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जून 2019

खबरों के शिल्प में कविता

रश्मिरेखा

मूल्यांकन/विष्णु खरे

 

 

अलग और प्रखर आवाज

 

 

कविता की तमाम प्रचलित धारणाओं और शिल्प को ध्वस्त करते विष्णु खरे अपनी तरह के अकेले आधुनिकतावादी कवि हैं, जो कविता जैसी कविता नहीं लिखते। समकालीन कविता की पहचान मित कथन के रूप में की गई है। लेकिन विष्णु खरे शुद्ध ब्यौरों के माध्यम से आख्यान रचते हैं और कविता में वक्तव्य देने से बचते हैं। ब्यौरों के विस्तार द्वारा जहां परिचित चीजों को अपरिचित बना देते हैं वहां अनुभूति की तीव्रता से सघन और मानवीय बनाते हैं। इनकी जमीन जीवन और समाज के मुठभेड़ से अर्जित ठोस जमीन है। जिसे सस्ती भावुकता से बचाने की पुरजोर कोशिश है। इसके लिए वे बोलचाल की भाषा और नाट्य तत्व का बहुत सर्जनात्मक उपयोग करते हैं। एक हद तक विष्णु खरे की कविताओं के उत्स हम रघुवीर सहाय की कविताओं में तलाश कर सकते हैं। रघुवीर सहाय अपनी कविताओं का अन्वेषण यथार्थ की उस नई दुनिया में करते हैं जो सामने बन रही थी और बड़ी बारीकी से अपनी बात खबरों के शिल्प में कहते हैं।

कभी रघुवीर सहाय ने कहा ''कहानी में कविता कहना विष्णु खरे की सबसे बड़ी शक्ति है’’ - इस एक शक्ति द्वारा उनके रचना संस्कार की विविधता पता चलता है। उनकी कई कविताओं में दृश्य संपादन एक सुसंपादित कला फिल्म की तरह होते हैं। रघुवीर सहाय उस नि:शब्द फिल्म के पीछे अपनी कल्पना में संगीत भी सुन पाते हैं। उनका कहना है ''विष्णु खरे की कविताओं में संगीत भाषा की झंकार से उत्पन्न नहीं होते हैं बल्कि उनकी भाषा तो हमें किसी रोमांटिक रहस्यमय गदगद संसार में ले जाने से ठोकर मार कर बार-बार रोकती है’’। ज्ञानरंजन की कहानियों में जिस तरह कथाकार संरचना के केंद्र में होता है या होने का भ्रम पैदा करता है - विष्णु खरे अपनी कविताओं में यही करते हैं लेकिन विष्णु खरे कवि होकर भी मित कथन से परहेज करते हैं जबकि ज्ञानरंजन कहानीकार होने के बावजूद उतने ही शब्द खर्च करते हैं जितने में काम चल जाए। अपने एक साक्षात्कार (बसुधा-63) में विष्णु खरे ने कहा भी है ''सेंटीमेंटल होने से कविता का जो फॉर्म बनता है, उससे मैं बचना चाहता था। वृथा भावुकता पसंद नहीं मुझे’’। इस तरह एक अलग तरह की संप्रेषण विधि विकसित करने के लिए जानबूझकर कविता की बची खुची संस्कृति को नष्ट करते हैं।

विष्णु खरे की ''आलोचना की पहली किताब’’ से जो छवि बनी थी उसे ध्वस्त करने के लिए उनका कविता संग्रह सब की आवाज के परदे में (1994) काफी है। उनकी शुरू की कविताएं पिछला बाकी में संकलित है, जिसमें आशोक बाजपेयी द्वारा संपादित पहचान सीरीज की सारी कविताएं शामिल हैं। इसके बाद ''काल और अवधि के दौरान’’ और अन्य कविताएं (2017) नाम से संकलन है।

