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यह मुहर्रम मेरा है

सुनील सिंह

कहानी

 

 

पटवाँ मोड़ से गाड़ी गांव की तरफ मुड़ी तो दिल खुश हो गया- अपने देश पहुंच गये।

रास्ते के दोनों तरफ धान के खेत फैले थे, अहरा था और एक छोटा सा डैम भी। आम का बड़ा बगीचा, इसके बगल में मिडिल स्कूल की दो मंजिली इमारत थी। इसी स्कूल में मैं पढ़ा था, तब इमारत इतनी बड़ी नहीं थी। सईद मंजिल की बड़ी चारदीवारी दिखने लगी थी। भीतर सौ साल पुरानी शुभ्र, धवल इमारत जस की तस खड़ी थी। जमींदार लोग थे - ढ़ाके तक कारोबार फैला था। रिआया पर जोरों-जुल्म न इनके यहां था, न मेरे यहां। मेरे बाबा को धान बहुत होता था, लेकिन साहब बहादुर को लगान अदा करने के लिए नकद पैसे नहीं होते थे तो कर्ज सईद मंजिल से आता था। गल्ला बिकता था तो कर्ज चुकता कर दिया जाता था। खानदानी रिश्ता बना हुआ था। रोजी-रोटी की तलाश में दोनों घरों के लोग बाहर चले गये। जितनी वीरान सईद मंजिल दिखी, उतना ही वीरान अब मेरा घर भी था।

घर का दरवाजा खोला तो जमाने भर की घास उगी हुई थी। घर साफ करने के लिए दाई को बुलाया। उसने पूरे घर में झाडू दे दी। मेरा कमरा साफ कर दिया।

शाम को चार बज रहा था। दाई ने कहा, ''बाबू! भण्डार की चाभी दे दीजिए तो अरवा चावल और गुड़ निकाल लूं। आज मुहर्रम है। अभी दाहा (ताजिया) आयेगा।’’

मैंने आश्चर्य से पूछा, ''आज मुहर्रम! मुझे तो पता भी नहीं चला।’’

रास्ते में न कोई ताजिया दिखा, न सिपड़ दिखा; न कोई ऐसी धूम-धाम दिखी! त्यौहार भी अब परिंदों की मानिंद हो गये है, जिंदगी से गायब होते जा रहे हैं।

मेरी आंखों में बचपन का मुहर्रम तैर गया।

हम लोग अभी बिस्तर में ही होते थे कि नगाड़े की आवाज आने लगती थी - डिम-डिम-डिम-डियरी की एक खास तरह की लय जैसे कोई युद्ध में जाने के लिए बुला रहा हो। हम बच्चे दौड़कर बाहर निकल जाते। लम्बे बांस में लिपटा बड़ा, हरे रंग का झण्डा जिसे चार लोग कांधे पर लेकर चलते थे। मेरे घर के कोने पर झण्डे के बांस को टिका दिया जाता और झण्डे को दिया जाता और झण्डे को खोला जाता। हरे रंग का विशाल झण्डा, इस पर चाँद और सितारे टँके होते थे। साथ में सौ-दो सौ लोगों का जुलूस होता था। आज छोटकी चौकी है- सौ से ज्यादा चौकियाँ होती थीं। इन्हें दरवाजे और चबूतरे पर रख दिया जाता था। नगाड़ा बजता रहता डिम-डिम, डिम-डिम, डिम-डिम... चलो युद्ध में चलो, धर्म युद्ध में चलो। कुछ देर बाद चौकियां उठा ली जातीं। झण्डा समेट लिया जाता था।

