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अप्रैल २०१३

लालटेन पर मक्खी

जितेन्द्र भारती




गैस के हण्डे सांय-सांय करते जल रहे थे। आसमान साफ था। अगर चांदनी पूरी खिली हुई होती तो जलसे में पूरा ही समां बंध जाता।
खंजडी की गमक और हारमोनियम के लहराते सुरों की संगत में नेकी राम भजनिया रागिनी गा रहा था -
'भूखी मर-मर जनता पूछै है, भाव अनाज का
अरी बोल इंदिरा, राशन मंदा होगा के नहीं।
धनिए में है लीद गदहे की, खांड बूरे में सेलखड़ी,
इनके गले में, फांसी का फंदा होगा के नहीं।
अब तू बोल इंदिरा, भाव मंदा होगा के नहीं।।
नेकीराम ने लोगों से भी अपने साथ-साथ गाने की टेक उठवाई। स्वामी मोक्षा नन्द ने देव लोक में चन्द्रमा की महिमा का बखान किया। चंचलता चंद्रमा का मूल स्वभाव है जिसके प्रभाव से मनुष्यों के चित्त और मन विचलित होते हैं। चांद की इसी चंचलता से गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या का मन विचलित होकर भटक गया। तब इंद्र ने ऋषि की पत्नी से संभोग किया था। क्रोध में गौतम ऋषि ने अहिल्या और चंद्रमा को श्राप दे दिया। इसी का परिणाम है कि चन्द्रमा को क्रमिक रूप से कटना पड़ता है। भाईयो, चांद को पूजें जरूर चूंकि वह देवता है मगर उसने जो भूल की उसे भी उसकी सजा भुगतनी पड़ी। आजकल ये नेता लोग भी बड़ी ज्यादती कर रहे हैं। ऋषि, मुनियों का जमाना तो है नहीं, अब तो इन्हें जनता का ही श्राप भुगतना पड़ेगा।
नेकी राम भजनिये ने एक दूसरी चौंकाने वाली बात यह बतायी कि अमरीका और रूस-चीन के मुल्कों ने बरसों से अपने साइंसदानों को चांद पे जाने की जुगत में लगा रखा है। इनके मंसूबों का तो किसी को पता नहीं। आजकल रेडियो और अखबार बताते कि सब खैरसल्ला रही तो परसों सप्तमी के दिन इंसान चांद पे उतर जावेगा। गायत्री मंत्र का पाठ करके सच्चे मन से चांद को ध्यान से देखना।
शांती पाठ हुआ और गैस के हंडे बुझ गये। सब अपने घरों को जाने लगे। औरतें रात में भी लम्बे-लम्बे घूंघट निकाले अपने घरों को लौट रहीं थीं। कुछ लोग रास्ते में मुस्तकीम की दुकान पर रुक गये। मुस्तकीम पंडाल में तो नहीं जाता मगर नेकी राम की रागिनियां खूब मजे ले-लेकर गाता है। भगज्जी उसका लंगोटिया यार है। स्कूल में साथ दाखिल हुए। दोनों ने बशीर गुरूजी का हुक्का भरा और सुलगाया। फिर साथ-साथ, चोरी-चोरी हुक्का खींचा भी।
जब मुस्तकीम ने चांद का किस्सा पूछा तो बाहर खड़े भगज्जी ने कहा, 'अबे साले कटुए, तुम तो उस जमाने में कहीं दुनिया जहान में थे ही नहीं। तेरा यो इस्लाम तो अभी थोड़े ही दिन का बच्चा है। यें तो बहुत पहले के जमानों की कथा हैं। बस मोटा-माटी और डेढ़ हरफी बात यो है, जैसे बशीर गुरजी की उस्तानी तेरे गाल चूमके तूझै छाती में भींच लेवे थी। और साले एक दिन तो उस्तानी ने तेरा नाड़ा भी खोल दिया था। बशीर गुरजी भी उसे सौ तालो में बंद करके रखैता। रही उस्तानी की बात, वो तो पूरी गाल-गुलाबी थी ही। साले तू ही तो मजे ले-लेकर बताया करै था।' यह कहकर उसने मुस्तकीम को घेर लिया।
