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अक्टूबर - 2019

मरघट सा मौसम

सुभाष चन्द्र कुशवाहा

कहानी

 

 

 

 

परसुरामपुर एक बड़ा गांव है, पांच टोले वाला। गांव के चारों ओर तीन तालाब, एक बाग, दो बंसवारियों के झुरमुट तो हैं मगर गंवई हवा और बयार की तासीर को अब वे ठंडा नहीं रख पाते हैं। वैसे परसुरामपुर का मतलब बाभनटोली और बिचली टोले से है। बड़ मनई के गांव में दखिन टोला, जिसे कुछ लोग घांघी-सेवार का टोला भी कहते हैं, क्या हैसियत? माना कि उस गांव में एक दखिन टोला है, जिसमें चमरटोली भी है, जहां मुसलमान और बहुत सारे पिछड़ी जाति वाले भी रहते हैं मगर धमक तो दो ही टोलों की रहती है।

चमरटोली आज भी सूअर की खोभार पर बसी है। हां, नये जमाने का स्मार्ट फोन तो पहुंच गया है मगर घर-द्वार, रहन-सहन आदिम स्थिति में है। पीने को साफ पानी नहीं है। चोरी-छिपे कच्ची शराब उपलब्ध है। ताड़ी की प्राकृतिक पैदावार भी है। घर के नाम पर माटी की चार से पांच फुट ऊंची दीवार और उस पर टंगी मूज की छानियां हैं जिनके द्वार इतने नीचे हैं कि जल्द कमर झुक जाती है। अभी तक किन्हीं आवास योजनाओं की नजर में यह टोला नहीं चढ़ा या जन्मजात प्रधानी पर एकाधिकार रखने वाले बिचली टोले ने अपने महलों की ऐश्वर्यता के लिए छानियों का बने रहना जरूरी समझा। चमरटोली में हचर-हचर करता तीस साल पुराना हैंड पम्प, नये जमाने की निशानी है। कुल मिलाकर टोले में मुसहर, कमकर, पासी, सटिक, भंगी, डोम और चमार जातियों के घरों के अलावा मूंज के झुरमुट और ताड़ के तीन पेड़ भी हैं। 

चमरटोली के बच्चों की पढ़ाई-लिखाई के लिए गांव का मिड-डे मिल वाला स्कूल है, जहां बच्चे अपने एल्यूमीनियम के बरतन के साथ जाते हैं। चहारदिवारी से सटकर, किनारे बैठते हैं। स्कूल का रसोईया उनकी थाली में ऊपर हाथ किए, खिचड़ी या दलिया उड़ेल देता है। थाली में दलिया गिरने तक बच्चे अपने हाथ पीछे किए रहते हैं। वे दलिया के रंग-रूप को निहारते हैं।  कुछ खाते हैं और कुछ घर उठा ले जाते हैं। वहां तैनात एक मात्र मास्टर इतना उदार है कि बच्चों को दलिया घर ले जाने की इजाजत दे देता है। वह अपनी इसी उदारता की वजह से पढ़ाने-लिखाने के दायित्व से मुक्त रहता है और बिचली तथा बाभनटोली वालों की इस मानसिकता की कद्र करता है कि आखिर घोंघी-सेवार के बच्चे पढ़ेंगे तो उनका काम कौन करेगा? इसमें प्रधान की कृपा भी शामिल रहती है या यों समझिए कि चमरटोली पर इसी प्रकार की कृपा बरसती रहती है।

शादी-ब्याह में टिमुकी-नगडिय़ा बजाने वाले और खैंची बीन, जीवन बिताने वाले चमरटोली के मरद-मेहरारू, पीढ़ी दर पीढ़ी बिचली टोले के गुलाम रहे हैं। भूमिहारों के दुआर और खेत-बाग में काम कर पेट पालने का सिलसिला पीढिय़ों से चलता आया है। बिचली टोले में जाते ही उनके पांव सहम जाते हैं। हाथ सिकुड़ जाते हैं और सिर झुक जाता है। बिचली टोले में मजूरी या बेगार करने से वे मना नहीं कर सकते और न दूसरी जगह, उचित मजदूरी मिलने पर जा सकते हैं। जायेंगे तभी जब बिचली टोले में कोई काम न हो।

परसुरामपुर की चमरटोली में कल एक असाधारण घटना घटी।  घटना का वीडियो, वाह्टसएप पर वायरल क्या हुआ, स्मार्ट फोन वाली युवा पीढ़ी के चटकारों और जोड़ घटानों के साथ कमेंट जुड़ते गये। ये कमेंट्स जुड़कर पूरे गांव में छितरा गये। सबसे ज्यादा चर्चा, दखिन टोले में हुई थी, खासकर टोले के उत्तरी हिस्से में, जहां पिछड़े वर्ग का बाहुल्य था।

चमरटोली और दखिन टोला भौगोलिक रूप से एक ही है, आपस में सटा हुआ, मगर अंदरखाने इसमें एक विभाजन भी है। यह विभाजन, तीज-त्योहार, खान-पान और शादी-ब्याह में देखने को मिलता है। यानी हाकिम मियां के घर के बाद, दखिन का हिस्सा चमरटोली कही जाती और उत्तर का हिस्सा, जिसमें ज्यादातर पिछड़ी जाति के लोग रहते हैं, दखिन टोला समझा जाता है। समय के साथ, दखिन टोले के दोनों हिस्सों में यानी चमरटोली और पिछड़ी जातियों में कुछ मेल मिलाप भी हुआ था।