जुलूस आगे बढ़ जाता था।

मेरे बचपन का सबसे बड़ा त्यौहार अगर कोई था, तो वह था - मुहर्रम। दशहरें में दुर्गा जी की मूर्ति रखी जाती थी। मेला-ठेला भी लगता था। लेकिन, मां हम बच्चों को मेले की धक्कम-धुक्की में जाने नहीं देती थी। बूढ़े गुमाश्ता जी बोल उठते - मेले में तीन चीज- धूल, धुआं, धक्का। जाने की बहुत ज़िद करते तो नौकर को साथ कर देती थी। नौकर एक घण्टे में मेला घुमाकर सुरक्षित घर पहुंचा देता था। होली के हुड़दंग से हम लोगों को दूर रखा जाता था। दीवाली राजपूतों का कभी मुख्य त्यौहार रहा नहीं। एक मुहर्रम ही ऐसा त्यौहार था जो मेरे दरवाजे तक चला आता था और उसका मजा हम ले पाते थे।

शाम को चारपाइयां आंगन में बिछ जाती। त्यौहार है तो पढ़ाई-लिखाई कैसी! दाई खाना बनाती जाती थी और गीत भी गाती जाती थी-

हसन-हुसेन दुई भईया जैसे राम लखन हो।

हमलोग यानि मैं और मेरी छोटी बहन जाकर दाई से चिपक जाते थे - ''दाई कहानी! हसन-हुसेन की कहानी।’’

मां आंगन से ही डांटती, ''अरे वह खाना बनायेगी या कहानी सुनायेगी।’’

दाई हम लोगों को धीरे से कहती, ''खाना बनाके खूब बढिय़ा से कहानी कहेंगे।’’

खाना बनाने के बाद दाई हमलोगों के सिरहाने आकर बैठ जाती। कहानी सुनाना शुरु करती, ''बड़ी दु:ख भरी कहानी है। हसन-हुसेन दुई भाई थे। खूब गबरू जवान, खूब सुन्दर राजकुमार थे। प्रजा की बढिय़ा से देखभाल करते थे। बगल का राजा दुश्मन था, उसने कहा - हमारा रोब मानो नहीं तो हम चढ़ाई कर देंगे। हसन-हुसेन कहां किसी से डरने वाले थे। दूत भेजा। कहा, तुम अन्यायी राजा हो, तुम्हारा रोब हमलोग नहीं मानेंगे। ऐसा सुनकर दुश्मन राजा ने चढ़ाई कर दिया। हसन-हुसेन भी सेना लेकर भिड़ गये। खूब लड़ाई हुई। हसन-हुसेन के सारे सिपाही मारे गये। हसन भी कट मरे।’’

''यह जिस देश का किस्सा है वहां चारों तरफ बालू ही बालू, पानी कहीं-कहीं। पियास से हुसेन का गला सूख रहा था, पीठ पर दुश्मन सेना, जान बजाने के लिए एक अंधा कुआं मे छिप गये।’’

हम भाई-बहन दोनों अवाक कहानी सुनते रहते। पूछते, ''दाई फिर क्या हुआ?’’

दाई बिलखने लगती - ''दुश्मन सेना पीठ पर कुआं के पास पहुंच गयी। सरदार ने कड़ककर पूछा - हुसेन किधर भागा है? कि कुआं में छिप गया है? कोई जवाब नहीं दिया। लेकिन, भेदियां वहां बैठा था।’’

''भेदिया!’’ मैंने उत्सुकता से पूछा, ''कौन भेदिया?’’

''अरे, इहे निसहारी गिरगिटिया। इहे हुआं बैठी थी। जब दुश्मन का सरदार कड़ककर पूछा कि हुसेन किधर गया तो गिरगिटिया मुड्डी डोला दिहिस। इशारे से कहा- कुएं में है।’’

''दुश्मन का सैनिक हुसैन को कुआं से निकाल कर मारा डाला।’’

''अरे उन लोगों को कुछ दया-माया भी न लगा।’’ दाई कलपने लगती। ''बाईस वर्ष के गबरू, श्याम-सलोना हुसेन, दुल्हीन के अभी चूड़ी भी न टूटी थी। दुश्मन सरकार ने मार दिया।’’

हमारी आंखों से भी आंसू आ जाते। कल्पना में ही हुसेन उभर आते- सावला-सलोना सुन्दर मुख और कुछ लोग उन्हें मार रहे हैं।

स्कूल में मेरे एक दोस्त ने हिदायत भरी आवाज में कहा - ''दाहा में जो छोटा-सा झरोखा बना रहता है न उसके भीतर नहीं देखना चाहिए।’’

मैंने उत्सुकता से पूछा, ''क्यों?’’