विष्णु खरे की कविता लिखने की शुरुआत साठ के दशक से होती है, जो नई कविता और अकविता की पृष्ठभूमि थी। लेकिन अपनी गहरी राजनैतिक समझ और सामाजिक संबद्धता की वजह से वे सहज ही आठवें दशक की कविता से जुड़ जाते है। आजादी के बाद नेहरू के समाजवादी विचार, नीतियां और व्यवहार का खुलापन नए मानव मूल्यों के प्रतिमान के साथ आने वाली दुनिया के प्रति सम्मोहन भी पैदा कर रहा था। नई कविता इन्हीं मानव मूल्यों की प्रतिष्ठा साहित्य में कर रही थी। यह बेवजह नहीं है कि उस समय के बहुत कवियों के साथ विष्णु खरे भी नेहरू के आकर्षण से कभी मुक्त नहीं हो पाए। लेकिन 62 में हुआ चीनी आक्रमण नेहरू के सम्मोहन को तार-तार कर देता है। देश में निराशा पराभव और नेहरू के प्रति मोहभंग की स्थिति तारी हो जाती है। चर्चित पुस्तक नई कविता के प्रतिमान लिखने वाले लक्ष्मीकांत वर्मा ने क ख ग पत्रिका में डायरी लिखी कि ''संसद सड़े अंडे की तरह दिख रहा था।’’ 62 के आम चुनाव में पहली बार लोहिया सांसद बनते हैं। अपने तीखे आक्रमण और प्रभावशाली चिंतन से न केवल संसद बल्कि पूरे देश में एक नया प्रतिपक्ष रचते हैं। शायद नेहरू में राजनीतिज्ञ होने के गुण उतने नहीं थे जितने संवेदनशील लेखक होने के। नोबेल पुरस्कार प्राप्त लेखिका पर्ल वक ने सही कहा था की अगर भारत राजनीतिक रूप में स्थिर होता तो हमें विश्वविख्यात लेखक नेहरू की महत्वपूर्ण कृतियों को पढऩे से वंचित होने का विषाद नहीं होता।

इस तरह साठोत्तरी पीढ़ी मोहभंग से पैदा हुई पीढ़ी है। इस समय कविता में तीन धाराएं प्रवाहित थी। अकविता, जिसमें यथार्थ के नाम पर ध्वंस और देह का संसार है। दूसरे नक्सलबाड़ी आंदोलन से उत्पन्न तीखे तेवर वाली क्रांतिकारी कविताएं। एक तीसरी धारा ऐसे कवियों की थी, जो दोनों से असहमत थे। ऐसे कवि अपनी तरफ से नए विषयों की तलाश करते थे और उसके यथार्थ को देखते थे। ऐसे कवियों में चंद्रकांत देवताले, विनोद कुमार शुक्ल, विजेंद्र, ऋतुराज, विष्णु खरे आदि प्रमुख नाम है। चंद्रकांत देवताले में यहां प्रगतिशील तत्व कविता की अंर्तवस्तु में शामिल हैं। तो विनोद कुमार शुक्ल में संवेदनशीलता और अमूर्तन अधिक है, पर वह रूपवादी अमूर्तन नहीं है जहां विजेंद्र की कविताओं में मार्क्सवादी चिंतन और आंचलिकता कविताओं की बुनावट में शामिल है। वहां ऋतुराज की कविताओं में सामाजिक संबद्धता और शिल्प अधिक स्पष्ट है। इन सबके बीच विष्णु खरे का काव्य व्यक्तित्व सबसे अलग है। वे कविता के आंदोलनों से जूझते हुए उसकी प्रवृत्तियों, रूढिय़ों से लड़ते हुए कविता की धारा अपनी तरह से मोडऩे की कोशिश कर रहे थे। इनकी कविताओं में शहरी जीवन का निचला तबका और उसका यथार्थ शामिल है। जनपक्ष धारा तो इनकी कविताओं में दिखती है पर मार्क्सवाद की तरह केवल मजदूरों के शोषण को ही नहीं देखते। उनकी नजर समाज के दूसरी तरह के उत्पीडऩ और उत्पीडि़तों के ऊपर भी जाती है। वह अपनी कविता में नई-नई जगहों और क्षेत्रों से उत्पीडऩ की खबर लाते हैं। मसलन हिजड़ा जो समाज से ही नहीं वर्ग से भी निष्कासित है।

