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अप्रैल - 2019

पैरों में कश्तियां बांधकर समुद्र पार करती स्त्री

सूरज पालीवाल

विमर्श/एक

 

 

 

चंद्ररेखा ढडवाल का 'समय मेरे अनुरूप हुआ’ उपन्यास चौंकाता है। वे लंबे समय से लिख रही हैं पर हिमाचली कविता संग्रह को छोड़ दिया जाये तो हिंदी में एक कविता संग्रह और एक कहानी संग्रह ही उनके अब तक प्रकाशित हुए हैं। जबकि इतनी लंबी दीर्घावधि में उनके ही समकालीन लेखकों के कई संग्रह प्रकाशित हो चुके होंगे। यही नहीं वर्तमान समय में फेसबुक से लेकर अन्य संसाधनों के बल पर लेखक अपनी सक्रियता का परचम फहरा रहे हैं। चंद्ररेखा ढडवाल इस तरह से न तो सोशल मीडिया में सक्रिय हैं और न साहित्य में। उपन्यास को पढ़कर चौंकाने वाले शब्द का प्रयोग मैंने इसलिए किया कि यह उपन्यास अपनी संपूर्णता में परिपूर्ण है। वे हिमाचल से हैं लेकिन उपन्यास पढ़ते हुए हिमाचल हावी नहीं होता, बल्कि ठेठ हिंदी का मुहावरा और भाषा का रचाव उनके उपन्यास के प्रवाह का कारण बनता है। कहने को तो मैं यह भी कह सकता हूं कि जब-तक स्थानीयता का स्वाद भाषा में नहीं होता तब-तक भाषा नकली-सी लगने लगती है लेकिन यह कहना झूठ होगा। चंद्ररेखा जिस समस्या को उठाती हैं वह केवल हिमाचल की नहीं है बल्कि आम समस्या है जो कहीं भी किसी भी प्रांत और किसी भी परिवार में पाई जा सकती है। इसलिए उन्होंने 'लोकल टच’ की जगह हिंदी में लिखना अधिक पसंद किया।

उपन्यास वेणू नामक स्त्री के आसपास घूमता है, वे जहां होती हैं तो ठीक और नहीं भी होती हैं तब भी किसी न किसी रूप में उनकी उपस्थिति वहां दर्ज होती रहती है। शादी से पहले वेणु जैसी समय के साथ बुढ़ाती लड़कियों की समस्या भारतीय परिवारों में आम है, जिन परिवारों में पिता नहीं होते उन परिवारों में पिता के न रहने की पीड़ा और त्रासदी को कुंवारी लड़कियां ही झेलती हैं। मां यदि है भी तो उनका होना न होना कोई मायने नहीं रखता। घर की जिम्मेदारी भाई और भाभी निभाते हैं, जिन्हें एक कुंवारी बहन बोझ लगने लगती है, रात-दिन का रोना होता है कि सीमित आय में अपने परिवार की परवरिश के साथ बहन की शादी कैसे करें? यह रुदन अकेले में नहीं होता बल्कि मां को सुनाया जाता है और बहन को अहसास कराया जाता है। यह अमानवीय स्थिति है, जिसे हमारे परिवारों में रोज देखा जा सकता है। वे विरले परिवार होंगे जिनमें पिता की मृत्यु के बाद भाई खुश होकर बहन की शादी की जिम्मेदारियों को निभाता है और स्वयं को कृतकृत्य समझता है। परिवारों के एकल होने और लड़कियों के पढ़ जाने के बाद तो यह समस्या और भी विकराल हो गई है। अधिकांश निम्नमध्यवर्गीय परिवारों में पढ़-लिखकर लड़कियां नौकरी इसलिए करती हैं कि वर ठीकठाक मिल जाये पर कुछ वर्षों के विलंब के बाद उनकी आय को परिवार के लिए सहारा मानने लगता है और वर की ढूंढ़ धीरे-धीरे समाप्त होने लगती है। एक मां है जो रोज-रोज वर ढूंढऩे के लिए भाई पर दबाव बनाती है और भाई अपनी पत्नी की नाराजगी तथा परिवार की स्थितियों को देखकर निर्णय लेने में असमर्थ रहता है।

वेणू की स्थिति मध्यवर्गीय परिवारों में शादी का इंतजार करती लड़कियों से कदापि भिन्न नहीं है। वह अस्पताल में नर्स की नौकरी करती है, घर में मां, भाई और भाभी हैं, पिता की मृत्यु हो गई है। घर की स्थितियां उसके सामने हैं 'भाई-भाभी को भी एक दूसरे से चालाकियां करते ही देखा था। भाभी इस कोशिश में रहती कि भाई को हम मां-बेटी से अलग कैसे रखें? यदि परवाह होती उनकी खुशी की तो उन्हें, उनकी जड़ों से अलग करने की तिकड़म में क्यूं जुटी रहती? मां के साथ झगड़ती भाभी को देखते जो तकलीफ भाई के चेहरे पर आती थी, उसे क्यूं नहीं महसूस कर सकीं वह। वह चुप रहते क्योंकि जानते थे, बोलने पर बात और बिगड़ेगी। दुखी थे वह इसीलिए भाई चाहते कि दफ्तर का समय रात तक बढ़ जाये और छुट्टी तो कभी हो ही न। उन दोनों को कभी शांति से आध घंटा भी बात करते हुये नहीं देखा-सुना। फिर भी दो बेटे हुए उनके। जिन्हें वे दोनों बहुत चाहते हैं। हां अम्मा को रोज-रोज बिसूरते देखा बाबा की याद में।’ चंद्ररेखा जिन स्थितियों का जिक्र कर रही हैं वह इस तरह के परिवारों में आम है। भाई भाभी के दो बेटे हैं जिन्हें वे प्यार करते हैं, हर मां बाप करते हैं इनमें कोई नई बात नहीं है। नई बात यह है कि भाभी भाई को वेणू की शादी मुख्य कारण है। वेणू की शादी के लिए मां का बिसूरना उचित है लेकिन भाभी द्वारा रचे जा रहे षड्यंत्र उचित नहीं हैं, वे चाहती हैं कि उनके पति परिवार की सीमा समझें और बच्चों के भविष्य पर ध्यान दें न कि मां के बिसूरने पर। विडंबना यह है कि एक ही परिवार में रहते हुए चारों सदस्यों की चिंताएं अलग-अलग हैं। भाई खुलकर सामने नहीं आता और भाभी का विरोध मुखर है।

