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अप्रैल - 2019

चांद एक शहर में

सुनीता गुप्ता

विमर्श/चार

 

शेफाली फ्रास्ट

 

 

संगीत, फिल्म-निर्माण तथा फिल्म-लेखन से जुड़ी शेफाली फ्रॉस्ट ने अपने कविता संग्रह 'अभी मैंने देखा’ के द्वारा हिन्दी काव्य जगत में अभी पहला ही कदम रखा है, लेकिन अपनी संवेदनात्मक गहराई, वैचारिक परिपक्वता और रचनात्मक बुनावट में यह कवि के रूप में उनकी सशक्त पहचान दर्ज करता है। संग्रह के शीर्षक के अनुरूप अपने आसपास के देखे हुए दृश्य उनका अनुभव जगत निर्मित करते हैं, लेकिन उनका अनुभव जगत महज अवलोकन नहीं है- वह उनके इतिहास बोध और वैचारिक संचेतना से जुड़कर वर्तमान के दृश्यों को तार्किक संगति में देखता हैं। शायद यही कारण है कि इन कविताओं में उनके और हमारे आस-पास का परिवेश अत्यंत मुखर और जीवंत होकर उभरा है।

इन संग्रह की कविताएं तीन खंडों में विभाजित हैं - 'लफाडिय़ा चांद,’, 'एक था राजा-एक थी रानी’ और 'अभी मैंने देखा’। ये तीन खंड शेफाली फ्रॉस्ट की संवेदना के तीन अलग-अलग आयामों से परिचित कराते हैं। 'लफाडिय़ा चांद’ में उनके चतुर्दिक का सामाजिक परिवेश है। 'एक था राजा-एक थी रानी’ खंड की कविताएं व्यक्ति केंद्रित और आख्यानात्मक हैं। तीसरे और आखिरी खण्ड 'अभी मैंने देखा’ में राजनीतिक संदर्भ की कविताएं शामिल हैं।

संग्रह की पहली कविता 'क्या’ वह द्वार है जहाँ से हम कवयित्री के रचना संसार में प्रविष्ट होते हैं। इसे संग्रह की भूमिका के तौर पर भी देखा जा सकता है। बड़े शहर के एक चौराहे पर घटित इस लम्बी कविता में पात्र एक-एक कर दृष्टि के केन्द्र में आते हैं, अपने परिवेश का मुकम्मल कोलाज बनाते हैं और आगे जाकर पूरे संग्रह की कड़ी बनते हैं। चौराहे की भीड़ का समाजशास्त्र कवयित्री ने बड़ी बारीकी से उकेरा हैं। हर पात्र वर्ग-विशेष, लैंगिगता, भावुकता, बौद्धिकता की अलग पहचान, उलझन और आकांक्षा लिए आता है, लेकिन एक रूपक की तरह नहीं, बल्कि अपनी व्यक्ति-विशेषता लिए और उस चौराहे का हिस्सा बन जाता है। यह कविता उनकी कई कविताओं की तरह सिनेमा के परदे का सा आभास देती है। इसकी दुनिया में मलिन दुपट्टे में तेल भरे कटोरे के साथ शनि का दान मांगती लड़की है, सूर्या प्रॉपर्टिज की इमारत में शहर की सर्दी में एक-दूसरे को जकड़कर मरे हुए लोग हैं, दीवार से लिपटकर अपने कपड़े गीले करता ड्रग-एडिक्ट है। यहां हरे कनटोप में दुधमुंहा बच्चा संभाले लाल बत्ती वाले चौराहे पर सिटपिटायी हुई एक औरत भी है, जो निराला की पत्थर तोड़ती औरत की तरह अलक्षित है, लेकिन अपने आंचल में अपने अनगिन सपनों और द्वंद्व के साथ न जाने कितने विस्थापन के दर्द को समेटे है। आगे चलकर कविता के इस सिनेमिटाई फलक पर एक लड़का भी आता है जो शहर की बड़ी मॉल की टाइल्स पोंछने का छोटा सा काम करता हैं। भले ही वह उस वर्ग से है जो भीड़ से अभिन्न और लगभग अदृश्य ही है, किन्तु वह भी औरों की तरह कभी पूरे न हो पाने वाले सपने देखता है, और किसी तरह अपनी संकुचित दुनिया से निकलने को व्यग्र है।

इसी चौराहे पर कार के गियर से जूझती चालीस पार उम्र की एक औरत आती है जो अपने अंदर बीस वर्ष पुराने रिश्ते का आक्रोश समेटे है। कॉल सेंटर की सीढिय़ों पर 'ऑफिस कैब से उगल दिया जाने वाला वो हरी पट्टी पर स्वेटर का आदमी’ भी है, जो शहरी मशीनी दिनचर्या का बेनाम पर्याय बन गया है। उसक कहानी आम तो है, लेकिन विशेष भी - इन अर्थों में कि अपने पीछे छूटे एक छोटे अंचल से जुड़ी समस्याओं और आकांक्षाओं से वह अब भी बंधा है।

