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जून 2019

दुखान्तिका

नवनीत नीरव

कहानी

 

 

 

अरे हमारी परम्परा जो हजारों सालों की थी और जब छीनीं थी इन लोगों ने तब भी इनसे अच्छी थी...

                                                                                   दुक्की बन्ना, फिल्म गुलाल

 

सभी कहते हैं कि हमें ईश्वर ने बनाया है। वह कभी किसी तरह का भेद नहीं करता। शायद इसलिए हम सभी का खून लाल है। फिर जो सामाजिक विभेद दिखते हैं.... धर्म, जाति, रंग आदि के नाम पर उन्हें किसने बनाया? आप कहेंगे - 'हम मानवों ने!’ यह सभी कहते हैं। इसमें आपने नया क्या कहा जनाब! मैं तो कतई इस बात से सहमत नहीं होता कि यह केवल हम मानवों की कारस्तानी है। विभेद में कहीं न कहीं कुदरत या कहें तो ईश्वर की रजामंद जरूर होती है। मुझे मालूम है आप ईश्वर को नहीं मानते। पर मैं तो मानता हूँ... और यह बात आपको भी मनवा के रहूँगा कि ईश्वर जैसी चीज इस दुनिया में है... और वे भी ऐसे अंतर करता है।

मुझे अपनी बात मनवाने के लिए आपको कुछ दलीलें देनी होंगी। कुछ सवाल भी पूछने होंगे? क्या आपको मालूम है कि ईश्वर की दिलचस्पी फुटबॉल मैच में है? आप सोच रहे होंगे - ''ये कैसा बेतुका सवाल? ईश्वर और फुटबॉल मैच में भला क्या संबंध!’’

आप ऐसा सोच रहे थे तो मैं आपकी सोच पर तरस खाता हूँ? अगर नहीं तो आपसे दूसरा सवाल पूछ लूँगा कि उसकी पसंदीदा टीमें कौन सी है? अर्जेंटीना, ब्राजील या इटली... वगैरह... वगैरह!!! अगर उसकी पसंदीदा टीम इनमें से कोई नहीं हो, तो हो सकता है किसी मैच में वह पक्ष-विपक्ष में से कोई एक अपनी पसंद की टीम चुनेगा? उसके चयन के अपने आधार भी होंगे। जिन बातों का हम 'किसी विशेष’ के चयन के समय ख्याल रखते हैं। मेरी बातें सुनकर आप या तो हँस रहे होंगे या फिर मेरी मानसिक अवस्था पर तरस खा रहे होंगे।

अरे साहब! मैं उन पंडे-पुजारियों-ज्योतिषियों की बात कर रहा हूँ, जिन्हें लोग ईश्वर का दूत समझते हैं। उनकी हर सलाह पर अपने कान धरते हैं।

- ''आपकी ग्रह दशा ऐसी है!’’

- ''शनि पर कडुआ तेल चढ़ाइए!’’

- ''देवी के ऊपर चाँदी की छतरी चढ़ाइए मनोकामना पूरी होगी। आदि...आदि।’’

फुटबॉल मैच की बात करते-करते मैं भी जाने किनकी बात करने लगा! चलिए अब मैं अपनी दलीलों पर आता हूँ। दलीलों के बहाने मैं आपको दो सच्ची कहानियाँ बताऊंगा, जिसमें आपको ईश्वर के अस्तित्व को लेकर कोई शक-शुबहा नहीं होगी। पहली घटना में ईश्वर ने पहली बात अपनी पसंदीदा फुटबॉल टीम का खुले-आम समर्थन किया था। जिस तरह हम अपनी पसंदीदा टीम को उनकी जर्सी-निकर पहनकर, माथे और गालों पर टैटू-वैटू बनवाकर समर्थन देते हैं। अब जब बात ईश्वर की हो रही है, तो उनके समर्थन के तरीके हमसे जुदा ही होंगे। लेकिन इस तरह की कारस्तानी ईश्वर एक दशक में एक बार ही करता है। या अपनी सुविधा से दो दशकों में दो बार। पहली घटना आज से दो दशक पहले की है। दक्षिण अफ्रीका के पूर्वी कसाई प्रोविंस में एक जबरदस्त फुटबॉल मैच चल रहा था। दोनों टीमें एक-एक अंकों के साथ बराबरी पर थीं। काँटे की टक्कर थी। दर्शक अपनी सीटों के कोनों पर टिके हुए थे। मैच का एक-एक सेकेण्ड भारी पड़ रहा था। मैच में कभी-कुछ भी हो सकता था। स्टेडियम में रोमांच की लहर दौड़ गयी थी। अचानक आसमान में बिजली चमकी। चमक के साथ ही एक टीम के ग्यारह खिलाड़ी मैदान में गिरकर तड़पने लगे। स्टेडियम में बैठे दर्शक अवाक थे। देखते ही देखते उनके प्राण-पखेरू उड़ गए। पूरी की पूरी टीम एक झटके में ख़त्म। लोग समझते थे किसी ने उस टीम पर काला जादू कर दिया था। या फिर उसे किसी की बुरी नज़र लगी थी। लेकिन उन्हें कहाँ मालूम था कि यह ईश्वर के किसी खास टीम के समर्थन का तरीका था। दूसरी टीम साफ़-साफ़ जीत गई।

मुझे मालूम है आप इसे कोरी कल्पना या फिर गप्प समझ रहे होंगे। आपको विश्वास नहीं हो रहा होगा - भला! है न? सच बताऊँ पहली बार सुनकर मुझे भी ऐसा ही लगा था। आजकल इंटरनेट पर ऐसी बहुत सी बिना-सिर पैर की कहानियाँ और खबरें मिलती हैं, जिन पर विश्वास नहीं होता। अब जब तक अपनी आँखों से देखा न हो या खुद पर बीती न हो तब तक ऐसी कहानियों पर विश्वास नहीं होता। लेकिन बिना आग लगे धुआं होता है क्या? इत्मिनान से सोचिएगा। वैसे मेरी दूसरी कहानी आपको पसंद आएगी क्योंकि इस कहानी का मैं भुक्तभोगी हूँ।

वैसे कहानियों का जब भी जिक्र होता है, मुझे मेरा क़स्बा याद आता है। दृश्य-दर-दृश्य, मोहल्ले दर मोहल्ले। फिलहाल मैं जिस नगर में रहता हूँ, मेरा कस्बा उससे पचास मील दूर है। कस्बे को छूटे दशक भर होने को आए। बस कभी बैठे-ठाले कुछ स्मृतियाँ मन में सरसरा जाती हैं। कुछ बातें सजीव होने की ख्वाहिश में मचल उठती है। इस तरह मेरा क़स्बा, धुंधला ही सही, मेरे अन्दर जिंदा हो उठता है...