भाभी का चरित्र जटिल और कुटिल है, यह जानना मुश्किल है कि वे किसके साथ खड़ी हैं और चाहती क्या हैं? वे अपनी सीमाएं भी जानती हैं तथा यह भी जानती हैं कि उनके पति और सास जिस दिन एक होकर वेणू की शादी करने का निश्चय कर लेंगे उस दिन वह अपनी नाराजगी दिखाने और घर भर में क्लेश करने के अलावा कुछ कर नहीं सकतीं इसलिए चाहती हैं कि दोनों मिलकर एक राय ही न बना पायें। घर में उनकी रणनीति का अहम मुद्दा यह है कि घर की जमा पूंजी वेणू की शादी में खर्च न हो इसलिए वह वेणू की शादी का प्रस्ताव विधुर और दो बेटों के बाप सिद्धार्थ गोखले के यहां से आता है तो वह उनकी सारी शर्तें मानकर शादी की सहमति देती हैं। सिद्धार्थ की प्रमुख शर्त थी कि शादी के बाद वेणू बच्चों के लिए नहीं कहेगी क्योंकि दो जवान बेटे पहली पत्नी से हैं ही। सिद्धार्थ की यह शर्त किसी भी कुंवारी लड़की के लिए अस्वाभाविक है इसलिए इसकी प्रतिक्रिया भी स्वाभाविक नहीं है। लेकिन भाभी चाहती हैं कि इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया जाये इसलिये कि शादी का सारा खर्च सिद्धार्थ उठायेंगे। मुफ्त में शादी भी हो जायेगी और बड़े घर से रिश्ता भी जुड़ जायेगा तो आड़े वक्त काम भी आयेगा। इसे वे अपनी समझादारी मानकर कहती हैं 'अब यह उम्र बच्चे पैदा करने की है भी नहीं अम्मा। यही बहुत मानो कि आपकी बेटी को भले घर का इतना खाता-पीता आदमी अपना नाम दे रहा है। आप तो समझो कि गंगा नहा लीं।’ भाभी का यह कथन सामान्य नहीं है। इसमें एक ओर तो वेणू की उम्र पर व्यंग्य किया गया है तो दूसरी ओर अम्मा की सीमाएं बताई गई हैं। इसलिए कि यह प्रस्ताव सुनते ही 'अम्मा का चेहरा अजीब-सा हो गया था’। घर परिवारों में जो संबंध ऊपर से दिखाई देते हैं, वे अंदर इतने भावुक एवं संवेदनशील होते नहीं हैं। अधिकांश परिवारों में अपने हितों और अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए कतर-ब्योंत चलती रहती है। कौन कब बड़ी सहजता के साथ मुस्कुराते हुये किसे काट देगा, कई बार यह समझना कठिन होता है। और समझ आती है तब तक फैसला हो चुका होता है। इसलिए भाभी जिस व्यंग्यार्थ लहजे में वेणू की शादी की हामी भरती हैं उससे यह निष्कर्ष नहीं निकाला जान चाहिए कि वे वेणू के पक्ष में खड़ी हैं। लेकिन भाई ने इस प्रस्ताव का विरोध करते हुए कहा 'कमाती-खाती है वेणु। कौन हम पर बोझ है। ऐसा कौन करता है? कौन अपनी ब्याहता पत्नी को मां बनने की इजाजत नहीं देता? उन्हें अपने बेटों के अधिकार में सेंध लगने की चिंता है तो वह विवाह ही क्यों कर रहे हैं? मेरे हिसाब से तो इसमें कोई तर्क नहीं है। ऐसी ऊट-पटांग शर्तें रख रहे हैं सिद्धार्थ तो जरूरी भी क्या है कि शादी करवा ही दें।’ यह भाई का तर्क था, जो उचित ही है 'पर अम्मा नहीं मानीं। उनके हिसाब से तो औरत के लिए दो ही वजहें हैं जीने की। एक घर गृहस्थी और दूसरी पूजा अर्चना व व्रत उपवास।’ यह विडंबना भी है और आश्चर्यजनक भी कि जो अम्मा रात-दिन बिसूरते हुए अपने भाग्य को कोसा करती थी कि 'पता नहीं यह मंगल कारज विधना ने मेरे भाग में लिखा भी है कि नहीं। सोचती थी कि अपने आंगन में वेद गाढ़कर बेटी का लग्न कारवाऊंगी धूमधान से तो समझूंगी बैकुण्ठ पा गई’ वही अम्मा घर गृहस्थी की सीमा बताते हुए वेणू की शादी के प्रस्ताव को उचित बता रही हैं।