''सब की आवाज के पर्दे में’’ से कवि के रूप में विष्णु खरे की एक नई शुरूआत होती है और वे समकालीन कविता के परिदृश्य में एक बड़े कवि के रूप में उभर कर आते हैं। हालांकि पिछला बाकी संकलन में कुछ बेहद मार्मिक कविताएं हैं मसलन - हंसी, अकेला आदमी, मौसम, उल्लू, अर्थ, गूंगा। इसमें मुकाबला है एक क्रूर और संवेदनशील समय से। दु:स्वप्न भी है इसमें तो ढेर सारी जानकारी के साथ। लेकिन डरो कविता एक अद्भुत कविता है जो संकेत करती है कि डर का मुकाबला निडर होकर ही किया जा सकता -

''कहो तो डरो कि हाय यह क्या कह दिया

न कहो तो डरो कि पूछेंगे चुप क्यों हो

सुनो तो डरो कि अपना कान क्यों दिया

न सुनो तो डरो कि सुनना लाजिमी तो नहीं था’’

विष्णु खरे की शुरू की कविताओं का नॉस्टैल्जिक रुझान बाद की कविताओं में एक नए मुहावरे के साथ आता है। जाहिर है यह यथार्थ समाज और राजनीति के आपसी रिश्ते, अंतर्विरोध और तनाव के द्वन्द्वात्मक विमर्श से उत्पन्न मुहावरा है। विष्णु खरे के लिए ''राजनीति एक ठोस चीज है’’ क्योंकि गांव से लेकर शहर तक और जिला से लेकर दिल्ली तक हर जगह राजनीति है जिसका दैनंदिन जीवन पर असर है। अंत: सलिला की तरह (बसुधा 63) एक गजब की निडरता ने विष्णु खरे का होना संभव किया है। अपनी वंचनाओं और पूर्वाग्रहों के बीच अकेला अद्वितीय। कई बार थोड़ा अव्यावहारिक प्रतीत होता है। लेकिन इतनी निजी अंतरंग कविताएं हिंदी में शायद अन्य कवि ने नहीं लिखी। घुघ्घू, चील, गीध एक साथ इतनी कविताएं एक ही संकलन में नहीं मिलेंगी - ऐसी कविताएं जो अपने प्रतीकात्मक व्यवहार में अर्थ और अभिप्राय निकालने की कोशिश हो गैर जरूरी नहीं तो अप्रासंगिक जरूर घोषित कर दे। अपने दृश्य और संरचना में यह कविताएं बेचैन करती हैं, स्तब्ध करती हैं कि कैसे शहरी विकास के ढांचे में उनकी कोई जगह नहीं है। यह एक नया यथार्थ है, जिससे ये कविताएं हमारा परिचय कराती हैं-

''मैंने तभी देखा रहा होगा अपने कुछ सौ फुट दूर

दूसरी मंजिल के कमरे की खिड़की से

जब उसके चुटीले पंखों से लाचार खदेड़ा गया

वह कांच की दीवार से टकराकर कोने में गिरा

और बीसेक सभी उम्र वाले लोग

आँखें विस्फरित, होठों के किनारों पर सफेद थूक, कँपते हाथ

उसे पत्थरों, सूखी डालियों और जो भी हाथ आया

उसे सजा देने लगे’’