''दूर तक फैली पत्थरों की अनंत खानियाँ... जगह-जगह पत्थरों पर पूरे संचित बल से प्रहार करते मजदूर। खानियों के इर्द-गिर्द खड़े कीकड़-रोहिड़ा के पेड़ों पर जमी सफ़ेद सी धूल की स्थायी परत। उध्र्वाधर धारियों वाले तराशे, सुडौल पत्थर-चट्टानें। तराशने-तोडऩे के क्रम में दबाव न झेल पाए बेडौल, अनगढ़, टूटे पत्थरों का ढेर मानों उपेक्षित चुपचाप वे मानों $खुद में सिमटे पड़े हों। दैत्याकार मशीनें व पत्थरों को ट्रक में भर रही क्रेनें। इन पत्थरों की बस्ती... मानों धरती के भीतर सोया हुआ शहर हो। जिनमें धूप और तेज हवा के बीच आदमी जैसे अपनी ही सभ्यता के अवशेष तलाश रहा है। तोड़ रहा है शिलालेखों को! संभवत: वह उन पर खुदी लिपि को पढ़ पाना भूल गया है! एक साँवला किशोर (जिसकी मसें अभी भींगनी शुरू ही हुई हैं) अपने पिता के साथ लगातार पत्थरों पर  चोट किए जा रहा है। पत्थर पर धूल उड़ती है। पानी नहीं है। ठेकेदार-मालिक पानी नहीं देता। पीने का पानी पैसे से खरीदने पर बमुश्किल ह$फ्ते में कभी टैंकर भर मिल जाता। पत्थरों की तराई को कौन पूछे? धूल उड़ती हुई मानों फेफड़ों के साथ-साथ समूची साँझ को ढँक लेगी। सूरज लाल नहीं, ताम्बई दिखता।’’

मालेसर सत्ता में यह 'सिलावटों का वास’ था। उसी से सटी हुई थी मेघवाल बस्ती। जहाँ असल भोर में अजान की गाढ़ी आवाज के साथ ही सबकी नींद टूटती। उनके साथ जगती अनगिन कहानियाँ... और मेरा परिवार भी।

मैंने माँ को नहीं देखा। घर में दादी थीं। बड़े भाई थे... और पिता हैं। उनके उम्मीदों सरीखी कहानियाँ भी थीं। मैं अपने घर में सबसे छोटा था। काम पर जाने वाला नहीं कक्षा आठ में पढऩे वाला छात्र। बचपन में मुझे सब कहानियाँ सुनाते थे। सच्ची, रोचक कहानियाँ। जो कहानियाँ वक्त के थपेड़ों से लड़ती मेरी स्मृति में ठहर गयीं, उन्हें अब मैं अपने भतीजे को सुनाता हूँ। घर में भाभी सबसे अधिक पढ़ी-लिखी हैं। सरकारी विद्यालय में पढ़ाती है। घर में भी कुछ फाइलों के पन्ने उलटती-पुलटती हैं। लेकिन ज्यादा बोलती नहीं। अक्सर चुप ही रहती हैं। कभी कोई कहानी नहीं कहतीं। न अपने बेटे के लिए, न मेरे लिए। शायद उनके पास कोई कहानी ही नहीं।

दादा की कहानियों में राजा-रानी होते थे। बड़ा राज्य, बड़ा किला, बड़े उदार लोग, बुराइयों से लडऩे वाले लोग... उनकी कहानियों में सब कुछ विशालकाय, चमत्कृत कर देने वाला होता... मसलन अपनी बिरादरी वाले शहीद रघुराम की गाथा। दादी ने इस कहानी को कई बार हम दोनों भाइयों को सुनाया था। हालाँकि बड़े भाई की उनकी इस कहानी में कोई विशेष दिलचस्पी नहीं थी। लेकिन मैं दादी की इस कहानी को हर बार वैसे ही सुनता। जैसे पहली बार सुन रहा हूँ।

नगर में नए गढ़ का निर्माण होना था। नगर ज्योतिषी ने प्रधान से गढ़ की नींव में बलि देने का सुझाव दिया कि - 'यदि किसी गढ़ की नींव में कोई जीवित पुरुष की बलि दी जाय तो वह किला हमेशा अविजित होगा, नगर का खजाना हमेशा भरा रहेगा।’

नगर भर में मुनादी हुई - ''जो कोई अपनी इच्छा से नगर के भविष्य के लिए शहादत देना चाहता हो, सामने आए। नगर प्रधान उसका और उसकी पीढिय़ों का सम्मान करेंगे।’’ मुनादी हर रोज नगर के अलग-अलग भागों में होती। लेकिन कोई भी सामने नहीं आया। प्रधान को लगा कि शायद ये काम नहीं हो पाएगा। अगर ऐसा होता है तो नगर का गढ़ हमेशा खतरे में रहेगा। जब रघुराम ने मुनादी सुनी तो उसे लगा कि नगर के लिए उसका शहीद होना सार्थक होगा। शहादत के प्रति उसकी दृढ़ इच्छा देख उसके पिता और माता  ने उसके साथ शहादत की इच्छा जाहिर की। अगले दिन उसने नगर प्रधान को सूचना दी कि वह नगर के प्रस्तावित गढ़ की नींव में अपने परिवार के साथ जिंदा दफ़न होने के लिए तैयार है। प्रधान ने पुजारियों को बुलावाकर विधि-विधान से उसके परिवार के तीनों सदस्यों को गढ़ की नींव में जीवित चुनवा दिया। उनकी शहादत के पश्चात प्रधान ने उनके परिवार वालों को जमीनें दीं। घर दिया। साथ ही उनके परिवार को पीढिय़ों की बेगारी से हमेशा के लिए मुक्त कर दिया... रघुराम अमर रहें।’’

दादी जब यह कहानी सुनाती तो उनका चेहरा गर्व से दीप्त हो जाता। आँखें चमकने लगतीं। मैं बेहद चुप हो जाता। कोई सोच मुझे अन्दर तक जैसे जकड़ लेती... जीवित इंसान का मिट्टी के अन्दर दफ़न हो जाना। सोचकर ही मेरा दम घुटने लगता। फिर मुझे लगता कि शहादत उस समय बड़ी बात रही होगी। इसलिए उनको वैसा महसूस नहीं हुआ होगा, जैसा कि मैं अब कर रहा हूँ। यह सब सोचता हुआ भी मैं कुछ नहीं कहता। साथ ही दादी को बुरा न लग जाए इसलिए सो जाने का अभिनय कर लेता।

मेरे बड़े भाई मुझसे सात बरस बड़े थे। दो-तीन साल पहले उन्होंने बारहवीं कर ली थी। वे दादी को मुझसे ज्यादा प्रिय थे। उन दिनों दादी का मुख्य अभियान बड़े भाई की शादी था। आस-पड़ोस से बात करके उन्होंने लड़की पसंद कर रखी थी। लेकिन जब भी दादी इस बात की चर्चा करतीं मायूस होतीं। बड़े भाई ने कभी दादी की बातों पर प्रतिक्रिया नहीं दी।

एक बार पिता के साथ बात करते हुए उन्होंने कहा था कि - ''यह कोई शहादत नहीं थी। यह औरत का एक स्याह पन्ना था जिसमें सांस्कृतिक तरीके से दी गई नरबलि थी।’’

