मुखपृष्ठ पिछले अंक विमर्श खुरदुरे पहाड़ी जीवन के धूसर रंग
अप्रैल - 2019

खुरदुरे पहाड़ी जीवन के धूसर रंग

स्मृति शुक्ल

विमर्श/तीन

 

अपने यश में हिमांचल की आंचलिकता से अब एस.आर. हरनोट पूरी तरह बाहर आ चुके हैं। वे अब हिन्दी भाषी देश के प्रमुख कथाकारों में प्रतिष्ठा प्राप्त कर चुके हैं। हरनोट की कुछ प्रमुख कहानियों को पहल में छापने का अवसर हमें मिला है। हरनोट का लेखन बड़े रचनाकारों की तरह विपुल है। हाल ही में उनका कहानी संग्रह 'कीलें’ वाणी से छप कर आया है। 2018 में उनका एक कहानी संग्रह अंग्रेजी में कैम्ब्रिज ने शामिल किया है जिसका शीर्षक cat talk है। पाठकों यह कहानी 'बिल्लियां बतियाती हैं’ पहल ने प्रकाशित की थी। विदित हो कि एस.आर. हरनोट ने हिमाचल की लोक कला, संस्कृति और मंदिरों पर उच्चस्तरीय काम किया है।

 

 

हरनोट की कहानियां

 

अपनी विशिष्ट कथा भंगिमा से हिन्दी कथा जगत् में प्रतिष्ठा प्राप्त करने वाले एस.आर. हरनोट की कहानियां हिमाचल के नैसर्गिक सौन्दर्य के पीछे छिपे उस कठोर यथार्थ की कहानियां हैं, जो घोर अभाव, दारिद्रय, अंधविश्वास, ढोर-ढंगर, खेत खलिहान, गोबर-मिट्टी और काहिका - भुंडा जैसी परंपराओं का पीढ़ी-दर-पीढ़ निर्वाह करने वाले पहाड़ के लोक जीवन से उपजी हैं। पहाड़ों के प्राकृतिक सौन्दर्य को सैलानी अपनी सौन्दर्यवादी दृष्टि से देखते हैं और बड़ी-बड़ी मल्टीनेशनल कंपनियों के मालिक, औषधीय वनस्पतियों के व्यापारी, पर्यटन-व्यवसायी, सरकारी तंत्र के नुमाइंदे, स्थानीय नेता अफसर अपने लाभ की दृष्टि से। विकास के नाम पर इन पहाड़ों के साथ छल किया जा रहा है, पूरे पारिस्थितिकी तंत्र के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है। हरनोट की कहानियों में उन कारकों और शक्तियों की पहचान है जो मानवीय संवेदनाओं को भोंथरा करती हैं। व्यवस्था के छल-छद्म को बेनकाब करने वाली ये कहानियां हमें बताती हैं कि समाज विरोधी ताकतें एकजुट हैं लेकिन प्रगतिकामी ताकतें बिखरी हुई हैं। हिमालय के नष्ट होते सौन्दर्य और मनुष्य के स्वार्थी रवैये के कारण प्रदूषित होते पर्यावरण के प्रति चिंता हरनोट की अनेक कहानियों में उभरी है। हरनोट ऐसे कहानीकार हैं जो, प्रतिबद्ध हैं। अपनी कहानियों के माध्यम से हमें सावधान करने के लिए बढ़ती हुई अमानवीयता, सत्ता की निरंकुशता, साम्प्रदायिकता, बाजारवादी, क्रूर, हिंसक, मनुष्य विरोधी और प्रकृति को विनष्ट करने वाली इन ताकतों के प्रति यदि हम नहीं चेते, प्रतिरोध का साहस नहीं किया तो मानव समाज का बहुत कुछ मूल्यवान है जो नष्ट हो जायेगा।

हरनोट की कहानियां पुस्तकाकार प्रकाशित होने के बहुत पहले ही हिन्दी की प्राय: सभी प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। गहन मानवीय सरोकारों से संपृक्त होने के कारण इन कहानियों ने आम पाठक से लेकर बड़े आलोचकों तक का ध्यान अपनी ओर खींचा। वे अपनी कहानियों में बड़ी सहजता से पहाड़ के नैसर्गिक सौन्दर्य के पीछे छिपी विरूपता को, जातीय शोषण और विकास के नाम पर हो रहे छल को बेनकाब करते हैं। हरनोट की कहानियां सुविधाभोगी जीवन के उजाले से नहीं  बल्कि अभाव और संघर्षपूर्ण जीवन के अंधकार में गहरे तक धँसकर, डूबकर जन्मी हैं। इन कहानियों में मानवीय प्रेम की उष्मा है, संवेदनाओं की तरलता है, इंसानी गरिमा की रक्षा का बोध है, रूढिय़ों के खिलाफ खड़े होने की ताकत है और सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक शोषण के विरुद्ध प्रतिरोध करने का साहस है। हरनोट की प्राय: सभी कहानियों का कथानक हिमाचल के ग्रामीण अंचल का है लेकिन ये कहानियां अपनी स्थानीयता के बावजूद पूरे भारत के ग्रामीण अंचलों का प्रतिनिधित्व करती हुई स्थानीयता से बहुत उपर उठकर सर्वव्यापक बन जाती हैं। ये पूरे पीडि़त मानव समाज को संबोधित कर लिखी गई कहानियां हैं।

