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दिसंबर - 2019

युद्ध भूमि है यह देह (कहानियाँ)

देवीप्रसाद मिश्र

कहानियां

 

 

देवी प्रसाद मिश्र की अन्य कहानियाँ

 

यहाँ जो कहानियाँ हैं  उनमें से तीन कहानियाँ  एक समय में पहल में छपी थीं। कोई तीन लाइन की थी, कोई एक पैरे की। मैं उनका पुनर्लेखन करता रहा केवल इसलिए नहीं कि वे ज्यादा छोटी थीं बल्कि इसलिए कि मेरे पास एक प्रदत्त संरचना थी जिसमें मैं बहुत सारे छूटे हुए को कह सकता था। पुनर्लेखन के रचनात्मक और अवधारणात्मक पक्ष पर हो सकता है कभी कुछ कहूँ। अभी तो इतना ही कह सकता हूँ कि क्रिएटिव दुस्साहस को जगह देने के लिए जानी जाती पहल ने मेरी इस धारा विरुद्ध बात के मर्म को समझा है।

इसमें तीन कहानियाँ ऐसी भी है जिनका पुनर्लेखन नहीं हुआ है।

देवी प्रसाद मिश्र 

 

अकेले आदमी की नींद

बहुत थका एक दिन जब मैं पुराने से होटल के रिसेप्शन के आगे खड़ा था तो लगा कि होटल की पूरी इमारत कभी भी गिर सकती है।

रिसेप्शन पर बैठी स्त्री ने कहा कि मैं जिस कमरे में ठहरने वाला हूँ वह पहली मंज़िल पर है।

मैंने बिना किसी खास वजह के पूछा कि इमारत में तीसरी या चौथी मंज़िल भी है क्या। उसने मेरी बात का जवाब नहीं दिया। मैं उससे बात करना चाहता था लेकिन यह जानना आसान नहीं था कि वह क्या चाहती थी।

मेरा सामान लेकर एक लड़का ऊपर जा चुका था। वह खुश था कि कोई होटल में रुकने के लिये आया है। 

मैं लकड़ी की सीढिय़ों पर चलने लगा तो मुझे लगा कि मैं अपने होने की आवाज़ें सुन रहा हूं।

अपनी आवाज़ों से मैं वाकिफ़ था ।

उनकी गूँज और उनके अवसाद से।

ये उस आदमी की आवाज़ें थीं जो किसी के साथ नहीं हो पाता था। जिसके साथ कोई नहीं आता था।

मैं अकेले आदमी का निनाद था।

कमरे में सफ़ाई और रूम फ्रेशनर डालने के बावजूद कमरे में उन लोगों की गंध थी जो कभी कभार कमरे में रुके थे।

बहुत सस्ते से होटल में बहुत सस्ते से कंबल को अपने ऊपर डालकर मैं पड़ा रहा ।

अचानक मुझे लगा कि कंबल में किसी और की साँस चल रही है।

फिर यह लगा कि इसमें किसी और का पसीना महक रहा है।

फिर कंबल में लिपटे किसी के बाल दिखे।

मुझे लगा मेरे साथ कोई और लेटा है।

मैंने कंबल के अंदर कैद हवा में हताशा की बू महसूस की।

एक घुमड़।

एक तड़प।

कोई कोहराम।

थकान।

मुझे लगा कि कोई किसी बड़ी यात्रा पर निकलने के पहले आराम कर रहा है या कि एक बहुत लंबी यात्रा के बाद उठना ही नहीं चाह रहा है। 

मुझे लगा कि अपनी से ज़्यादा मुझे उसकी नींद की परवाह है ।

 

उसने बुदबुदाकर कहा कि लोग चल बहुत रहे हैं

यह सोचकर कि जो सैंडिल मैं पहनता रहा हूँ काफी घिस गयी है और कसने पर बहुत कसती नहीं है मैं एक जूता खरीदने के लिये निकल आया।