ऊँचा नगर और नीचा नगर सिर्फ़ मुअनजोदड़ो में ही नहीं थे। बाद के नगरों में भी इसे आगे बढ़ाया। शताब्दियों बाद भी यह अंतर हमारे नगर जैसे अनेक नगरों में बरकरार रहा। नगर प्रधान के पूर्वजों ने बहुत पहले खुद को श्रेष्ठ बनाए रखने के उपाय किए थे। जिनमें एक तो यही था कि गढ़ का भव्य निर्माण। लुटेरों और ठगों की पीढ़ी को इस तरह के सुझाव उनके पुरोहित उन्हें देते थे। मुगल आक्रमणकारियों से हारकर खुद के ठिकाने खदेड़े जाने के बाद प्रधान के पूर्वज इस इलाके में आये थे। जनजातियों द्वारा पुजारियों के मवेशियों की रक्षा करने के लिए। धीरे-धीरे उन्हीं पुजारियों के साथ मिलकर नगर पर कब्ज़ा जमा लिया। नगर अब उनकी जरूरत था। इसे बरकरार रखने में पुजारियों ने किसी ऊँची जगह पर भव्य गढ़ का निर्माण करने की सलाह दी। इस नगर में पूर्वजों के जमाने से तालाबों, किलों, मंदिरों व यज्ञों में ज्योतिषियों की सलाह पर निम्नवर्ग के लोगों को जीवित गाड़कर या जलाकर बलि देने की परम्परा चली आ रही थी। रघुराम इसी परम्परा की भेंट चढ़ गए थे। नहीं तो उस समय सामाजिक व धार्मिक व्यवस्था के अनुसार अछूत की छाया तक से घृणा की जाती थी।

पिता आँखें बंद किये कबूरतगढ़ के नींव में दबे उस अतीत के काले पन्ने का जिक्र सुनते रहते। उन्होंने कभी असहमति जाहिर नहीं की। एक बार बड़े भाई ने सिर्फ़ इतना ही पूछा था - ''ये बातें तुम्हारी किताबों में थीं क्या?’’

बड़े भाई चुप थे।

नियमित आमदनी जैसी कोई चीज नहीं होने के बावजूद पिता बड़े भाई के साथ अलसुबह से निकलते। दिन भर पत्थर तोड़ते, पसीना बहाते। मेहनताने के रूप में एक पत्थर की पाटियों का काम हो जाने पर दूसरी मिल जाती थीं। पिता की पाटियाँ सपनों के आशियाने को पूरा करने के लिए हमारे गोलघर के बाहर बनी कंटीली बाड़ के अन्दर रखी रहती। रोजाना काम से लौटने वाले पिता की आँखों में एक ही सपना होता कि अगले बरस तक अपना पक्का घर होगा।

पिता ने मुझे कम ही कहानियाँ सुनाई हैं। फुर्सत में मैं उनकी कहानियों को याद करने की कोशिश करता हूँ। मुझे लगता है कि पिता बहुत सारी स्मृतियों का घालमेल कर देते थे। मसलन लोकतंत्र और राजतंत्र का। वे भूल जाते कि किस घटना के बाद देश आजाद हुआ। उनके लिए आजादी से पहले देश और आजादी के बाद वाले देश की संकल्पना में कोई विशेष फ़र्क नहीं था। बातों-बातों में उन्हें याद नहीं रहता कि लोकतंत्र मे ंराजा-प्रजा नहीं होते। प्रधानसेवक-जनता होते हैं।

किसी घटना को पिता कहानी बताते। जैसे पिता बताते कि कुछ दशक पहले हमारे नगर के पास ही सिंगल रेल लाइन के पुल पर बड़ा रेल हादसा हुआ था। एक ही पटरी पर इस लाइन की एकमात्र एक्सप्रेस ट्रेन। दूसरी ओर से मालगाड़ी। काफ़ी जानमाल की हानि हुई थी। रेलगाड़ी का इंजन बहुत दिनों तक नदी के बालू में औंधा पड़ा रहा। जब कभी वे ट्रेन से उस पुल से गुजरते ट्रेन के इंजन की फूटी हुई तीसरी आँख देखकर डर जाते। भविष्य के हादसों को रोकने के लिए नए पुल का सरकारी फरमान आया। पर पुल के भविष्य की सेहत के लिए किसी कर्मकांड का उल्लेख कहीं नहीं था। इस नगर में कोई बड़ा जनोपयोगी काम चढ़ावे के बिना तो होता नहीं था। चढ़ावे का मतलब 'नरबलि देना’। कम उम्र इंसान की बलि। ताकि उसकी बची हुई उम्र पुल को मिले। जमीन पर पहली कुदाल पडऩे से पहले इंजीनियर के पास यह जानकारी जरूर होती कि कौन इस कार्य के लिए शहीद होगा?

जिन दिनों इस तरह की खबरें हवाओं में तैरती थीं, उन दिनों पिता परेशान दिखते थे। हाड़तोड़ मेहनत के बाद उन्हें घर में नींद नहीं आती। रात को वे चिहुँक कर उठ बैठते थे। जैसे कोई बहुत ही भयानक सपना देखा हो। सपने में वे क्या देखते थे यह बात हमें कभी नहीं बतायी। दिन के ख़ाली पहरों में या फिर किसी बेगार समय में अपने समाज के लोगों से इस पर चर्चा जरूर करते मिलते कि आज के ज़माने में भी ऐसे विश्वास। सोच भी कैसे लेते हैं लोग। पुरानी बातें पुराने ज़माने की थीं। अब तो देश आजाद हो गया है। लोकतंत्र है हमारे देश में। तब राजतन्त्र में ऐसी घटनाएं घटतीं थीं। अब तो देश आजाद हो गया है। लोकतंत्र है हमारे देश में। जब राजतन्त्र में ऐसी घटनाएं घटतीं थीं तब सोच और संसाधन दोनों विकसित न थे। निर्जन वन में जब बिजली कड़कती तो आदि-मानव कंदराओं की खोज में न जाने कितने दिनों तक भयभीत छिपा रहता। प्लेग होने या फिर माता निकलने की अफ़वाह फैलने पर गाँव के गाँव उजड़ जाते। भय इस तरह कब्ज़ा करता था मन-मस्तिष्क पर। आज इन बातों के कितने कारण गिनाए जा सकते हैं। लेकिन बलि की प्रथा पर इतना विश्वास क्यों? पुराने लोग बताते थे कि कितने भी बड़े इंजीनियर को बुलाओ, नींव में देवी की बलि दिए बिना कुछ नहीं होता।

इस नगर के आख़िरी छोर पर जहाँ अभी हम रहते हैं, वहाँ से पुराना गढ़ दिखाई नहीं देता। हालाँकि पड़ोसी देश से सब कुछ दिखता है। मयूरटूक पहाड़ी पर बना कबूतरगढ़। एरियल व्यू से देखने पर गर्वीले कबूतर की माफ़ि क दिखता है। ये बात अलग है कि पिछले साढ़े चार सौ सालों से इस जगह केवल बाज और गिद्ध पाले गए। कबूतर नहीं। जो भी गढ़ का प्रधान आया उसने इस परम्परा को बनाए रखा। नगर ज्योतिषी की भविष्यवाणी थी कि

- ''जब तक इस गढ़ पर गिद्ध मंडराते रहेंगे तब तक यहाँ कोई विपत्ति नहीं आएगी।’’

इस तरह से जानवरों की बलि देने और बाजों और गिद्धों को भोजन देने की नियमित परम्परा शुरू हो गई थी। वैसे कबूतरों के लिए नीचे नगर में चौराहे थे। पर दिन में नियत समय पर उन शिकारी परिदों को निवाले देने की प्रथा ज्यादा जरूरी थी।