मुझमें रहते हैं करोड़ों लोग, चुप कैसे रहूं (दुष्यंत)

एस.आर. हरनोट की कहानियों में बच्चे, बुजुर्ग, स्त्री और युवाओं के साथ प्रकृति, पहाड़, जंगल, मोर, मोरनी, बाज, चील और खूब सारी चिडिय़ां हैं। पर्वतीय अंचल की ये कहानियां बहुत सीधे-सादे ढंग से या कभी लोककथा के अंदाज में प्रारंभ होती हैं और पाठक का सामना पहाड़ी-जीवन की ऐसी सच्चाईयों से होता है जिनका भान उसे पहले नहीं था। वह कहानी के अंदर पैठकर विचारों और भावों की गहन गुहा में प्रवेश कर जाता है। कहानियों से गुजरने के बाद उसका व्यक्तित्वांतरण होता है। वह पहाड़ी जीवन और उसकी समस्याओं के विषय में सोचने पर विवश होता है। उनके कहानी संग्रह 'आकाशबेल’, 'पंजा’, 'दारोश’ और 'मिट्टी के लोग’ में ऐसी ही कहानियां संग्रहीत हैं। पहाड़ों की प्राकृतिक संपदाका अंधाधुंध दोहन करने वाले माफिया तो उनकी कहानियों में हैं ही, साथ ही अपने स्वार्थ के लिये इन माफियाओं से मिलीभगत करने वाले स्थानीय लोग भी हैं। उनकी कहानी 'माफिया’ एक बहुत भावपूर्ण और सशक्त कहानी है। कहानी दस-ग्यारह वर्ष के बच्चे चुन्नी और उसकी दादी के संवादों के माध्यम से प्रारंभ होती है। कहानीकार ने जंगली जानवरों के शिकार, वनों की कटाई और नेताओं और मंत्रियों की मिलीभगत को इस कहानी में बेनकाब किया है। छोटा बच्चा चुन्नी जिसे जंगल के मोर-मोरनी से बहुत प्यार है उसकी दादी ने उसे मोर-मोरनी की कहानियां सुना-सुनाकर बड़ा किया है। गांव में बड़ा जलसा होने वाला है जिसमें वन मंत्री आने वाले हैं। वे गांव के जंगल को नेशनल पार्क घोषित करेंगे। इसी जलसे में चुन्नी को राष्ट्रीय पक्षी मोर पर प्रस्ताव पढऩा है। हरनोट यहां तक कहानी को सीधे-सीधे ढंग से रचते हैं। कहानी की केन्द्रीय संवेदना और असल समस्या इसके बाद उभरकर आती है जब जलसे में आये वनमंत्री के लिए चुन्नी के पिता राष्ट्रीय पक्षी मोर को मारकर उसका मांस पकाकर खिलाते हैं। यह स्वतंत्रता के बाद भारत की जटिल स्थितियों, विसंगतियों को भ्रष्टाचार की कलई खोलने वाली सच्ची कहानी है। यह विसंगतियों और भ्रष्टाचार को इस तरह खोलती है कि पाठक के हृदय में एक हूक सी उठने लगती है वह बेचैन हो जाता है।

