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सितम्बर - 2018

शब्दों का मंडल—यानि अशोक वाजपेयी की कविता

प्रेमकुमार मणि

नये प्रकाशन-एक

अशोक वाजपेयी

 

 

                                                                                        (1)

 

''शब्दों का मंडल’’ पोलिश विदुषी रेनाता चेकाल्स्का की किताब का नाम है, जिसका वण्र्य हिंदी कवि अशोक वाजपेयी की कविता है। कायदे से किताब का पूरा नाम है- 'शब्दों का मंडल : अशोक वाजपेयी की कविताओं की सांस्कृतिक वास्तविकताएं’’। यह किताब मूलत: पोलिश भाषा में 2005 ई. में लिखी गयी। लेखिका द्वारा ही 2017 ई में अंग्रेजी में संस्करित हुई और 2018 में, यानि अभी तुरत, अंग्रेजी से हिंदी में आलोचक मदन सोनी द्वारा अनुदित हो, प्रकाशित हुई है। मूल पोलिश में पुस्तक का नाम- Traktat o sztuce celebracji czyli glowne strucktury tematyczne w liryce asoka wadzpeji. Analizy’’ यानि ''उत्सव की कला पर प्रबंध, या अशोक वाजपेयी की कविता की प्रमुख विषयपरक संरचनायें। विश्लेषण।’’ है।

रेनाता चेकाल्स्का ठीक उस साल जन्मीं, जिस साल अशोक वाजपेयी की पहली कविता-पुस्तक प्रकाशित हुई। यानि 1966 में। इसे एक संयोग ही कहा जाना चाहिए। वह पोलैंड के एगिलोनियन विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफ़ेसर हैं। भारत और दक्षिण एशिया की सांस्कृतिक विरासत पर उनकी विशेषज्ञता है। उपरोक्त प्रक्षेत्र के आधुनिक इतिहास और समकालीन साहित्य में उनकी गहरी दिलचस्पी है, जिसकी जानकारी इस पुस्तक से हमें मिलती है। मैंने पुस्तक इसलिए भी पढ़ी, कि मैं जानना चाहता था कि कोई विदेशी विद्वान् हमारी भाषा और साहित्य को कितना और किस रूप में समझ पाता है। अपनी चीजों पर विदेशी, जिसे मैं परलोक कहता रहा हूँ, के नजरिये का एक अलग महत्व होता है। भारतीय इतिहास-संस्कृति और भाषा-साहित्य के अनेक विदेशी अध्येता रहे हैं। हमारे बुद्ध और कबीर को इन अध्येताओं ने ही रेखांकित किया है।

हिंदी कविता, मेरा प्रिय क्षेत्र नहीं रहा है। कारण कि इसे अच्छी तरह समझने और इससे तादात्म्य स्थापित करने में मैंने स्वयं को अक्षम अनुभव किया है। कविता पर जब कभी मन की बात कही-लिखी है, कुछ मित्रों को नाराज़ किया है। इसलिए चुप रहना बेहतर समझा है। लेकिन जब कभी इत्मीनान का अवसर मिला है, इनका एकांत-उत्सुक पाठक बनना चाहा है। इस आकर्षण के बावजूद, हिंदी कविता से मेरी जबरदस्त शिकायतें रही हैं। पहली शिकायत है कि यह अपने चरित्र में बुनियादी तौर पर बहिर्मुखी है; और सब मिलाकर इसके अवचेतन की पाश्र्वभूमि सांस्कृतिक-राजनैतिक-सामाजिक गुलामी के राग-रेशों से गझिन रूप से बुनी प्रतीत होती है। इसीलिए आज भी यहां बढ़े  चलो-बढ़े चलो की वीरगाथात्मक अंतध्र्वनियाँ सुनी-समझी जा सकती हैं। यह एक कायर-डरे हुए देश-समाज का मनोविज्ञान है। संभवत: यही कारण है हमारी कविता के पूरे वितान में मौन और अनुराग की तकलीफदेह अनुपस्थिति है। प्रेम की सम्भावना यहां मुश्किल से बनती है। अपनी युवावस्था में मुझे अनुभव होता था की राष्ट्रीय और सामाजिक दाह से गुजरने के कारण कविता में कल्लोल के अभाव की स्थिति है, जैसाकि हिंदी कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान ने अपनी एक कविता- वीरों का कैसा हो वसंत- में कभी यह महसूस किया था। लेकिन जब भक्तिकाल के कवियों, खासकर तुलसी और कबीर, या फिर मीरा, को अलग-अलग देखा, तब पता हुआ, इसका कारण कुछ और है। कबीर और तुलसी का समय अलग-अलग था। हम कह सकते हैं कि कबीर का समय तुलसी से कहीं अधिक कठिन था। लेकिन कबीर की कविता में जो उल्लास और कल्लोल है, राग और प्रेम की जो केन्द्रीयता है, वह तुलसी की कविता में नहीं है। तुलसी की कविता में बाज दफा रुदन और हाहाकार इतने घनीभूत होते हैं कि एक कोहराम का सृजन होता है। वहां डग-डग पर गहरा विलाप है। तुलसी का व्यक्ति रूप और समाज रूप- दोनों रोते रहते हैं। रामचरित मानस यदि उनकी आत्मकथा भी है तो राम जैसा दुखी नायक शायद ही मिले। वह छाया युद्ध करता रह जाता हैं। रावण से तो लड़ लेता है, लेकिन अपने असली शत्रु उस वशिष्ठ से नहीं लड़ पाता, जो उनके वनवास का मूल कारण था। व्यवस्थाओं के टूटने-बिखरने से तुलसी दुखी हैं। वह जार-बेजार रोते हैं। लेकिन कबीर जागै और रोवे का पद तो कहते हैं, किन्तु हमेशा उल्लास से पगे मिलते हैं। वह व्यवस्थाओं के टूटने से परेशान नहीं हैं, बल्कि उसे जल्दी तोड़ देने का आह्वान करते हैं। रूसी लेखक चेखब अपनी एक कहानी में कहते हैं- जीवन को उलट-पुलट दो। कबीर बहुत पहले जीवन और जगत को उलट-पुलट देने का आह्वान करते हैं। वह अव्यवस्था की व्यवस्था सृजित करते हैं, जो ज्यादा कज्जल, पवित्र और भविष्णु है।