समय धीमे-धीमे ही सही, गुजर रहा था। महंगाई धीरे-धीरे पंख खोल रही थी। जिस अनुपात में महंगाई बढ़ती, पिता का सपना भी उसी अनुपात में कुछ फर्लांग दूर खिसक जाता था।

एक उम्र के बाद सपने भी छीजने लगते हैं।

पिता घर आते तो उनके थके, धूल सने चेहरे के साथ कोई नन्हीं उम्मीद का झीना भरम भी साथ न होता। इस दुनियाँ में गाफ़ि ल असम्पृक्त खोये हुए से वे दस रुपये की नमकीन का पैकेट लिए किसी सुकून की तलाश में आहिस्ता-आहिस्ता बढ़े चले जाते। अंग्रेजी शराब की दूकानें उस समय मुख्य सड़क पर ही होतीं थीं। शराब की दूकान के ठीक बाजू में ऊंची चारदीवारी के भीतर खुली जगह थी। दुकान वाले ने उसे भी किराये पर लिया हुआ था। पिता वहाँ जाकर चुपचाप बैठ जाते थे। कुछ पलों में उनके हाथों में देसी बोतल होती। किसी पहुँचे हुए योगी या धैर्य व वीतराग के साथ आहिस्ता-आहिस्ता मिर्ची बड़े टूंगते, बोतल से गला तर करते वे। यह क्रूर सत्य उनके तई खुल चुका था... कि जीवन एक नामुराद कुएँ को निरंतर और निरंतर भरे जाने की कवायद बनकर रह गई थी। या शायद हमेशा से ही थी?’’ कोई स्वप्न नहीं! न शराबियों सा उधम, न चीख, न रुलाहटें... एक सर्द सन्नाटा भर। जब सामथ्र्य से अधिक देह थक जाए, नींद तो तब भी नहीं आती!... फिर एक बेहोश नींद के लिए वे यहां नियमित जाने लगे थे। क्षत विक्षत सपने, बोतलों के साथ मिलकर पिता को धराशायी कर देना चाहते थे। पिता चूक रहे थे। तन से भी। मन से भी। एक दिन उम्मीदों-सा बड़ा पत्थर उनके पाँव पर आ गिरा। सपने लगभग भहरा कर गिर पड़े थे। अब अधूरे सपने ही उनके आरामगाह थे।

बड़े भाई उनके सपनों को जीने की कोशिश में अकेले खदान जाने लगे थे। सपनों के सलीब उठाये रखने की जिम्मेदारी किसी को तो लेनी थी। दादी ने जोर जबरदस्ती से उन्हें शादी के लिए राजी कर लिया। पिता की अब सहमति-असहमति का कोई मतलब नहीं था। भाभी का गाँव पड़ोस में था। सुना, पढ़ाई में होशियार रहीं थीं।

- ''मुझे आगे पढऩा है।’’ शादी होने के बाद किसी दोपहरी मुझे पढ़ाई करते देखकर बोली थीं। उनकी बातों की बहुत सारी तहें थीं। बड़े भाई ने पढ़ाई छोड़ दी थी। इसलिए शायद मैं उनके शब्दों के अर्थ तक नहीं पहुँच पाया था।

वे उम्र में बहुत बड़ी न थीं। उनकी चमकीली आँखों में एक ऐसी नरमाई थी, जो बेचैन मन पर एक आश्वस्तिपरक ठंडी मासूम हथेली का होता है। पाँच लोगों के परिवार में वह फिकन्नी सी नाचती रहतीं। लगता वे अपनी ढाणी से हमारे घर सिर्फ़ काम करने के लिए ही आयी थीं।

एक परिवार था। कई सपने थे उस एक परिवार के। शायद इस बात को वे समझती थीं। अब उनका ध्यान धीरे-धीरे सपने के बजाय जीवन जीने की जद्दोजहद पर था।

पहले पहल जब वे यहाँ आई थीं तो उनकी गंदुली रंग की जिल्द में चमक थी। पर अब उन्हें देखकर मन अजीब सा हो जाता है। फटी एडिय़ों की गहरी दरारों में जमा मैल और बेहद दुबली काया के भरोसे पाँच प्राणियों का परिवार। दादी हरसंभव उनके साथ थीं। लेकिन उनकी उम्र हो गई थी। कुछ था जहाँ हम पहुंच नहीं पा रहे थे। बात एक ही थी। नया घर न तो अपने सपनों को ढो पा रहा था, न ही उनके सपनों को। सभी लगभग घिसट रहे थे।

यहाँ से अगली कहानी शुरू होती है। यह किसी और की कहानी नहीं मेरी कहानी है।

बरसात के बाद जब खानियों में काम शुरू हुआ तो बड़े भाई इस बार अकेले थे। पिता थे। लेकिन उनके होने के बावजूद उनका स्थान लगभग रिक्त था।

उस दिन सोमवार था। रविवार की खुमारी मुझपर तारी थी। मैं स्कूल नहीं गया था। अगले दिन से स्कूलों में नवरात्र की छुट्टियाँ घोषित कर दी गई थीं। दादी ने मुझे बड़े भाई को बुलवाने के लिए जो भेजा था।

- ''जा कर मदन को बुला ला।’’

मैं भाग कर गया था। मैंने पहली बार पत्थर के खदान देखे थे। जमीन के बड़े भाग में बना गड्ढा। बिल्कुल सफ़ेद पाउडर से पटा हुआ। जिनके अन्दर आदमी, मशीनें, ट्रक-ट्रैक्टर और जाने क्या-क्या समाए हुए थे। खदान का मुंशी मुझे बड़े भाई के पास ले गया। बड़े भाई एक बड़ी चट्टान को छेनी-हथौड़ी लेकर तराश रहे थे। एकबारगी तो मैं उन्हें पहचान नहीं सका। उन्होंने चेहरे पर कपड़ा लपेट रखा था। उनके कपड़ों व शरीर पर सफ़ेद पाउडर की कई परतें थीं। मुझे आया देख उन्होंने काम रोक दिया।

- ''यहाँ क्यों आए हो?’’

- ''दादी ने बुलाया है।’’

- ''कोई विशेष काम?’’