'बिल्लियां बतियाती है, 'काकभाखा’, 'एम.डॉट कॉम’ और 'मां पढ़ती है’ आदि कहानियां गांव की उन स्त्रियों पर केन्द्रित हैं जो विधवा हैं, बुजुर्ग हैं और अकेलेपन की पीड़ा को झेलने के लिए अभिशप्त हैं। ये वे मांएं हैं जो अपने बेटों से असीम स्नेह रखती हैं और सदैव उनके कल्याण की कामना करती हैं। स्वातंत्र्योत्तर कथा साहित्य में मां कई कहानियों के केन्द्र में हैं। भीष्म साहनी की 'चीफ की दावत’ में घर में फालतू सामान की तरह पड़ी हुई मां है तो संजीव की मां (पहल) भी अपने दर्द को समेटे हुए जीने वाली मां हैं। एस.आर. हरनोट की कहानियों में उपस्थित मां उन मांओं से कई अर्थों में अलग हैं जिनके बच्चे विदेशों में बसे हैं, उनके पास पैसे की कमी नहीं है। उन्हें अकेलापन खलता तो है लेकिन इससे निजात पाने के साधन उन्होंने ढूँढ लिये हैं। कुछ मांओं की दुनिया किटी पार्टी और लेडीज क्लब में सिमटी हैं, तो कुछ ने अपने नाम के लिये, दिखावे के लिए समाज सेवा के मुखौटे लगा लिये हैं तो कुछ बड़े-बड़े आध्यात्मिक गुरुओं की शरण में हैं। कुल मिलाकर उनका अकेलापन उतना दुखदाई नहीं है जितना एस.आर. हरनोट की कहानियों में मांओं का। हरनोट की कहानियों की मां गांव की वह स्त्री है जिसने अपनी दुनिया अपने बच्चों तक सीमित रखी, उनको पाल-पोसकर बड़ा करने और लायक बनाने में अपना जीवन होम कर दिया। एस.आर. हरनोट की मांएं गांव में अकेली हैं, वे अपना अकेलापन प्रकृति और पशु पक्षियों से साँझा करती हैं। उन्हें कितनी भी तकलीफ हो किंतु वे बेटे-बहू की बुराई कहीं नहीं करती हैं। 'दारोश’ कहानी संग्रह की पहली कहानी 'बिल्लियां बतियाती हैं’ की अम्मा भी गांव में अकेली हैं। बेटा-बहू दूर शहर में हैं। गांव में अपनी जमीन, बैल और बच्छियों के सहारे अपना जीवन जी रही हैं। पिता की मृत्यु के बाद बेटा पांच सौ रुपये का मनीऑर्डर के साथ ही शहर के दंगे-फसाद के किस्से भी सुनाता रहता है इसलिए अम्मा बेचैन रहती हैं कि उनके बहू-बेटे शहर में कैसे रहते होंगे? पोतू स्कूल कैसे जाता होगा? अम्मा अपने बेटे-बहू की चिंता करती हैं। पति चार साल पहले दुनिया छोड़ गये, अम्मा को उनकी यादें सताती हैं रुलाती हैं! अम्मा अब स्मृतियों के सहारे जीती हैं। पशुओं के त्यौहार माल के समय डाकिया चिट्ठी देता है और पढ़कर सुनाता है काकी तेरा बेटा आ रहा है। हरनोट लिखते हैं कि अम्मा को विश्वास ही नहीं होता कि डाकिया सच बोल गया। ''हाथ में खुली चिट्ठी भगवान हो गयी अम्मा के लिये।’’ बेटा आता है लेकिन अब पूरी तरह बदल गया है, न मां के साथ बैठकर बातें की, न ही रोटी खाई, हां यह जरूर बता दिया कि नन्हें का अंग्रेजी स्कूल में दाखिला कराना है, पूरे तीस हजार डोनेशन में देने पड़ेगें। मां समझ जाती हैं कि बेटा पैसे के लिए आया है।

वस्तुत: यह कहानी बहुअर्थी संवेदनाओं की ऐसी कहानी है जिसमें पर्वतीय संस्कृति मुकम्मल शब्द चित्रों के साथ उपस्थित है। गांव और जमीन से बुजुर्गों का गहन लगाव, गांव से शहर चले गये बेटे का अपनी निजी जिंदगी से पूरी तरह से खो जाना और बुजुर्गों का भयावह अकेलापन। ये सारी समस्याएँ और सच्चाईयां संवेदनाओं की तरलता से आद्र्र होकर अभिव्यक्ति पाती हैं। उस रात अम्मा और अकेली हैं जिस रात बेटा घर आया है। अम्मा की बिल्लियाँ उसके दुख को अनुभूत करती हैं। अम्मा भी उन्हें बहुत प्यार करती हैं। अकेलेपन में अपना सम्पूर्ण वात्सल्य अम्मा ने इन बिल्लियों पर उड़ेल दिया है। बिल्लियों से अम्मा को बतियाते देखकर बेटे को ईष्र्या होती है उसे लगता है कि बचपन की तरह अम्मा की गोदी में सिर रखे, अम्मा से लाड़ करे या झगड़ा करें। लेकिन दूसरे ही क्षण वह आत्म चिंतन में डूब जाता है कि क्या वह इस योग्य है? इस स्नेह के काबिल है? हरनोट की यह कहानी उन सभी बेटों से प्रश्न करती है, चेतना को झकझोरती है जिन्होंने अपने मां-बाप को गांवों मे ंअकेला छोड़कर भौतिक स्तर पर दूरियां तो बना ही ली हैं, हृदयगत दूरियां बनाकर मां के प्रति स्नेह और कर्तव्य को भी विस्मृत कर दिया है। कहानी में अम्मा बेटे की आहटें सुन लेती है और उसके मन को भी पढ़ लेती है। हरनोट की यह कहानी अपने ट्रीटमेंट में एकांगी न होकर अलग इसलिए है क्योंकि कहानीकार ने इस कहानी में बेटे की तड़प भी दिखाई है। बेटे के हृदय में कुछ अहसास बचे-खुचे हैं, अपने मन के अंदर झांकने और स्वयं से प्रश्न करने का विवेक शेष है।

हरनोट की मां पर केन्द्रित कहानी 'मां पढ़ती है’ (हंस 2002) की मां भी बेटे से दूर होने के बावजूद उसके बहुत पास है। सफल लेखक बनने और शहरी परिवेश में रहने के बाद बेटे को मां भले ही अपढ़, देहाती और सलीके वाली न लगती हो, पर बेटा जब गांव आता है तो पाता है कि गांव में मां के पास उसकी सभी प्रकाशित पुस्तकें हैं और उन पुस्तकों पर तेल, हल्दी और गोबर के दाग हैं, फूलों की खुशबू हैं। तब बेटा अनुमान लगाता है कि मां ने कहां-कहं और कब-कब इन किताबों को पढ़ा है।