विष्णु खरे की स्त्री संवेदना भी चकित करती है। वैसे तो मध्यवर्गीय समाज में स्त्री की सही स्थिति क्या है, इसे देखने के शुरुआत रघुवीर सहाय से ही हो गई थी। विष्णु खरे में इससे आगे आकर उस समय बन रही दुनिया में स्त्री के नए-नए यथार्थ से परिचय कराया। स्त्री के मध्य वर्गीय और निम्नवर्गीय चरित्र के उत्पीडऩ के अलग-अलग रंगों को इतनी बारीकी और वस्तुनिष्ठता के साथ चित्रण करते हैं कि वह समाजशास्त्र का विषय भी हो जाता है। कई बार यह संवेदना ''जो मार खार रोई नहीं’’ की याद दिलाती है। वैसे इस नाम से उनकी यह कविता भी है। सोनी, बेटी, लड़कियों के बाप, हमारी पत्नियां, घर, आज आदि ऐसी कविताएं हैं जिसके लिए विष्णु खरे को लम्बे समय तक याद रखा जायेगा। इसमें मध्यवर्ग की स्त्री के अलग-अलग चरित्र हैं - उत्पीडऩ की शिकार फिर भी अपनी तरह से अपने लिए संघर्ष करती। लड़कियों के बाप कविता में समान्यीकरण का आभास मिलता है पर कविता में जो विवरण और दृश्य आते है, उसमें एक खास चेहरा उभरता है एक मध्यवर्गीय पिता का - जो आशा निराशा के बीच अपनी बेटी को टाइपिस्ट की नौकरी के लिए इंटरव्यू दिलवाने जा रहा है। कविता में चरित्र चित्रण की कला का नमूना है यह कविता -

''वे अक्सर वक्त के कुछ बाद पहुंचते हैं

हड़बड़ाए हुए बदहवास पसीने पसीने

साइकिल या रिक्शों से

अपनी बेटियों और उनके टाइपराइटररों के साथ

करीब करीब गिरते हुए, उतरते हुए

जो साइकिल से आते हैं वे गेट के बहुत पहले ही पैदल आते हैं’’

हमारी पत्नियां कविता में मध्यवर्गीय पतियों को पूरी तरह बेनकाब किया गया है पत्नियों को अकेला घर में छोड़कर भी मध्यवर्गीय पुरुष नहीं चाहते कि उनकी उनको याद आए अपने अतीत की। उनका अकेले में अपने से बातें करना, अपने में हल्के हंसना, घर के कोने में अकेले बैठकर धूप बारिश या कुछ भी नहीं देखना भी पतियों को बेचैन करता है। वे चाहते है ''कि पत्नियां उस तरह संपूर्ण और जटिल ना बन सके/कि हर बार उन्हें उन्हीं की शर्तों पर समझना पड़े’’ कविता की अंतिम पंक्ति है यह। पूरी कविता आलोचनात्मक यथार्थवाद की सघन उपलब्धि है जिसमें हम ब्रेख्त की कविता शैली की तलाश कर सकते हैं। दिल्ली में अपना फ्लैट बनवा लेने के बाद कविता में संवेदना की ताजगी है। इसमें एक जद्दोजहद है स्मृति की दुनिया और मौजूदा यथार्थ के बीच। पुरानी दुनिया को लौटा कर नहीं लाया जा सकता पर आकांक्षा तो की जा सकती है -

''कुछ ऐसा करो की इस नए घर के सपने पुराने हो कर दिखे

और उसमें मुझे दिखे बाबू, भाँजी, बड़ी बुआ, छोटी बुआ तुम’’

सब जानते हैं एक ईमानदार बुद्धिजीवी के लिए फ्लैट बनवाना कितना मुश्किल काम। उसके बाद भी उसे पता है अब यह घर उसकी घरवाली और बच्चों का ज्यादा है।

लालटेन जलाना उनकी एक अविस्मरणीय कविता है। जलाने की प्रक्रिया का वर्णन करते हुए बारीक से बारीक पहलू को उद्घाटित करता उसे कवि जादुई यथार्थवाद की कविता बना देता है। इसी तरह की कविता उनके अंतिम संग्रह में है। ग़ज़ब की कविता है। ताश के फ्लश खेल का बारीक अवलोकन, खेलने वालों के मनोविज्ञान, मुखाकृति के भाव के साथ कविता हैरत में डाल देती है। लगता है जैसे हम यह दृश्य देख रहे हैं।