इन दोनों की कथा बाद की कई कविताओं में विस्तार पाती है। इन्हें 'वह आदमी और वह औरत’, 'मोटी औरत’ और 'लो वोल्टेज का मकान’ कविताओं में भी देखा जा सकता है जहां इनके संबंध यांत्रिक साहचर्य में परिणत हो जीवन के स्पंदन को खो चुके हैं।

इस कविता में जब वे लिखती हैं कि 'क्या तेल लगे बालों में कंघी घुमाता आदमी/उतार सकता है धूल भरा चेहरा/जो शहर की गलियों ने उसे बिना पूछे पहनाया है’ - तो शहरी जीवन की यंत्रणा, नियति और विवशता साकार हो उठती है। यह वह महा-शहर है जहाँ- 'भीड़ इतनी है लेकिन/आदमी कुल्ला करे कि तकरार/प्यार कर या मन भर सिंदूर डाल कर/ताकता रहे आसमान/निगल जाता है यह शहर/खिड़की से आंख/दरवाजे से धड़’।

अपनी समग्रता में यह कविता संग्रह, एक उपन्यास के विस्तार को समेटे हुए है। जैसा कि पहले भी उल्लेख किया जा चुका है, संग्रह में कई पात्र किसी उपन्यास के चरित्र की तरह बार-बार आते हैं - 'क्या’ कविता का बॉल पेन, नारियल और रुमाल बेचता, अपने कुर्ते की बांह में नाक पोंछता हुआ बच्चा आगे चल कर 'खाड़ी युद्ध और मेरा चौराहा’ शीर्षक कविता में फिर उपस्थित होता है। अब वह फोन चार्जर बेचता है। शहर ने इसे निगल लिया है और बदहाली में वह घर वापस लौटने की राह तलाश रहा है। उसी कविता में कटोरा लेकर चौराहे पर गुजरती गाडिय़ों से शनि का दान मांगने वाली लड़की भी यहां दिखाई देती है। शहर ने उसे इतने मोर्चों पर चोट दी है कि उसका शरीर लहुलुहान हो गया, अपने रक्त में अनगिनित सर्पों के दंश पर समेटे वह एम्बुलेंस की ओट में स्नान करती अपने जख्मों को धोने के प्रयास में एक अव्यक्त आक्रोश से भरी है। चौराहे के इन पात्रों में ही कवयित्री वह जीवंतता पाती हैं जो इस मरते, दम-घोंटू सामाजिक परिवेश में क्रांति का आगाज कर सकती है- ''सींच रही है पुरुषोत्तम की सड़क/फुटपाथ की आखरी कतार/लड़ पड़ेगी शायद/अगर रोने दिया उसे आज!’’

विस्थापन चकाचौंध भरे शहरों का एक अदृश्य चेहरा होता है। इसलिए आश्चर्य नहीं कि गांवों से शहरों की तरफ पलायन करने वाले ये विस्थापित, इस संग्रह की मूल औपन्यासिक संरचना में शामिल हैं। 'मेरे चौराहे में गाँव’ कविता का यह शहर, जिसमें अपनी कलपती माँ को पीछे छोड़ रेलगाड़ी पकड़ एक युवक यहाँ आता है, रिक्शा चलाता है, और गांव में घर बनाने लायक पैसे अर्जित करने की आस में अपना जीवन व्यतीत कर देता है - ''उतर रहा है सड़क के किनारे/अद्धे वाली बोतल का नशा/शहर आने का/गाँव का घर बनाने का/फिर लौट जाने का’’। कवयित्री पैसा कमाने और जिन्दा रहने की इस जीवन-हारिणी प्रक्रिया को अंदर-अंदर तक देखती हैं। भूख और उसके लिए नमक रोटी का जुगाड़ इन पात्रों का ऐसा पारिभाषिक कृत्य बन जाता है जिसके बीच जीवन की अनंत संभावनाएं दम तोड़ देती हैं - 'जैसे उसकी आंत सपनों पर भारी है’ का एक सूत्र वाक्य इसे परिभाषित करने के लिए पर्याप्त है - ''क्या है/जो जिन्दा रखता है उसका ओर-छोर/पर मार डालता है भीतर/जैसे उसकी आंत/सपनों पर भारी है/और उसकी छाती पर/एक खालीपर है/दिन के गुजर जाने का’’।