वेणू जैसी उम्र दराज लड़कियों की समस्या यह है कि एक समय तक वे अपने परिवार की ओर देखती रहती हैं कि कब उन्हें उसकी शादी की चिंता होगी और कब शादी करने का मानस बनायेंगे लेकिन घर-परिवार अपनी व्यस्तताओं में इतना निमग्न रहता है कि उसे यह मालूम ही नहीं पड़ता कि कब समय गुजर गया और अनगिनत वेणू कब बड़ी हो गईं। बड़ी ही नहीं हो गई बल्कि उनकी शादी की उम्र भी निकल गई। वेणू जिस उम्र में हैं उस उम्र में उन्हें लगने लगता है कि यदि शादी नहीं हुई तो रात-दिन भाभी की उपेक्षा सहनी पड़ेगी और वे आज तो कुछ कहने की स्थिति में भी हैं लेकिन एक समय के बाद वे कुछ कहने या अपनी इच्छाओं के अनुरूप निर्णय लेने में भी असमर्थ हो जायेंगी। उम्र शनै:-शनै: सब कुछ छीनती चली जाती है पर वेणू को तो कुछ मिला भी नहीं फिर छिननने का खतरा बाहर से कम अंदर से अधिक था। जो लड़कियां किसी के प्यार में पड़कर समय का इंतजार करती रहती हैं वे भी चालीस तक आते-आते शादी का निर्णय लेने के लिए दबाव बनाती है पर वेणू के जीवन में तो प्यार भी संभव नहीं था। सामान्य परिवारों की बंदिशें इतनी होती हैं कि उन्हेें इधर-उधर ताकते हुए परिवार की इज्जत खोने का डर सताता रहता है। वेणू के मन में भी इसी प्रकार का डर था इसलिए एक मौका डॉ. सुधांशु ने दिया था जिसे उसने अपनी मध्यवर्गीय नौतिकता के कारण खो दिया। चंद्ररेखा इस प्रसंग को उद्घाटित करते हुए लिखती हैं 'वेणू! तुम क्यों नर्स बनने चली आई। तुम्हें तो चित्रकार बनना चाहिये था। डॉ. सुधांशु मेरी फाइल देखते हुए अक्सर मेरी तारीफ करते। तारीफ तो यह मेरी फाइल की ही करते। परंतु उनकी आंखें मुझे अपना शरीर टटोलती लगतीं। शुरू-शुरू में अच्छा नहीं लगा था मुझे। पर धीरे-धीरे आदत हो गई। बल्कि बाद में मैं उनके पास खड़ी होकर इस नजर की प्रतीक्षा करने लगी। उन्हें भी इसका भान हुआ। मेरी ओर से निश्चिंत होकर एक दिन बोले 'तुम शाम को मुझसे मिलने आ सकती हो?’ अस्पताल में सबसे ज्यादा सुंदर भव्य और मीठा बोलने वाले थे डॉ. सुधांशु। मैंने हिम्मत कर ही ली, 'पहले आप आइये न हमारे घर, मां से मिलिये।’ यह कहना कठिन है कि वेणू चली भी जाती तो परिणाम वे ही होते जो उसने सोचे थे। पर महीने भर बाद सुना डा. अदिति से शादी हो रही है उनकी। तो नर्स बनने जा रही लड़की से मस्ती की जा सकती है, शादी नहीं। जिस समय मुझे रिझाते हुए बल्कि सम्मोहित करते हुये अपनी पुरुषोचित इच्छा पर बलि चढ़ाने की कोशिश में थे उसी समय पूरी सतर्कता से अपने भविष्य को लेकर जमा-घटाव पर भी ध्यान था उनका। यदि मैं उनके बुलाने पर चली गई होती, परिणाम तो भी यही होता। यह वेणू का सोचना है पर भविष्य की संभावनाओं से कौन इंकार कर सकता है लेकिन वेणू जैसी लड़कियां चाहे किसी भी उम्र में क्यों न पहुंच जायें इस प्रकार के निर्णय लेने में असमर्थ होती हैं। यदि वेणू उनका कहना मानकर चली जाती तब क्या हो जाता यही न कि वह छद्म नैतिकता या शुचिता खतरे में पड़ जाती जिसे ओढ़कर वे जीवन की जीत में भरोसा करते हुए बुढ़ा रही हैं। दरअसल, वेणू जैसी लड़कियों की यह सोच इस विचार पर आधारित होती है कि पुरुषों पर भरोसा मत कारे तथा उनसे अकेले में मत मिलो। यह विचार आत्मविश्वास के अभाव में पनपता है, जो यह मानकर चलता है कि पुरुष अकेले में बुला रहा है तो मित्रता तथा बातचीत के लिये नहीं वरन् अन्य दीगर कारणों के लिये ही बुला रहा होगा। स्त्री पुरुष के बीच में यह अविश्वास की रेतीली नदी रात-दिन बहती रहती है और कई बार तो संबंधों के टूटने का कारण भी बनती है। वेणू जिस तरह सोच रही है यदि डॉ. सुधांशु ऐसे थे तो उपन्यास में उनका विवरण भी दिया जाना चाहिये था, लेकिन लेखिका इस विषय में चुप रहती हैं। यदि कोई आधार नहीं है तो अविश्वास का कारण भी अविश्वसनीय ही है। पर वेणू इस पारी को हार जाती हैं और उदास मन से कहती हैं 'मेरी जिंदगी का एक मात्र प्रेम प्रसंग यही है। इसे प्रेम माना जा सके तो।’