'कागभाखा’ कहानी में पर्वतीय अंचल का लोक-जीवन स्पंदित है। 'कागभाखा’ की दादी कौए की बोली समझती है। दादी के पड़दादा भी गुणी थे, वे भी कौए की भाषा समझते थे। दादी बताती हैं कि कैसे उनके पड़दादा ने एक बार कौए की भाषा को समझकर बहुत सारे लोगों की जान बचाई थी। इन कहानी की कथात्मक संवेदना में हरनोट आज के समय को भी बुनते हैं, बदलते हुए गांवों की तस्वीर और परिवर्तित सोच भी कहानी में व्यंजित हैं। 'कौओं से दादी का गहरा स्नेह गांव वालों को सकते में डाल दिया करता है, फलस्वरूप तरह-तरह की चर्चाएँ गांव में होती हैं। दादी के हम उम्र जानते हैं कि दादी का मन जल की तरह निर्मल है, उन पर दैवी कृपा है, लेकिन नई बहू-बेटियों, जवान लड़कों के लिये दादी अच्छी नहीं हैं। वे मानते हैं कि दादी जरूर जादू-टोना करती हैं, कुछ औरतें तो दादी को डायन कहने से भी नहीं लजाती।’’ दादी आज के बदलते परिवेश और संकुचित होती लोगों की सोच को लेकर दुखी हैं, लोग पहले जैसे नहीं रहे। दया, धर्म और ममता खत्म सी हो गई छोटी-छोटी बातों पर आपस में झगडऩा आम बात है, पहले कितना प्यार था, सब एक दूसरे के दुख में शरीक होते थे। अब न तो देवता का 'भडेरा’ होता है और न ही किसी देवता की 'चरेशी’ होती है। अब तो पुजारी ने ही देवता की कितनी सारी जगह पर अपना कब्जा कर लिया, जिन पेड़ों की एक टहनी भी तोडऩा पाप समझा जाता था, उसकी अंधाधुध कटाई की जाती है। दादी आधुनिक युग के पक्षी-विज्ञानी सलीम अली की भाँति पक्षियों की भाषा समझती हैं। पक्षियों से अत्यंत आत्मीयता और स्नेह के कारण ही वह उनकी दुनिया में पैठ बना पाई हैं। पक्षी भी उसके प्रति सम्वेदनशील हैं। संवेदनशील होने के साथ दादी साहसी और सच बोलने वाली भी हैं। दादी की सत्यनिष्ठ तब सामने आती है जब वह सभी के सामने पुलिस को बताती है कि 'मंगलू गिरकर नहीं मरा वरन उसकी हत्या हुई है। गांव के प्रधान ने कैसे उसके नाम की पेंशन अपनी पत्नी के नाम पर कवरा ली है, प्राचीन मूर्तियां कैसे प्रधान की मिलीभगत से मूर्ति चोरों तक पहुंच गई। इन सभी बातों का खुलासा करने वाली दादी को उनके साहस का दंड तो मिलना ही था। प्रधान एक दिन रात में दादी के घर में आग लगवा देता है। इस घटना की पूर्व सूचना एक कौए के द्वारा दादी को मिल जाती है और दादी अपना घर छोड़ देती है, बेटे के घर जाती हैं लेकिन बहू सास को डायन मानती है इसलिये दरवाजा नहीं खोलती। कहानीकार ने कहानी के अंत में कई अर्थ संकेत दिये हैं कि सुबह दादी के जलते हुए घर के आसपास भीड़ जमा है सभी को लग रहा है कि दादी जलकर मर गई इसलिये सभी दुखी हैं। यहां तक कि दादी के प्रतिपक्षी प्रधान के अन्र्तजगत की पड़ताल भी कहानीकार ने की है ''इस दृश्य को देखकर प्रधान और उनके आदमियों की आँखें भी भर आई हैं।’’ कहानीकार का आशय यह है कि संवेदनाएँ हर मनुष्य के पास होती हैं लेकिन स्वार्थों के संकुचित घेरे उन्हें आवृत्त कर लेते हैं। छोटी-छोटी घटनाओं और संकेतों से बुनी इस कहानी में जहां बदलते गांव हैं वहीं परिवेश को पकडऩे की गहरी समझ है। बदलती राजनैतिक और आर्थिक परिस्थितियों से निर्मित सामाजिक संबंधों की आबोहवा को कहानीकार ने पूरी ईमानदारी के साथ मूर्त किया है।