जूतों को खरीदने के लिये मैं बाज़ार में घूमने लगा। मुझे लगा कि कितने सारे लोगों की ज़रूरतें कितनी सारी हैं। कितनी सारी ललक और कितनी सारी हताशा।

काफी चलने के बाद मुझे लगा कि सड़क के बगल में गली में कोने में जो दुकान है वह ठीक रहेगी।

दुकान में दाख़िल होने के बाद मैंने जूता खरीदने की मंशा का इज़हार किया तो दुकान के एक कर्मचारी ने मुझे जूते दिखाने शुरू कर दिये।

मैंने कहा कि क्या जूतों के दाम इस बीच ज्यादा बढ़ गये हैं तो उसने कहा कि इस पर उसने ध्यान नहीं दिया लेकिन आदमी के दाम तो ज़रूर कम हुए हैं।

उसने मेरे पैरों को जूतों में डालते हुए बुदबुदाकर कहा कि लोग चल बहुत रहे हैं लेकिन पहुँच नहीं रहे हैं ।

मैंने उससे यह जानना चाहा कि लोग किस तरह के जूते लेने आते हैं तो उसने कहा कि आजकल कई लोग ऐसे जूते चाहते हैं जिन पर खून के दाग न लगें और उन्हें पहनकर अपराध किया जाय तो जूते के निशान न दिखें। उसने बहुत धीरे से कहा कि हाल में एक आदमी आया था जो ऐसे जूते मांग रहा था जिन्हें नात्सी पहना करते थे। उसने और धीमी आवाज़ में कहा कि उसके बाबा को जूते पहनने ही नहीं दिया जाता था - वह दलित थे और बाम्हन ठाकुरों की हवेलियों में खटते रहते थे। यहाँ दौड़ वहाँ दौड़ लेकिन बिना पनही और जूता चप्पल के। उसने कहा कि गाहकों को जूते पहनाते हुए उसे अपने पिता की बहुत याद आया करती है। उसने बहुत भारी, न सुनी जाती आवाज़ में कहा कि किसी को भी जूता पहनाते हुए लगता है कि वह बिवाइयों भरे अपने पिता के पैरों में जूते पहना रहा है। वह रुआँसा हो गया तो मैंने उससे परिहास करते हुए कहा कि मेरे बाबा के पैरों के जूते उस दुकान में नहीं मिल सकते थे - उनके पास अवध के किसान के लंबे पैर थे। फिर मैंने वह एक कहावत सुना दी कि सिर बड़ा सरदार का पैर बड़ा गँवार का जो बाज़ दफ़ा लोग बाबा को अपमानित करने के लिए सुना दिया करते थे। बाबा इस अर्थ में गँवार थे कि वह गाँव के थे लेकिन बेवकूफ़ वह नहीं थे अगर भोले और सरल वह थे तो। किसी सौदे में अगर उनके पास किसी का चार आना भी ज्यादा आ जाता था तो उसे लौटाने उसकी खोज में निकल जाया करते थे। उनके पैर बहुत बड़े थे लेकिन इसकी वजह से उनके पास अक्ल कम थी तो इसके बहुत प्रमाण नहीं थे। अगर अक्ल कम होती तो वह एक घूसखोर जज से यह न कह देते कि बिका हुआ जज और मदमाता गज सही राह पर नहीं चल सकता।

दुकान को बंद करने का वक्त आता जा रहा था लेकिन जैसे अपनी आख़िरी कहानी को कहने के लिए उसने मुलाक़ात के इन्हीं आख़िरी पलों को तय कर रखा था। उसने धीमी आवाज़ को और धीमा कर दिया। उसने कहा कि एक दिन एक आदमी मंझोले क़द का दाढ़ी मूछें सफेद दुकान में आया और मुझे दुकान के एक कोने में ले जाकर बोला कि मुझे लोगों के विवेक को रौंदने वाले जूते चाहिए। मुझे घबराहट हुई और मुझे पसीना आ गया। मैंने बिना बहुत सोचे हुए कह दिया कि मेरे पास नहीं हैं ऐसे जूते। वह एक डरावनी चिढ़ के साथ दुकान के बाहर निकल गया। उस दिन मैंने निरुपाय महसूस किया। मैं रोया भी कि देखो, एक आदमी दूसरे आदमी के लिए कितना ख़तरनाक हो चला है। 