जैसा कि कविता संग्रह के शीर्षक 'अभी मैंने देखा’ से अभिप्रेत है, संग्रह की कविताएं दरअसल देखे गए दृश्य हैं, पर इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि ये दृश्य महज देखे हुे नहीं हैं बल्कि अज्ञेय जी के 'आलोक छुआ अपनापन’ की तरह कवयित्री की संवेदना से उद्भासित हैं। ऐसा लगता है कि दृश्य की ऊपरी परतों को दोनों हाथों की अंजुरी से हटाकर कवयिक्षी उसमें डुबकी लेती हैं। यह एक ऐसी है दुनिया जो बहुतों के लिए अदृश्य अलक्षित है। इसकी आइडेंटिटी और मानव चेतना की खोज ही इस कविता संग्रह का साध्य जान पड़ता है। कवयित्री के लिए इसके विलोम में वह दुनिया है जो अपनी चकाचौंध से जनमानस की निगाह में जल्द आ जाती है, लेकिन उसके बनावटीपन के नीचे जो कुछ है, वह नितान्त खोखला हैं क्योंकि अपनी निजता के घरे में आबद्ध वह मनुष्य होने की मूल शर्त - संवेदना और वह मानवीय सरोकार - से असम्पृक्त है। ऐसे ही लोगों की दुनिया पर व्यंग्य करती एक कविता है 'जियो, तुम जियो’ - 'जुबान जिरह तो करती हैं तुम्हारी/लेकिन/रोक लो भिंचे हुए दातों के बीच उसे/तुम्हारे जागने का कोई संदर्भ नहीं/जियो, तुम जियो’।

शेफाली फ्रॉस्ट की कविताओं में बार-बार आता है शहर की सभ्यता और आधुनिक विकास का शिकार होता आदिवासी समुदाय। प्रकृति के साथ इनका सीधा रिश्ता होता है। ये प्रकृति पर निर्भर हैं, पर विकास की दौड़ में इनकी प्रकृति को तहस नहस कर इनका दोहन किया जा रहा है - ''वे हव्वा और आदम की औलादें/हार चुकी हैं जो/लकडिय़ों के व्यापार में/पत्ते चबाने का हक’’। 'ओ बिरसा मेरे’ कविता में कवयित्री यह भी देखती हैं कि किस प्रकार कई बार इस समुदाय के कुछ लोगों को उनके ही विरुद्ध हो रही साजिश का साझीदार बनाया जा रहा है - 'वो देखो कुछ औलादें तुम्हारी/उतर रही हैं हवाई जहाज से दिक्कुओं के साथ/सहेज रही है बॉक्साइट की खादानें और तुम्हारा मौन।’ आदिवासी मुण्डाओं के दर्द समेटतीं कवियत्री सभ्यता की समय-सीमाओं को लांघती हुई बिरसा मुंडा के पास पहुंचती हैं - ''उतर रही हूँ मैं/सभ्यता की पंखुड़ी से/गढ़ी जा रही है जंगली में चलकाड़ के/तुम्हारी व्यथा की लता’’। महादेवी की 'अश्रु चुनता दिवस उसका, अश्र चुनती रात’ की तर्ज पर वे उस व्यथा को समेटती ही नहीं, उससे एकाकार हो जाती हैं जब कविता के अंत में वे कहती हैं - 'मैं उतना ही रोना चाहती हूं जितना कि तुम’।

शेफाली फ्रॉस्ट की कविताओं में प्रकृति अपनी स्वायत्तता को समेट कर मानवीय विडम्बना के साथ एकाकार हो जाती हैं। ये कविताएं प्रकृति के कोमल और रोमांटिक चित्रण का विलोम रचती हैं। संग्रह की एक महत्वपूर्ण कविता 'लफाडिय़ा चांद’ में इसे देखा जा सकता है - 'लौट लौट कर’ आता 'पलट पलट कर निकाला जाता’ 'लफाडिय़ा लतिआया बेआबरू चांद’ शहर और प्रकृति के संबंधों की बेबाक अभिव्यक्ति है - ''सतह की हर झिल्ली/लतियाती है उसे... थके पानी के बुलबुले/दुत्कारते हैं उसे... जलते धुंए की राख पिएगा और जिएगा/रिसती कीचड़ से लपेटेगा गला और जिएगा’’ - इस रूप में वह उन तमाम हाशिये के लोगों का प्रतीक बन जाता है जो आभिजात्य समाज द्वारा दुत्कारे जाते हैं पर उनकी जीजिविषा उन्हें मिटने नहीं देती - हर तरह की जलालत सह कर भी ये बार बार जी उठते हैं। कई कविताओं में मानवीय सरोकारों को समेटे प्रकृति मानवीय अनुभूतियों में ढल गयी है - 'उतर रही है कानों के पास/रात भर जागी चिडिय़ा की बड़-बड़/रूके कमरे में फैल रहा है कोहरा/फूल हुआ/बरस रही है परछाईं वाली धूप/छत की झिर्रियों से’ - यह एक सूर्योदय का वर्णन है, जहाँ कोहरे भरी सुबह को परछाईं वाली धूप के बिम्ब में बांधा गया है। संध्या के सूर्यास्त की विलक्षणता देखी जा सकती है 'लो वोल्टेज के मकान’ कविता में - ''आसमान एक लकीर है, पीली/चढ़ गयी है जो तलुवों से घुटने की कगार तक बचा नहीं उजाला/खिड़कियों के पास/जो सुलगा दे बाकी की जांघ...’’। यह शहर है, जहाँ प्रकृति कभी खिड़की की राह से झांकती है, कभी छत की झिर्रियों से आती है और अपनी स्वायत्तता परिवेश के साथ सम्पृक्त कर देती है। सूर्योदय के कई प्रचलित, भव्य बिम्बों से परे फुटपाथ की शाम/समेट चुकी है मैल/जितना भी था दिन के नाखून में उसके लिए...’’ 'मेरे चौराहे की दुकान’ नामक इस कविता में 'नाखूनों में समेटे हुए मैल’ का बिम्ब फुटपाथ पर बसी सेक्स-वर्कर और उसके नंग-धडंग बच्चों से होता हुआ पाठकों को बचपन के अनुभव की स्मृतियों तक ले जाता हैं। काल्पनिक सौंदर्य बोध की जगह परिवेश की सच्चाई को शामिल करतीं प्रकृति चित्रण की ये कविताएं एक सहज आत्मीय वृत्त बनाती हैं।