मैं सिर्फ़ सवाल लेकर आया था। मैं चुप रह गया। दादी का नाम सुनते ही उन्होंने चेहरे पर बंधा कपड़ा खोल लिया। खदान के ऊपर आकर उन्होंने नल पर हाथ-मुँह धाए। मालिक को बोला कि आज इतना ही काम हो पाएगा। घर से बुलावा आया है। मालिक ने कुछ कहा नहीं। लेकिन उसके चेहरे पर कई मिश्रित भाव उमड़ आए थे।

घर पहुंचने पर दादी ने बड़े भाई से कहा -

- ''तुम दोनों भाई नगर जाकर गढ़देवी के दर्शन कर आओ। कल नवरात्र का पहला दिन है। गढ़देवी की परिक्रमा करने से हर मनोकामना पूरी होती है।’’

पिता चुपचाप हमें देखते रहे। दादी ने उन्हें इस तरह से देखते हुए देखा तो कहा -

''मंदिर में पूजा करने के बाद हेमंत सागर चले जाना। वहाँ पत्थर के टुकड़ों से घर बनाना। देवी चाहेंगी तो अगले बरस हमारा भी पक्का घर होगा।’’

दादी कभी-कभी रहस्यमयी बातें करतीं। मुझे तो उनकी बातें बिल्कुल समझ में नहीं आती।

मैं बहुत खुश था। बहुत सालों के बाद मैं बस में चढऩे वाला था। नगर तो पहली बार देखूंगा। कितने बातों की कितनी छवियाँ। सभी एक साथ मेरे मस्तिष्क में घूम रही थीं।

- ''... और हाँ बावनकोट का मेला तेजू को जरूर घुमाना।’’ इस बार भाभी पीछे से बोल पड़ी थीं।

मैं तो उन्हें भूल ही गया था। पता नहीं वे मेरी सोच कैसे भांप लेती थीं। तिरछी निगाहों से मुझे देखती वे मुस्कुराई थीं। प्रत्युत्तर में मैं भी मुस्कुरा पड़ा। उन्होंने भाई को घर के भीतर आने का इशारा किया। भाई अन्दर चले गए।

गढ़देवी यानि हमारे नगरप्रधान की कुल देवी। लगभग पाँच सौ वर्ष पुराना शाही मंदिर। जिनके प्रति पूरा नगर श्रद्धा का भाव रखता है। अपनी-अपनी मान्यताएं हैं इनको लेकर। नवरात्र में देश के दूर दराज के इलाकों से लोग इस नगर में आते हैं। जब-जब नगर पर विपदा आयी। देवी ने नगर और गढ़ की रक्षा की। गढ़ के दक्षिणी दरवाजे पर देवी का मंदिर है। जिसके गुम्बंद पर लाल पताका हर मौसम में फहराती है। वैसे गढ़देवी की महिमा यह है कि उन्होंने पड़ोसी देश के हवाई हमलों में बम के गोलों को अपने हाथों पर लोक लिया था। युद्ध के दौरान कई बम और गोले शहर और मंदिर के पास गिरे। लेकिन न तो नगर पर आंच आई और न ही मंदिर को कुछ हुआ। स्थानीय लोगों का इस बात पर अटूट विश्वास है कि गढदेवी के रक्षा कवच ने उस समय नगर की रक्षा की थी और हमेशा करती हैं।

सूर्य धीमे-धीमे पश्चिम की ओर सरक रहा था। बस मानेसर बस स्टैण्ड से खुल चुकी थी। समंदर जैसा विशाल फैला हुआ रेगिस्तान। काले नाग जैसी लपलपाती सड़क, धीरे-धीरे क़स्बा पीछे छूट रहा था। इक्का दुक्का पत्थरों की खानियाँ अब नज़र आ रही थीं।

बस में खिड़की वाली सीट पर एक अधेड़ उम्र के सज्जन थे। मैं उनके ठीक बाजू में बीच की सीट पर बैठा। बड़े भाई सबसे किनारे वाली सीट पर। मुझे बार-बार खिड़की से झांकते देख उन्होंने मुझे खिड़की के सीट पर बिठा लिया। खुद मेरी सीट पर बैठे रहे। अब खिड़की से बाहर दूर तक कई दिशाओं में नज़र जा सकती थी।

बारीक पीली धूल के अंधड़ों व धूप से बेदम-बेहाल दुपहर को घिरते साँझ की मीठी हवा दुलरा रही थी। चढ़ती साँझ की सुरमई आभा में रेत के धोरे दिलकश हो उठते। दूर अनवरत घूमती उजली हवाई चक्कियों की कतारें। ऐसा लगता कोई बचपन हाथों में फ़ि रकी लिए दौड़ पड़ा हो। जो महज़ विंड मिल्स नहीं। बल्कि अम्बानी और ऐश्वर्या सरीखे व्यावसायिक मौके थे। सड़क पर दूर तक कोई मानुष नहीं दिखता। घोरों के सिलसिले को तोड़ती कुछ ढाणियाँ थीं। छह-सात फुट ऊँची पत्थर की सीधी खड़ी पट्टियों पर छप्पर डालकर बने हमारे घरों जैसे गोलघर। पत्थरों से तराशी हुई पाटियों की चारदीवारी पर गारे-चूने के आड़े-तिरछे नमूने मांडे हुए। कहीं-कहीं ढाणियों के पूर्वज रहे लोक-देवताओं के थान। आसपास खेजड़ी के कुछ पेड़ों पर बंधीं लाल-पीले-सुनहले कपड़ों की चित्तियाँ हवा में फरफरातीं। कीकड़-केर के झुरमुटों के बीच उछल-कूद करते सुन्दर शर्मीले चिंकारा..! रेत के ऊँचे अनंत धोरे, धोरों की लहरियों पर टप्पे खाती ढलती सूरज की सुनहरी किरणें। जिन्हें देख-देखकर मेरा मन आनंदित हुआ जाता था।

दूसरी ओर बड़े भाई और अधेड़ उम्र के सज्जन के बीच बातें हो रही थीं। बड़े भाई उन्हें 'सरूप भाई’ कह कर संबोधित कर रहे थे। मेरे खिड़की पर बैठने के समय उनके बीच परिचय जैसी कुछ बातचीत हुई थी। अब हो रही बातचीत में कुछ अलग भाव भी थे। मैंने उनकी बातों पर ध्यान केन्द्रित करने की कोशिश की। कुछ नयी-पुरानी बातें थीं। किसी नगर, प्रधान और युवराज को लेकर। टुकड़ो-टुकड़ों में वे बातें मुझ तक आ रही थीं। उन बातों के कई सिरे थे। कभी-कभी वे मुझसे बिल्कुल ही छूट जातीं। आज जब उन बातों को जोडऩे की कोशिश करता हूँ तो वे मेरी कहानी से जुड़ती हैं। जाने वो बातें सही थीं या गलत। मनगढ़ंत भी हो सकती थीं। परन्तु जिस वक्त सरूप भाई इन बातों को कह रहे थे, उस समय इनका कोई मतलब न था। न तो मेरे लिए, न ही मेरे बड़े भाई के लिए।

नीले साड़ी के रहस्य में लिपटा युवराज रिहायशी खेल-खेलकर अतीत से मुक्त होने के रास्ते तलाश रहा था। अचानक खेल में उसके साथ कोई हादसा हो गया। साल भर से ज्यादा वह कोमा में रहा। होश में भी आया तो पिछली स्मृतियाँ लगभग लोप हो रही थीं। सुना था कि उसकी शादी तय हुई थी। नीला रंग बेरंग होने लगा था। देश अब आजाद था। प्रजा न थी। अब जनता थी। नगर प्रधान अब गढ़-प्रधान तक सीमित होकर रह गए थे। ये संयोग था कि कुसंयोग कुछ जन प्रतिनिधि उनके दरबार में हाज़िरी देते थे। पुजारियों और उनके परिवार का अब भी अटूट रिश्ता था। उनके खास पुजारी थे जो ज्योतिषी भी हुआ करते थे। उनमें से मुख्य ज्योतिषी ने परिवार पर आन पड़ी इस आपदा को प्रधान के परिवार के इतिहास से जोड़कर देखा था। यह बात सच थी कि प्रधान के परिवार में पिछले ढाई-तीन सौ सालों में यह कभी नहीं हुआ कि दादा ने पोते का मुंह देखा हो। ज्योतिषी ने इस बात को बड़ी सफाई से प्रधान के मन में डाला। अनिष्ट की शंका व्यक्त की। युवराज की स्थिति नाजुक बनी हुई थी। ज्योतिष शंका ही नहीं करता समाधान कराने का भ्रम भी देता है। गणना के बाद ज्योतिषी ने सुझाया कि अगली पीढ़ी के बारे में कुछ सोचने से पहले गढ़देवी को चढ़ावा चढ़ाएं।