इस तरह बातें करते हुए वह जूते दिखाना और मैं जूते देखना भूल गए तो उसने कहा कि देखो इस तरह बातें करते हुए मैं जूते दिखाना और आप जूते देखना भूल गए।

तो एक बार फिर उस आदमी ने जूते पहनाने में मेरी मदद करने के बाद कहा कि चल कर देखिये।

मैं चला और मैंने कहा कि इन्हें पहनकर मैं तेज़ चल सकूँगा और अब शायद कम ठोकरें लगें। और निराश होकर लौटने पर कम थकान लगे।

मैंने पूछा कि कितने का है।

दाम सुनकर मैं खिसिया गया और मैंने कहा कि सैंडल ले आओ।

लेकिन उनके दाम सुनकर भी मैं इधर उधर देखने लगा और फिर बोला कि चप्पल दिखा दो...

उसने चप्पलों के दाम  बताये तो मैंने अपनी पहनी सैंडल देखकर  कहा कि क्या इसकी मरम्मत करायी जा सकती है। उसने कहा हाँ। मैंने कहा  कहाँ।

उसने पास के एक मोची का नाम बताया जहाँ मैं जाने के लिये खड़ा हुआ और उसे धन्यवाद दिया।

वह  मुस्कुरा कर बोला कि फिर आइयेगा जूते खऱीदने। मैंने कहा कि हाँ, मैं जूतों और मनुष्यों के दामों के बारे में जानने के लिये फिर आऊँगा।

 

लगा कि दरवाज़ा नहीं खुलेगा, ऐसा उसने कहा

मेरा दरवाज़ा किसी ने खटखटाया तो मुझे लगा कि दरवाज़े पर हवा है। मैंने हवा के लिये दरवाज़ा खोला। लेकिन जो दरवाज़ा मैंने हवा के लिये खोला था उससे मैंने रौशनी को अंदर आते देखा और एक बूढ़े को दरवाज़े पर खड़े हुए। वह झुका-सा था। शायद उसका सिर दरवाज़े से लग रहा था और दरवाज़ा खुला तो वह लगभग गिर-सा पड़ा।

अपने को सम्भालते हुए उसने कहा कि लगा कि दरवाज़ा नहीं खुलेगा।

मैंने बताया कि मुझे लगा था कि दरवाज़े पर हवा होगी।

उसने कहा कि उसने हमेशा हवा होना चाहा।

मैंने उस बूढ़े को अकसर देखा था। एक दिन वह नीम के पेड़ के नीचे बैठा हुआ मिला। उसने मुझे इस तरह से देखा कि मैं उसे देखता हुआ खड़ा हो गया। उसने एक बड़ी खबर की तरह मुझे बताया कि सोसायटी में 23 बच्चे हैं । मुझे उसका यह कारोबार दिलचस्प लगा।

किसी और दिन जब यह खबर आयी थी कि भारत ने परमाणु अस्त्र वाली मिसाइल का सफल परीक्षण कर डाला है तो उसने बताया कि सोसायटी के तेइस बच्चे एक अकेले जामुन के पेड़ के पत्तों को गिनने के लिये राज़ी  हो गये हैं।

मुझे लगा कि वह इतना मौलिक किस तरह से है।

एक और दिन वह मिला तो कहने लगा कि वह जीवन को समेटने में लगा है। मैं उसे देखता रहा तो उसने कहा कि इसका मायने यह नहीं है कि वह मृत्यु के बारे में सोचता रहा है या कि कितने लोग उसकी अंत्येष्टि में आएँगे।