'और बस, फेर बशीर गुरजी ने तेरा वो ही हाल किया जो गौतम महाराज ने चांद का किया। साले, तेरी खोपड़ी पे दे जूत और दे जूत। कान पकड़ के स्कूल से बाहर कर दिया। तू भी तो अब तक रोवै अपनी तालीम कू।' उस्तानी के जिकरे से मुस्तकीम शर्म से लाल तो अब भी हुआ। मगर वहां अंधेरा था।
'हां भगज्जी! कुछ तालीम होत्ती तो कहीं कुछ और ही होत्ते।' मगर वह एक ही पल के अफसोस वाला मुस्तकीम रहा। झट से पलट कर अगले ही पल वो तुरंत बोला, 'तू कहीं भगताई करके भगज्जी बणता तो कोई बात थी, पर तू तो साले थाने में चीं बोलके भगज्जी बणा था।' मुस्कीम ने भी पटकी मारी। 'आज तो थारे दोनो के पगहे पूरे खुले हुए हैं। आज यहां मालिक साब गांव में है नी, वरना उसेक सामने तो थारी फूंक सरकै।' आखिर काफी देर से चुप रामी ने दखल दिया ही। फिर वह उन दोनों को ही लपेटता हुआ बोला, 'थारे दोनो के हिसाब से, बशीर गुरजी तो उन गौतम महाराज जैसा हो गिया, और अहिल्या बाई हो गयी,गुरजी की उस्तानी जैसी। अने तम ये कहीं के कुलाब कहीं ना भिड़ाओ। अव्वल तो सास्तर थारे जैसे जिनावरो के लिए बणै ही नहीं। वोतो स्वामी लोगों कू जलसे के दिन पूरे करने हैं, वरना थारे जैसों के साथ तो उन्हें कलाम भी नहीं करना चाहिए।' रामी बढ़ चढ़ कर सीख देने लगा। सही बात यह है कि उसे चर्चा में शामिल होना था। वह उन्हे किनारे लगाने की ही धार पर बोलता रहा,
'सास्तर का भी यार क्या तो, तेरा-मेरा, और क्या हिन्दू या मुसलमान का, वो तो सबका होवै।'
'सबका क्या खांमखां हौवे' रामे काके उसकी औकत बताते हुए, भगज्जी ने टौंट मारते हुए कहा,
'बता इन औरतों और चमारों कू, इन सास्तरों में धौंस देने के अलावा, क्या है? इनका सास्तर तो कोई सा भी नहीं।'
पहलवान जलसे वाली मंडली को दूध पिलाकर वहीं आ गया। बाल्टी में पड़े खाली गिलास खनका कर, अपनी हाजिरी भरते हुए बोला, 'देखो भाई थारे मसले का तो हमें पता नी, पर भाई थारे बीच यो औरतों का क्य जिक्र था?' पहलवान ने पूछा।
'तू तो साले हर जगह औरतों को ही सूंघता फिरो जावै।' हंसते हुए रामी ने कहा। फिर उनसे लब्बो-लुवाब सुनकर, पहलवान तुरंत बोला, 'इन सारे सास्तरों में इन औरतों के ही तो पेंच टैंट कर रखे। आखिर सास्तर लिखने वाले सारे के सारे थे तो मरद ही। भाई इसीलिए तो सास्तर, इन्हे पूरी धौंस देके रखैं, के बीर अपने मरद के ही खूंटे से बंधी रहियो, और गर पैंखडी तुड़ाओगी तो सास्तर में हिल्या बणा देने का बिधान तो है ही। पर भाई ये फेर भी काबू में नी रहतीं। नेकी राम ने वो रागनी इन्हीको सुनाने को तो गायी थी-
'जब भी कूयलिया कूकै, मेरा जियरा हूकै। मैं मयूरी मोर की,
नाचूंगी जरूर, चाहे जान जाती रहियो..,..,.।'