बस में बैठा-बैठा मैं उब रहा था। उनकी बातें मेरे समझ से बाहर थीं। बस को चलते हुए दो घंटे से ज्यादा हो चुके थे। बस की खिड़की से बाहर देखते हुए मेरी नज़र आसमान की तरफ़ उठ गई थीं। आसमान में गिद्ध मंडरा रहे थे। मैंने यह नज़ारा बड़े भाई को दिखाया। सरूप भाई बोले नगर अब समीप है। ये गढ़ के ऊपर उड़ते हुए गिद्धों के झुण्ड हैं।

सूरज डूब चुका था। अँधेरा बस होने वाला था। बस नगर में प्रवेश कर चुकी थी। मैं पहली बार नगर देख रहा था। बिजली के असंख्य लट्टू रौशन थे। यहाँ कई मानेसर जैसे कस्बे एक साथ थे। सजी हुई दुकानें, घर, लोग। सब कुछ कई गुना, अधिक अनुपात में। सरूप भाई ने बताया था कि नगर में छत्तीस कौमों के लोग एक साथ रहते हैं।

सरूप भाई ने हमें अपने साथ उनके यहाँ रुकने के लिए बड़े भाई को राजी कर लिया था। वे स्थानीय थे और गढ़ देवी के दर्शन के लिए जाने वाले थे। उनका घर गढ़ से ज्यादा दूर नहीं था। उनके रहने से हमें सहूलियत होगी। यह सोचकर बड़े भाई ने रजामंदी दे दी थी।

हम सभी सरूप भाई के घर के पास एक बस पड़ाव पर उतरे। वहाँ चार रास्ते थे। चारों अलग-अलग दिशाओं से आकर एक जगह मिलते। जहाँ रास्ते मिलते वहाँ एक ऊँचे चबूतरे पर रंगीन साफ़े में रघुराम की मूर्ति मुस्कुरा रही थी। चबूतरे पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था - शहीद रघुराम चौराहा। मैंने महसूस किया बड़े भाई उस मूर्ति को देखकर गंभीर हो उठे थे। सरूप भाई ने बताया कि गर्मियों के मौसम में यहाँ से नगर में झांकी निकाली जाती है।

रात के खाने के बाद सरूप भाई ने बताया कि गढ़देवी दर्शन के लिए सुबह तीन बजे से लाइन लगनी शुरू होगी। चार बजे से दर्शन शुरू होंगे। सरूप भाई के जाने के बाद मैंने बड़े भाई से पूछा -

- ''आप शहीद रघुराम चौराहे पर गंभीर क्यों हो गए थे?’’

- ''रघुराम की मूर्ति को रंगीन साफ़े में मुस्कुराते देखकर!’’

- ''वो भला क्यों...?’’

- ''मुझे लगा था कि रघुराम यह सोचकर मुस्कुराते होंगे कि - 'चलो, मेरी शहादत से परिवार को पीढिय़ों की बेगारी से मुक्ति तो मिली...’’

कहते-कहते बड़े भाई फिर गंभीर हो गए थे। थोड़ी देर चुप रहने के बाद वे बोले-

- ''क्या हमारे परिवारों की मुक्ति के लिए हमें भी शहादत देनी होगी?’’

मेरी समझ में नहीं आया कि मैं क्या कहूं? मैं चुप हो गया था।

पहली बार में किसी रात, घर से बाहर था। हालाँकि बड़े भाई साथ थे। बड़े भाई की बातों से मुझे यही लग रहा था कि उनका स्वभाव बदल रहा था। पहले कितनी बातें होती थीं उनसे। लेकिन अब वे केवल चुभने वाली बातें किया करते थे। देर रात तक मैं करवटें बदलता रहा। बावनकोट के मेले की कल्पना करता रहा। कल्पनाओं में घूमते-घामते पता नहीं मुझे कब नींद आ गई थी।

अलसुबह स्नान आदि से निवृत होकर हम लोग कबूतरगढ़ में थे। हम वहाँ तीन ही नहीं थे। वहाँ भक्तों की अच्छी खासी भीड़ थी। कोई माथे में जय माता दी की पट्टी बांधे था। तो कोई गले में लाल चुनरी डाले था। गढ़ में रौशनी की गई थी। चार बजे से दर्शन शुरू होने वाला था। घंटे भर से हजारों लोग अलग-अलग लाइनों में कड़े थे। जहाँ तक मैं देख पा रहा था लाइनों में युवा लोग ज्यादा थे। जिनमें से ज्यादातर बाहर गाँव से आये हुए लगते थे।

लाइन धीरे-धीरे सरकती। हम दो-तीन कदम आगे बढ़ते। बीच-बीच में 'जय माता दी’ और 'गढ़देवी हमें आशीष दो’ के जयकारे भी लगते। लाइन में सरूप भाई आगे थे। मैं बीच में और बड़े भाई पीछे। गढ़ के अन्दर का रास्ता सीधा नहीं था। थोड़ी चढ़ाई करनी पड़ रही थी। जहाँ कहीं लाइन मुड़ती वहाँ अचानक भीढ़ बढ़ जाती। लोग एक-दूसरे से दूरी बनाए रखने और धक्का मुक्की नहीं करने की अपील करते। मेरी नज़र गढ़ के आलीशान गुम्बदों की तरफ़ थी। पहली बार मैं इतने भव्य मकानों को देख रहा था। उनकी ऊंचाई और चमक देखकर मैं चकित था। मुझे विश्वास नहीं हो रहा था कि इतने बड़े घर में कभी कोई आदमी रहता होगा।

हम धीरे-धीरे सरक रहे थे। अब लगभग सीधी चढ़ाई शुरू हो गई थी।

- ''किनारे लगे लोहे की पाईप पकड़कर चलना।’’ बड़े भाई ने हिदायत दी।

मैंने पाईप को पकड़कर चलना शुरू किया। बड़े भाई पीछे से मुझे सहारा दे रहे थे। गढ़ के अन्दर के बड़े दरवाजे के पास जाकर लाइन रूक गई। किसी ने बताया कि दर्शन शुरू होने वाला है। उसके बाद ही लाइन आगे बढ़ेगी। सब लोग अपनी-अपनी जगह पर खड़े हो गए। सबको बारी-बारी दर्शन करने का मौका मिलेगा। 'दर्शन’ सुनते ही एक बार फिर से गढ़ जयकारों से गूँजने लगा था।

सरूप भाई ने बड़े भाई का ध्यान उनके बाजू में लगे एक चौकोर से पत्थर की ओर दिलाया। वहाँ भूरे रंग की वर्गाकार आकृति बनी थी। जिस पर कुछ खुदा हुआ था।

- ''यह पत्थर पाँच सौ वर्ष पुराना है। यह गढ़ की नींव है। यहीं रघुराम को जिंदा दफ़नाया गया था। पत्थर पर रघुराम की शहादत का दिन अंकित है। अनुमान है कि यहाँ खजाना रखा जाता होगा।’’ सरूप भाई ने नीव पर खड़ी ऊँची दीवार को छूकर बताया।

- ''बस एक पत्थर...?’’