वेणू की शादी जिन परिस्थितियों में हुई, उसमें बच्चे न होने के साथ सिद्धार्थ और भी कोई शर्त लगाते तो वह मान लेती या मानने को विवश थी। शादी के बाद उस बड़े घर में जाकर वह सोचती है 'क्यों रह-रहकर वही बातें याद करती और सोचती हूं। जब कोई विकल्प है ही नहीं मेरे पास...। दुख नहीं है मात्र/दुख सहते रहने का/दुख विकल्पों के नहीं होना का भी।’ वह फिर-फिर विचार करती है 'मां की तसल्ली और भाभी की मुक्ति के लिये रहना तो यहीं, इसी घर में है मुझे। पर मजबूर होने से क्या चीजें आसान हो जाती हैं? इतने समय बात भी क्या मैं भूल पाती हूं। अस्पताल से दो-दो बार खाली होकर लोटना...। क्या बड़ी बात थी। शीना की तरह ही पल जाते वे भी। क्या औचित्य था सिद्धार्थ की उस बेहूदा शर्त का? पर उससे भी बुरा मैंने स्वयं अपने साथ किया। उस शर्त के बावजूद शादी के लिये हामी भर कर...। बंधुआ मजदूरों बल्कि पालतू चौपायों से भी कमतर हो गई मैं तो।’ यह आदमी की नियति है कि वह सोचता तो यह है कि बड़े संकट से मुक्ति के लिये छोटे संकट को गले लगाना बुरा नहीं है। लेकिन वह छोटा दिखने वाला संकट भी धीरे-धीरे बड़ा हो जाता है और पश्चाताप की आग में जलाता रहता है। वेणू ने मां की तसल्ली और भाभी की मुक्ति के लिये सशर्त शादी का प्रस्ताव स्वीकार तो कर लिया पर सिद्धार्थ के घर की हालत देखकर उसे लगने लगा कि अब याहं से मुक्ति के सारे रास्ते बंद हैं। रास्तों का बंद होना अंदर तक डराता है, रास्ते खुले हों चाहे उनमें आप हर समय आते जाते न हों पर मन में एक भरोसा तो रहता है कि रास्ते खुले हुये हैं। मन तब हारता है जब यह मालूम हो कि रास्ते हमेशा के लिए बंद हो गये हैं, अब कहीं निकलने का कोई मार्ग नहीं है। सिद्धार्थ बड़े आदमी थे, तमाम सुख सुविधाओं से युक्त घर, नौकर-चाकर और अनाप-शनाप धन पर यह सब चीजें कुछ दिनों तक चकाचौंध में रखती हैं लेकिन जब वास्तविकता दिखाई देती है तो इन सब भौतिक सुविधाओं से मन ऊब जाता है। आदमी भूखा हो तो कुछ भी खाने को मन करता है लेकिन जब पेट भरा हो तो छत्तीस प्रकार के व्यंजन भी आकर्षित नहीं करते। शादी के कुछ दिनों के बाद ही वेणू की सब समझ में आ गया था और वह अपने निर्णय पर दुखी होने लगी थी। दो जवान बेटों के उम्रदराज बाप से शादी करना मामूली नहीं था पर वह सोचती है 'वैसे भी उम्र कहां आई हम दोनों के बीच, सिद्धार्थ का सोच आया। जो रिश्तेदारों, जान-पहचान वालों और सबसे ज्यादा बेटों की वजह से बना था। पर नहीं, ऐसा कहकर मैं उसकी खास तरह की आंतरिक बनावट को नकार नहीं हूं शायद। सच ये है कि बाहरी प्रस्ताव या दबाव एक बहाना होते हैं। आदमी के अपने डर और कमजोरियां उसे बिगाड़ती हैं तो अपनी हिम्मत और निर्णायक क्षमता उसे बनाती है। यह बिगडऩे-बनने की भी सही-सही परिभाषा कहीं दी जा सकती है। मेरे लिये जो बिगडऩा है वह औरों के लिये बनना हो सकता है। सिद्धार्थ के साथ यही तो है। वह तो कुर्बान हो गये अपनी स्वर्गवासी पत्नी और बेटों पर...। वर्तमान की खुशियों से मुंह मोड़े और मेरी ओर से उदासीन सिद्धार्थ अच्छे लगते हैं भाई बंधुओं को।’

सिद्धार्थ के इस समाज-भय से वेणू का चिंतित कहना स्वाभाविक है। समाज का डर था तो शादी क्यों की आराम से रहते अपने दो जवान बेटों के बीच लेकिन तब लगा कि एक अदद पत्नी के बिना जीवन अधूरा है। वेणू इस अधूरेपन को भरने के लिए आई थी, उसकी स्त्री विरोधी शर्त को मानकर। पर पति पत्नी के बीच कुछ ऐसी शतें होती हैं, जिनका कहा और लिखा जाना जरूरी नहीं होता, वे ऐसी मानवीय शर्ते होती हैं जिन्हें बगैर कहे समझ लिया जाता है। सिद्धार्थ से यह अपेक्षा थी कि वे वेणू के मन को समझते और उसे पत्नी की तरह सहज स्वीकार करते। लेकिन उन्होंने उसे दूसरी पत्नी ही माना और यह भी कि बेटे, भाभी और समाज की नजरों में वे भले बने रहें चाहे वेणू पर कुछ भी गुजरता रहे। वेणू का मन अजीब-सा हो जाता यह सोचते हुये 'बिना किसी प्रलोभन के, आंख-कान ढांप कर चली आई यहां इस घर में। जिसके बड़े-बड़े भव्य कमरों में नक्काशीदार मेज-कुर्सियां और पलंग थे। बाग-बगीचे व ताल-सरोवर सब फूलों-पौधों व जलजीवों से भरे हुये थे। दो जवान होते बेटों के स्वस्थ-सुडोल अधेड़ पिता और चल-अचल, बेथाह संपत्ति...। सो एक औरत भी होनी चाहिए ताकि कोई कमी न लगे यहां रहने वालों और देखने वालों को...। अतीत हुई इस घर की मालकिन की एक छाया भर दिखने-होने की शर्ते पर जिसे यहां रहना था...। पर दूसरों की शर्तें और सुना व कहा, कितना दूर तक चलता है, हमारे साथ हमारी यात्राओं में। चलते-चलते, अपनी धुन में आ जाता है मन। कहा व सुना हुआ सब दरकिनार करते हुये। यह तब नहीं जानती ती मैं।’ यह वेणू का मन है जो बार-बार अपने निर्णय को याद करके दुखी रहता है। दुख बाहर का नहीं है, बाहर तो सब कुछ अच्छा दिख रहा है, पर अंदर का दुख अकेले में टीसता है। शादी से पहले भाभी ने इतराते हुये इसी घर की अकूत धन-दौलत की तारीफ की थी, हो सकता है उन्होंने मां को प्रसन्न करने या वेणू के असमंजस को खत्म करने के लिए कहा हो पर यह भी सही है कि अभावों में रह रहे लोगों के लिये धन ललचाता तो है ही। इसलिए पूरे घर ने सिद्धार्थ से विवाह को अपना सौभाग्य ही माना था। शादी के बाद की स्थितियों पर मां ने उसे समझाते हुये कहा था 'वेणू जो आदमी सालों पहले मरी हुई पत्नी और बच्चों के लिए इतना सोच सकता है, वह तेरे लिये भी सोचेगा, धैर्य रख।’ वेणू भी यही मानकर इस घर में आई थी, चालीस वर्ष की वेणू न नर्स रहते हुए हर तरह के आदमियों को देखा था, उसने देखा था आदमी कैसा भी हो स्त्री देह उसके मन को आकर्षित करती ही है। उसे भरोसा था कि शादी के बाद सिद्धार्थ अपनी ही शर्त को भूल जायेगा या वह उसे भुलवा देगी, पर ऐसा नहीं हुआ। समाज भीरु आदमी स्वयं से अधिक समाज से डरता है और उस डर से नया कदम उठाने से भी डरता है।