इस संग्रह की विशेषता यह है कि इसकी कविताएं एक दूसरे से सर्वथा असम्पृक्त नहीं है। आज के कविता संग्रहों की तरह ये संग्रहित दृश्यों का एलबम नहीं बनतीं, बल्कि इनमें एक प्रकार की तारतम्यता है जो अपनी समग्रता में इस संग्रह को महाकाव्यात्मक विस्तार देती है। इनमें तारतम्यता के साथ कथात्मकता भी है, कालखंड और परिवेश भी। इन कविताओं की व्यापकता इतनी अधिक है कि असंगत से प्रतीत होने वाले बिम्बों, दृश्यों और शब्दों के बीच ऐसा बहुत कुछ है जो एक बार में प्रकट नहीं होता और बार-बार पढऩे पर ही नए अर्थों में ध्वनित होता है। अपनी बेतरबीन में ये कविताएं बहुत बार चित्रकला के मॉडर्न आर्ट के शिल्प का बोध कराती हैं। संग्रह की कविताएं एकरस नहीं हैं। अभिव्यक्ति के लिए कवयित्री के कई खतरे उठाये हैं। इसकी कई कविताएं आख्यानात्मक हैं, और कई नाटकीय भी।

शेफाली फ्रॉस्ट की कविताओं को स्त्री-कविता के सीमित दायरे में नहीं रखा जा सकता - लैंगिक आग्रह यहां आकर ध्वस्त हो जाता है, क्योंकि इन कविताओं में स्त्री और पुरुष अखंड इकाई के रूप में आते हैं। बावजूद इसके संग्रह के 'एक था राजा-एक थी रानी’ खंड की कुछ कविताओं में स्त्री को जो नियति दी है, उससे काटकर उसकी विडम्बनाओं का सही स्वरूप समझा ही नहीं जा सकता। इस दृष्टि से 'बढ़ती लड़की’ कविता विशेष रूप से उल्लेखनीय है। एक छोटे शहर के पुरुष प्रधान समाज में, जहां ''छज्जे ही छज्जे हैं/हर उबलती खिड़की के नीचे’’ - एक बढ़ती लड़की अपनी थकी हुई मां और डरे हुए पिता के धुंआते संसार में 'अपनी ही कौंध में फुंकी, अपनी ही रोशनी में बुझी/बंद शब्द, किटकिटाते दांत लिये’ 'रुके तलवों से’ 'आसमान को चाटती हुई’ चलती है तो सबको चुभने लगती है। यह उस समाज की विडम्बना है जहां स्त्री को एक इकाई का दर्जा प्राप्त नहीं है और इसलिए उसे मुक्त रूप में लिखने का पूरा अवसर कहां उपलब्ध हो पाता है!