यहां चुप रहना या, दूसरे की बात को तरजीह देना, बस यही तो यहां मुमकिन नहीं है। बात सास्तर की तरफ को घूम गयी तो, फिर घूम ही गयी। रामी ने बात का सिरा अपने हाथ में ही रखा और बोला, 'भाई गौतम महाराज तो बिचारा ढिल्ला-ढाल्ला था, उसके तो पौरष थक लिए थे, तभी तो चांद और हिल्या बाई कू खाली सराप देके छोड़ दिया,' अपनी बात को वजनी बनाते हुए उसने आगे कहा, 'वरना, अगर चांद ने यो हरकत परशुराम महाराज जैसे के साथ करदी होत्ती ना, तो भाई फरसे से खून-खच्चर मचा देता, और इस चांदकू तो नेस्तनाबूद ही करता। वो करेर बाज था, अपने बापके इशारा करते ही अपनी मां की गर्दन मिन्टो में कलम कर दी थी।'
'चांद कू नेस्तनाबूद करके, फेर खुदा की इस खायनात का क्या होगा? अब मुस्तकीम ने बात सवालिया ढंग कही तो, पहलवान को जवाब भी देना था, साथ ही मुस्तकीम को भी चुप करना था, वह बोला, 'होत्ता क्या, बस हजारों साल लम्बी रात होत्ती, वैसे तो तू चुप ही रो, क्यूं के तू, यो तेरा इस्लाम, तेरा खुदा और पीर पैगम्बरों का, तब कहीं कुछ नामोनिशान था ही नहीं। उस टैम तो वहीं कहीं दजला-फरात के, रेत के टिल्लो में दफन पड़े होंगे। उस टेम के सास्तर में थारा कोई जिक्रा ही नहीं।'
मालिक गांव में आ गया था। चांद अभी छोटा ही था। उसकी साफ-सफाक चांदनी ने सारी उमस सोख ली थी। सामने की तीन चौथाई दीवार चांदनी में नहायी हुई थी। गैलरी के दरवाजे पर पेन्ट से लिखा था - मालिक राम दयाल, उसी के ठीक नीचे मिस्त्री-कुतबुदीन। रामदयाल, इस लिखे हुए की वजह से, तभी से वह गांव में मालिक हो गया था।
जलसे में देवताओं, परियों, ऋषियों और शास्त्रों के किस्से थे। स्वर्ग-नर्क, श्रापों और वरदानो के चमत्कारों की कथाएं, और नेकी राम की रागिनियां तो लोगों की जुबान पर थी ही। नेकी राम की चांद पर जाने की बात भी मालिक को याद थी। हजारों की आबादी के गांव में, सिर्फ वकील के ही पास अखबार आता है, वो भी डाक से तीसरे दिन। वकील से कुछ पूछता भी तो एक महाभारत को नोतना है। पहले कभी, किसी दिन मालिक ने उसकी वकालत के बारे में लोगो को बताया था। इसका बाप मुंसिफ की घोड़ी का साईस था, बस वहीं, इसने और घोड़ी ने वकालत की पढ़ाई साथ-साथ पढ़ी। तब से इनका खानदान ही, वकीलों वाला हो गया।
गांव तो अपनी चाल में चल ही रहा था। अभी जलसा हुआ ही था। अगले महीने नौटंकी आ जायेगी, उसके बाद बाला सुन्दरी का मेला आ लगेगा। गांव-गवांड की इतनी खलकत में से, आखिर मालिक ही पहुंचा वकील के पास। गोल चश्मे के ऊपर से वकील ने तिरछी-बंकी आखों से मालिक को घूरा। फिर भी मालिक की उत्सुकता के सामने वकील की अकड़ ढीली पड़ गयी। फिर वकील ने अखबार में छपा वो फोटू भी दिखाया, जिसमें रूई के बोरे और सफेद भालू जैसा, गदबदा सा कोई इंसान चांद पे खड़ा था। मालिक की समझ में तो कुछ नहीं आया, फिर भी वो बहुत देर तक उस अखबार को यूं ही देखता रहा।
वे लोग तो अब नौटंकी की चर्चा में मशगूल हो गये थे। कईं दिनों से मालिक उन्हे दिखाययी नहीं पड़ा था। वह अपने काम-धंधे मे लगा हुआ था। बीच-बीच में कई बार उसे अखबार के उस फोटू का ध्यान आता तो वह जैसे खुद से ही पूछने लगता,