दखिन टोले में तीन-चार परिवार मुसलमानों के भी थे। वे सभी जुलाहा समुदाय के थे और दलितों तथा पिछड़ों से उनकी निकटता स्वाभाविक थी। वे दखिन टोले के मध्य में थे। दखिन टोले में सबसे समृद्ध थे हाकिम मियां। मुखिया न होते हुए भी दखिन टोले के मुखिया की हैसियत थी उनकी।  वह सुलझे और सरल इंसान थे। दलितों के ज्यादा करीबी थे।  कोई दलितों के यहां शादी-ब्याह में जाये या न जाये, हाकिम मियां हर-एक के  यहां मौजूद होते। जब कभी चमरटोली में मारपीट या झगड़ा सुनाई देता, सबसे पहले हाकिम मियां पहुंचते। चमारों और डोमों को समझाते । आपस में मिलजुल कर रहने की नसीहत देते। ऐसा वह करीबी और बुजुर्ग होने के नाते करते । खेदू चमार, हाकिम मियां के हम उम्र थे तो धरमू के पिता सुखई डोम, आठ-दस साल छोटे थे। हाकिम मियां के प्यार-मुहब्बत ने, खेदू और सुखई जैसे दलितों की काली और रूखी चमड़ी की धारियों में छिपे जातिदंश के जख्म को सहला दिया था। ठाकुरों ने उनकी पीठ पर जो घाव दिए थे, उनकी तुलना में हाकिम मियां का प्यार, उन्हें जीने की ऊष्मा देता। यही कारण था कि हाकिम मियां की एक आवाज पर खेदू और सुखई उनके दुआर पर पहुंच जाते थे।

हाकिम मियां का मेल-मिलाप एक ओर था तो दूसरी ओर दखिन टोले के पिछड़ों और कुछ दलित जातियों के दिमाग में भी यह बात पीढिय़ों से डाल दी गयी थी कि वे भंगियों, डोम और चमारों से ऊंचे हैं। नीचों में ऊंच-नीच और हर स्तर पर किए गए सामाजिक विभाजन ने दखिन टोले की आंतरिक धमनियों में अलग-अलग गंध भर रखा था, जो युवा पीढ़ी के कुछ समझदार युवकों के प्रयास के बावजूद, समय-कुसमय निकल आता। इस गंध को रोकना हाकिम मियां के वश में न था। पिछड़ों और दलितों के बीच का विभाजन, सामाजिक व्यवहारों में देखा जा सकता था।

परसुरामपुर के पांच टोलों में उत्तर टोला, थोड़ा हट कर था, मुसलमानों का बाहुल्य वाला। कहने वाले उसे पाकिस्तान भी कहते। पश्चिम टोले में बनिया, सुनार और कुछ एक घर अन्य पिछड़े वर्ग के थे। यह टोला, चर्चा में बहुत कम रहता। काम से काम, न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर, बिचली टोले के इषारों को सहज स्वीकार करने वाला। तीसरा और केन्द्र मे रहने वाला बिचली टोला, भूमिहारों का था और चौथा, बाभनटोली, ब्राहमण बाहुल्य वाला और बिचली टोला से थोड़ा पूरब मगर, सटा था।  पांचवा, दखिन टोला विगत एकाध दशक से अपनी अहमियत बनाने की प्रक्रिया में था । इस प्रकार देखें तो पांचों टोलों में बिचली और दखिन टोला ही प्रदेश, देश की हर राजनीति की बतकूचन के केन्द्र में रहते। बाभनटोली की गतिविधियां को बिचली टोला ही संभालता। बाभनटोली अपने मन की बात बिचली टोले यानी भूमिहारों के कान में कहती।  हवा में बात उछालने में उस टोले की कोई रुचि या नीति न थी। बिचली टोला, बाभनटोली का सहोदर था। बिचली टोले की चर्चाएं हवा में कम तैरतीं, जबकि दखिन टोले की चर्चाएं, कुचर्चाओं में बदल, हवा को भारी या अवारा बना देतीं। दखिन टोले से आती आवारा हवा के झोंको से बिचली टोले के कान सतर्क रहते। वैसे बाभनटोली के कान भी सतर्क रहते मगर उतने नहीं, जितने बिचली टोले के। उन्हें लगता कि गांव की राजनीति का केन्द्र जब बिचली टोला है, तब उन्हें ज्यादा फिक्र करने की जरूरत नहीं।

समय के साथ बिचली टोले ने अपनी नीति में कुछ ढील दी थी, कुछ लोकतांत्रिक ढील। पहले की तरह कसाव के मौके, खास जरूरतों पर देखने को मिलते। बिचली टोले ने एकाध दशक पूर्व से, संपन्न पिछड़ों को चौकी यानी तख्त या काठ की कुर्सियों पर बैठने की छूट दे दी थी। चारपाई या सोफे पर बैठने की छूट अभी भी नहीं मिली थी। पिछड़ी जातियां इतने से ही गदगद थीं और गर्व की अनुभूति से मचलती, हिकारत से जमीन पर बैठने वालों को देखतीं। जमीन पर बैठने वालों का अलग वर्ग बना लिया गया था। गरीब पिछड़ों और दलितों को जमीन पर बैठना पड़ता। जमीन पर बैठने वालों में भी कुछ विभाजन था, कुछ का भिन्न मान-सम्मान था। यानी कि जो गरीब पिछड़े थे, वे बोरा, चट्टी या पुवाल की बिठई पर बैठ सकते थे मगर दलितों को अपने पैरों पर उकड़ू ही बैठना पड़ता। बिचली टोला यानी भूमिहार टोले का समाज शास्त्र कुछ और पेचीदा था। जमीन पर बैठने वाले दलितों के बीच सम्मान और बंटवारे का एक और समाजशास्त्र था। वह यह कि उनमें जो अछूत थे, जैसे डोम, चमार और भंगी, उन्हें पांच-छ: डेग दूर बैठना पड़ता। बाकी को, जैसे तेली, पासी, मुसहर को दो-तीन डेग दूर बैठना पर्याप्त होता। उत्तर टोले के अलावा, अन्य टोलों के छिटपुट मुसलमानों का अलग अस्तित्व नहीं था। वे सब के सब पिछड़े समुदाय के थे मगर आर्थिक हैसियत के अनुसार उनसे पिछड़े वर्ग की तरह व्यवहार किया जाता।