आधुनिक हिंदी कविता अपने कुलीन चरित्र के कारण तुलसी की चेतना से अधिक संस्कारित हुई, कबीर से कम। इसलिए रुदन, कोलाहल और अविमर्श उसके आत्मतत्व बन गए। हिंदी कवि को हमेशा कुछ चाहिए होता है और उसके पास देने के लिए कुछ है, तो दु:ख व तनाव। मैं उदाहरणों में जाकर आपका मूल्यवान वक़्त जाया करना नहीं चाहता, केवल अनुरोध करना चाहता हूँ कि अपनी विरासत पर एक विहंगम दृष्टि डालें, पाएंगे कि दीनता और दयनीयता धारण किये बिना हिंदी कवि पूर्णता प्राप्त कर ही नहीं पाता। वह चाहे तुलसी हों, या निराला। इनकी कवितायें कोलाहल की कवितायें बन कर रह जाती हैं। कबीर, रैदास और मीरा की कविताओं में वह कोलाहल क्यों नहीं है, जब कि उनके जीवन में दु:ख अपेक्षाकृत अधिक थे।

निश्चय ही मैं विषयांतर होने लगा। हालांकि इसके अपने आनंद हैं, जैसे देशांतर और देहान्तर होने के। लेकिन फिलवक्त तो इससे बचने की कोशिश करनी ही पड़ेगी। मेरा वायदा रेनाता की किताब पर बात करने का है, जो अशोक वाजपेयी की कविता पर केंद्रित है। इसलिए हम वहीँ लौटना चाहेंगे। मैं कविता सुकून के लिए पढ़ता हूँ, अपने भीतर के भीतर उतरने के लिए, अपने में डूबने के लिए। और महसूस करता हूँ, मेरी इस मनोदशा को अशोक वाजपेयी (पूरा नाम इसलिए देना पड़ रहा है कि सिर्फ वाजपेयी कहने से लोग अटलबिहारी वाजपेयी की कविता न समझ लें।) की कवितायें समझती हैं। कहूं, कि उनकी कविताओं से क