इस ही खण्ड की 'मनु की पत्नी’ कविता एक ऐसी स्त्री की कहानी है जो इस मनुवादी समाज में अपना वजूद पाने से रह गयी है। वह 'भगौने, परात और रगड़़ पर धुली कढ़ाई’ के साथ एक खंदक में जैसे बंद हो गयी है और आदतन, भय-वश खिड़कियों के खुलने की हर सम्भावना को स्वत: ही खत्म कर देना चाहती है। 'कश्मीरी शॉल’ कविता की प्रौढ़ होती, स्त्री इसी चरित्र का विस्तार प्रतीत होती है जहां उसका पुराना प्रेमी जब उससे मिलने आता है तो किसी तंग शॉल से अपने वजूद को एक तरफ से ढ़कती तो दूसरी तरफ से उघाड़ती, गृहस्थी और बच्चों के बीच उलझी-सिमटी, वह उस पुराने सम्बन्ध को नकार देती है। इस रूप में यह अज्ञेय की लोकप्रिय कहानी 'रोज’ की याद दिलाती है। उपन्यास की एक छुपी हुई कड़ी की तरह शयाद यही वह औरत है जो 'मोटी औरत’ कविता में वापस आती है। यह एक अदद मध्यवर्गीय स्त्री है - 'जिसकी गर्दन बंट रही है/टैलकम पाउडर की लकीरों से/कलफ लगी हरी साढ़ी से लिपटी/पोंछती है पसीना चेहरे का फाउंडेशन में घुला/... जिसके मांग के पार/उभर रही हैं लकीरें सफेद रंग की सपाट/पोत लेती है रंग हर नयेपन पर अपने/काला और खुशबूदार...’, जो चालीस-पचास की अवस्था में एक 'मोटी औरत’ के रूढ़ प्रारूप में परिणत हो जीवन का छद्म जी रही होती है। इस औरत की दिनचर्या अपने अफ़सर टाइप के अजनबी से पति के साथ गरम पोहे, चाय की प्याली और बुझी हुई बत्ती में उसकी इच्छा को पूरी करने के बीच गुजरती है। अपने वजूद को एक नियमित दिनचर्या और दूसरों की जरूरतों में खो देने के बाद, वह अपनी ही जरूरतों और इच्छाओं से अनजान एक व्यक्तित्वविहीन जीवन जीने को विवश होती है। उल्लास से परे यौनिकता का कर्तव्य की यांत्रिकता में परिणत हो जाना - स्त्री जीवन की इससे बड़ी विडम्बना और सच्चाई क्या हो सकती है?

इस स्त्री की यौनिकता को कवयित्री ने अपनी 'लो वोल्टेज के मकान’ कविता में बड़ी मार्मिकता और साफगोई से व्यक्त किया है। लो वोल्टेज की रोशनी में घिरा अँधेरा सा एक मकान है जहाँ बिना किसी प्रतिवाद और अभिलाष के लोग जी रहे हैं। बाहर जाने का दरवाजा बंद है, और उसमें रहने वालें में उसे खोलने का न कोई प्रयास है, न ही चाहत। इस बुझे घर की ऊष्मा से विहीन, दीप्तिरहित रोशनी में एक मध्यम वर्गीय स्क्षी की यौनिकता भी क्रमश: कुंठित होती हुई, उसी लो वोल्टेज वाले मकान की नियति को प्राप्त हो रही है।

शेफाली की कविताएं गहन रचनात्मक प्रक्रिया की उपज हैं जहां एक-एक शब्द और बिम्ब गहरी अर्थवत्ता के साथ कविता का अंश बनते हैं जिसे 'एक गीत का छिलका/उतरकर सब्जियों से लगा रहा है आवाज’ जैसे मूर्त रूपों और 'औंधा पेट आंतों की राह चलकर गले में उलट जाता है’ जैसे बिम्बों में देखा जा सकता है। कहीं कुछ बेतरबीन से स्वप्नों की दृश्यावली भी आती है - ''अंधेरे डब्बे खनखनाते रहें खोपड़ी पर चांद की/भरती रहे किलकारियां गड्ढों की कटोरी/बिना सब्जी के गुस्से तले हंसने लगें उड़ते हुए बाल’’ - और कहीं फंतासी की शैली का आभास भी मिलता है। कविता-लेखन की अपनी इस जटिल रचना प्रक्रिया को कवयित्री ने कई कविताओं में उकेरा भी है। 'कहाँ से आती है’, 'एक था राजा-एक थी रानी’ और 'वो रही’ कविता उनके लेखन की प्रक्रिया की ओर एक खिड़की सी खोलती हैं। कविता कभी खाली कनस्तर की तरह झनकती हुई कवि तक आती है, तो कभी बिल्कुल आंधी की तरह टूटती-बिखरती हुई। बहुत सी कविताऐं अंतद्र्वन्द्व से उपजी हैं - 'त्रिशंकु के विचार सी, झींगुर की खंखार सी/जुबान तीसरी की चाटती है मुझे/भर लेती है शब्द मेरे, सूखे अक्षरों में अपने/मेरी नमी को पीती है/गट, गट, गट....’ और इस तरह कविता के नैरेटिव्स की निर्मिति होती है - ''संधियों से हमारी फिर उड़ती है रुक रुक/खदानों के आसपास पर सलेटी कहानी/एक था राजा/एक थी रानी...’’