चाय-पानी और खिलाने-पिलाने का भी एक समाजशास्त्र था। वह यह कि भूमिहारों के स्टील या फूल के बरतन में पिछड़े नहीं खा-पी सकते। उनके लिए अलग से शीशे के गिलास या चीनी मिट्टी के कप रखे रहते । खाना खिलाने के लिए पत्तलों का प्रयोग होता। कहीं-कहीं कुछ सम्पन्न पिछड़ों को इस सिद्धांत के उल्लंघन की छूट मिलने लगी थी। अछूतों को या तो पत्तलों पर या उनके बरतन में ही खाना दिया जाता।

कुछ समय पूर्व तक मुसलमान, अछूतों की तरह थे मगर अब वे पिछड़ों की श्रेणी में आ चुके थे।

फिर लौटते हैं उस अप्रत्याषित घटना की ओर, जिसका जिक्र शुरु में किया गया था। वैसे तो दलितों के लिए चलाई गयीं तमाम योजनाओं के बावजूद चमरटोली अतीत के अंधकार में गुम थी और वहां की मारपीट, गाली गलौंज आये दिन की रस्म थी। मगर इस बार कुछ अनहोनी जैसी हो गयी। कुछ विकास हो गया। इसे आप अनहोनी का विकास कह सकते हैं। उस मारपीट को सुनने या पचाने को कम से कम बिचली टोला तैयार न था। दखिन टोला कुछ बदहजमी के साथ, उसे निगल सकने की स्थिति में आ चुका था। तो शुरु में दखिन टोले में चर्चा-कुचर्चा शुरू हुई, मगर छुप-छुपाकर। चर्चा का स्वरूप जिस तरह बदल रहा था या बढ़ रहा था, उससे चमरटोली का दिल बैठता जा रहा था। वह आतंक की संभावित आशंका में घिरी थी और उसके हर दड़बे में खौफनाक सन्नाटा पसरा हुआ था।

'हां! डोमवा का लडि़का?’ यह पूछते हुए सुगनी का मुंह मरी सीप की तरह खुला रह गया। उसके मुंह और हाथों की भंगिमा में एक लय था, किसी चितेरे रंगकर्मी की तरह।

सुगनी, नरेश कुर्मी की पत्नी है। वही नरेश, जो प्रधानी चुनाव में असफल रहने के बावजूद, टोले में प्रधानजी कहे जाने लगे थे। मजाकिया लड़के उन्हें कभी-कभी भूत प्रधान प्रत्याशी भी कहते तो कुछ लोग उन्हें हाकिम मियां का प्रतिद्वंदी और कुछ बतकुचन प्रधान कहते।  वैसे हाकिम मियां की किसी से प्रतिद्वंदिता न थी। वह सबके साथ एक बुजुर्ग और अभिभावक की तरह पेश आते। जब उन्हें किसी बात पर गुस्सा आता तो चुप रहते या तब उन्हें अपने दरवाजे पर लेटे हुए देखा जाता।

जब हाकिम मियां के कानों में पीपल पेड़ के पास हुई मारपीट की घटना सुनाई पड़ी तो उन्होंने सुखई के दरवाजे की ओर रुख किया।  वहां जाकर बात को टटोला। मारपीट की बात सुन उनके अंदर बहुत गुस्सा था मगर हकीकत से वाकिफ होते ही चेहरा झूल गया।  उन्होंने एक नजर हट्टे-कट्टे धरमू पर डाली। धरमू की चौड़ी और नंगी छाती को गौर से निहारा, जिस पर उनके द्वारा, मजार शरीफ से लायी ताबीज, काले घागे की डोरी में बंधी, लटक रही थी।

 पांच-छ: साल पुरानी बात होगी, जब ताड़ के पेड़ के पास सुखई रोते हुए हाकिम मियां से बोले थे-'चाचा! धरमुवा बदमा हो गइल बा। सबसे झगड़ा करत बा। हमार बात ना मानत बा।’

'अरे सुखई, सभे लड़कपन में बदमाशी करेला। बड़ होई त सुधर जाई।’ बोलते हुए हंसने लगे थे हाकिम मियां। सुखई पर उनकी हंसी का असर न पड़ा। बोले-'ना चाचा, चोरी-चकारी में फंस जाई तो जिंनगी बेकार हो जाई। आप के बात मानी, आप तनी समझा-बुझा दीं?’