एस.आर. हरनोट की कहानियों में पर्वतीय अंचल की स्त्रियों (खासकर दलित वर्ग) के शोषण की करुण और सच्ची दास्तान है। उनकी कहानी 'चश्मदीद’ दलित लड़की सुमना के शोषण की कहानी है। विधायक का बेटा कैलाश सुमना को अकेली पाकर उसका शोषण करता है। कहानीकार ने कोर्ट की कार्रवाई के दृश्य को शब्द चित्र के माध्यम से कहानी में अभिव्यक्त किया है। ऐसे केस में जज से लेकर कोर्ट के चपराती तक कैसे रस लेते हैं इस कटु सत्य को कहानीकार ने उद्घाटित किया है। घटना का कोई चश्मदीद गवाह नहीं है लेकिन सुमना का पालतू कुत्ता शेरू अदालत में आता है और अपराधी पर बार-बार झपटकर यह बताना चाहता है कि यह अपराध कैलाश ने ही किया है। कहानी में इस आशय की गहरी अनुगूँज है कि हमारी न्याया व्यवस्था प्रभावशाली लोगों के सामने झुकी हुई है। हरनोट की यह कहानी केवल पर्वतीय अंचल की स्त्रियों के शोषण की कथा नहीं कहती बल्कि देश में रोज स्त्रियों और भोली बच्चियों के साथ घट रही ऐसी अमानवीय, अपमानजनक और त्रासद स्थितियों का मार्मिक चित्रण करती है। कहानीकार ने कहानी का अंत कुत्ते की प्रतिरोधात्मक भंगिमाओं और उसकी सक्रियता से किया है। कहानीकार का मन्तव्य यही है कि पशु हम इंसानों से ज्यादा बेहतर हैं। 'जज’ इतना समझ चुके थे कि सुमना के साथ ज्यादती कैलाश ने ही की है। लेकिन मूक पशु की गवाही कोर्ट में मान्य नहीं है इसलिये वे विधायक के आँख के इशारे को समझकर फैसला अगली तारीख के लिए टाल देते हैं। गांव में प्रभावशाली व्यक्तियों के अन्याय को झेलते सर्वहारा वर्ग की तकलीफों को और वर्तमान न्याय व्यवस्था की खामियों को उजागर करने वाली संवेदनाओं से आपूरित यह एक सशक्त कहानी है।

हरनोट की कहानी 'कालिख’ भी एक विधवा स्त्री शामा के शोषण की कहानी है। इस कहानी में गांव की राजनीति और भ्रष्टाचार की अनेक परतें खुलती हैं। शामा के पति की मृत्यु के बाद गांव का लाला (बनिया), पुजारी, पटवारी, गांव का प्रधान और शामा का ससुर मिलकर दैहिक शोषण करते हैं और इन सबकी परिणति होती है शामा के गर्भवती होने और एक बच्चे को जन्म देने में। मां बनने के बाद शामा के मन में एक आशा जग जाती है, उसमें आगे जीने की लालसा और संघर्षों से लडऩे का हौंसला आ जाता है। उसे बच्चे के रूप में भविष्य का एक सहारा मिल गया है। कहानी में समस्या तब खड़ी होती है जब स्कूल के दाखिले के समय शामा बच्चे के पिता के नाम के आगे अपने पति का नाम लिखवा देती है। इस बात पर शामा के ससुर उज्र करते हैं और पंचायत बुलाते हैं कि उसके बेटे के मरने के कई साल बाद यह बच्चा पैदा हुआ। यह बच्चा उसके खानदान का नहीं है अपितु कलंक है। हरनोट इस कहानी में एक विधवा स्त्री के दर्द, बेचैनी और लज्जा आदि मनोभावों को चूल्हे के अंगार, राख और पानी के बिम्बों के माध्यम से बड़ी गहराई से अंकित करते हैं। शामा ने भरी पंचायत में बहुत साहस के साथ उन सभी व्यक्तियों के नामों  का खुलास किया जिन्होंने उसके साथ ज्यादती की थी। सभी अत्याचारी एक दलित विधवा स्त्री का सहास देखकर डर जाते हैं। हेडमास्टर जो अब तक उसके बेटे के एडमीशन में कोताही कर रहे थे, बार-बार पिता का नाम पूछ रहे थे अब शामा के बेटे के नाम के आगे मां का नाम शामा देवी लिखकर बात को समाप्त करते हैं। हरनोट स्त्री केन्द्रित कहानियों को एक अलग और अर्थपूर्ण मोड़ देकर समाप्त करते हैं। कथानक में सपाट सी चलने वाली कहानियां अचानक पहाड़ी नदी की तरह तेजी से मुड़ जाती हैं। कहानी यहां खत्म हो जाती तो लगता कि यह एक नारी के सशक्तीकरण और उसके साहस की स्वीकृति की कहानी है लेकिन हरनोट कहानी का अंत इस बिन्दु पर करते हैं कि जब तक हेडमास्टर रहा बच्चे की मां का नाम चलता रहा लेकिन जब दूसरा हेडमास्टर आया तो उसने पहले हेडमास्टर की नालायकी को कोसा और फिर बड़े सलीके से नाम दुरस्त कर दिया - श्री शाम देव।’’ इस कहानी में हरनोट ने पितृसत्तात्मक समाज में अकेली स्त्री की गहन वेदना के साथ इस सत्ता को ललकारने वाले उसके साहस के तेज को अभिव्यक्ति दी है। सामाजिक परिवर्तन की दरकार रखने वाली हरनोट की इस कहानी की 'शामा’ शैलेष मटियानी की कहानी 'दुरगुली’ (रागरंग, 1962) का स्मरण कराती है। दुरगुली भी दलित विधवा है। शैलेष मटियानी ने लिखा है - ''बिना घेरबाड़ की खेती में कौन जानवर मुंह नहीं मारता।’’ दुरगली शामा की तरह अपने को बचाने का प्रयत्न तो करती है लेकिन सफल नहीं हो पाती।