कवयित्री की सर्जनात्मकता के रेशों को खोलती, संग्रह की एक अत्यंत महत्वपूर्ण कविता है, 'नंगा बच्चा’। एक रचनाकार जब बनने की प्रक्रिया में होता है और भाव और विचार उसके मानस तट पर लहरों की तरह बिखर रहे होते हैं, उस वक्त उसके साथ उसका अहंकार होता है - रचयिता होने का, निर्माता होने का - किंतु जब धीरे-धीरे यह अहंकार खत्म होता है तब ही शायदज असली कविता का जन्म होता है। इस नजरिये से देखें तो लगता है कि, 'कहां से आती है?’ कविता उनकी सर्जनात्मकता की पहली अवस्था है, 'मैं बन रहा हूं’ सृजन की दूसरी अवस्था और 'वो रही’ उनकी कविता के जन्म का क्षण! 'नंगा बच्चा’ कविता सृजन की वह चरम आध्यात्मिक अनुभूति है, जहां किसी रहस्यवादी साधक की तरह कवि अपने आप को विस्मृत कर रचना-प्रक्रिया में पूर्णतया समर्पित हो जाता है।

अपनी एक छोटी सी प्यारी कविता 'मीठी घास’ में वे कविता के साथ पाठकों के संबंधों का खुलासा करती हुई, कवि और पाठक को जोड़ती हैं। कविता में बहता हुआ अर्थ बेआवाज होता है और उसे सायास खोलना पड़ता है, किन्तु जब कभी लगता है कि कविता में अर्थ या सन्दर्भ ढूंढता हुआ पाठक हताश होकर बैठ गया है, वे उसे कविता के निकट पुकारती हुई मानो उपालंभ देती हैं - 'कोहरे का सिरा पकड़े बैठी हूं/कोई दिशा आये यहां से ले जाए/तुमने कहा आज नहीं आओगे तुम/क्यों?’ अनायास नहीं कि इनकी बहुत सी कविताएं आते-जाते क्षणों पर केंद्रित हैं। उनकी कई कविताएं बिजली की कौंध की तरह अचानक शब्दों का रूप पकड़ प्रकट हो जाती हैं - जैसे अचानक पाठक के समक्ष शब्दों का एक जाल बिछा, कुछ कौंधा, और कुछ क्षण एक दृश्य की तरह स्पष्ट हो गए। 'अगली मैट्रो’, 'देखा देखी’, 'बिना रुके’, 'रात’, 'बर्फ’ आदि कविताएं इसी तरह की हैं। इनकी ऐसी कविताओं को क्षणांश की कविताएं भी कहा जा सकता है।

संग्रह के अंतिम खंड - जिसका नाम ही है 'अभी मैंने देखा’ - में ऐसी कविताएं हैं जो आज के राजनीतिक दौर से सीधी मुठभेड़ करती हैं। राजनीति के लोक लुभावन चेहरों के पीछे उसका जो वर्चस्ववादी छद्म है, कवयित्री सीधे उस पर उंगली रखती हैं। अद्भुत कौशल का परिचय देते हुए कवयिक्षी ने राजनीतिक मुद्दों को कलात्मक संस्पर्श से साधा है, जिसकी परिणति है कि यह राजनैतिक चेतना नारे की शक्ल में नहीं, बल्कि एक सरसराहट बन कर हमारी चेतना में प्रवेश करती है।

अपने समय के राजनीतिक परिदृश्य को इतिहास की निरंतरता में रखे बिना समझने की कोशिश एक अधूरा प्रयास ही हो सकता है। शेफाली फ्रॉस्ट का इतिहास बोध निरंतर उनके साथ चलता है। वे आज के समाज को देश की राजनैतिक आजादी, विभाजन की त्रासदी, आजादी के बाद उभरे देश के सियासी तेवर और अन्य कई ऐतिहासिक संदर्भों से जोड़ती हैं। यही कारण है कि उनके यहां वर्तमान और सच की तलाश एक अधूरा वक्तव्य नहीं, काल का अखंड प्रवाह है। इस आलोक में देखें तो अंतिम खंड की कविताओं में एक खास तरह की तारतम्यता देखी जा सकती है।