 अच्छा परेशान मत हो सुखई। अगला हफ्ता मजार शरीफ जायेके बा। उहां धरमुवा खातिर दुवा मांगेब। वहां से ताबिज बनवा के ला देब।’ सुखई को समझाया था। धरमू से उन्होंने कुछ कहा नहीं और उदास मन दरवाजे पर लौट आये थे। 

दखिन टोले की महिलाओं की सुबह-शाम की संसद में बतकूचन ही बतकूचन थी। यह संसद आम तौर पर पकवा इनार के पास जमा होती जहां अब नामभर को इनार था। बगल में सरकारी हैंडपंप गड़ जाने से, भोर से देर रात तक, महिलाओं का आना-जाना लगा रहता।

'और का? दू चटकन, चटाक-चटाक... गाल पर...। मुंह लाल हो गइल बा, बाबू साहब के।’ रसूल बी मुंह पर आंचल सटाये, हाथों के अभिनय से बता रही थी।

'आहि माई! भूमिहार लोग मुंवा दी अब? चमरटोली के एकेगो कमासुत लडि़का है धरमूवा। बाबू लोग बरर्दाश्त ना करी?’ बोली थी, सलीम बो। दोनों बहुओं की खुसुर-फुसुर सुन, सास ने आंखें तरेरी थीं।

खौफ की बयार इधर भी बह रही थी।

हाकिम मियां की एक बेटी और तीन बेटे थे। रसूल, हाकिम मियां के बड़े बेटे थे। रसूल और उनसे छोटे सलीम, गांव पर नहीं रहते। दोनों भाई, दुबई में टैक्सी चलाते। उनकी पत्नियां ससुर के पास थीं। बेटी की शादी हो चुकी थी। सबसे छोटे और किशोरावस्था से छलांग लगाने को उद्धत हफीज, गांव रहने वाले एक मात्र औलाद थे। दुबई की कमाई से दखिन टोले में ही क्यों, परसुरामपुर में हाकिम मियां का रुतबा, बढ़ा था। बिचली टोले को यह रुतबा, धक-धक लगता। भूमिहारों के मन में एक टीस उठती और वे समय आने पर टीस मिटाने की फिराक में थे। हफीज के पास जो महंगा स्मार्ट फोन था, और जिसकी धाक भूमिहार टोले के युवाओं में सुनाई देती। उसे पिछले महीने, ईद पर आये भाईयों ने दी थी। 

चमरटोली की मारपीट पर अपने-अपने हिसाब से रसूल बो और सलीम बो ने जुबान खोलीं थीं मगर उन्हें डर था कि बात ससुर तक पहुंची तो ठीक न होगी। वे जानती थीं कि ससुर, भूमिहारों के किसी भी मामले से दूर का नाता रखते हैं। हां में हां मिलाना और अपने विवेक से काम लेना, उनका मूल सूत्र है। 

फिलहाल चर्चा में चमरटोली की मार बनी हुई थी।

चर्चा थी कि शाम को धरमू की नई नवेली सुन्दर बीवी को पीपल के पेड़ की आड़ में अभिमन्यु राय ने पकड़  लिया था। यह कोई अप्रत्याशित घटना न थी।  अप्रत्याशित यह था कि इसे देख, धरमू का नशा दूर हो गया था। उसके तन-बदन में आग लग गयी थी। चमरटोली के दूसरे मरदों की तरह उसने देख कर, आंखें बंद न कीं। 

धरमू मिलिट्री में मेहतर था। अभी दो साल पहले ही उसको नौकरी मिली थी। पिछले माह उसका गवना हुआ था और वह एक-डेढ़ महीने की छुट्टी पर गांव आया हुआ था। जब से वह गांव आया था, हर शाम चमरटोली की ओर अभिमन्यु राय आते। घंटों चमरटोली से सटे बगीचे में, पीपल के पुराने पेड़ के पास बैठकी जमती। देश-दुनिया की बातें होतीं। दोनों लगभग हमउम्र थे। गांव वाले तो यह भी कहते कि धरमुआ मलेटरी का बढिय़ा शराब लाया है। शराब के नाम पर बबुआन का रंग बदलना, पुरानी आदत है। इसलिए रोज शराब या ताड़ी की लबनी के साथ बैठक जमती ।

गांव में जब दो-तीन लोगों के बीच बैठकी होने लगे तो गांव वाले समझ जाते हैं, इसमें जरूर कोई राज है। मगर एक डोम और भूमिहार के बीच क्या राज, यह बात समझ से बाहर थी।

खान-पान में छुआछूत का पुराना दौर बदला न था। फिर भी दारू और ताड़ी पीने में छुआछूत नहीं चलती । मुफ्त में पीने को मिले तो गांव वाले बैरी को भी साथी बना लेते हैं। तो उस दिन नशे में धुत होकर धरमू जैसे ही पीपल पेड़ की सोर पर लुढ़का, अभिमन्यु राय उसकी बीवी को बुला लाये। बोले-'धरमूबो, चलो देखो, धरमुआ का हालत बना लिया है? इतना पीया है कि होश नहीं?’

धरमूबो भागे आयी थी। अभिमन्यु राय ने धरमूबो को समझाने का अभिनय किया- 'बहुत रोकने की कोशिश की, मगर माना ही नहीं। दो-तीन पाउच पी गया।’

'तनी पहिले बता देहले रहतीं?’ बोली थी धरमूबो।

'का बताता? तुम्हारी तरह सुन्नर मेहरारू पाकर भी जब ससुरा को होश ना है तो का समझाऊं?’ बोलते-बोलते अभिमन्यु राय ने धरमूबो की बांह पकड़ ली थी।  धरमूबो जब तक कुछ समझती, अभिमन्यु ने उसे पीपल पेड़ की आड़ में जकड़़ लिया था। धरमूबो का माथा ठनका। उसने अपने को छुड़ाने के लिए बाबू साहब को कुछ डेग घसीट दिया और धरमू को लात से ठोकती हुई चिल्ला पड़ी । धरमू का नशा इतना भी नहीं था कि बीवी की लात और आवाज पर चौकन्ना न होता । उसने झट आंखें खोल दीं।  उन्हें मला और एक बार गौर से घूरा। बात दिमाग तक पहुंच गयी। उसका चेहरा एकदम सख्त और डरावना हो गया। वह एक हाथ से जमीन का सहारा लेते उठा और लडख़ड़ाते हुए बाबू साहब की ओर बढ़ा। जब तक कि बाबू साहब संभलते, उनकी गाल पर जड़ दिया दो चाटा। धरमू के हाथ में इतनी ताकत थी कि वहीं, पेड़ के पास ढह पड़े थे अभिमन्यु और फुर्ती से उठते हुए गांव की ओर जाने के बजाय, बगीचे के उस पार निकल भागे थे।