वह बहुत ढीले कपड़े पहनता था और बहुत धीरे चलता था। एक शाम वह जानना चाहता था कि दिल्ली में सड़क को पार करने का डर पृथ्वी को पार करने के संशय से बड़ा कैसे हो गया।

एक रोज़ रात में हैलोजेन लाइट में पार्क में मैं बच्चों को क्रिकेट खेलते देख रहा था तो वह अंधेरे से निकल कर आया और उसने कहा कि वह पूरे जीवन छक्का नहीं मार सका। उसने जब भी मारा तो वह कैच आउट हो गया।

ऐसा क्यों हुआ - उसने यह पूछा और खुद ही इसका उत्तर भी दिया: मुझमें संतुलन नहीं था। लेकिन संतुलन से क्या मिलता है।

फिर एक दिन उसने कहा कि खेल में गेंद का खोना ज़रूरी है।   

मैंने उस दिन जब दरवाज़ा खोला था तो लगा था कि वह और दिनों से ज़्यादा झुका था।

उसने कहा कि आप तेज़ संगीत बजाते हैं।

मैं यह समझ नहीं पाया कि उसे यह ठीक लगता है या बुरा। मैंने कहा कि आप क्या चाहते हैं। उसने कहा मैं नहीं जानता।

वह आदमी अंदर आकर बैठ गया। उसने पूछा कि क्या यह आपका रोना है। यानी कि संगीत। 

उसने पूछा कि क्या यह आपका हंसना है यानी संगीत तो मैंने कहा कि मैंने इस तरह से संगीत के बारे में नहीं सोचा।

मैंने सोचा वह कहेगा कि वह गाने की सीडी चाहता है ।

लेकिन उसने अपनी जेब से अपना मामूली रिकॉर्डर निकाला। उसने कहा कि उसने जामुन के पेड़ के बीच से गुज़रती हवा और चिडिय़ों की आवाज़ों को रिकॉर्ड किया है।

कमरे में हवा और चिडिय़ों की आवाज़ें गूंजने लगीं। अचानक दरवाज़े पर बहुत सारे बच्चे इकठ्ठा हो गये थे जो कह रहे थे कि गिन लिया- जामुन में इक्कीस हज़ार तीन सौ पैंसठ पत्ते हैं।

बहुत बूढ़ा आदमी बहुत खुश था।

कि जैसे एक अच्छी खबर को एक से ज़्यादा बार सुना जा सकता हो उसने दरवाज़े की तरफ बढ़ते हुए बच्चों से पूछा- कितने पत्ते तुमने बताया कि जामुन के पेड़ में हैं?

 

तो स्त्री क्या करे

स्त्री को कंडोम खरीदना था लेकिन स्त्री तो कंडोम खरीदती नहीं।

तो स्त्री क्या करे। 

वह पैसे लेकर घूमती रही। किसी को पता नहीं था कि वह अपने प्रेमी से मिलने आयी है और उसे कंडोम लेना है। उसके प्रेमी के पैर में चोट लगी थी। वह चल नहीं सकता था लेकिन प्रेम कर सकता था । तो तय हुआ था कि लड़की कंडोम खरीदने चली जाय। स्त्री को कंडोम खरीदना था लेकिन स्त्री तो कंडोम खरीदती नहीं।

तो स्त्री क्या करे। 

वह घूमती रही। उसने चारों तरफ देखा कि कोई ऐसा भी स्टोर हो जिसमें स्त्री दुकानदार हो लेकिन कोई उसे दिखा नहीं। हर दुकान पर पुरुष थे। लड़की ने बहुत अकेला महसूस किया।

इस बीच उस लड़की को यह भी याद आ गया कि किस तरह से यू ट्यूब पर ऐसे वीडियो की भरमार है जिसमें एक अकेली लड़की कंडोम लेने निकली है और उसकी कितनी फ़जीहत होती है। कोई उसे चरित्रहीन कहता है, कोई एक दर्जे की आवारा, कोई रंडी और कोई फ़ाहशा। इस तरह के वीडियो बहुत देखे गये थे शायद इसीलिये कि उसमें स्त्री की दुर्गति होती दिखती है।