'आखिर क्यूं गये होंगे वे चांद पर।' उसका सवाल, बस सवाल ही बना रहा।
नौटंकी की तैयारी में वे तीनो, मालिक की गैलरी पर ही आ गये। बरसों से नौटंकी का उसे भी जुनून सा था। मगर इस बार वह काफी ढीला-ढाला सा था। 'आओ भाई, आओ' कहता हुआ वह अपने उस खोल से बाहर निकला। पिछली कई बार का फैसला, हमेशा मालिक के लट्ठ गाड़ देने से हुआ था। वह ऐसे ही ढीले-ढाले ढंग से बोला, 'अव्वल तो क्या नौटंकी, पर चलो, उन दिनों के चांद का हिसाब देख लियो।'
'ठीक कहरा मालिक, बस पूरणमासी का बीच करलो, दो दिन पहले और दो दिन बाद के। तब चांदनी पूरी खिली रहैगी।' यह कहते हुए पहलवान ने तजवीज की।
'भाई पहलवान बात तो तैने दिमाक लड़ाके सोच्ची', रामी, पहलवान पर टौंट करता हुआ बोला, 'पर दिमाक तेरे में होत्ता तो हम तूझै बालिस्टर कहा करते, तूं तो हम भी, वही कोई तारीख ठोक देते। यहां मालिक के पास क्यूं आते। असल मसला तो वो है जो नेकी राम उस दिन जलसे में बता रहा था। अगर वे चांद पे उसी दिन चले गये तो क्या होगा? यह कहकर रामे ने चांद का मसला सामने रखा।'
'वहां साला कोई नी फटक सकता, तम खांमखां ना डरो' भगज्जी ने पूर दानिस्ता तौर पर कहा और अपनी बात ओर भी साफ की, 'उस दिन जलसे में स्वामी जी ने पूरा सास्तर खोल के तो रख दिया था, के गौतम महाराज के सराप में यो भी शामिल है, के नातो चांद पिरथवी की तरफ आ सकता, और ना यहां से कोई वहां फटक सकता। वो तो तब से ही दागी है, तभी तो पन्द्रह दिन अंधेरे में मुंह छिपाके रोवै है।' सास्तर की इतनी सकत ताईद करने में भगज्जी की छाती फूल गयी।
'भगज्जी, तू तो मुगालते मे है ही', रामी ने भगज्जी की बात काटते हुए कहा, 'भाई, हमें तो यूं लगै कि वो बिचारा स्वामी जी भी मुगालते में ही था। भाई वो बिचारा सास्तर की बिनाह पे ही तो कहवै था कि वहां कोई नहीं फटक सकता। वो अमरीका वाला तो इतना ऐबदार है के, वो तो यूं कहै कि ये सात समन्दर पार वालो के, पुराने जमाने के सास्तर मेरे पे इसलिए लागू नहीं होत्ते, के, मैं तो दुनिया के सामने ही बोहोत बाद में आया।'
'हां भाई भगज्जी यो तो रामे की बात सही है। जब बशीर गुरजी पढ़ाया तो करैं थे, के, वो कुलमभस बिचारा समन्दर में रस्ता भटक के चाणचक ही वहां पहुंच गया था। बस दुनिया में इसकी सिनाकत हो गयी। बस जी, असल चूक तो कुलोमबस से ही हुई, नहीं तो भाई मुंह फेर के आंख मींच के, कहीं आगे कू निकल लेता। बस अब तो उसकी हेकड़ी सारी दुनिया कू भोगणी ही पड़ेगी।'
उनकी इतनी दलीलें सुनके भगज्जी की फूली हुई छाती तो ढीली हो ही जानी थी। फिर भी अपनी सास्तर वाली बात का बचावा सा करता हुआ बोला, 'असल मे, इन सारे हिन्दवी, ईसाइयत और मुसलमानी सास्तरों ने, इस दुनिया कू इतना ही मानके सारा कुछ पहले ही लिख मारा, और उनमें इस अमरीखा के कान खीचने का कोई जुगाड़ है ही नहीं। बस ना वो इन्हे मानता और ना इनसे डरता।' भगज्जी ने बात खत्म मानते हुए लम्बी सी सांस छोड़ी। मगर रामी के रहते आखरी बात कोई ओर दूसरा कैसे कह सकता है। उसने नौंटकी के मसले को अलग रखते हुए, फिर यही लाइन आगे को बढ़ा दी। वह गला खंखार कर बोला, —