उस घटना के बाद दखिन टोला अंदर-अंदर दहक गया था।

'गाल फुलकर कुप्पा। अंगुरी के निशान दूर से दिखाई देत बा।’ सांस को जैसे जबरदस्ती अंदर-बाहर करती फुलेसरी घटना का बयान कर रही है। ठीक वैसे, जैसे उसी के सामने यह सब कुछ घटा हो या वह अभी-अभी बाबू साहब के दरवाजे से देख-सुन कर आयी हो। उसकी छाती, खेदन लुहार की भांथी की भांति फक्क-फक्क करती, ऊपर-नीचे हो रही है। फक्क...फक्क..., उसने आहिस्ता अपनी  छाती की आवाज सुनी। आंखों देखी कमेंटरी सुनाते हुए, आंखें ऐसे फैला रही थी, जैसे उन्हीं आंखों के लेंस ने घटना का वीडियो बना लिया हो और फटाफट सोशल मीडिया पर वायरल कर दिया हो। फुलेसरी, नाथू यादव की पत्नी और इन्द्रासन यादव की बहू थी।

ज्यादातर लोगों के पास सुनी सुनाई जानकारी थी फिर भी सबके सब, सच बताने का दावा कर रहे थे।

दखिन टोला, पक्ष या विपक्ष के रूप में अभी अपनी भूमिका तय करने की प्रक्रिया में था मगर उसका मिजाज भूमिहार टोले से एकदम भिन्न था।

 'और का? बहुते आग में मूतते हैं भूमिहार लोग? डोमवा ने बता दिया औकात?’ सुगनी का आदमी, नरेश कुर्मी ने अपनी आवाज को ऊंचा कर पास-पड़ोस तक पहुंचाने का जोखिम मोल लिया था। नरेश कुर्मी ही एक मात्र सच्ची घटना का बखान करने वाले न थे, हर कोई अपने ढंग से घटना का बखान करता और उसे नये तरीके से सुनाता। सुनाने का अपना अलग रस था। 

'पीपल के सोर पर पटक-पटक कर मारा है डोमवा का लडि़का। मलेटरी में है भाई! भूमिहार भाई के ऐंठ सटक गया है। बड़ा गांव में गदर काट रहे थे?’ नाथू यादव भी अपनी जानकारी पर शान चढ़ा रहा था ।

'मैं तो सुनी हूं कि सूअर के खोभार के पास चटाक-चटाक दुई चटकन मारा है।’ टोले की शबीना ने बात में नया ट्विस्ट दिया था। उसने पीपल के पेड़ को खोभार में समाहित कर लिया था यद्यपि दो चटकन वाली बात सत्य के एकदम करीब थी।

शबीना के पास कुछ और जानकारी थी।  उसके अनुसार हाकिम चाचा के दुआर से दिखाई देता है चमरटोली। वह जरूर देखें होंगे मगर बतायेंगे नहीं?

'उनकी बड़की पतोहू तो पूरे गांव में बता रही है न?’ अनारकली बोली थी।

'अरे जब मियां साहब को पता चलेगा तब रसूलबो की जुबान पर ताला लग जायेगा।’ फुलेसरी ने गरदन हिलाते हुए कहा। 

सुगनी, फुलेरी, शबीना, अनारकली की हां में हां मिलाने वाली कुछ और औरतें शामिल हो चुकी थीं तो  हफीज के उम्र के लड़के अलग गोल बनाये, मामले की अपने स्तर से जांच-पड़ताल कर रहे थे।

जितने मुंह उतनी बात। मगर हकीकत तो यह थी कि गांव के कुछ घुमंतू युवकों ने उस घटना को मोबाइल में कैद कर लिया था। उन्होंने घटना का वीडियो वाट्सएप पर डालकर गांव को हुलसने का नया मसाला पकड़ा दिया । इसे मजाक में लेने की जरूरत नहीं? माना कि गांव के बहुत कम युवक वाट्सएप पर थे मगर थे तो जरूर। चमरटोली से सटे पीपल पेड़ के पास अक्सर युवकों की बैठकी चलती रहती है। जिनके मोबाइल में नेट की सुविधा होती है, वे सबका मनोरंजन कराते रहते हैं। घटना के दिन भी बगीचे के दूसरी ओर दो-तीन युवक गन्ने के खेत के पास बैठे थे। उनकी निगाह धरमू और अभिमन्यु की बैठकी की ओर थी। कोई कह रहा था कि उनमें से एक हफीज भी था। अब यह कोई बताने को तैयार नहीं था कि किसके पास मोबाइल था, किसने धरमू द्वारा चाटा मारने के दृश्य को कैमरे में कैद किया और किसने गांव के दूसरे युवकों के वाट्सएप पर इस पहली, इकलौती वर्ण विरोधी घटना को सोशल मीडिया पर वायरल किया था। 