उपन्यास की कथा के मूल में वेणू है इसलिए घटनाएं भी वेणू को केंद्र में रखकर रची गई हैं, जो कई बार यह भ्रम उत्पन्न करती हैं कि चीजों, घटनाओं या मन:स्थितियों का दुहराव-तिहराव हो रहा है। यह भ्रम नहीं बल्कि वास्तविकता भी है पर दुखी आदमी अपनी ही दुख की धुरी पर घूमता रहता है। इसलिए कई बार वह आत्मकेंद्रित भी हो जाता है उसे अपने दुख ही दिखाई देते हैं और दुनिया की हर बड़ी समस्या से बड़े दिखाई देते हैं। वेणू की स्थितियों में भी उसे उसी दुख की धुरी पर लाकर खड़ा कर दिया है इसलिए वह भी बाहर से दिखने वाले सारे तामझामों के बावजूद अपने ही दुख और उससे उपजे पश्चाताप में घुलती रहती है। उसके हर निर्णय में वही पश्चाताप 'हर दिन अपने स्व को अपने से जुदा करने पर आक्रामक अपराध बोध से भर उठती हूं..., अपने प्रति घोर वितृष्णा से भर कर विमुख होने लगती हूं जीवन से ही। रोज-रोज सहना या नहीं सहना कोई अर्थ नहीं रखता। एक बार का कहना भी छाती पर गड़ा रह जाता है जैसे मौसमों के आंधी पानी के बाद भी कब्रों पर इबादतें खुदी रह जाती हैं।’

यदि जीवनभर इसी दुख की धुरी पर घूमना है तो उसके चरित्र की सीमा भी तय हो जाती है और यदि अपनी सीमा का विस्तार करना है तो अपने दुख से भी निकलना होगा। हरेक के जीवन में ऐसे अवसर आते हैं जब आप अपनी समस्या को भूलकर अपने आसपास के लोगों की बड़ी समस्याओं को सुलझाने का प्रयास करते हैं। वेणू के जीवन में भी ऐसा ही निर्णायक समय आया और उसने तय किया कि वह इस घर में लंबे समय से काम करने वाली सिल्लिया की प्रतिभाशाली बेटी शीना को पढ़ायेगी, जिसे नरेन की पत्नी कृति ने उसकी पढ़ाई छुड़वाकर अपने पास नौकरानी के रूप में रख लिया है। वह सोचती है 'उसे मैं अपने साथ रखूंगी। मैं उससे चित्र बनाना सीखूंगी और वह मुझसे पढऩा-लिखना सीखा करेगी। फूलों जैसी बच्ची फूलों को पानी दे दिया करेगी। फूलों के गुलदस्ते बनाकर फूलदानों में सजा देगी।’ यह सही समय पर लिया गया सही निर्णय है पर इस निर्णय ने भी उसकी हैसियत बता दी। सिद्धार्थ यह नहीं चाहते कि उनकी बहू कृति की सहायिका को उससे छीन लिया जाये। वे उसे समझाते हुए कहते हैं 'देखो वेणू! बच्चे वैसे भी तुमसे यानी हमसे कोई ज्यादा खुश नहीं हैं। अब उन्हें एक ठोस वजह दे देना जरूरी है क्या?’ यह सिद्धार्थ का सोच है जो बेटे और बहू के दबाव से उपजा है। वेणू इस बात को समझती है कि सिद्धार्थ के लिए बेटे, बहू या समाज पहले है, उसकी इच्छा या अनिच्छा बाद में जिनका कोई अर्थ नहीं है। वह जानती है कि तर्कों से सिद्धार्थ के निर्णय नहीं बदलते, वे अंदर से इतने कमजोर हैं कि किसी भी निर्णायक स्थिति में वेणू के साथ खड़े नहीं होते या खड़े होना चाहते भी नहीं। किसी भी स्त्री के लिये यह स्थिति बेहत खतरनाक होती है कि जिसके साथ शादी हुई है वही उससे मान-सम्मान और इच्छा-अभिलाषाओं की चिंता नहीं कर रहा है पर वेणू के अंदर धैर्य की कमी नहीं है। वह सब कुछ सहकर अपने आपको संभाले रहती है। सिद्धार्थ का बेटा नरेन और उसकी पत्नी कृति शादी के एक महीने में ही घर छोड़कर चले गये और आरोप वेणू पर लगाया। वेणू सोचती है 'यह तो मुझे बहुत बाद में पता चला था कि नरेन अलग रहने की बात कर रहा था। क्योंकि कृति को इस घर में घुटन महसूस हो रही थी। महीने भर में ही घुटन होने लगी। वह भी तब जब घर के किसी नियम या कानून में उन्होंने अपने को बांधा नहीं था। संदेहा ने बताया कि नरेन बाबू कह रहे थे एक रोज मालिक से कि आप तो सारा दिन घर से बाहर रहते हैं। घर में 'ये’ हैं पर इन्हें तो कभी मुझसे ही कोई लगाव नहीं रहा तो कृति से क्या होगा? खाली एक रौब मंडराता रहता है पूरे घर में।’ वेणू चुप रही उसने कोई जवाब नहीं दिया, वह उन्हें बाहर तक छोडऩे तक नहीं गई लेकिन मन में यह दुख जरूर रहा कि सिद्धार्थ ने भी नरेन को चुप रहने के लिए नहीं कहा। दरअसल, एक उम्र के बाद पिता के दूसरे विवाह को जवान बेटे स्वीकार नहीं करते और घर में नई आई मां को तो बिल्कुल भी नहीं। यह तो खैर है कि वेणू की उम्र लड़कों से बहुत बड़ी है वरना घर में प्रेमचंद के प्रसिद्ध उपन्यास 'निर्मला’ जैसी स्थिति पैदा हो जाती।

