक-धक रुकने का नाम नहीं लेती - मेरी खिड़की के सामने की हवा में उभर आया है भूगर्भ का काला हृदय मुझसे कह रहा है - 'ये तमाम नक्षत्र असल में पत्थर के हैं। इसी बीच उनकी देह रात के अंतिम पहर में अल्फा सेन्चुरी का एक पत्थर तुम्हारे उस केले के पेड़ तले आ गिरेगा। लेकिन तुम अपने टेबल की मोमबत्ती ऊपर उठाकर जानकारी ले सकते हो कि कितनी बड़ी चट्टान के गिरने की संभावना है क्योंकि एकमात्र उस मोमबत्ती का उजाला ही एक साल से भी पहले वहाँ पहुँच सकता है और लौट भी सकता है- तभी मैंने उस मुण्ड-जैसी शिखा या कि शिखा-जैसे मुण्ड को हाथ के थपेड़े से बुझा दिया उस पल उस ताल और ढहे हुए मकान को घेरती धुएँ के देवता और कुहासे की देवी को डुबोकर क्रमश: उभरन लगी ऐसी रात जब जड़े आवाज़ करने लगती है ऐसा क्षुब्ध किनारा कि जहां ज़ंजीरों की चोट से चीख़ रहा है पानी बाँह ऐसी कि मरकर भी मुट्ठी में भींचे हुए है भाला ऐसा पात्र कि छोटा होकर भी सोख लेता है सारी हवा केवल एक ही झलक में फोड़ देती है ग्लेशियर... चिनगारी ऐसी ऐसी बिजली कि लंबी उँगलियों से खरोंच देती है आसमान ऐसा ताबूत कि निश्चिल होकर भी जीवित हो उठा पलभर में तीखी और फुसफुसाहट भरी लेकिन बंद नहीं होती, ऐसी चीख़ पंख शांत, सुलानेवाले सिर्फ़ एक प्रवाह को सम्बल बनाकर उठ खड़ी हुई है हवा पेड़ का एक भी पत्ता नहीं हिल रहा उसके नीचे पड़ी हुई है लंबी ज़ंजीर साँप का फटा हुआ फन और कमल की पंखुडिय़ाँ
उत्पल बैनर्जी- बांग्ला से हिन्दी में अपने उत्कृष्ट अनुवादों के लिए जाने जाते हैं। इंदौर के एक विख्यात महाविद्यालय में हिन्दी के प्राध्यापक हैं। काफी समय प्रगतिशील लेखक संघ में उनकी सक्रिय भूमिका रही है। संपर्क- मो. 9425962072
जय गोस्वामी - जन्म 10 नवंबर, 1954, कोलकाता। प्रतिष्ठित 'देश’ पत्रिका में 16 वर्षों तक नौकरी की। 45 कविता संग्रह, 10 उप्यास तथा गद्य की 15 पुस्तकों का प्रकाशन। 1990 में 'घुमियेछो झाऊपाता?’ कविता- संग्रह के लिए तथा 1998 में 'जारा वृष्टिते भिजेछिलो’ काव्योपन्यास के लिए दो बार 'आनंद पुरस्कार’ से सम्मानित। 'वज्र विद्युत भर्ती खाता’ कविता - संग्रह के लिए 1997 में पश्चिम बांग्ला अकादमी पुरस्कार। 1997 में 'पातार पोशाक’ कविता - संग्रह के लिए 'वीरेन्द्र चट्टोपाध्याय पुरस्कार’ तथा 2000 में 'पागली तोमार संगे’ के लिए 'साहित्य अकादमी’ पुरस्कार से सम्मानित। मूर्तिदेवी पुरस्कार (2018) से सम्मानित होने वाले पहले बंगला रचनाकार। 2001 में अमेरिका के आयोवा में अंतर्राष्ट्रीय लेखक शिविर में आमंत्रित। 2009 में मेलबोर्न और सिडनी की साहित्यिक यात्रा। 2010 में बीझिंग तथा शंघाई में आयोजित 'ऑलमोस्ट आइलैण्ड डायलॉग’ में चीनी लेखकों के साथ शिरकत। 2011 में भारतीय भाषा परिषद द्वारा 'रचनासमग्र’ पुरस्कार से विभूषित। उसी वर्ष आई.आई.पी.एम. द्वारा प्रदत्त 'माइकल मधुसूदन दत्त मेमोरियल अवॉर्ड’ से सम्मानित। 2012 में पश्चिम बंग सरकार द्वारा 'बंगसम्मान एवं बंगविभूषण’ से अलंकृत। 2014 में मुंबई में इंटरनेशनल लिटररी फ़ेस्टिवल में 'पोएट लॉरिएट’ सम्मान प्राप्त। 2015 में उत्तरबंग विश्वविद्यालय तथा कोलकाता विश्वविद्यालय में डी.लिट. की मानत उपाधि प्रदान की।
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