तो अभिमन्यु पिट गये थे। तेइस-चैबीस साल के अभिमन्यु की पहचान, इलाके के लंपटों में थी। खानदानी खेती-बारी के अलावा, कोई काम-धंधा तो उनके पास था नहीं।  हाईस्कूल में चार बार फेल होने के बाद, पढ़ाई से हार मान चुके अभिमन्यु ने कुछ लफंगो के साथ, लफंगई का एक चक्रव्यूह बनाया था। गेरुवा गमछाधारी गिरोह के सहारे कुछ को फांस कर पैसे झटक लेते। दारू-वारू का जुगाड़ हो जाता।  हाई-वे पर गौ-माता को आगे कर, सड़क पर दौड़ाने और गाडिय़ों से टकराने के बाद वसूली करने का नया धंधा शुरु हो गया था। बेरोजगारी की समस्या ऐसी थी कि अनैतिक और नैतिक जैसे धंधों का फर्क मिट चुका था।

इसी बीच पीपल के पेड़ वाली घटना घटी थी और बिचली टोले का मिजाज, लाल-पीला हो गया था।

बिचली टोले की सबसे ताजा खबर खेदन लुहार के बड़े सुपुत्र, बजरंगी लाये थे-

'डोमवा के इ मजाल?’ अभिमन्यु के बाप रामेश्वर राय सुने तो बमक रहे थे। पैर पटक रहे थे। लपक कर कभी इधर, कभी चमरटोली की ओर डेग बढ़ा रहे थे। फिर लौट कर बिचली टोले को सुना रहे थे। लग रहा था कि अभी दौड़ कर फुंक देंगे चमरटोली को।’ इस प्रसंग को सुनाते हुए बजरंगी अभिनय जैसा कुछ-कुछ करता।

'हे काली माई! अब का होई? डोम-चमार के का इज्जत होला बिचली टोला में? बड़का लोग तो उजाड़ दी अब चमरटोली के? बजरंगी की बात सुन बोली थी सुगनी।

'गीदड़ की मौत आती है तो वह बिचली टोला से बैर लेता है, पंकज राय आंख लाल किए गला फाड़ रहे थे’ बजरंगी ने बताया।

'सुना हूं कि दुनाली बंदूक भी निकाले थे पंकज बाबू?’ हफीज ने पूछा। 

'गांड़ फट जायेगी, बंदूक निकालेंगे तो? उहो आरमी में है?’ नरेश कुर्मी मुंह टेढ़ा कर के गुस्से में बोले थे। 'मजाक है का, डोम पर हाथ उठाना? हरिजन एक्ट में जेल हो जायेगी?’

'अब इ सरकार में जेल-वेल ना होगी? देखते रहिये। कुछ न कुछ बवाल होगा’, खेदन लुहार भी बतकही में शामिल हो गये थे।

कुल मिलाकर दखिन टोले वालों की बातचीत का लब्बो-लुआब यही था कि अब चमरटोली पर कहर टूटेगी। धरमू की लाश अब गिरी की तब। मगर शाम तक कुछ नहीं हुआ। 

अगले दिन भी कुछ नहीं हुआ।

तीसरे दिन तो मामला ठंडा ही नजर आने लगा था।

इसी बीच भूमिहार टोला यानी बिचली टोला के अंदर की खबर, दखिन टोला में पहुंची थी।

'बिचली टोला और बाभनटोली के बाभनों की बैठक हुई है रामेश्वर बाबू के यहां।’ बजरंगी ने बताया।

'अच्छा,’ खेदन ने मुंह को बड़ा करते हुए आश्चर्य मिश्रित डर व्यक्त किया। 

'पंकज बाबू तनिक गर्म हुए थे मीटिग में तो रामेश्वर बाबू ने पंकज को टोका था-ऐ पंकज बाबू, तनिक शांत रहिए। चुनाव सामने है।  सारा बोझ इहे दू टोला के कपारे है।  चुनाव बाद निपट लीजियेगा। समझे? भूमिहारी सीखिए। सौ चोट सुनार की, एक चोट लुहार की, समझे की ना।  इस समय डोम-चमार को मारेंगे तो चांडाल इसको भुनायेंगे। अब लाश पर भी चुनाव जीत लिया जाता है, समझे कि ना?’ बजरंगी का संवाद और अभिनय जारी था।

'समझ रहे हैं बड़का बाबू, मगर दखिन टोला वाला आग में मूत रहे हैं सब। कह रहे हैं कि भूमिहार की औकात ठिकाने आ गयी।’  सफाई दिये थे पंकज राय।

'ठीक है।  तनिक धैर्य रखिए। अभिमन्यु बाबू वही सब करेंगे, जवन चाहते हैं। .....अरे सुनिए पंकज बाबू, इ धरमुवा की मउगी सुन्नर है का?’ ठठा कर हंसे थे बाभनटोली के प्रभाकर तिवारी । फिर कुछ देर तक मीटिंग में हंसी का दौर चला। चाय आयी। लोग चाय पीकर  लघुशंका करने गये और फिर आकर जम गये। 'अरे इ कवनो नया रिवाज ना है ? काहें सरवा ओकरा खातिर बाबू साहब पर हाथ..?’ प्रभाकर तिवारी ने हंसते-हंसते दीवार का सहारा ले लिया था। 

'अरे बाबा! हाथ कहां उठाया था सरवा? ओकर एतना हिम्मत? जिंदा फूंक ना देंगे हम लोग? इ सारे दखिन टोला वाले एक हाथ का कांकर नौ हाथ का बिया बना दिए हैं।’ बबुआन के नये सूरमा रबिन्दर राय बोले थे। 

'सुना हूं हफिजवा बड़ा चहक रहा था? उहे अपना मोबाइल से वीडियो बनाया है।’ इस बार रामेश्वर बाबू बोले थे। 