''काल और अवधि के दरमियान’’ संकलन में एक ऐसे कवि का चेहरा उभरता है, जो जर्मन कवि लोठार लुत्से से मिलता-जुलता है। यह बेवजह नहीं है यह संकलन उन्हीं को समर्पित है। इसमें दो तरह की कविताएं  देखने को मिलती हैं। एक में कवि खुद प्रवाचक की भूमिका में है। ऐसी कविताओं में उनकी स्मृति का उपनिवेश व्यक्तियों घटनाओं और स्थानिक उपकरणों से लैस होता है। दूसरी जिसमें प्रवाचक की भूमिका में कोई और होता है। ऐसी कविताएं नाटकीय तत्वों से भरी होती हैं। विष्णु खरे की गवाही पर हम कह सकते हैं कि वह एक वाक्य बोलने की आकांक्षा से भरे कवि हैं उनकी वाक्यपदीय कविता देखें -

''कहते हैं ध्वनि दरअसल कभी मरती नहीं

सिर्फ दूर चली जाती है अनंतता में

वह चहता है उसका यह वाक्य महान यदि विस्फोटक का पीछा करें’’

दरअसल वाक्यपदीय कविता सृष्टि की अष्टाध्यायी के सारे सूत्र अपवाद सहित लाने की कोशिश है। शिविर में शिशु कविता सांप्रदायिक दंगे के कैनवास पर बनाया गया एक खुशनुमा चित्र है। इसमें सांप्रदायिकता को उस तरह नहीं उकेरा गया है जैसी आमतौर पर लोग उम्मीद करते हैं। कविता की शुरुआत होती है एक चादर पर लिटाये गये पन्द्रह शिशु के चित्र से - ये वो शिशु है जो दंगे के कुछ हफ्ते बाद राहत शिविर में पैदा हुए। मुस्लिम राहत शिविर है तो जाहिर है बच्चे मुसलमान होंगे। लेकिन विचार की जमीन पर कवि इतना सतर्क है कि गोधरा का जिक्र किए बिना नहीं रहता कि अगर गोधरा स्टेशन पर ये बच्चे होते तो हिंदू होते। सांप्रदायिकता के दंश को गहरे मानवीय स्तर पर उठाते हुए कवि मूल समस्या पर उंगली रखता है कि आखिर दंगे होते क्यों है? इसकी पड़ताल बहुत जरुरी है। खुद को भी कवि गुनहगारों से अलग नहीं कर पाता निश्छल भावुकता स्तब्ध करती जाती अपने गतिशील ब्यौरे में -

''इन बच्चों को सिर्फ बचाना ही जरूरी नहीं है

वह खुशी कैसे बचे, वह मुस्कान कैसे

जो अभी फक़त अपने आसपास महज, इंसानों को देख उनके चेहरे पर है’’

विष्णु खरे महाभारत को संसार की सबसे बड़ी और ठोस कविता मानते हैं। वह महाभारत को मिथकीय भी नहीं मानते हैं। इसमें कृष्ण है ज़रूर लेकिन अवतार नहीं है। अवतार तो वे श्रीमदभावगत में बनते हैं। महाभारत में जिस तरह ब्यौरे हैं, उस तरह का विस्तार दुनिया की किसी भाषा के काव्य में नहीं है। (वसुधा 63) शायद यही वजह है महाभारत प्रसंगों पर विष्णु खरे ने बहुत सारी कविताएं लिखी है। जैसे द्रौपदी के विषय में कृष्ण, सत्य, लापता, अज्ञातवास आदि। उनके अंतिम संग्रह ''और अन्य कविताएं’’ (2017) में भी एक कविता प्रत्यागमन। लेकिन ये कविताएं वैसी नहीं है जैसी अब तक कवि लिखते रहे हैं, उन प्रसंगों में नये अर्थ भरते हुए। इनकी यथार्थवादी दृष्टि अनेक नये सवालों को कठघरे में खड़ा करती है, जिरह के लिए। इसके लिए वे अपनी प्रखर पत्रकारिता वाली शैली का इस्तेमाल करते हैं। मसलन लापता कविता -

''यदि मिल जाए तो इन 24165 केवल एक का

मात्र एक श्लोक प्रश्नचिन्ह लगा सकता है

किसे मालूम हम में से कोई उन्हीं की संतान हो’’