इन दुविधाओं के बीच उसके प्रेमी का फोन आया कि लौट आओ। मुझे लग रहा है कि तुम्हारा किसी दुकान से कंडोम लेना ठीक नहीं होगा। तुम पर हँसेंगे। लड़की ने कहा कि उसका प्रेम करने का बहुत मन है। पुरुष इस बात से चोटाया कि लड़की इतना साफ़ तौर पर कह रही है कि उसका बहुत मन है। उसे यह ठीक नहीं लगा। और उसने अपनी बात को पसीने पसीने होती सड़क पर बदहवास लड़की से कहने की कोशिश की। लड़की ने लड़के से कहा कि मैं सड़क पर हूँ और शोर की वजह से तुम्हारी बात ठीक से सुनाई नहीं दे रही । 

लड़की घूमती रही और सोचती रही कि किस तरह से क्या किया जाय। लड़की को लग रहा था कि ऐसा कैसे हो कि वह किसी स्टोर में घुस कर कहे कि कंडोम दे दो। वह इतनी मामूली सी चीज़ क्यों नहीं कर पा रही है। वह घूमती रही। छोटे से बाज़ार में लोगों को यह लग गया कि एक सुंदर और वांछा से भरी औरत घूम रही है।

स्त्री को कंडोम खरीदना था लेकिन स्त्री तो कंडोम खरीदती नहीं।

तो स्त्री क्या करे। 

घर में पैर तोड़कर बैठा पुरुष सोच रहा था जो लड़की इस तरह बोलती हो कि उसका सहवास का बहुत मन है उसके बारे में दोबारा सोचना होगा- पत्नी तो वह नहीं हो सकती ।

बाज़ार में घूमती लड़की अचानक एक स्टोर में घुस गयी। उसने दुकानदार से कहा कि उसे कंडोम चाहिये। बहुत धीरे से कहने के बावजूद आसपास के लोगों ने सुन लिया कि एक लड़की कंडोम खरीदने आयी है। वे उसे देखने में जुट गये। वैसे ही जैसे उसने यू ट्यूब के वीडियो में देख रखा था लोगों को लड़की को देखते हुए।

दुकानदार ने यह सुनने के बावजूद भी कि एक लड़की ने कंडोम माँगा था कहा कि जी क्या कहा आपको क्या चाहिये। लड़की ने कहा कि कंडोम चाहिये। दुकानदार ने आवाज़ को थोड़ा ऊँचा करते हुए कहा कि कौन सा ब्रांड चाहिये कामसूत्र, मूड्स या मैनफोर्स। लड़की ने कहा कि के एस। दुकानदार ने कहा कि कामसूत्र। डॉटेड चाहिये या केवल लुब्रिकेटेड। लड़की ने कहा डॉटेड। दुकानदार ने कहा कि डॉट छोटे हों या बड़े। लड़की ने कहा बड़े। काफी बड़े। दुकानदार ने कहा रंग। लड़की ने कहा स्किनकलर। ताकि पता न लगे कि कुछ पहना है।

इस बीच लड़की के प्रेमी का फोन आया तो लड़की ने उसे काट दिया। दूसरा फोन उसकी सखी का था जिससे उसने चर्चगेट पर मिलने का वायदा किया। उसने कहा कि आज गहरे समंदर में नहाएँगे। तो सखी ने कहा कि तू क्यों रो क्यों रही है तो लड़की ने कहा कि यह देह है कि वधस्थल। सखी ने कहा कि समंदर में कितनी दूरी तक तू अंदर जाएगी तो लड़की ने कहा पता नहीं। सखी ने पूछा कि हम कपड़े पहनकर समुद्र में घुसेंगे कि ऐसे ही। लड़की ने कहा ऐसे ही।