कई बार स्थितियां स्वयं एक मुकाम तक पहुंचकर बदलने लगती हैं। वेणू के जिस धैर्य की चर्चा मैंने ऊपर की है, वह उसी का परिणाम है कि बगीचे के बराबर वाले घर में रहने वाले नरेन और कृति के संबंध लगातार बिगड़ते चले गये। नरेन अत्यधिक शराब तथा अन्य नशों का सेवन करने लगा। कृति के शब्दों में अनुत्तरित प्रश्न जिन्हें वह नरेन से पूछना चाहती थी 'अंगूर के गुच्छों पर उचक-उचक कर कपड़ा बांधती या छिड़काव करती औरत का मेहनती कसा हुआ बदन तुम्हें इतना क्यूं बेहाल कर देता है कि रात को उसके पति को शराब की एक बोतल देकर तुम उसके साथ सोने की जुगत भिड़ा लेते हो। यह भूलकर कि घर में तुम्हारी पत्नी तुम्हारी प्रतीक्षा और चिंता में बेहाल हो रही होगी।’ बरहाल, नरेन और कृति के संबंध बिगड़ते चले गये तथा दोनों ने अलग रहने का मन बना लिया। वेणू इस समय अपने अपमान का बदला ले सकती थी, वह दोनों के बीच की खाई को और चौड़ा कर सकती थी पर वेणू के चरित्र में बदला लेने या किसी को दुखी करने का कोई अंश है ही नहीं। इसलिए वह नरेन और कृति को अलग-अलग बैठाकर समझाती रही और बताती रही कि सिद्धार्थ की सारी संपत्ति का वारिस नरेन इस प्रकार अकेला रहकर टूट गया तो फिर इस घर और संपत्ति को संभालने वाला कौन रहेगा? पर कृति ने रात-रात भर जाकर नरेन की प्रतीक्षा की है, उसके सकुशल घर लौटने की कामना की है और उसके सही राते पर आने के लिये उसे समझाया है पर पिता से नाराज नरेन उसकी बातों को समझने के लिए तैयार ही नहीं हुआ। धीरे-धीरे अकेला पड़ता गया नरेन वेणू को समझने लगा है और कृति भी उसके प्रति सम्मान प्रगट करने लगी। वेणू के शब्दों में 'देखती रह गई मैं। आज मुझसे उम्मीद है इसे जिसकी वजह से यह घर छोड़ा था इसने। घुटन होती थी यहां। मेरा रौब इसे चैन से नहीं रहने देता था। यदि न गई होती यहां से तो नरेन पर पिता की नजरों का पहरा रहता। उस स्थिति में देर-सवेर बगीचों में घूमते रह सकने की सहूलियत भी न होती उसके पास। और गलत कुछ करने की छूट भी नहीं मिलती। सिद्धार्थ जैसे पिता से उनका बेटा जुदा करने की सजा तो नहीं है...? वह पति कैसे भी हों उनके जैसा पिता तो नहीं ही होगा। वैसे अपने अजन्मे बच्चों की दृष्टि से देखूं तो उनके जैसा क्रूर पिता भी कोई दूसरा नहीं होगा। पर कहा मैंने फिर वही एक-दो दफे की गलती माफ करने की कोशिश करो कृति।’