हरीतिमा की गहरी जड़ों से जुड़ी हैं हमारी सभ्यता की जड़ें, पहाड़, नदी, पेड़ों में हमारे देवताओं का वास है (रणेन्द्र)

हरनोट का लोक जीवन से गहरा रिश्ता और प्रामाणिक गहन जीवानानुभव एवं उनका आत्मसंघर्ष इन कहानियां को पाठक के करीब पहुँचाते हैं। कहानीकार का मन्तव्य और कहानी में छुपे संकेत सूत्र पाठक के सामने स्पष्ट होने लगते हैं। पहाड़ों पर मल्टी नेशनल कंपनियों की बढ़ती आवाजाही और मुनाफे के लालच ने पहाड़ों के नैसर्गिक सौन्दर्य को विनष्ट कर दिया है, पर्यावरण असंतुलन के लिये जिम्मेदार ये लोग कैसे एक जीतीं जागतीं स्त्री को वस्तु में तब्दील करने के प्रयास में लगे हुए हैं। इन सभी स्वार्थ पूर्ण और चालाकियों से भरी स्थितियों को हरनोट ने अपनी महत्वपूर्ण कहानी 'भागा देवी का चायघर’ में (पहल 100) में गहरी अर्थवत्ता के साथ जीवंत किया है।

समुद्र तल से ग्यारह हजार पांच सौ फीट की ऊंचाई पर चाय बेचने वाली सुन्दर पहाड़ी लड़की भागा नहीं जानती कि चाय के साथ वह चुपचाप बेची-खरीदी जाती है। इस खरीद फरोख्त में उसके पति के साथ बाजार का हर आदमी शामिल है। सरकारी, अद्र्धसरकारी और कॉर्पोरेट क्षेत्र के अनेक चेहरे इसमें शामिल हैं। इनमें युवा और अधेड़, वरिष्ठ और अति वरिष्ठ, गंवई और शहरी, इतिहासकार, समाजशास्त्री, फिल्मकार, चित्रकार, कार्टूनिस्ट, यात्री और सैलानियों के साथ हैं वे जो, सबसे ज्यादा खतरनाक हैं, वे हैं देशी-विदेशी कंपनियों के अधिकारी और कर्मचारी। हरनोट की यह कहानी उनकी कहानीकला का चरमोत्कर्ष है। आगे, राख, चूल्हा और भट्टी के बिम्ब और प्रतीक खासकर स्त्री पात्रों के मनोभावों और अंतद्र्वन्द्वों को पाठकों के सामने लाने का सशक्त माध्यम बन जाते हैं। 'भागा के भीतर भी भट्टी जैसा कुछ जलता-भभकता  रहता है। उसकी आँच उसका ताप, उसकी गर्माहट, उसकी जलन वहीं महसूस कर सकती है।’’ भागा का असली घर गांव में है जहां आंगन है, गौरैया है, गौशाला है, बच्चे हैं और यह चायघर उसका अस्थायी घर है। एस.आर. हरनोट की यह कहानी हमें बताती हैं कि कैसे पहाड़ बाजार में तब्दील हो रहे हैं, पहाड़ों के अद्भुत नैसर्गिक सौन्दर्य को हमारी उपभोक्तावादी सोच ने अपने स्वार्थ के लिए किस तरह नष्ट कर दिया है। भागा चिन्तित है पर्यावरण की स्वच्छता लिये इसलिये चाय घर से लेकर झील तक पर्यटकों द्वारा फैलाये गये कचरे को साफ करती रहती है। कहानी में आभी चिडिय़ा का जिक्र भी आया है। आभी वह चिडिय़ा है जो झील को स्वच्छ रखती है लेकिन अब आबी की बिरादरी कम हो रही है जिसे लेकर भागादेवी चिंतित है। वस्तुत: आभी की घटती बिरादरी से कहानीकार हरनोट भी चिंतित हैं। झील की सफाई करने वाली इस चिडिय़ा 'आभी’ पर उन्होंने बहुत सशक्त कहानी लिखी जो 'पहल’ में प्रकाशित हुई थी। कहानी में भी आभी चिडिय़ा और बूढ़ी नागिन के बरअक्स पहाड़ों के सौन्दर्य और संपदा का दोहन करने वाले उन स्वार्थी और लालची लोगों की बड़ी जमात है जो पर्यावरण को क्षति पहुंचा रहे हैं। 'भागा देवी के चाय घर’ में भी आभी और बूढ़ी नागिन हैं, झील, देवदार के वृक्ष और बुरांश के फूल हैं, लेकिन कंपनी के लोगों के पैर पडऩे से यहाँ की पगडंडियां भयभीत हैं। पंछी और जानवर खौफज़दा हो गये हैं। इस ऊँचे पहाड़ पर कई मोबाईल कंपनियों के टावर लग गये हैं। कई कंपनियां जानती हैं कि झील का अद्भुत सौन्दर्य और भागा का पहाड़ी सौन्दर्य हजारों विदेशी सैलानियों को आकर्षित कर रहा है। कंपनियों के प्रतिनिधि भागा के पति बालेराम को पाँच लाख सालाना के पैकेज और नौकरी का लालच देकर इस बात के लिए राजी करते हैं कि भागा उनके प्रोडक्ट का विज्ञापन अपने शरीर पर लगाने हैं। इस पर भागा पहले तो एक पत्नी के अधिकार से अपने पति से पूछती है कि आप मेरे जिस्म का सौदा कर रहे हो? तब बालेराम एक व्यवसायी की ही भाषा में जवाब देता है कि इसमें हर्ज क्या है तुझे तो सिर्फ विज्ञापन ही अपने शरीर पर लगाने हैं तुझे कोई छुएगा थोड़े न, और फिर पांच लाख की रकम कम तो नहीं होती। इस बात पर भागा पति को तमाचा मारती है और बाघिन की तरह खूँखार हो जाती है। पति डरकर अंधेरों में गुम हो जाता है। यह कहानी भागा जैसी पहाड़ी स्त्रिी के प्रतिरोध की कहानी है जिसके कारण वह बाजार का हिस्सा नहीं बन पाती। हरनोट इस कहानी के अंत में दिखाते हैं कि - इस घटना के बाद भागा अपने बच्चों को अपने हृदय से लगाये रो रही है तभी दरवाजे पर आहट होती है और दरवाजे के बीच एक सफेद नन्हा पंजा दिखता है। यह सफेद बालू का बच्चा है जिसकी माँ को शिकारियों ने मार दिया है जिसे भागा अपनी गोद में आश्रय देती है। दरअसल 'भागा देवी का चाय घर बड़े गहरे आशयों की कहानी है। ऊपर से यह कहानी बहुत सीधी-सीधी दिखती है, लेकिन कहानी के भीतर हमारी सभ्यता की बदलती आहटों की बड़ी गहरी अनुगूँजें हैं।