इस कथा का अंत लड़की के शव के समुद्र तट पर मिलने से नहीं हुआ ।

लड़की के कंडोम लेने का नायाब दृश्य जो सीसीटीवी के कैमरे में कैद था दुकान के कर्मचारी उसे जब तब देख लिया करते थे और मज़ा ले लिया करते थे। बाद में किसी ने उसे यू ट्यूब पर डाल दिया बिना यह सोचे हुए कि वह स्त्री के चयन को कहने और पौरुषेय आक्रमण के सामने स्वाभाविक बने रहने का एक बड़ा दृश्य था जो काफी वायरल हुआ ।

 

ठीक घर के ऊपर

वो ऐसा वक्त था जब मुझे अपने गले में कुछ फँसा सा दिखता था कि जैसे मुझ पर कोई नज़र रखे है।  कि जो बोलना चाह रहा हूँ वह बोल नहीं पा रहा और जो लिखना चाह रहा हूँ उस पर कोई अप्रकट मुमानियत सी है। दिन जो कुछ हताश करने वाला लगता था शाम तक किसी अपरिभाषेय मनहूसियत में बदल जाया करता था। मुझे लगता कि कोई मेरा पीछा कर रहा है। और इन आशंकाओं के बीच कोई आहट सुनायी दे जाती। कोई इंगिति, कोई आवाज़ या कोई इशारा। 

वे अच्छे दिन नहीं थे। वे ऐसे दिन थे जिन के बारे में हम कहा करते हैं कि वैसे दिन कभी न आएँ। जो अच्छे दिन नहीं थे उनके बारे में बहुत सारे लोग कहा करते थे कि वे अच्छे दिन थे। इस तरह के विभ्रम वाले दिनों में एक रात मुझे यह लगा कि अपने ठीक ऊपर के घर में कुछ असहमत-उग्रवादी आकर रहने लगे हैं। मुझे इसका अंदाज़ा इस बात से हुआ कि रात करीब एक बजे के आसपास प्रिंटिंग प्रेस जैसी कोई चीज़ शुरू होती थी। घचरघच्च। घचरघच्च।

मैं दरअसल इंतज़ार करता था कि अब गुप्त प्रेस चलना शुरू होगा। वह बहुत धीमे धीमे चलता था। वह करीब दो घंटे तक चलता था। मैं सोचता था कि इसमें पैंफलेट छप रहे होंगे कि भारतीय राज्य कितना आततायी है। वह किस तरह से बिल्डरों, तस्करों, फिरकापरस्तों, बिचौलियों, सट्टेबाज़ों, रिश्वतखोरों, मीडियाकरों की आरामगाह बन गया है। इस बीच हालत ज्यादा बदतर हुई है। फासिस्ट कहीं भी मिल जाया करते हैं। मसलन एक दिन मैं सार्वजनिक पेशाबघर में पेशाब कर रहा था तो बगल में पेशाब करते आदमी ने कहा कि साले, ज्यादा फासिस्ट फासिस्ट मत किया कर, काट दूँगा। बैंड़ चोद माओइस्ट से तो बेहतर ही हैं फासिस्ट। मैंने कहा कि तुम कैसे कह सकते हो कि मैं माओइस्ट हूं तो उसने कहा कि तैने को कैसे पता कि मैं नाज़ी वादी हूं। मैंने कहा कि इसका मतलब यह है कि तुम ठीक ठीक फाशीवादी नहीं नाज़ी वादी हो। उसने कहा कि इनमें अंतर क्या है तो मैंने छेडऩे वाली शरारत के साथ कहा कि इसका मतलब दोनों में बहुत कम अंतर है। तू साला लेफ्टी, उसने दाँत पीसकर कहा। और तुम राइट, हर समय राइट, मैंने कहा। मैं भागा। मुक्तिबोध के पात्र की तरह।