'भाई नेहरू पंड्डजी तो जलसों में कहो जावै था, के मेरे सुणने मे आया के रूस-चीन के मुलको ने उन पुराने वालो कू फेंक के, अपना कोई नया सास्तर लिख लिया। वें तो दोनो अलबत्ता इस अमरीखा कू घुडकी दियो जावैं। उनसे तो इसकी भी फूंक सरकै।'
'भई पंडज्जी के जलसे तो हमने भी सुणे, पंडज्जी सुणी-सुणयी क्ंयू कहता, वो तो रूस के मुलक में ऐन मौके पे वहां गया था, और सारा तामझाम अपनी आंखों से देख के आये थे। वहां का सारा मौका मिजान देखके पंडज्जी की आंखे चौड़ी हो गयी थी, के 'इनके इस लाल परचो वाले सास्तर ने तो कमाल ही कर दिया, बस टोप्पी उतार के हैरत में सिर ही खुजाता रहा। फिर अपनी माफकियत के दो चार परचे वहां से लाके, यहां अपने मुलक की कनूनी किताब में अलबत्ता उन्होने जुडवा दिये थे। बस इससे ज्यादा बिचारे पंडज्जी का बौंत था नही। इस दिन नेकी राम अपनी रागनी में तभी तो इंदिरा से सवाल कर रहा था। उसने ने तो भाई पंडिज्जी से अलग लाइन पकड़ ली। अब तो वा पंडज्जी के उन परचों कू ही किताब से फाडऩे की फिराक मे है। योतो पहली ही अकडबाज है, पंडज्जी की बात तो इस इंदिरा ने अपनी शादी मे ही नहीं सुणी थी। बात का मतलब यो है के, यो अमरीखा भी किसी नही सुणता, और भाई उसके भरोसे तो यहां नौटंकी होने से रही।''
'भाई घुमा फिराके बात क्यूं कहरे। हमने ही कौनसा गलत कहा था? के, अगर उन्होनें उसी दिन चांद पे दबिश दे दी तो, यहां नौटंकी का मजा किरकिरा होगा के नहीं।' अब भगज्जी ने भी साफ तौर पर पहलवान का पच्छ लिया।
पहले के दिनो की बात रही होती तो अब तक मालिक जूता इनकी खोपड़ी पे पड़ चुका होता। मालिक कई दिनों से उलझा-पुलझा सा है। अब भी इन सबकी बातों में उसने कोई हुंग्गारा नहीं भरा। वे सब तो चुप रहने वाले थे। नहीं। अब वे आगे कुछ और बोलते इससे पहले मालिक ने यूं ही सफाचट ढंग से कहा, 'तम्हे तो गाल बजाने से ही फुर्सत नही है। खांमखां की चक्कलस करते फिरो, वकील के रेडियो और अखबार ने बताया के परसो सप्तमी के दिन वे चांद पे पहुंच भी गये।'
पल भर को जैसे वे तीनो झन्न हो गये। फिर जल्दी-जल्दी तीनो एक साथ ही बोल पड़े, 'झूट, सफेद झूट' अब मुस्तकीम भी उनके साथ लग लिया था।
'भाई वकील और उसके रेडिय़ो कू मुगालता लग गया हागा, वे साले झूट बोलरे, कहीं और मुंह मार के आ गये होंगें, वकील कौनसा उन्हे देख रहा था, उसकी तो आंखो को बिनाई वैसे ही कमजोर है। उसे दीखता तो बिटोड़ा नही। अव्वल तो उसने इस मालिक कू भी चकमा दिया होगा।' मुस्तकीम हाथ उठा-उठा कर मालिक के भी मुगालते की चपेट मे आ जाने की तरफ इशारा करते हुए आगे बोला, 'इस मालिक के साथ तो वकील की वैसे ही पुरानी खुन्नस है, वो इसे सही बात क्ंयू बतावैगा? मुस्तकीम अड़कर दलीलें दे रहा था। अब वह भगज्जी से पूछने लगा, 'हिसाब लगाके बता कौण सा दिन था, उस दिन?'