इस खंड में प्रवेश ही होता है 'भिचे हुए जबड़ों’ द्वारा 'उड़ेले जा रहे शब्दों’ के साथ जिसे 'टिकिर टिकिर टिकिर कर’ 'नीली सी जान’ 'बेजुबान सफेदी पर’ घिसती जा रही है। इसके बाद की कविता 'मृत्युगीत’ को खंड की कविताओं के घोषणापत्र के रूप में लिया जा सकता है। शैली छायावादी है, 'हिमाद्री तुंग श्रृंग’ जैसी कविताएं जहां एक बार कौंध जाये, पर कविता का कलेवर इस प्रकार की पुनरुत्थानवादी कविताओं का विलोम रचता है - या कहें कि वैसी पुनरुत्थानवादी कविताओं का प्रतिवाद है। कवयित्री अपनी सचेत और मर्माहत निगाहों से देख पा रही है कि 'मदकाल सृजन का’ बीच चुका है, और किस प्रकार एक नया परिवेश गढ़ा जा रहा है, जहां न तो कई तरह के नृत्य के ताल हैं, न विभिन्न भाव वाले दृश्य हैं और न ही ढेर सारे रंग। 'नतकर्तल पर सहमत जन की/वीभत्स शून्य का त्वरित नाद’ - यह वह परिदृश्य है जो संस्कृति के सारे आयामों को अपने में समाहित करता सर्वत्र  गूंज रहा है, मानो 'असंख्य कीर्ति रश्मियां, विकीर्ण दिव्य दाह सी’ का नया संस्करण हो। इस पर इस नये संस्करण में स्मृतियों नष्ट की जा रही हैं और इतिहास को विकृत किया जा रहा हैं। हमारी समन्वयवादी वैविध्यपूर्ण संस्कृति का विलोम रचता यह परिदृश्य समाज और संस्कृति के लिए बड़ा संकट बनकर उपस्थित हो रहा है। कवयिक्षी ने इसके लिए 'कामाग्निहीन, कामांध भुजंग’ का बिम्ब चुना है जो अपनी अदमनीय क्षुधा के साथ गरल की उल्टी कर रहा है। 'दिव्य पुलक में हुड़क हुड़क/मूष गीध गीदड़ सियार/भूखी सड़कों पर सड़पसड़प/धरते स्वअनुज मांस पर दाढ’ - पुनरुत्थानवादी शक्तियों ने धर्म का एक दिव्य आभामंडल रचा है, जिसके प्रभाव में व्यक्ति-समूह हिंसक पशुओं की भीड़ में परिणत हो गया है। इससे बड़ी विडम्बना और क्या हो सकती है कि वह अपने ही लोगों के संहार को आतुर है। आश्चर्य नहीं कि कवयित्री को यहां फासीवाद की आहट सुनाई पड़ रही है जिसकी अभिव्यक्ति वे आने वाली कविताओं में करती हैं। 'मार्निंग पेपर’ कविता में झूठ का जाल बुनता मीडिया संस्थान है। फासीवादी ताकतें पहले तो धर्म या संस्कृति का छद्म आलोक जाल बनाती हैं, फिर धीरे-धीरे अभिव्यक्ति के माध्यमों पर अपने अधिकार द्वारा स्वतंत्र चिंतन को कुचलने का प्रयास करती हैं। मीडिया संस्थान, जिसमें प्रिंट मीडिया भी शामिल हैं, झूठ गढऩे के इस फासीवादी अभियान में शामिल हो जाते हैं - 'शब्द गणिका है यहां/बेचने वाले की रखैल/लिखने वाले उढ़ाते हैं दुपट्टा उसे कुछ देर...’ और 'अखबार नहीं हथगोला हो कहीं/तस्वीरों के गाल में बजा/सच के मुंह में तडफ़ड़ाता हुआ झूठ...’। इसके बाद डरे हुए लोग स्वत: ही चुप्पी की भाषा सीखने लगते हैं - 'जन्म दिन है कल मेरी जीभ का/जो सीख रही है चुप रहने की भाषा’।

समाज के वर्तमान को समझने के लिए कवयित्री एक बार पीछे मुड़कर देखती हैं, और पाती हैं कि वस्तुत: हमारी आजादी ही अधूरी थी। सत्ता के उस हस्तांतरण ने हमें जोड़ा नहीं, बल्कि जोडऩे वाले प्लास्टर का मुंह खोल दिया - ''कहीं नहीं गए हमारे पैर/कुछ कोस परदेस बना कर बैठ गए सियारों के साथ....’’। इसका परिणाम यह हुआ कि 'हमारा टूटता हुआ घर, हमें ही तोड़कर खा गया’। भारती की आजादी और विभाजन की यह चर्चा अनायास नहीं है। कवयित्री की सजग निगाहें देख रही हैं कि आज की फासीवादी शक्तियों के उभार का इससे सीधा संबंध है। 'इस सहन की चीखें’ नामक कविता इस घटना-क्रम को और गहराई से देखती है।

आगे चलकर 'तकसीम’ कविता में कवयित्री ने विभाजन से उपजे इन दो राष्ट्रों - हिन्दुस्तान और पाकिस्तान - के आपसी संबंधों पर विचार किया है। कवयित्री ने इसके लिए एक स्त्री का बिम्ब चुना है, जिसकी खाल जंग खाये दरवाजे से निकलते हुए उघड़ कर दरवाजे से चिपक गयी है। वह खाल जो उसके ही शरीर का हिस्सा थी, उसके दर्द में अब कहीं भी शामिल नहीं है। सवाल यह है कि यह कैसे हुआ कि अपने ही शरीर की खाल परायी हो गयी, इतनी बेमुरव्वत कि एक के दर्द पर दूसरा खामोश रहे!