विष्णु खरे संभवत अपने काव्य उपकरणों की प्रेरणा भी वहां से भी पाते हैं। खासकर महाभारत की ब्यौरों वाली व्यास शैली में। इन तमाम यथार्थवादी और ठोस संरचना के बीच द्रौपदी के विषय में कृष्ण शीर्षक कविता अपनी गहरी राग संतप्तता की वजह से अलग से ध्यान खींचती है। यह कविता कृष्ण और द्रौपदी के रागात्मक मैत्री संबंधों के ताने बाने पर लिखी गई है। इस कविता में द्रौपदी के प्रति कृष्ण के प्रेम का उदात रूप दिखाता गया है। अन्यथा अबतक वे तो सिर्फ़ स्त्रियों के प्रेम करने के पात्र रहे है-

''किंतु किसे विश्वास होगा कि तुम्हारे मुख पर सदैव ऐसा कुछ था

कि प्रासाद में अकेले छोड़ दिए गए हम परस्पर अर्थों को अंतिम

सीमाओं तक समझते हुए

एक दूसरे के स्पर्श तक की इच्छा नहीं रखते थे

चुप विदा होते हुए जब मैं लौटता था

तो इंद्रप्रस्थ से द्वारका के लंबे रास्ते में

वह रथ की घरघराहट नहीं तुम्हारी वाणी की गूंज,

तुम्हारी आंखों की दीप्ति होती थी

और दारूक पीछे मुड़ मुड़कर व्यग्र होता था’’

आगे वे कहते हैं कि कि पूरे कुरुक्षेत्र में मैं तुम्हारी आंखें देखता था और उन्हीं के कारण कदाचित मित्रों से इतनी दूर द्वारका में आ बसा था मैं। जीवन के अंतिम क्षणों में द्रौपदी को याद करते हुए कृष्ण कहते हैं कोई संदेश नहीं है तुम्हारे लिए मेरे पास हमारे बीच वो आवश्यक ही कब था। मैं हमेशा पहले ही की दूरी पर तुम्हारे समीप हूं। कृष्ण की पारंपरिक छवि को तोड़ती है यह कविता। प्रेम की गहरी संवेदना में रची बसी यह कविता देर तक भीतर ध्वनित होती रहती है।

क्रिकेट पर बहुत सारी कविताएं मसलन स्कोर बुक, कवर ड्राइव, सिंगल विकेट सीरीज आदि कविताएं विष्णु खरे ने लिखी है। वैसे कवर ड्राइव उनका प्रिय शॉट है। सिर पर मैला ढोने क्यों की मानवीय प्रथा पर हिंदी में सिर्फ विष्णु खरे ने लिखा है इस कविता को कहीं से भी उन्होंने कारुणिक और दयनीय नहीं बनाया है। और साथ ही उनके जीवन की गरिमा को भी नष्ट नहीं किया है। यह कविता बहुत बेचैन करती है साथ ही सोचने पर विवश करती है कि हमारी सामाजिक संरचना कितनी गिरी हुई है क्यों है? दलित विमर्श कि यह कविता एक एक नये यथार्थ से हमारा परिचय कराती है।

उनके अंतिम संग्रह ''और अन्य कविताएं’’ (2017) में अधिकांश कविताएं आज के बदलते हुए समय समाज और राजनीति की गहरी पड़ताल करती है। इन कविताओं में आलोचना की भाषा में यथार्थ रचा गया है। ये कविताएं हमारे समय का जीता जागता दस्तावेज है। आज हमारा देश, समाज और गंभीर संकट से गुजर रहा है। स्थापित जीवन मूल्यों, विचारों और इतिहास को ध्वस्त करने की साजिश चल रही है।