'दुबई की गर्मी है न! उफन रहा है हाकिम मियां का छोटका?’ प्रभाकर तिवारी हुमचे थे। 

'सबकी गर्मी झड़ जायेगी तिवारी जी। सुखइया का मुंह देख रहा हूं।  देख ना रहे हैं, तीन दिन से दुआर पर आकर हाथ जोड़े जमीन पर लोटता रहता है। अछूत ना होता तो पैरवा पकड़ कर नाक रगड़ता।  सरवा हाथ जोड़े गिड़गिड़ा रहा है।  माफी मांग रहा है।  कह रहा है कि धरमुआ अउर ओकर मेहरारू के घर से निकाल देंगे। जाये सारे मिलिटरी में, वहीं राखे अपना मेहरारू के।’

'राम...राम.., धरमुआ के सुन्नरी शहर चल जायेगी त बबुआन लोग का करेंगे?’ इस बार भगवती पाण्डेय मुस्कुराते हुए बोले थे।

'नाहीं, हम बोले उससे-रे, धरमुवाबो से कवनो शिकायत ना है। उहो हमार पतोह है, समझे? कहीं मत भेजो। हम हैं न? सब संभाल लेंगे।’ बोले थे रामेश्वर राय।

'बड़ा धैर्यवान हैं आप बाबू साहब?’ प्रभाकर तिवारी गंभीर होते बोले थे।

'पंडित जी, तनिक धैर्य बनाये रखने से सब काम अपने आप हो जाता है। बड़ आदमी को गंभीर रहना चाहिए कि ना?’

'ठीक कह रहे है आप। अभिमन्यु बाबू का कह रहे हैं?’

'उ का कहेंगे? उ कम हरामी ना हैं? अरे तनि देख-भाल कर हाथ डालना चाहिए न! माना कि हम लोग, उ सब करते आये हैं ...मगर हम लोग इनकी तरह बकलोल ना थे। ....धरमुआ तनिक पढ़-लिख लिया है न? जमादार ही सही, मलेटरी में काम करता है न? सुना हूं, बामसेफ का मेम्बर भी है। दिमाग त खराब होगा ही। अब ओकरे सामने ही ओकर मेहरारू को पकड़ेंगे तो?’

'ना...ना, इ समझदारी ना है। जुग-जमाना और समय देखकर हाथ डालना चाहिए। एक बार फिर आपन सरकार बन जाये तो जवन मन आये तवन करीहें, के सारे बोली?’

'तो का बड़का बाबू, तबले इ सारे हाथ उठायेंगे...?’ फिर आंख छितराये थे पंकज बाबू।

'पूरा के पूरा बैले हउव का हो पंकज बाबू? इ सब दखिन टोला के लवंडन के काम है। उहे सारे वीडियो बना के वाह्ट्सएप पर डाल दिए थे । ओकनी से भी निबट लिया जायेगा। तनिक धैर्य रखा।’ रामेश्वर बाबू सभी को साधने में लगे थे।

मीटिंग खत्म हो गयी थी।

परसुरामपुर के बिचली टोले ने चमरटोली की उस अप्रत्याशित घटना को सीने में दबाकर भुला दिया था। चुनाव प्रचार शुरू हो चुका था। परसुरामपुर के वोट का जिम्मा बाभनटोली और बिचली टोला पर था। बाकी तीन टोलों के बारे में कोई स्पष्ट राय न थी।  उत्तर टोले के बारे में जरूर बाभनटोली और बिचली टोले वाले आशंकित थे। प्रभाकर तिवारी कहते थे- 'अरे उ सारन का तो एके एजेंडा है, खिलाफत करना। उ वोट ना देंगे।’

'कितना वोट है सारन का? लेखपाल शुकुल जी तो कह रहे थे, बहुतों का तो वोटर लिस्टवा से नाम गायब कर दिया गया...? बाकी जो है, उसे देखा जायेगा? सब आपन लोग एक जुट हो जाएं तो इ मियां-मियंडी का करेंगे?’ बोले थे रामेश्वर बाबू।

'दखिन टोला को संभालिये बाबू साहेब? हाकिम मियां, चमरटोली के सारा वोट अपने हाथ में रखते हैं।’ उसकी काट वाट्सएप वीडियो है, भेजवाते रहिये, बोले थे प्रभाकर तिवारी। तभी तिवारी के कान में कुछ बतिआये थे रामेश्वर बाबू। तिवारी ने उनकी बात सुन गरदन हिलाई थी। 

इधर दखिन टोले में एक बार फिर पकवा इनार पर बतकही का नया मसाला मिल गया है-

'अरे सुनी हूं, धरमुआ भी जाकर माफी मांग आया बाबू लोग से?’- फुलेसरी ने धीरे से बताया था।

'उहे काहें, उसकी मउगी भी गयी रहे? उहो अभिमन्यु बाबू और रामेश्वर बाबू के आगे हाथ जोड़ी थी।’

'तू लोग काहें एतना टेंशेन लिये हो? सब चमरटोली बबुआन के यहां काम पर जाने लगी है। मामला रफा-दफा हो गया है।’

दस दिन में मौसम ऐसा बदल जायेगा, किसी को क्या पता? गांव अपनी जगह पर था।  गांव की सुबह और शाम में वही बासी गंध थी।  पक्षियों का कलरव परंपरा को हांफते हुए निभा रहा हो जैसे।  स्कूली बच्चों को पढऩे के लिए स्कूलों में कुछ खास न था। नौकरी और रोजगार जैसे बांझ हो गये हों। चारों ओर एक अघोषित डर का वाताकरण था। दूर कहीं मजदूरी करने कोई मजदूर नहीं जाता था।