मोबेश अपुन का एक रिश्ता बन जाता है। उनकी ज्यादातर कविताओं में, यहां तक कि प्रेम कविताओं में भी ईश्वर निरपेक्ष प्रार्थना की एक अनुगूँज होती है, जैसा कि टैगोर की कविताओं में है। कोलाहल से स्वाभाविक परहेज और मौन का अंतहीन विस्तार इन कविताओं के आधारभूत तत्व होते हैं। अनंत, आकाश, सम्भावना जैसे शब्द कवि के प्रिय है और इनके अर्थ की मर्यादा का वह संभव निर्वहन करते हैं। वहां कबीर की तरह कल्लोल का किंचित अभाव अनुभव होता है, इसलिए किसी अनहद बाजे को भी हम यहां नहीं पाते, लेकिन उल्लास का कोई अभाव नहीं दीखता। अशोक की कवितायेँ दरअसल एक भिन्न मिज़ाज़ को हमारे समक्ष लाती हैं। किसी अन्य का प्रभाव तलाशना संभव ही नहीं होता। भूमिका में ही रेनाता बतलाती हैं- ''अशोक वाजपेयी की कविता को उसके कलात्मक महत्व के परिप्रेक्ष्य में देखा जाय तो वह अपने में स्वतन्त्र है, लेकिन उसको उसकी विषयवस्तु की दृष्टि से देखने पर वह आधुनिक मनुष्य के महत और वैश्विक अस्तित्वपरक अभिप्रायों को, उनके साभ्यतिक और सामाजिक सन्दर्भों में समेटती है।’’ रेनाता के अनुसार- ''इस अध्ययन में वाजपेयी की कविता के केंद्रीय पक्षों के साथ-साथ उसके विवक्षित अर्थों, अर्थछवियों, व्यंगार्थों आदि की अंदरूनी परतों का विश्लेषण किया गया है। यह शोध उनके 1966 से 2016 के दौरान पचास वर्षों में प्रकाशित पंद्रह कविता संग्रहों में शामिल एक हज़ार से अधिक कविताओं पर आधारित है।’’

किताब के चार अध्याय हैं, जिनके शीर्षक हैं- कविताओं का आंतरिक भूगोल, अनुभवकर्ता विषयी की पहचान, प्रेम का सृष्टिवैज्ञानिक रूप और शब्द का यथार्थ और मिथकीय कार्य-व्यापार। उपसंहार का शीर्षक ''शब्दों का मंडल’’ पुस्तक का शीर्षक बन गया है।

 

                                                                                             ( 2 )

 

पुस्तक, मैंने रुक-रुक कर, और बाज़ दफा कोई पृष्ठ या प्रसंग दुहरा-दुहरा कर पढ़ी है। यह इसलिए भी कि रेनाता का यह नि:शब्द आग्रह होता था। कोई स्वादिष्ट व्यंजन आप एकबारगी भकोस नहीं सकते। आस्वाद की गहराइयों में उतर-उतर कर, ठहर-ठहर कर ही हम उसे ग्रहण करते हैं। इस किताब को आप विहंगम नज़र से नहीं देख सकते। इसकी गहराइयों में उतरने पर आप ठहरने लग जाते हैं, अंतर्मन में विमर्शों की इतनी आवाजाही होती है कि गति तेज रखना मुश्किल हो जाता है। जैसे पहला ही अध्याय है-  कविताओं का आतंरिक भूगोल। अब भला, कविताओं के इतिहास-भूगोल की बात शायद ही किसी के दिमाग में आवे। लेकिन रेनाता के विमर्श का यह अथ ही है। कहती हैं- ''अशोक वाजपेयी की कविता में समकालीनता के गहनतर दृष्टान्त तब उभरते हैं, जब भाषा की सतह और गहन संरचनायें एक दूसरे को काटती हैं।’’ वह कवि के संकलन 'एक पतंग अनंत मेंकी कविता 'पिता के जूतेको केंद्र में रख कर बात आरम्भ करती हैं, विशेष कर इन दो पंक्तियों के साथ—