उसने बड़ी राज़दार आवाज में बताया, ''एक लड़का छुपते-छुपाते दाहा के पास पहुँच गया और झरोखे के भीतर झांका तो क्या देखता है कि इसमें मिट्टी रखी हुई है और उसमें खून ही खून।’’

''खून! मेरा तो कलेजा मुंह को आ जाता। पूछता, ''किसका खून?’’

दोस्त रहस्यमय आवाज में बताता, ''हसन-हुसेन का खून और किसका! लड़ाई में मारे गये थे न, वही खून। लड़का जो देखा तो तुरंत खून की उलटी करने लगा और मर गया।’’

मैं डर से सिहर जाता।

दोस्त ने आगे बतलाया ''ऐसे ही एक लड़का देखने पहुंच गया कि करबुलाह (कर्बला) में मिट्टी कैसे दन होता है! देखा, वहा भी खून ही खून।’’

मैं दुबारा सिहर गया।

''दाहा हो या सिपड़ उसके भीतर नहीं देखना चाहिए।’’

रात को मेरी कल्पना में हुसेन आ जाते-कैसे निर्दयी लोग थे, जिन्होंने हुसेन को मार डाला था! मैं डर के मारे आंख मूंद लेता, फिर सो जाता था।

                                                                     * * *

मुहर्रम हिन्दू और मुसलमान दोनों का साझा त्यौहार था। मेरे गांव के कोइरी लोग ताजिया रखते थे। ताजिया पर चढ़ाने के लिए घर-घर मलीदा बनता था। औरतें हसन-हुसैन का गीत गाती थीं और रोती थीं। जैसे हिन्दुओं के अन्य देवता थे, वैसे ही हसन-हुसेन भी एक देवता ही थे। मुहर्रम के जुलूस में जितने मुसलमान रहते थे, उतने ही हिन्दू भी रहते थे। मुसलमान गदका खेलते थे तो हिन्दू भी उनके साथ खेलते थे। बस कर्बला में मिट्टी दफन करने नहीं जाते थे - इतना ही फर्क था।

अगले दिन बड़की चौकी माने मुहर्रम।

डिम-डिम, डिम-डिम, डिम-डिम.... तरसा बजने की आवाज आने लगती। इस, दिन खूब भीड़ होती थी, हजार-पांच सौ आदमी जुलूस में शामिल होते थे। पचासों ताजिये मेरे दरवाजें पर और बाहर के मैदान में रखे जाते थे तो सौ से कम सिपड़ भी न होते थे। ताजिये और सिपड़ को रंग-बिरंगे कागजों से सजाया जाता था। ताजियों को देखकर मंदिर सा आभास होता था - नीचे चौकोर, उपर पतला होता जाता था। चौकोर हिस्सा कपड़े से ढंका होता था। बीच में छोटा सा झरोखा होता था; इसके अन्दर मिट्टी रखी होती थी। सिपड़ अद्र्ध-चन्द्राकार होता था और इसे लेकर लोग नाचते कूदते भी थी।

ताजिया रखते ही गदका का खेल शुरु हो जाता। दो-दो की जोड़ी में लोग खेलते थे। जोडिय़ां बदलती रहती थीं।

दकका खेलने के नियम थे। इसके उस्ताद होते थे। पहले गतका को जमीन पर रखा जायेगा, फिर मिट्टी को सलाम किया जाता था। इसके बाद दोनों खिलाड़ी गदका उठा लेते थे। गदका उठाकर दोनों पीछे की तरफ पैंतरा लेते थे और पैंतरा लेते ही सामने आते थे, तब लाठी की आवाज आती थी - खट! दोनों खेलने वाले दुबारा पैंतरा लेते थे। खेल बढ़ता तो लाठियों की टकराने की खटा-खट, खटा-खट.... लाठियां बजने लगती थीं। हमें खूब मजा आता। इसके बाद, दूसरा जोड़ा आ जाता था।