भगज्जी ने जेब से मालिक को दी हुई कागज की एक पुर्जी निकाल कर सामने पटकते हुए बोला,
'लो, बांच्चो इसे तम ज्यादा बडे मुंसिफ बणरे। इतवार का दिन था और सवेरे के साढे चार बजे थे। तम अपनी नौंटकी का मसला तय करलो और अपना रास्ता नाप्पो, यहां खांमखां की झक ना मारो।'
मुस्तकीम ने उस पुर्जी को ध्यान देकर पढ़ा तो वह और भी चौड़ा हो गया। उसके जेहन में उथल-पुथल तो पहले से थी ही। वह बोला, 'अब नौटंकी-फोटंकी तो गयी भाड़ में, भाई भगज्जी तैश तो खावैना, लेकिन अगर यो जलसे से अगले ही दिन बात है तो, फेर यो सौफिसदी गलत है। क्यूं के इतवार का दिन था, उस दिन। और भाई म्हारे तो पाणी का ओसरा भी उसी टैम है।' फिर उसने उन सभी को शामिल करते हुए कहा, 'तम्हे तो सब कू पता है, के जफरूल्ला हज्जी तो किसी के लियो अपने पाणी की एक बूंद नही छोड़ सकता। हज के बाद तो वो ज्यादा ही हडकाया सा होरा। तब वो अपनी वो हज वाली ही घड़ी लियो, वहीं पाणी की गूल मे ही खडा था, और हम दोनो $फजर की अजान की इंतजार मे बस चांद कू ही देखरे थे।' मुस्तकीम ने अपनी बात मे जफरूल्ले हज्जी की भी गवाही भर दी। रामी भी अन्दर ही अन्दर खुदबुदा रहा था, वह भी बोल पड़ा, 'उस दिन मैं अजान से पहले ही, पहलवान से जुआ मांगने गया था' यह सुनते ही पहलवान ने हामी मे मुंडी हिलायी। रामी बोलता ही गया, 'पूछलो इससे जब यो सवेरे ही बैठा अपनी मुंडी भैंस का दूध निकालरा था। चांदनी इतनी साफ थी कि दूध की बाल्टी भी दूर से ही चमकरी थी, उस टाइम तो चांद ने एक पल की भी झपकी नही खायी।'
'भाई थारे दोनों के बयान सही हैं।' यह कहकर पहलवान अपना सिर खुजाने लगा। उस टाइम चांदनी वाकई साफ थी। फिर बात का बीच बचावा सा करता हुआ वह बोला, 'भगज्जी सुण, वे तो सौहरे वहां गये कि नहीं गये, मगर यें म्हारे नेता तो अब इस चांद के नाम पेही चंदा खसोटना शुरू कर देंगे, जैसे अभी के इलक्शन मे लूट मचायी थी। सच्ची बात यो है के आखिर बाल तो भेड़ की ही खाल से उतरेगें।'
अब, जब पहलवान भी नौटंकी की मसला छोड़ कर इस लफडे में इन्हीं के साथ लग लिया तो, भगज्जी झुंझलाकर इन सबको नापने उठा ही था कि, तभी तख्त पर रखी लालटेन की चिमनी पर अचानक एक मक्खी आकर बैठ गयी। उस मक्खी की परछाई सफेद पुती दीवार पर पड़ रही थी, जिससे उस दीवार का काफी बड़ा हिस्सा कालस से भर गया था। भगज्जी उन्हें कुछ अन्ट-शन्ट हडकाता, इससे पहले ही मुस्तकीम की नजर यूंही दीवार पर पड़ी तो वह एकदम से चिल्ला पड़ा, 'यो देख, यो देख भगज्जी, भाई मालिक साब अब तू भी फौरन आ, तम सब के सब वहां देखो दीवार पे' वह सबको दीवार की तरफ इशारा करते हुए, अचम्भे से बोला, 'देखो तो, इस जरा सी मक्खी की वजह से आधी दीवार काली हो गयी' के नही?, अपने इस सवालिया लहजे में ही वह आगे बोला, 'बस ऐसे ही, गर वहां चांद पे अगर कोई उतरता तो, यहां जमीन पे और यहां गांव मे अंधेरा छा जाता के नहीं?'
वे तीनो भी मुस्तकीम की तरफदारी में चिल्ला ही पड़े। उन्हें खुद भी पता नहीं था कि वे चांद की इतनी तरफदारी क्यूं कर रहे हैं। काफी देर से उधर और चुप सा बैठा मालिक उठकर उनके पास ही आ गया। तब तक लालटेन से मक्खी उड़ गयी। उनके पास बतौर सबूत अब कुछ भी नहीं बचा था। उनका जोश ढीला पड़ गया था। किसी अनजान सी आशंका में घिरा मालिक यूं ही कह रहा था, 'यो सिर्फ थारे बीच की रजामंदी का मामला नहीं है, जब वे वहां पहुंच ही गये और' कहता-कहता मालिक कुछ अटक सा गया था। वे चुप होकर उसकी तरफ देखने लगे।
'और, कलकू वे वहाँ चांद पे काबिज हो गये तो...।' उसकी भारी आवाज जैसे कहीं दूर से आकर किसी गहराई में उतरती चली जा रही थी। वह कह रहा था, या शायद कहना चाह रहा था,
'और ये जो अभी मुफ्त की चांदनी थी, अब, आगे का क्या पता...।'
यह सवालिया चुप उन पर ज्यादा भारी होती जा रही थी, और वह खुद भी आगे कुछ बोल नहीं पा रहा था।

सम्पर्क :- एम.के.पी. कालेज, आवास परिसर, देहरादून-248001, मो. 09412116115


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