इसी बीच एक रात चमरटोली और दखिन टोला के सभी लड़कों की पंकज बाबू के दुआर पर मीटिंग हुई थी।  सुनने में यह भी आया था कि सभी के लिए मुर्गा और पाउच का इंतजाम था। धरमुआ और बजरंगी भी थे।  पंकज बाबू ने मीटिंग में जोरदार भाषण दिया था। उन्होंने सबसे पहले अभिमन्यु बाबू और धरमू को पास बैठाया। एक साथ दोनों का फोटो खींचकर वाट्सएप पर डाला गया।  फिर पंकज बाबू ने बोलना शुरु किया-मेरे हिंदू साथियों, मियां लोग, हिन्दुओं को बांट रहे हैं।  दलितों को भूमिहारों से लड़ा रहे हैं।  इ सब उत्तर टोले के मदरसे का खेल है। वहीं तय होती है मुसलमानों की राजनीति। हाकिम मियां के सहारे दखिन टोले में जहर बोया जाता है। हफिजवा अपने स्मार्ट मोबाइल से चमरटोली की महिलाओं को नहाते हुए वीडियो बनाता है। .. ये देखिये आप लोग कुछ वीडियो। हमने अपने दलित भाइयों की इज्जत का ख्याल रखते हुए चेहरा ब्लर करा दिया है। देखिये आप लोग..... ?’ धरमू की ओर मुखातिब होते हुए वीडियो दिखाने लगे और फिर बोले- उस दिन ऐसा कुछ नहीं हुआ था, जो वाट्सएप पर दिखाया गया था। यह सब हफिजवा और उत्तर टोले की करतूत थी। धरमू को रामेश्वरबाबू अपना बेटा मानते हैं और भौजी को अपनी पतोहू। मगर दखिन टोले में किसके घर के लोगों ने बात का बतंगड़ बनाया, किसने वीडियो फैलाया, यह सब जानते हैं।’ युवकों के चेहरे का रंग बदलने लगा था।

परसुरामपुर के युवक बड़े ध्यान से पंकज बाबू को सुन रहे थे। सबने उनके द्वारा दिखाये गये वीडियो को देखा।

पंकज बाबू ने बोलना शुरु किया- हम लोगों को यहीं रहना है। यही हमारा देश है । हिन्दुस्तान यही है। हाकिम मियां तो दुबई चले जायेंगे मगर हमको, आपको यहीं रहना है। इसलिए सभी को मिलकर रहना चाहिए। आपस के बैर भुलाकर एक हो जाना चाहिए। सदियों से इन हलावरों ने हमको लूटा है, अब हम सभी को अपने धर्म की रक्षा करनी चाहिए। इनको लूटना चाहिए। कायरता से अपनी कौम की रक्षा नहीं हो सकती।

मीटिंग बाद उसी रात लड़कों का एक छोटा सा जलूस भी निकला था।

देखते ही देखते दखिन टोले का मिजाज बदल गया । बदला तो और भी बहुत कुछ था मगर हाकिम मियां अपने को पहले जैसा बनाये रखे थे। लोग आपस में कम बोलते-बतियाते मगर हाकिम मियां, सबकी खैरियत पूछते। एक दिन खेदू के दुआर पर भी गये थे मगर किसी ने उनसे बात न की। चुपचाप लौट आये थे हाकिम मियां। इस बीच गांवों में अपराध बढ़ गये थे।  हर कहीं चोरी-डकैती की सूचनाएं मिल रही थीं। चुनाव सामने था।

एक दिन अचानक दखिन टोला छनछना गया। हाकिम मियां के घर पर डकैतों ने धावा बोल दिया था। बम के एकाध धमाके भी हुए मगर डर के मारे कोई बाहर न निकला। दखिन टोला सोया रहा। एकाध परिवार जरूर चिल्लाये थे मगर जल्द ही रात के खौफ में चुपा गये थे। पहले की तरह दखिन टोले के सीने में दुश्मन से मुकाबला करने की आग नहीं दिखी।  हाकिम मियां ओसारे में सोये थे, उन्हें दो लाठी मारी गयी थी। वह मार खाकर विस्तर पर बेहोश हो गये थे। कहा जाता है कि हफीज बहुत देर तक डकैतों से लड़ता रहा। लड़ते-लड़ते उसकी कमीज फट गयी थी। खून के निशान बता रहे थे कि डकैत भी जख्मी हुए होंगे। सुबह लाठी के सहारे हाकिम मियां खड़े हुये थे। पूरा बदन दर्द कर रहा था। डेग आगे नहीं बढ़ रहे थे। बड़ी मुश्किल से वह हैंडपम्प तक चलकर गये। शायद मुंह धोना चाहते थे। हैंडपम्प की हैंडल में एक काले धागे की डोरी फंसी पड़ी थी। वह उस डोरी को गौर से घूरते रहे फिर कांपते हाथों से उसे हैंडपंप से अलग किया। झट मु_ी में बंद कर, भारी मन बिस्तर पर आकर बैठ गये थे। शरीर थरथरा रहा था। वह एकाएक फूट-फूट कर रोने लगे थे। उन्हें रोता देख, उनकी पत्नी और दोनों बहुएं भी सुबुकने लगीं थीं। हफीज दूसरे बिस्तर पर अधमरा पड़ा कराह रहा था। 

उसके एक हफ्ते बाद चुनाव हुआ। परसुरामपुर में भी वोट पड़े । उत्तर और दखिन टोले में मरघट सा मौसम था। वोट देने बूथ तक बहुत कम लोग गये। सिर्फ वे ही, जिन्हें पंकज बाबू ने अपनी ट्राली से ढोया। पूरे दिन पंकज बाबू अपने चेले-चपाटी के साथ बूथ पर मजबूती से डटे रहे ।  

 

ग्रामीण जीवन के बड़े कथाकार।

संपर्क: बी 4/140 विशालखंड, गोमतीनगर, लखनऊ 226010 मो. 9415582577

 


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