गदका का सबसे दिलचस्प मुकाबला खुदाबक्श मियां और बिदेसी कोइरी के बीच होता था। गदका के उस्ताद थे - खुदाबक्स मिया। 70 साल की उम्र, सफेद बाल, लम्बी दाढ़ी, मजबूत कसरती शरीर, सफेद लम्बा कुर्ता और धोती पहनते थे। इनका चहेता शागिर्द था - बिदेशी कोइरी। नाटा, हष्ट-पुष्ट, गोरा रंग, बड़ी-बड़ी मूँछें उसके चेहरे पर खूब फब्ती थी। एक उस्ताद था तो दूसरा शागिर्द। एक बूढ़ा था तो दूसरा जवान। ये दोनों तब गदका खेलने आते तो भीड़ बेकाबू हो जाती। तड़-तड़-तड़ दोनों की लाठियां बजने लगती। न ये काम, न वो कम। इसी गदकाबाजी के बीच बिदेशी उस्ताद के सीने को लाठी से हल्का छू भर लेता। आह! लाठी की कैसी मुलायम छुअन होती थी वह! इसके बाद उस्ताद को गुस्सा आ जाता और वो दनादन बिदेशी के शरीर पर लाठियां बरसाने लगते। बिदेशी हंसता हुआ उस्ताद की मार खाता रहता। जब गदका खत्म होता तो उस्ताद अपने शागिर्द को सीने से भर लेते थे। गदका के बाद एक लड़का खंजर लेकर मैदान में उतर आता और अपने कतरब दिखाने लगता। इसके बाद तलवारबाजी शुरु हो जाती - खन-खन-खन...।

कोई दो घण्टे ये खेल तमाशा चलता रहता और भीड़ जमी रहती थी। आदमी के ऊपर आदमी, हर कोई यह खेल देखना चाहता था।

हमें खूब मजा आता, इसी के लिए तो पूरे साल इंतजार करते थे।

शाम को ताजिया और सिपड़ दुबारा आते- करबुलाह (कर्बला) में हसन-हुसेन की मिट्टी दफन करने के लिए। यह माहौल मातमी होता था। मेरे घर में ताजिये पर अरवा चावल और गुड़ का शरबत चढ़ाया जाता। इसके बाद ताजिये उठा लिया जाते। कर्बला में मिट्टी दफन कर दी जाती।

                                                                                 * * *

 

कोई तीस पैंतीस वर्ष पहले मुसलमानों में यह हवा चली कि मुहर्रम धर्मानुकुल नहीं है। ये 400-500 साल पहले शुरु हुई एक गलत रव़ायत है, जो धर्म में शामिल हो गई थी। इसलिए मुहर्रम का बहिष्कार ही धर्माचरण है। मुहर्रम जो हिन्दू और मुसलमान का साझा त्यौहार था उस पर पहली मार पड़ी।

देश का माहौल भी तेजी के बदल रहा था। शाहबानों का मुकदमा, राम मंदिर का ताला खुलना, शिलान्यास, बाबरी मस्जिद विध्वंस, लगातार दंगे, सीरियल बम ब्लास्ट से गुजरता यह खौफनाक सर अब मॉबलिंचिंग तक पहुंच गया था। इन सबसे देश का माहौल खराब ही हुआ। मुसलमान अब समझ नहीं पा रहा था कि वह करें तो क्या करे! और हिन्दू और हिन्दू होता चला जा रहा था।

जाहिर है, ऐसे माहौल में मुहर्रम के लिए दिलों में अब बहुत जगह नहीं बची थी। आदमी मर जाता है, ये हम रोज देखते हैं। लेकिन एक त्यौहार को मरते हुए पहली दफा देखा।

                                                                              * * *

 

दाई चावल और गुड़ निकालकर ले आयी।

दाई से मैंने पूछा, ''ताजिये की अब कैसी धूम रहती है?’’