राष्ट्रवाद के नाम पर हमारा देश पीछे की ओर जा रहा है जबकि आजादी के पहले भारत की कल्पना कभी एक राष्ट्र के रूप में नहीं की गई। बुद्धिजीवी का उपहास किया जा रहा है। उन्हें देशद्रोही मान या तो सीधे हत्या की जा रही हैं या जेल के सींखचों के भीतर बंद किया जा रहा है। यह कैसा आपातकाल है, जहाँ ज्ञान के माथे पर मूर्खता को बैठाया जा रहा है। आज सरस्वती की जगह कहीं नहीं है। समय में मुठभेड़ करती सरस्वती वंदना एक ऐसी कविता है जिसमें कवि वीणा वादिनी से कलिका में विलीन होने का वर मांगता क्योंकि आज के समय की यहीं मांग है -

''हंस पर नहीं शार्दूल पर आओ भवानी

और रचने दो अपना नूतन स्त्रोत

या देवी सर्वभूतेषु विप्लव रूपेशु हूं तिष्ठतिता’’

उसके ताजा संग्रह में एक अविस्मरणीय कविता आलैन है, इसमें विश्व स्तर पर निर्वासित प्रवासी शरणार्थी समस्या को एक मार्मिक आख्यान के द्वारा उभारा गया है। आलैन कविता सीरियाई कुर्द मूल के उस बच्चे पर है जो मां बाप और भाई के साथ शरणार्थी बन सीरिया से निकलता है और उसी क्रम में नाव दुर्घटना में डूबने से मृत्यु हो जाती है। कवि अपनी तरफ से कुछ नहीं कहता बस दृश्यों में कविता चलती है कारुणिक शोकगीत रचती... इससे बड़ी त्रासदी और क्या होगी।

''लेकिन तू है कि लौटकर इस गीली रेत पर सो गया

तुझे क्या इतना याद आई यहां की

कि तेरे लिए हमें भी आना पड़ा’’

कवि, पत्रकार, लेखक और अनुवादक विष्णु खरे विश्व साहित्य, विश्व सिनेमा, शास्त्रीय और फिल्मी संगीत के गहरे अध्येता है। विदेशी कविता से हिंदी और हिंदी कविता से अंग्रेजी में सबसे अधिक अनुवाद इन्होंने ही किया है। लोठार लुत्से के साथ मिलकर जर्मनी में भी काफी मात्रा में अनुवाद किए। अपनी बहुमुखी प्रतिभा का इस्तेमाल इन्होंने हिंदी साहित्य को समृद्ध बनाने के लिए बिना थके आजीवन करते रहे। अनेक देशी-विदेशी सम्मानों से सम्मानित विष्णु खरे की निजी रचनाएं भी देश की और विदेशों की कई भाषाओं में अनुदित है। एक अपराजेय योद्धा की तरह आजीवन वैचारिक युद्ध लड़ते रहे, चुनौैतियां देते रहे। विष्णु खरे अपनी ज़िद के लिए जाने जाते हैं चाहे साहित्य हो, विचार हो या बहस, मुमकिन है इससे उन्हें रचनात्मक ऊर्जा मिलती हो। उनके अंतिम संकलन में एक ग़ज़ल है बजाए- ग़ज़ल शीर्षक से उसका एक शेर काफी है उन्हें समझने के लिए -

''जो न झेले हरेक वार सीने पर

हजार लानतें हों ऐसे जीने पर’’