वेणू रिश्ते में मां थी पर सौतेली मां इसलिए शुरू में उसके प्रति वैर भाव था, मन में कोई सम्मान भी नहीं था। हो सकता है नरेन ने कृति को वेणू के विरोध में कुछ कहा हो क्योंकि नरेन भी उसे मां नहीं मानता था। पर परिस्थितियों ने दोनों को ऐसा झकझोरा कि दोनों की अक्ल ठिकाने आ गई और दोनों वेणू को केवल मां ही नहीं मानने लगे बल्कि अपनी हितैषी भी मानने लगे। कृति अपना दुख सुनाने इसलिए वेणू के पास आई है। दूसरे को सुनाने से दुख कम हो जाते हैं। यह वेणू के द्वारा दी गई सलाह पर दुखी होकर कहती है 'एक-दो दफे की बात नहीं है यह मेरे लिये। हर उस रात बल्कि हर उस पल जब नरेन मेरे पास होता है मैं बर्फ हो जाती हूं। एकदम ठंडी और बेजान। नरेन की बाहों का घेरा, उसके चुंबन और उसकी जलती सांसें तक नहीं पिघला पातीं मुझे। जिसे कभी मन से चाहा था जिसके लिए अपने पूरे परिवार की नाराजगी झेली थी, उसका पराया होते जाना, मन से जुदा होते जाना बहुत तकलीफ देता है मुझे। मैं पिघलती हूं बाद में, अपने ही अंदर की आग से और बूंद-बूंद निचुड़ती खाली  हो जाती हूं। भाव-अभाव सब कुछ से। हर बार की यही परिणति। शुरू-शुरू में उदास हुआ नरेन। फिर बौखलाया और गुस्सा हुआ इतना कि मुझे नोच लेना चाहा उसने। पर उसकी हर कोशिश का सिला बस वही बर्फ की सिल।’ नरेन और कृति के प्रसंग में वेणू की भूमिका पढऩे योग्य है। नरेन की बीमारी के समय वह मां की तरह रात-दिन न केवल चिंतित रही बल्कि उसकी सेवा-सुश्रुषा में किसी प्रकार की कमी नहीं आने दी और कृति के लिये वह एक संवेदनशील सास के रूप में आती है और जितना हो सकता था उससे अधिक गहरे तक उसे समझाती है जिससे नरेन का परिवार न टूटे। पर कृति के दुख से उपजे तर्कों और प्रश्नों का कई बार वेणू के पास कोई उत्तर नहीं हेता था। चंद्ररेखा ने इस प्रसंग को जिस प्रकार बुना है, उसमें वेणू बहुत समझदार और उदार नजर आती है। ऐसे प्रसंगों में वेणू दुधारी तलवार पर चल रही है एक ओर उसके अपने अपमान, उपेक्षा और दुख हैं तो दूसरी और कृति की उदास पीड़ा। कभी वह कृति को समझाते हुए अपने दुखों में बह जाती है तो कभी नरेन की सेवा कते हुए अपने बच्चे न होने देने की चिंता में। कभी उसे बीमार नरेन अच्छा लड़का लगता है तो कभी कृति। औरत का अपना कोई घर नहीं होता है, वह दोनों घरों की होती है और कहा जाता है कि दो चीजों पर अधिकार रखने वाले का अपना कुछ नहीं होता। पीहर में उसने अपनी उपेक्षा भी देखी है तो मां की अर्थहीन चिंता भी लेकिन ससुराल में भरा-पूरा घर और सारी सुविधाओं के बावजूद उसे मिला क्या? जिसे पति माना वही समाज-भीरु निकला, डर उसका स्थायी मनोभाव है। औरत शिकायत अपने ही आदमी से करती है लेकिन उससे तो शिकायत करने का कोई अर्थ ही नहीं है। इसलिए वह सोचती है 'अपनी खुशियों और सपनों का दरवाजा अपने भीतर से ही खोलना होता है। पर औरत ही जब इसके लिए तैयार और तत्पर नहीं है तो कोई दूसरा क्या कर लेगा? कुसूर उसका नहीं है। वर्षों से दी जा रही सीख कि उसे सुशील, मृदुभाषी और संयमी होना ही है। अपनी इच्छाओं के उठने व दबा देने के अविरल क्रम में, हारते व टूटते हुये भी सहज ही रहना है। कुर्बानी की मिसाल बनते हुए। एक नियोजित प्रयत्न के तहत इसे उसका स्वभाव बना दिया गया है। दूसरों की देखा-देखी वह स्वयं भी इस  सब को अपने गुणों में शुमार करने लगी है। इसलिये अपनी इच्छाओं पर ध्यान नहीं देती। नहीं भरती कोई आकाश अपनी आंखों में। पैरों में किश्तियां बांधकर दरिया-समुंदर नहीं लांघती। पति नाम के खेवट संग बंधी रहती है भव-सागर तर जाने को।’