इसके बाद मेरे दिमाग में चलता कोहराम बढ़ गया।

उस रात मैं अधनींदा होकर सो रहा था तो एक बजे फिर से प्रेस का चलना शुरू हो गया। मैं उठा। सीढिय़ों पर दबे पाँव चढ़कर मैं उस दरवाज़े के सामने जाकर खड़ा हो गया। अंदर से भारी मशीन के चलने की आवाज़ आ रही थी। मैंने सोचा कि कोई दरवाज़ा खोलेगा तो मैं कहूँगा कि मैं भी इस राज्य से बहुत असहमत और बेज़ार हूं।

मैंने ऊपर जाकर दरवाज़ा खटखटाया। दरवाज़ा नहीं खुला। मैंने और तेज़ दरवाज़ा खटखटाया। दरवाज़ा खुला। सामने एक युवा लड़की थी। मैंने उसके पीछे देखा।  एक झूला था। झूले के पास से माँ के जाते ही लड़का रोने लगा था। वह झूले की तरफ लौट गयी। फिर उसने पूछा कि आप नीचे रहते हैं न। क्या बात है।

मैंने कहा कि मैंने सोचा कि कोई प्रिंटिंग प्रेस है जो रात में चलाया जाता है चुपचाप और जिससे घचरघच्च की आवाज निकलती रहती है। वह हँसी। उसने कहा कि उसके पति इस बीच दफ्तर के काम से बाहर गये हैं। वह अकेली है। छोटा बेटा रात में करीब एक बजे के आसपास रोने लगता है। तो वह उसे बिस्तर से झूले में ले आया करती है।

उसने साफ कर दिया कि वह प्रिंटिंग प्रेस की आवाज़ नहीं झूले की आवाज़ है।

मुझे यह बात अजीब लग रही थी कि झूले की आवाज को मैंने प्रेस की आवाज़ समझा। ऐसा क्यों हुआ- यह मैं सोचता रहा। 

मैंने काफी अनिश्चय के साथ कहा कि क्या आपको दोनों काम - मतलब कि बच्चे का झूला डुलाना और प्रेस चलाना - करीब करीब एक जैसे नहीं लगते तो उसने कहा कि लगता तो है कुछ। उस बीच बच्चे ने फिर से रोना शुरू कर दिया था। वह मुड़ी और ज़ोर से हंसकर बोली कि वह प्रिंटिंग प्रेस चलाने जा रही है।

 

वह या तो प्रेम करने जा रही है या प्रेम करके लौट रही है

उस दिखते और न दिखते घर के सामने एक स्कूटर खड़ा हो जाया करता था भेड़ के आकार का जिसकी खाल निकाल ली गयी हो। वह मंद गुलाबी रंग का था। यह एक अजीब रंग था कि जैसे लाल को लाल न रहने दिया गया हो। कहा जाता था कि यह फैक्ट्री का रंग नहीं था बल्कि इसे शहर के एक मोटर गैरेज में रंगवाया गया था। यह इटली का बना स्कूटर था। लैम्ब्रेटा। शहर के जानकार इटली को फेलिनी, एको और कालविनो की वजह से जानते थे। स्कूटर को घर के सामने दोपहर में किसी समय खड़ा किया जाता था। पता यह लगा कि लैम्ब्रेटा एक कवि का है जो उस बियाबान  घर में उस समय आया करता था, जब उस घर का मालिक और पुरुष घर को छोड़कर एक जर्सी गाय जैसी सफ़ेद अम्बेसडर कार में निकल जाया करता था।