भाषा के स्तर पर विष्णु खरे की कविताओं में एक प्रवाह है। बातचीत की लय है और यथार्थ का अपना संगीत है। इनकी शब्द संपदा बहुत समृद्ध है। तत्सम, तद्भव, देशज़, विदेशज, संस्कृत, उर्दू शब्दों के इतने रंग और छवियां हैं कि हम दंग रह जाते हैं। बड़ा कवि वही होता है जो नए-नए क्षेत्र, विषय की तलाश जो दुनिया बन रही है उसमें करे। विष्णु खरे ऐसे ही कवि हैं जो मानते हैं कि कोई ऐसी स्थिति या वस्तु नहीं होती है जिसकी अपनी कोई अर्थवत्ता न हो। इस तरह विष्णु खरे ने परंपरागत विषयों से इत्तर संवेदना की दुनिया की नई-नई खबरों के साथ हिंदी कविता के विषय क्षेत्र का विस्तार किया और खबरों के शिल्प में, ब्यौरों, वृतान्त से भरी रिपोर्ताज़ शैली में कवितों लिखी। इस तरह विष्णु खरे कविता के पारंपरिक फॉर्म से बाहर आकर गद्य के फॉर्म में कविताएं लिखते हैं। कभी तो लगता है जैसे-जैसे यह कोई आलेख है सच तो यह है विष्णु खरे कविता जैसी कविता नहीं लिखते और यही उनकी कविताओं की सबसे बड़ी ताकत है। विष्णु खरे चाहे जितनी बार कह लें कि उन्होंने ''प्रचुर स्वांग किया है अपनी मिट्टी से जुड़े होने का।’’ लेकिन सच्चाई यही है कि महानगरों में रहकर भी उनके भीतर हमेशा एक कस्बाई सामाजिकता सजीव रही। यह न केवल मनुष्य होने की गवाही देता है बल्कि हर तरह की गैर बराबरी के खिलाफ गहरी वेदना के साथ सक्रिय रखा।

विष्णु खरे ने मृत्यु पर बहुत सारी कविताएं लिखी है। उनके जीवन में मृत्यु उसी तरह दबे पांव रात में आई जैसे उनकी कविताओं में आई है और सवाल भी सारे वहीं छोड़ गई, जो कविता में है। नींद में शीर्षक कविता में विष्णु खरे कहते हैं कम से कम मेरे साथ ऐसा हो तो यह नहीं कहा जाय कि मेरी मृत्यु नींद में हुई। अगर मेरे साथ ऐसा हुआ तो एक बार कम से कम जरूर आखरी कोशिश की होगी उठने की यह कहना ज्यादा बेहतर होगा जब वह नहीं रहा होगा तब हम सब नींद में थे -

नींद में

कैसे मालूम कि जो नहीं रहा

उसकी मौत नींद में हुई?

कह दिया जाता है

कि वह सोते हुए शांति से चला गया

क्या सबूत है?

क्या कोई था उसके पास उस वक्त

जो उसकी हर सांस पर नज़र रखे हुए था

कौन कह सकता है कि अपने जाने से उस क्षण

वह जागा हुआ नहीं था

 

फिर भी उसने आंखे बंद रखना ही बेहतर समझा

अब वह और क्या देखना चाहता था?

उसने सोचा होगा कि किसी को आवाज देकर

या कुछ कह कर भी क्या होगा

या उसके आस पास कोई नहीं था?

शायद उसने उठने की फिर कोशिश की

या वह कुछ बोला’’

 

रश्मि रेखा का पहल में यह पहला आलोचनात्मक लेख है, जिसमें विष्णु खरे का मूल्यांकन भी है। रश्मि रेखा हिन्दी के आम अध्यापकों से अलग सक्रिय, मेहनती और कुछ कठिन कर गुजरने के लिए प्रतिबद्ध हैं। विष्णु खरे का एक लम्बा साक्षात्कार (प्रकाश मनु) पहल की पहली बारी में छपा था। उनका दूसरा और अंतिम साक्षात्कार अविनाश मिश्र ने काफी मशक्कत और भागते दौड़ते मुम्बई और दिल्ली में पूरा किया, जिसमें वे स्वयं असंतुष्ट और विचलित रहे और उनके आकस्मिक निधन के कारण हम उसे छाप नहीं सके। हमारी नज़र में उसका न छपना वाकई उचित रहा। विष्णु खरे हिन्दी की एक जबरदस्त मेधा थी। रघुवीर सहाय ने उनके पहले संग्रह 'खुद अपनी आँख से’ को अद्वितीय कहा था। उनकी अनेक कविताएं पहल में छपीं। वे विवादास्पद भी रहे, पर वे जीनियस की हदों तक गए। हमारी पुरानी इच्छा थी कि उन पर उसी तरह का काम हो जैसा अमिताभ राय ने उदयप्रकाश पर किया था। संपर्क : - 943005124, मुजफ्फरपुर

 


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