पूरा उपन्यास वेणू के दुखों से भीगा हुआ है। कहना न होगा कि पहले अपने दुख तथा बाद में अपने ही आसपास के दुखों के वेणू जिस प्रकार दुखी दिखाई देती है, उसके लिए कोई एक नाम नहीं लिया जा सकता। जिसका अपना कोई न हो फिर भी वह सबको अपना बनाने पर तुली हुई हो तो उस औरत का मन कितना बड़ा होगा, इस सच को जानने के लिए उपन्यास को याद किया जायेगा। कहते हैं कि स्त्री के मन के सामने समुद्र भी छोटा पड़ जाता है और उसके आंसुओं के सामने समुद्र का खारापानी भी फीका पड़ जाता है। कृति से नरेन के बारे में जानते हुए उसे सिद्धार्थ याद आ जाते हैं और वह सोचती है 'चाहा कि सिद्धार्थ से बात करूं पर वह भी नहीं हो पाई। वैसे मैं ही क्यूं करूं... अपने बेटों या बहू के बारे में कभी मन की बात नहीं की इन्होंने मुझसे। सोचती हूं इस सिद्धार्थ नाम के आदमी को कितना जानती हूं। हर शाम को धुला आयरन किया हुआ झकाझक सफेद कुर्ता-पायजामा मेरी निगाह में है। सुबह की सैर से लौटने पर कभी नीले तो कभी बिस्किटी रंग के ट्रेक सूट को पहचानती हूं। जानती हूं कि उन्हें कितने बजे चाय चाहिये और कितने बजे खाना। कब बात करना चाहते हैं और कब नहीं। पर यह सब तो संदेहा भी जानती थी और अब सिल्लिया भी जानने लगी है। फिर मेरे साथ खास क्या है? कौन-सी अंतरंगता क िपल-पल इनके मन की सुधि लेती रहूं। धीर-गंभीर चेहरा ओढ़े हुये इनके भीतर क्या चल रहा होता कब जान पाती हूं? बरसों से क्यास भले ही लगाती आ रही हूं पर अपने अंतर को जरा-सा भी जानने की इजाजत नहीं दी इन्होंने। शरीर और मन को बड़े जतन से अलग-अलग रखा है। कहीं वही तो नहीं कर रहा है बेटा भी। मन तो रमता है कृति में पर तन को जहां-तहां मंडराते रहने की छूट दे रखी है। पिता ने जिसके साथ तन के सुख की सांझेदारी की उसे हृदय में सेंध नहीं लगाने दी.. पुत्र शरीर के स्तर पर खिलंदड़ हो रहा है...। औरत दोनों में सामंजस्य चाहती है जिसे मन देती है उसके तन पर भी अधिकार और जिसे तन का साथी बनाती है उसके अंतर में निवास मांगती है। पिता और पुत्र दोनों ने ही नहीं जाना और समझा यह...। इसलिए स्त्री का साथ मिला पर उसका विश्वास नहीं।’

लाख कोशिशों के बावजूद नरेन और कृति को वह समझा नहीं पाई इसलिए पति पत्नी के संबंध टूट गये, दोनों अलग हो गये। वेणू को अच्छा नहीं लगा उसने दोनों का प्रेम देखा था इसलिए वह उस प्रेम को बचाये रखना चाहती थी इसलिए भी कि उसके जीवन में उस प्रकार का प्रेम कभी रहा नहीं। अपने न होने की क्षतिपूर्ति वह नरेन और कृति के प्रेम के माध्यम से करना चाहती थी पर वह संभव नहीं हुआ। परिवार में इस प्रकार की घटनाओं के मूल में वह सिद्धार्थ को पाती है तो और दुखी हो जाती है। बड़ा बेटा शिवेन पिता की हठधर्मी के कारण विदेश चला गया और छोटा उसके सामने तिल-तिल छीज रहा है पर पिता का अडिय़ल रवैया ज्यों का त्यों बना रहता है। उन्हें अपनी संपत्ति से अथाह प्यार भी है और गुरूर भी इसलिए वह सामने वाले को कुछ समझते भी नहीं है। वेणू सोचती है जिस संपत्ति का भविष्य अंधकारमय हो उस पर गुरूर कैसा? पर वह सिद्धार्थ को नहीं समझ सकती। नरेन जब अपने दुख से निकलने के लिये विधवा और एक बेटे की मां देवांगना की ओर आकर्षित होता है तो वह सोचती है 'सिद्धार्थ और खास तौर पर उनका समाज स्वीकार करेगा? अपने से ज्यादा समाज के लिये जीते हैं श्रीमान सिद्धार्थ गोखले।’ अनायास उसका अपना दुख उभर आया और वह सोचती है 'क्या मानेंगे सिद्धार्थ? शायद कभी नहीं। जिनकी मान मर्यादा में अपनी ही दूसरी पत्नी के बच्चे से खलल पड़ता हो वह किसी पराये आदमी की संतान को अपने बेटे का नाम देकर अपने घर ला पायेंगे?’ वेणू का सोचना सही था, उसके पास पक्के आधार थे पर वह चाहती थी कि नरेन को बचाना है तो उसकी इच्छाओं को स्वीकार करना ही होगा। समाज से अधिक नरेन के बारे में सोचना चाहिये, वह बेटा है, टूटा हुआ और समाज में अलग-थलग पड़ा हुआ। यह समय उसकी कमियां गिनाने का नहीं है, बल्कि उसे साबुत बचाने का है जो देवांगना ही बचा सकती है - ऐसा वेणू का स्त्री मन मानता है। सिद्धार्थ यह तो मानते हैं कि नरेन की दूसरी शादी करनी चाहिये पर उसके लिये अपने परिचित के यहां काम करने के लिये गांव से लाई गई कुंवारी लड़की को पसंद करते हैं। वेणू उनसे अलग सोचती है इसलिए उसे अपना जीवन फिर-फिर याद आता है 'तो क्या अपने विवाहित होते हुए शादी करने का ध्यान नहीं आया होगा? महज इसलिये कि वह पुरुष हैं इसलिए उन्हें अधिकार था और मात्र स्त्री होने से देवांगना को यह हक नहीं है? तथाकथित दैहिक शुचिता को स्त्री का संपूर्ण अस्तित्व बना देने की साजिश कितनी धूर्त व भयावह है स्त्री को कमजोर करने के लिये।’

कुछ उपन्यास घटनाओं के लिये याद किये जाते हैं और कुछ विशिष्ट चरित्रों के लिए। यह उपन्यास दोनों के लिये याद किया जायेगा। वेणू का अकेलापन और दुख जब-जब उमड़ते हैं तब-तब परिवार और पति की सत्ता हिलती हुई दिखाई देती है पर वह अपमान और उपेक्षा सहकर भी दोनों को बचाये रखती है। इसलिए नहीं कि दोनों से उसे कोई उम्मीद बाकी है बल्कि इसलिए कि वह अपने स्त्री होने का स्वत्व इन दोनों में ही देखती आई है।

 

 

संपर्क - मो. 9421101128, 8668898600, वर्धा

 


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