जो आदमी तीन-चार सीढियां उतरकर छोटा सा घास का लॉन पार करके चिडिय़ा जैसी आवाज़ करने वाले छोटे से लोहे के दरवाजे को खोल कर कार में बैठा करता वह बहुत जटिल नहीं लगता था। उसकी कार से बहुत सारा धुआँ निकलता। जान पड़ता था यह उसके अंदर फंसा गुबार था जो बाहर आ रहा हो । कहा जा सकता है कि उस आदमी के अंदरूनी कोहराम को जानने का यही वक्त हुआ करता था। वह घर को इस तरह से छोड़ा करता कि जैसे इस घर में अब कभी नहीं लौटेगा। उसका पेट बड़ा था और उसका चेहरा एक नकली उदारता का बुरा नमूना। वह इस तरह दिखता था कि बस अभी किसी भी पल वह मुस्कुरा देगा। तो उसका चेहरा भ्रमात्मक निर्मिति का नतीजा था। उसमें अस्तित्व का अवसाद दिखता था जबकि वह किसी वित्त विभाग का बड़ा अफसर था ।

उसके जाने के काफी देर बाद लेकिन लगभग एक नियत समय पर वह स्कूटर आता।

मझोले कद का कवि कुर्ता पायजामा पहने होता। वह लॉन पार करता। वह दो चार सीढियाँ चढ़ता और लोहे की ग्रिल से ढके बरामदे में जाकर बैठ जाया करता। उससे बात करने के लिए अन्दर से उस आदमी की पत्नी आती जो कुछ देर पहले  कार में निकल गया था। जो आदमी स्त्री के जाने के बाद आया करता था वह एक विवादास्पद कहानीकार था और काफी कम अच्छा कवि। लेकिन वह आया करता था अपनी कविताओं के साथ ही। कवि अपनी अधूरी कविता के बारे में बात करता। फिर जो कविता पूरी हो गयी थी, उसे जेब से निकाल कर सुनाता और बीच-बीच में उस स्त्री का हाथ पकड़  लिया करता।  कई दफा वह स्त्री के होठों की तुलना कड़वी शहद से करता- खत्म रबर और मुरझाये फूलों से भी। वह अकवि था, कवितात्मकता के विरुद्ध खड़ी होने वाली कविता का पैरोकार। ऐसे समयों में स्त्री थोड़ा उदास होकर कहती कि इस अति निकटता से सब कुछ नष्ट हो रहा है। वह बुदबुदाता कि स्त्री के साथ सोकर वह  पूंजीवाद की ऐसी कम तैसी कर रहा है। तो वह एक साथ वामपंथी-सा कुछ था जिसके पास स्त्री को समझने के उपकरण पर्याप्त नहीं थे।  

कवि की एक कविता में कम से कम एक जगह यह बात थी कि सहवास उसे दिन में पसंद है क्योंकि दिन में स्त्री पूरी दिखती है। वह साथी की तरह दिखती है जो चल पड़ेगी। रात में तो एक छाया होती है। तो दिन में मिलने का यह दार्शनिक आधार था।

उस छोटे से कस्बे में लैम्ब्रेटा स्कूटर बहुत लोगों के पास नहीं था। शायद यह भी एक वजह रही होगी कि किसी को जब भी किसी लैम्ब्रेटा स्कूटर पर चलते हुए देखा जाता तो यह कहा जाता कि वह एक कवि है जो थोड़ा कम अच्छा भी हो सकता है लेकिन जो अपनी प्रेमिका से मिलने जा रहा है या मिलकर लौट रहा है।

एक ऐसे कस्बे में जहां प्रेम के अधिकांश रूपक नष्ट हो गये थे लैम्ब्रेटा एक नये प्रतीक के तौर पर उभरा था। वह प्रेम की ओर जाते या प्रेम करके लौटते मनुष्य का प्रतीक बन गया था।  उस मुमानियत वाले कस्बे में कभी कभी कोई  लैम्ब्रेटा पर जाती लड़की दिख जाया करती थी जिसके बारे में भी यही  सोचा जाता था कि वह या तो प्रेम करने जा रही है या फिर प्रेम करके लौट रही है।

 

 

 

देवी की कहानियां पहल में कई बार छपी हैं। देवी एक फ्रीलांसर हैं। वे प्रकाशन की मुग्धता से परे हैं। उनका कविता संसार भी अलग-थलग है। पहल उनका गहरा सम्मान करती है।

संपर्क- मो.  9250791030

 


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