- ''हां भाई! जिनके लिए शहादत दी उनकी तो बड़ी-बड़ी छतरियाँ बनी है यहाँ।’’ उन्होंने मंदिरनुमा बनी एक छतरी की ओर इशारा करते हुए कहा।

भीड़ में पुन: जयकारे गूंजने लगे। बड़े भाई कुछ कहना चाहते थे। लेकिन शोर में उसकी आवाज दब गई थी। अचानक एक शोर उभरा - ''दर्शन शुरू हो गया।’’ लाइनों में खड़े लोग भजन-कीर्तन करने लगे। माहौल में उत्साह भर गया था। घंटे भर से लाइनों में लगे इस क्षण के इंतजार के लिए खड़े थे। लाइन फिर आगे सरकने लगी थी।

- ''आगे आराम से चलना होगा। रास्ता संकरा हो जाता है। भीड़ हो जाएगी वहाँ पर।’’ सरूप भाई ने हमें हिदायत दी।

मैं अपनी तरफ़ से सावधान हो गया। बड़े भाई ने एक हाथ में पूजा की सामग्री थाम रखी थी। दूसरे हाथ से दीवार का सहारा लेते हुए आगे बढ़ रहे थे। धीरे-धीरे सरकते हुए हम अब गढ़ के दुर्ग पर थे। वहाँ रौशनी अपेक्षाकृत कम थी। पर दुर्ग के छोटे-छोटे झरोखों से पूरा नगर जगमगाता दिखाई दे रहा था। मानों वह भी गढ़देवी के दर्शन के लिए जग चुका था। मैंने अनुमान लगाया कि अभी हम नगर के सैकड़ों फीट की ऊंचाई पर थे। दुर्ग का रास्ता सकरा था। मंदिर उसे रास्ते के ढलान पर नीचे की तरफ़ था। झरोखों से रह-रहकर गढ़देवी का सफ़ेद मंदिर और लाल पताका दिखाई दे जाती। मंदिर के पास भीड़ जमा हो रही थी। लोग बहुत धीरे-धीरे सरक रहे थे। जयकारों की ध्वनि तेज हो गयी थी। भीड़ में उत्साही युवक अनवरत जयकारे लगा रहे थे। रास्ता संकरा होने के कारण भीड़ बढऩे लगी। बड़े भाई मेरे बिल्कुल पास चिपक आए थे। वे भी जयकारे लगाने लगे थे। उन पर अब भक्ति का रंग चढ़ गया लगता था। वे अपना मुंह मेरे कान के पास लगाकर फुसफुसाए।

- ''कुछ महीनों में तू चाचा बनने वाला है।’’

- ''सचमुच!’’ मुझे जैसे विश्वास नहीं हुआ था।

- ''कल आते वक्त तेरी भाभी ने बताया था...’’ कहकर वे मुस्कुराए। हल्की रौशनी में उनकी आँखें चमक रही थीं।

मेरा मन खुशी से भर उठा। मैंने बड़े भाई का हाथ जोर से पकड़ लिया। जोश-जोश में चार-पाँच जयकारे लगा दिए।

- ''जय माता दी’’.... ''गढ़देवी हमें आशीष दो’’ भीड़ ने पीछे से साथ दिया था... आशीष दो... आशीष दो

तभी भीड़ में एक हल्का शोर उभरा - ''दुर्ग की दीवार गिर रही हैं...’’

सरूप भाई चीख पड़े - ''मदन, तू तेजू को पकड़े रहना। लगता है भगदड़ होने वाली है।’’ इतना कहते-कहते अचानक उनकी आवाज लोप हो गयी।

भीड़ और सघन हो गयी थी। हज़ारों लागे इधर-उधर भागने लगे। वे एक-दूसरे पर चढऩे लगे थे। कोई दीवार पर चढऩे की कोशिश कर रहा था। कोई वापस लौटने की। आने वाले आते जा रहे थे। जाने वाले लौटना चाहते थे। चीख-पुकार मच गयी थी। दुर्ग की दोनों मोटी दीवारों के बीच बहुत सारे लोग फँस चुके थे। बड़े भाई मेरा हाथ पकड़े रहने की भरसक कोशिश में थे। अचानक मैं तीन-चार लोगों के बीच फँस गया। मैं जोर से चीख उठा। मुझे झटका लगा। बड़े भाई से मेरा हाथ छूट गया। मैंने देखा बड़े भाई गिर पड़े हैं। उन पर कई लोग कीड़ों-मकोड़ों की तरह चढ़ गए थे। मैं बेतहाशा चिल्लाने लगा। कोई मेरी आवाज सुन नहीं रहा था। मैंने लोगों को धकेलकर भाई के पास पहुंचने की कोशिश की। पर सब व्यर्थ था। भगदड़ और चीखों के बीच मेरी आवाज कहीं गुम हो गयी थी। मैं दुर्ग की दीवार के एक कोने में दब गया था। मेरे ऊपर पहले एक पैर पड़ा। फिर एक असंख्य पैरों ने लगभग रौंद दिया। मेरा दम घुट रहा था। चीख हलक में कहीं घुट रही थी। मैं होश खो रहा था।

एक तूफ़ान था। जो घंटों तबाही मचाता रहा।

मुझे जब होश आया तो अस्पताल में पड़ा था। डॉक्टर मुस्तैदी से घायलों के इलाज में लगे थे। बेहोश हुए, कुचले गए लोगों को कंधे पर, टैक्सियों में, ऑटो रिक्शा में भर-भर कर अभी तक अस्पताल लाया जाता रहा। हजारों लोग हताहत हुए लगते थे। लोग मदद करने, खून देने के लिए कतारों में खड़े थे। जितने लोग अस्पताल में थे उससे कहीं ज्यादा अस्पताल के बाहर। पुलिस प्रशासन, मीडिया, स्वयंसेवी संगठनों के लोग सभी वहाँ अपनी तरह से हरसंभव कोशिश कर रहे थे।

मुझे किसने बचाया इसकी धुंधली सी छवि मन में उभरती है। कोई दुबला-पतला साँवला-सा चेहरा था। जिसने मुझे अपने कंधे पर लादा।

अचानक बड़े भाई और स्वरुप भाई का ख्याल आया। मैंने आस-पास के बिस्तरों पर नज़र डाली। चारों तरफ़ बहुतेरे घायल चेहरे थे। अंग-भंग हुए, बेहोश-अचेत हुए लोग थे। कुछ और लोग भी थे, जो लोगों को बचाकर ला रहे थे। खुद को सँभालते हुए मैंने बेड से उठना चाहा। वहां खड़े अटेंडेंट ने मुझे वापस बेड पर लिटा दिया। मैंने लेटे-लेटे भरसक अस्पताल के गलियारे, कमरे के फर्श पर पड़े घायलों में बड़े भाई और सरूप भाई को खोजने की कोशिश की। पर वे कहीं नहीं दिखे।