'हक्वाई’ कहानी में गांव में चमड़ा शिल्पियों के अतीत और वर्तमान की कथा के साथ गांव की जातिगत झगड़ों के साथ नौकरशाही की क्रूरता को भी कहानीकार ने बेनकाब किया है। 'किन्नर’ शब्द और किन्नर जनजाति के इतिहास पर हरनोट ने (बया जुलाई-दिसम्बर 16) एक शोधपरक और वैचारिक आलेख लिखा था। दरअसल हरनोट किन्नर जनजाति के इतिहास करना चाहते हैं। वे थर्डजेंडर के लिये अज्ञानवश प्रयुक्त किये जा रहे इस शब्द के प्रयोग के खिलाफ हैं। उनकी 'किन्नर’ कहानी में 'किन्नौरा’ जनजाति के रीति-रिवाजों और विशिष्टताओं का प्रामाणिक वर्णन है तो दूसरी ओर 'किन्नर’ शब्द के गलत अर्थ में प्रचारित होने के कारण कथानायक 'बेलीराम’ को बार-बार अपमान के घूंट पीने पड़ते हैं। यद्यपि बेलीराम ने किन्नर समुदाय पर छाये संकट के बादलों को छांटने का प्रयत्न किया, लेकिन मीडिया की बेवकूफी से और लोगों की अनभिज्ञता से 'किन्नर’ शब्द और इस जनजाति को हिजड़ों के रूप में पहचाना जाने लगा। 'किन्नर’ इस विषय पर लिखी बड़ी तार्किक कहानी है। एस.आर. हरनोट के कहानी संग्रह 'लिटन ब्लॉक गिर रहा है’ में संग्रहित लम्बी कहानी 'लोग नहीं जानते कि उनके पहाड़ खतरे में हैं’ लोक परंपराओं और लोक आस्थाओं तथा देवता के द्वारा पहाड़ों को बचाने की कहानी है। विकास के नाम पर पहाड़ों में कंपनियों के दलालों की सेंध लग चुकी है। पहाड़ों की खरीद-फरोख्त जारी है, सत्ता के नुमाइंदों, नेता, अधिकारी कर्मचारी और कुछ स्थानीय लोग अपना-अपना हिस्सा लेकर इन पहाड़ों के पर्यावरणीय संतुलन को बिगाडऩे पर तुले हैं। पशु, पक्षी, जंगल, नदी, पहाड़ा और स्थानीय लोग सब संकट में है। ऐसे में कई बार देवताओं के प्रति लोगों की आस्था उनका हित कर जाती है। 'देवताओं के बहाने’ कहानी का नायक सोमधर एक ऐसायुवक है जिसने अत्यंत प्रतिकूल परिस्थितियों में पढ़ लिखकर नौकरी प्राप्त की। उसने 'ग्राम विकास सभा’ जैसी संस्था बनाकर गांव के विकास के लिए निस्वार्थ भाव से काम किया। सोम ने 'देवताओं के बहाने उत्सव कर गांव में मुख्यमंत्री को आमंत्रित किया है। मुख्यमंत्री गांव में आकर सड़क, बिजली, डिस्पेंसरी, पटवारखाना खोलने की घोषणा करते हैं प्राइमरी स्कूल का दर्जा बढ़ाकर मिडिल स्कूल कर देते हैं और दो प्राइमरी स्कूल और खोलने के आदेश देते हैं। सोम देवताओं के बहाने काम का विकास करा लेता है। 'सवर्ण देवता दलित देवता’ और 'जीन काठी’ आदि कहानियों के केन्द्र में भी देवता हैं। इन कहानियों में जातीय विभाजन और ऊँच-नीच के विभेद तथा इनसे उपजी त्रासद स्थितियों की गहरी अभिव्यक्ति है। आलोचक श्रीनिवास श्रीकांत लिखते हैं - 'सवर्ण देवता दलित देवता’ के प्रमुख चरित नायक की भूमिका इतिहास में रूढि़ का खंडन कर एक सकारात्मक बदलाव की अपरिहार्यता को रेखांकित करती है। इस ठेठ देहाती चरित्र का अपने क्रूर अतीत से पूरी तरह मोहभंग हो चुका है। ...'सवर्ण देवता दलित देवता’ का रिबेल इस बात में है कि इसमें कहानीकार ने दलितों के आक्रोश को अपने जातीय अस्तित्वगत परिताप, बेशक निहायत शालीनता से यथार्थपरक स्तर पर निभाया है। 