'तकसीम’ कविता में जिस महिला का जिक्र है, कवयित्री ने उसे 'दुपट्टे वाली’। यूं ही नहीं कहा है। हम जानते हैं कि दुपट्टे का संबंंध अस्मिता से होता है। यह एक उदाहरण है जहाँ दिखता है किस तरह शेफाली फ्रॉस्ट की कविताओं में एक-एक शब्द, या एक-एक संदर्भ, कई-कई आयामों से जुड़ते हैं। शब्दों पर यह गहरी और सटीक पकड़ उनकी सर्जनात्मकता प्रतिभा के साथ उनके कठोर श्रम को भी दर्शाती है जिसके बिना इतनी परिपक्व और गहरी रचना संभव ही नहीं है। काव्य शास्त्र में जिसे प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास बताया गया है, उसका सम्यक परिपाक यहां देखा जा सकता है।

'दरारों वाली दीवार’ इस खण्ड की अगली कड़ी है - 'हुंकारती है हवा हू-हू/करती है सी-सी दीवार दरारों वाली/मारती है गले हुए दांत/ठंडी चिटखनी पर रात-रात/चटख जाती है लहर दर्द की मसूड़ें में/लकीरों जैसी’... यह दृश्य है खंडहर होती सभ्यता और व्यक्ति के साथ उसके रिश्तों का। एक ढ़हती हुई सभ्यता ही फासीवाद की राह प्रशस्त करती है। सजग चेतना के सामने झूठ का छद्म गढऩा या अभिव्यक्ति की आजादी का हनन संभव नहीं होता। 'जियो तुम जियो’ कविता फासीवाद के पनपने में आज की कारपोरेट संस्कृति की भूमिका को उघाड़ती प्रतीत होती है। पूँजीवाद से उपजी गरीबी, विषमता और आत्मकेन्द्रीयता में ही फासीवाद की जड़ें निहित हैं - ''मत जुड़ो आक्रोश के आलिंगन से/सूखने दो इतिहास का विकृत चुम्बन दरवाजे पर अपने/मत बनाओ खुद को प्रेम के लायाक पड़ोसी के/तुम जियो’’। इसी संदर्भ के एक दूसरे आयाम को वे 'मकड़ी’ कविता में उभारती हैं। इस कविता में फासीवाद की साजिशों को कवयित्री ने काफी गहरे जाकर उकेरा है। ''मकड़ी आठों पैर फैलाये, दीवार पर चढ़ रही है आज/लपेट लपेट कर धूक दीवार पर मारती है निरत/बिना याद औटाती है शब्द बिना मुंह घुमाती है जुबान/जंजाल बुन रही है चुपचाप’’ और ''उधर दरवाजे की झिर्रियों में/सो रहे हैं कुछ मौसमी मच्छर/नातवान छिपकलियां, अधसिंके मेढ़क’’ - मुश्किल नहीं हैं इन बिम्बों से वर्तमान परिदृश्य को एकाकार करना। यथार्थ की अभिव्यंजना के लिए कवयित्री ने यहां फंतासी का सहारा लिया है।

शेफाली की कविताओं में नाराजगी है, कहीं-कहीं हताशा भी, लेकिन आस की भी कमी नहीं। 'आत्महत्या के विरुद्ध’ और 'जगह’ जैसी कवितायें सामाजिक और आत्मिक क्रांति के सहारे आज के खंडित समाज और राजनीति में जीवन का संचार और एक नयी दुनिया का उद्भव तलाशती हैं, लेकिन उनकी क्रांति बहुजन समाज और हाशिये पर खड़े लोगों की लड़ाई में निहित है - 'संवेदना के बीज/इस डामर से पटे शहर में/बच गए हैं क्या/गिन रहे हैं साँसें/लड़ रहे हैं सड़ते हुए/आखरी गोदामों में कहीं/ढूँढा जाए उन्हें फुटपाथ का वो कोना/जो मरने से बच गया है/वहाँ छिपा दिया जाये/आत्महत्या के विरुद्ध बो दिया जाये...’ ठ्ठशेफाली फ्रॉस्ट अपनी कविताओं में बिल्कुल नये कलेवर के साथ आती हैं। ये कविताएं वर्तमान आलोचना के लिए चुनौती की तरह हैं, इन कविताओं को पारम्परिक औजारों से नहीं तौला जा सकता। शेफाली फ्रॉस्ट की कविताएं बताती हैं कि कविता लिखी नहीं जाती, सिरजी जाती है। ये कविताएं प्रयत्नसाध्य कविताओं का सुंदर, बल्कि दुर्लभ उदाहरण हैं, जहां एक-एक शब्द इतनी बारीकी से पिरोया गया है कि किसी एक का धसकना पूरी संरचना को ढ़हा सकता है। ये कविताएं कुछ हद तक दुरुह भी हैं - पर दुरुह राहें ही बीहड़ का अनुसंधान करती हैं। कविता को कभी दर्पण माना गया, और कभी मशाल, तो कभी प्रतिरोध - पर कविता गहरी गोताखोरी भी हो सकती है, और उसका सच सबसे सशक्त प्रतिवाद भी - शेफाली फ्रॉस्ट की कविताएं इसका प्रमाण हैं। कहीं कोई संगति नहीं होने के बावजूद ये कविताएं यदि महादेवी की कविताओं का स्मरण कराती हैं तो इसलिए कि महादेवी की ही तरह ये कविताएं प्रयत्नसाध्य सार संभाल, चयन और प्रस्तुति का सुंदर उदाहरण हैं।

 


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