अस्पताल में बहुत से लोग थे। पुरुष-महिलाएँ सभी बिलख रहे थे। वे लोग भी थे जिनके परिजन अब जीवित नहीं थे। लोग बार-बार यह कह रहे थे कि गढ़देवी ने भख लिया। जिस देवी के सुरक्षा कवच में सभी सुरक्षित महसूस कर रहे थे। उसने भख लिया। लोग बार-बार पूछते - ''भक्तों से कहाँ चूक रह गयी माता।’’

उस रात नगर में चूल्हे नहीं जले थे। नगर पहली बार इतनी बड़ी विभीषिका देख रहा था। उठावने के वक्त मानों पूरा शहर ठहर गया था।

घटना की कितनी तहें थी हर कोई जानना चाहता था। घर परिवार-रिश्तेदार-प्रशासन-मीडिया-जनप्रतिनिधि... भगदड़े क्यों मची? कैसे मची? कितने लोग हताहत हुए? इन सबके अनुमान वर्षों तक हताहत परिवार, नगर के लोग, प्रशासन और मीडिया के लोग लगाते रहे। मैं बच गया था। लेकिन हमने दो लोगों को खोया। नगर ने बहुतों को खोया।

खबर थी कि तीन सौ से ज्यादा लोग मरे थे। पाँच सौ के आसपास लोग घायल हुए।

इस घटना को एक दशक बीच गए। जाँच हुई थी। पर सार्वजनिक नहीं हुई। हम गए थे तीन लोग। वापस आया अकेला मैं। दादी इस आघात को सहन न कर सकीं। जब तक जीवित रहीं उनको लगता था कि उनकी वजह से बड़ा भाई मरा। खानियों से बुलाकर उन्होंने ही उसे नगर भेजा था। भाभी कई महीने तक सदमें में रहीं। हमारे लिए उस घटना के बाद के समय बहुत कठिन रहे। दो-तीन साल जैसे-तैसे गुजरे। पिता ने घर बनाने का सपना छोड़ दिया। जिस जमीन के टुकड़े पर हम रहते थे उसे बेचकर हमने मानेसर छोड़ दिया। हम यहाँ किराए के कमरे में रहते हैं। भाभी ने अपनी पढ़ाई पूरी की। वे अब सरकारी स्कूल में शिक्षिका हैं। मैं नगर के एक प्रिंटर के यहाँ डिजाइनिंग का काम करता हूँ। सुबह मेरी ड्यूटी  भतीजे को स्कूल पहुँचाना होती है। बाकि प्रिंटर के यहाँ बेमकसद की लकीरें बनाता रहता हूँ। भाभी के जिम्मे कई काम हैं। जिसमें घर संभालना, सरकारी स्कूल में बच्चों को पढ़ाना और केस की फाइलों को पढ़कर पिता को सुनाना और उनके साथ हर तारीख पर कोर्ट में हाज़िरी लगाना। वे अपने तीनों काम पिछले सात-आठ सालों से नियमित करती है। हर बार वह कोर्ट इस उम्मीद से जाती है शायद अंतिम फैसला आ जाए।

विगत दस वर्षों में मेरे पिता और भाभी हताहत परिवारों के साथ अनेक बार कोर्ट के चक्कर लगा चुके हैं कि इतनी बड़ी त्रासदी कैसे हुई? कारण क्या रहा होगा? एक बार राजधानी तक पदयात्रा करके मुख्यमंत्री को ज्ञापन भी दे आए। दो सरकारें बदल चुकी हैं। मुख्यमंत्री के आदेश पर गठित भाटिया आयोग ने अपनी रिपोर्ट भी दे दी है। लेकिन उसे सार्वजनिक नहीं किया जा रहा।

ज़िंदगी रूकती नहीं। हताहत परिवार धीरे-धीरे जीवन की तरफ़ लौट रहे हैं।

मेरी कहानी यहाँ ख़त्म नहीं होती। कुछ बातें और हैं, जिन्हें जाने बिना इस कहानी को ठीक-ठीक समझा नहीं जा सकता। इस विभीषिका के बाद हताहत परिवारों ने सुरक्षा व्यवस्था को दोषी ठहराते हुए एक समिति बनाकर कबूतरगढ़ ट्रस्ट के कारणों का खुलासा करने की मांग की थी। जिस पर ट्रस्ट की ओर से बयान आया था कि -

''उत्साही युवक आगे निकलने की होड़ में दूसरों को धकेलते हुए मंदिर की ओर बढ़ रहे थे। रोकने के बावजूद वे बलपूर्वक भीड़ में घुस गए थे। भीड़ बढऩे से मंदिर तक जाने वाली ढलान रास्ता एकदम जाम हो गया था। जब लोगों का दम घुटने लगा तो भगदड़ मच गई। फिर कुछ की दबने और कुछ की दम घुटने से मौत हो गई। कई दर्शनार्थी शराब पीए हुए लग रहे थे। क्योंकि मरने वाले शवों से शराब की बदबू आ रही थी।’’

इस घटना का विश्लेषण जिसे नगर ज्योतिषी ने प्रस्तुत किया था।

''कुम्भोमरागे पीडयन्ते गिरिजा: पश्चिमंभाजना:

तस्करद्विदामीरा: प्रजानां दु:ख दायका। (राशिग्रहण प्रकरण-77 वर्षप्रबोध)

अर्थात

''जब किसी नगर में कुम्भ राशि में चन्द्र ग्रहण होता है और पंद्रह दिनों के अंतराल में सूर्य ग्रहण भी हो रहा हो तो उस नगर के पश्चिमी इलाके में, पश्चिमी भू-भाग के पर्वत पर रहने वाले सबसे अमीर व्यक्ति द्वारा प्रजा दुखी होगी अर्थात उनकी गलती न होते हुए भी वो लोग प्रजा के दु:ख का निमित कारण बनेंगे। यह घटना किसी मानवीय भूल का कारण नहीं है। यह घटना तो गढ़ के घातचक्र, ग्रहण कबूतरगढ़ की कुंडली व गोचर कुंडली का सामानांतर फलित के कारण हुई है।’’

इस विश्लेषण के लिए कबूतरगढ़ के प्रधान ने नगर ज्योतिषी को गढ़ का सबसे बड़ा सम्मान दिया था।

दो वर्षों के पश्चात नगर युवराज की शादी धूमधाम से हुई। ढाई-तीन सौ सालों का इतिहास अब बदल चुका है।

एक अन्य प्रतिक्रिया जो सार्वजनिक रूप से तो नहीं आई, लेकिन कुछ कौमों के लोग विशेष आग्रह के साथ इसे बताते-सुनाते है;

- ''मरने वाले नौजवान और नाबालिग ज्यादातर निम्न समुदायों से थे। इसलिए देवी ने उनको भख लिया।’’

 

 

 

 

नवनीत नीरव की पैदाइश 1985 की है और वे सर्वथा नये रचनाकार हैं। पहल में पहली बार हम उनकी कहानी को रेखांकित कर रहे हैं। उन्होंने ग्रामीण प्रबंधन पर उच्च शिक्षा हासिल की और एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में काम करते हैं।

संपर्क - मो. 9116001168, जोधपुर

 


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