'जीनकाठी’ मानव त्रासदी की अनकही कहानी की स्तर पर निभाया है। 'जीनकाठी’ मानव त्रासदी की अनकही कहानी की तरह अनबूझी रही है। इसमें 'भुंडा’ समारोह का आयोजन लोमहर्षक और स्तम्भित करने वाला प्रसंग है।’’ 'मिट्टी के लोग’ संग्रह की कहानियां किन्नर, बेजुबान दोस्त, नंदी मोनिया, अमानव, चीखें, 'सड़ान’ और 'दीवारें’ पढ़कर आपको लगेगा कि हरनोट ने पर्वतीय अंचल के एक-एक कोने से वहां के लोगों के मन और उनकी जीवन शैली से जुड़े ऐसे-ऐसे विषय उठाये हैं जिन पर अन्य कहानीकारों की दृष्टि कम ही गई है। इन कहानियों की संरचना के मूल में पर्वतीय संस्कृति और पर्वतीय ग्राम्य समाज की चेतना व्याप्त है। एस.आर. हरनोट ने स्थानीयता और लोग से जुड़कर अपना अलग रास्ता बनाया है। हरनोट की कहानियों में पहाड़ की विविध छबियाँ हैं जो पहाड़ों की असल स्थिति को समझने में हमारी बेहद मदद करती है। पहाड़ का लोक उसकी कहानियों की अन्तर्वस्तु का अंग है। हरनोट की कहानियों में पहाड़ों की जीवनशैली, वहां के लोग उनकी संस्कृति और पंरपराएं सुरक्षित हैं। पिछले तीस वर्षों में हरनोट ने हिन्दी को ऐसी कहानियां दी है जो अपने समय का प्रामाणिक दस्तावेजीकरण करती है। हरनोट जैसे संवेदनशील कहानीकार ही 'लिटन ब्लॉक’ भवन के गिरने पर कहानी लिख सकते हैं। इस भवन की भव्यता इसके वास्तु और शिल्प के इतने बारीक चित्रण के साथ इसमें पनाह लेने वाले बंदर, कुत्तों और भिखारियों के विस्थापन की पीड़ा को अनुभूत कर सकते हैं। ज्ञानरंजन ने उनकी कहानियों का मूल्यांकन करते हुए लिखा है - 'हरनोट की कहानियों में बार-बार डूबते संसार में बहुमूल्य को डूबने से बचाने की कोशिश होती है। उन्होंने अपनी कहानियों में जो लैंडस्केप और बस्तियां ली है, जो चरित्र चुने हैं उनकी तरफ आज किसी का ध्यान नहीं है। इन कहानियों में पचास साल के स्वर्ण युग की पोल खोलता चिट्ठा है।’’ एस.आर. हरनोट ने पहाड़ों पर रहते हुे इन से गहन आत्मीयता और सच्चे स्नेह के नाते जोड़े हैं, तभी वे अपनी कहानियों में पहाड़ के जीवन और मानवीय संबंधों की बाहरी-भीतरी वास्तविकता की तलाश कर पाये हैं। बदलते समय की आहटें और उनसे उत्पन्न खतरों को भांपकर उन्होंने अपने अनुभवों को अपनी अद्भुत रचनात्मकता द्वारा विस्तृत और गहन अर्थ प्रदान किये हैं तथा ऐसी जटिल स्थितियों से जूझने का माद्दा भी पैसा किया है। एस.आर. हरनोट कालसजग कहानीकार हैं। हरनोट के पास सहज सीधी किन्तु समर्थ भाषा है, अनुभव संपदा है, लोक ज्ञान है जिसके रसायन से वे अपनी कहानियों में यथार्थ रचते हैं। ऐसे अनेक विषय हरनोट की कहानियों का कथानक बने है जो आज के यथार्थ को देशकाल की समग्रता में देखते हैं। सांस्कृतिक विरासत के साथ लोक विश्वासों की अकूत सम्पदा और पहाड़ों  के विनष्ट होते सौन्दर्य की गहन चिंता हरनोट की कहानियों में बिखरी पड़ी है।

 

स्मृति शुक्ला एक अत्यंत पढ़े लिखे संस्कारी परिवार से आती हैं। जबलपुर में प्राध्यापक है और 'पहल’ में यह उनकी पहली प्रस्तुति है।

संपर्क - मो. 9993416937

 


Login