''अरे बाबू।’’ दाई ने सांस छोड़े हुए कहा, ''कुछ साईं लोग हैं, वहीं रखते हैं कभी-कभी। महंगाई भी बहुत बढ़ गई है, अब पहले जैसी बात नहीं है।’’

मुझे बचपन का मुहर्रम याद आ गया।

किसी ने आकर बताया - ताजिया आ गया है।

एक दफा मुहर्रम के समय मेरा भतीजा मेरे साथ गांव में था। ताजिया दरवाजे पर आया तो मैंने भतीजे से कहा, ''इस घर का दस्तूर है कि ताजिया जब आता है तो घर का मालिक सम्मान से बाहर जाकर खड़ा हो जाता है। अगली पीढ़ी में तुम हो। आओ, हम बाहर चलें।’’

मेरे भतीजे ने कहा, ''आपको इन तमाशों में मन लगता है। आप जाइये। मैं क्यों जाऊं?’’

मैं बाहर गया तो देखा, ताजिया ठेले पर रखा है। एक इंसानीकांधा तक उसे नसीब न था। पीछे खड़े एक लड़के ने ठेले से ताजिया को उतारकर दरवाजे पर रखा। बगल के मास्टर साहब क्रिकेट की कामेंट्री सुन रहे थे। उसने कुशल-क्षेेम हुई।

दाई अरवा चावल और गुड़ का शरबत ले आयी। ताजिये के सामने खड़ा होकर साई होठों में कुछ बुदबुदाकर मुसलमानी पूजा-पाठ करने लगा। हिन्दू के दरवाजे पर मुसलमानी पूजा पाठ होते देख मास्टर साहिब के चेहरे पर वितृष्णा का भाव छा गया।

''.... और ये विराट कोहली आउट।’’ मास्टर साहेब ने इसके साथ ही ट्रांजिस्टर बंद किया और उठकर चल दिये।

''हुजूर! ठेले का भाड़ा भर मिल जाता तो बड़ी मेहरबानी होती।’’ मैंने सौ रुपये का नोट निकालकर उसे दे दिया।

साई ने ताजियां उठाकर ठेले पर रखवाया और करबुलाह की तरफ रवाना हो गया।

यह दृश्य उस चित्र से मेल नहीं खाता था जो बचपन में मेरे मन में टँका था।

मैं थोड़ा उदास हो गया।

शाम को जब मैं बाहर निकला तो अद्भुत दृश्य था। झुण्ड ही झुण्ड गांव की औरतें थाल में दिये सजाये और खुब सुन्दर क्रोशिये से थाल को ढ़ाप कर जा रही थी। ये सब अंजान शहीद की मजार पर मलीदा चढ़ाने और दिये जलाने जा रही थी। मुझे ताज्जुब हुआ, मेरे गाँव की लड़कियां इतना सुन्दर क्रोशिया बुनती है।

कौन थे ये अन्जान शहीद! 1851 के गदर में शहीद हुआ कोई मुसलमान सैनिक। ....खैर, वे जो भी रहे हों लोक ने उन्हें पीर का दर्जा दे दिया था।

औरतें मजार पर प्रार्थना कर रही थीं - ''हे अंजान शहीद बाबा! मेरे बच्चों को सदा निरोग रखना। घर में सुख समृद्धि बनायें रखना...।’’

मुझे लगा, मेरा मुहर्रम मरा नहीं, अभी जिंदा है।

(इस कहानी में वर्णित हसन-हुसेन के किस्से का वास्तविकता से कोई संबंध नहीं है। यह लोक में विकसित हुई कथा है।)

 

कहानीकार सुनील सिंह पहली बार पहल में प्रकाशित। पहली कहानी धर्मयुग में छपी। अब तक तीन संग्रह छप चुके हैं। संपर्क - औरंगाबाद (बिहार)

 

 


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