वे सपना देखते हैं नन्हे पैरों का

जिनके लिए वे हमेशा बड़े साबित होंगे।

कविता में एक जटिल और अबूझ, कुछ-कुछ रहस्यपूर्ण बिम्ब उभरता है। जूते सपना देखते हैं। पिता के जूते सपना देखते हैं, और उनके सपनों में उभरते हैं नन्हे-नन्हे पैर, जिनके लिए वे अनुपयुक्त होंगे। एक जटिल लेकिन स्नेहिल दुनिया उभरती है। कविता के पाठक का मन सपनों में खो जाता है। वह कई काल-आयामों, कहें, मन्वन्तरों की यात्रा कर कविता का अर्थ प्रकट करना चाहता है; किन्तु कविता के तमाम अर्थ प्रकट किये जा सकने क्या संभव होते हैं? कबीर ने एक पद में कहा है, गूँगा व्यक्ति गुड़ का स्वाद अनुभव तो कर सकता है, प्रकट नहीं कर सकता। सच्ची कविता का सच्चा अर्थ सच्चे पाठक के लिए प्रकट करना मुश्किल होता है। रेनाता बतलाती हैं- ''वाजपेयी के काव्यशास्त्र में एकल वाक्यों के भीतर गहनतर संरचना क्रियाशील होती है .... साथ-साथ ये पंक्तियाँ दार्शनिक चिंतन के एक व्यापक इलाके की ओर भी संकेत करती हैं। वे कविता और दर्शन के बीच के जटिल सम्बन्ध का एक उदाहरण है, और साथ ही अमानवीय सत्ताओं तक व्याप्त संवेदना को चित्रित कर सकने की भाषा की संप्रेषणात्मक क्षमताओं का भी उदाहरण है। भारत में यह दार्शनिक चिंतन का एक व्यापक वर्णपट है, जिनका सार 'अहम ब्रह्मास्मिऔर 'तत त्वं असिजैसे औपनिषदिक कथनों में देखने को मिलता है। दूसरी ओर, योरोप में, विचार की एक परंपरा है, जिसकी शुरुआत डिमॉक्रिट्स के भौतिकवाद से होती है और जो सत्तामीमांसात्मक सिद्धांत स्थूलतावाद (रीइज्म या कांक्रिटिज्म) से होती हुई हाइडग्गर की कृति बीइंग एंड टाइम में प्रस्तुत लोगास की व्याख्या तक जाती है। दो सभ्यताओं की दार्शनिक अवधारणाओं में इन दो पंक्तियों का गुँथाव ऐसी अर्थध्वनियों की रचना करता है, जो पिता के जूतों के प्रश्न से दूर की प्रतीत होती है, लेकिन जो वस्तुओं के रूप में देखे गए जूतों के वजूद से उत्पन्न होती हैं।’’ (पृष्ठ 18-19) कविता के अर्थ ढूंढने का, रेनाता के तरीके की, यह एक बानगी है। ऐसे दिलचस्प उदाहरणों से यह पूरी किताब अटी-पड़ी है।

मुक्ति अथवा आज़ादी की कामना दुनिया भर के साहित्य की पहचान है। यह कामना व्यक्तिगत भी होती है और समष्टिगत भी। जब देश-समाज में वेदना या दु:ख सार्वजानिक होकर गहराता है, व्याप्त होता है, तब कवि देश या उसके नव्य रूप राष्ट्र को सम्बोधित करता है; या फिर राष्ट्र की कामना के गीत गाता है। शांति काल में प्राय: वह विभिन्न आयामों में अपनी मुक्ति की कामना करता हुआ निसर्ग या अनंत का हिस्सा बनना चाहता है। इस प्रयास में नयी भावभूमियों या अभिव्यक्ति के नए आयामों का सृजन-प्रस्फुटन होता है। ये आयाम प्रेम के भी हो सकते हैं और तत्जनित अवसाद के भी। मैंने पहले ही कहा है अशोक वाजपेयी उल्लास प्रधान कवि हैं। लेकिन उनके यहां अवसाद नहीं है, यह कैसे कहा जा सकता है। प्रेम के साथ अवसाद का कुछ-कुछ अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। यह दीगर बात है कि किसी कवि में अवसाद इतना गहरा हो जाता है कि फिर प्रेम के लिए कोई जगह ही नहीं शेष रह जाती। अशोक की कविताओं में हम अवसाद की अवज्ञा-उपेक्षा देखते हैं। अपनी कविता में उन्हें प्रभावी नहीं होने देते। ग़ालिब और रवीन्द्र की कविताओं में प्रेम के साथ अवसाद भी प्रचुर मात्रा में है, लेकिन कालिदास और कबीर में बहुत कम। इस मायने में अशोक की कवितायेँ दोनों प्रवृतियों के बीच पेंडुलम की तरह डोलती प्रतीत होती हैं। एक आत्मवक्तव्य में कवि अशोक वाजपेयी अन्यत्र अपनी स्थिति स्पष्ट करते हैं- ''एक लगभग अकारण अवसाद की छाया में जीवन भर कविता लिखना विचित्र भले है, है सच। कुछ इस हद तक कि कभी-कभी यह लगता है कि कविता शब्दों से नहीं, बुनियादी तौर पर अवसाद से लिखता हूँ। कभी वह अपने घर में न होने, दूसरे घर में बसने का अवसाद है और कभी कुछ भी अंतत: न बचा पाने का, पर अवसाद एक मात्र या केंद्रीय सच्चाई नहीं था; बल्कि न तो सच्चाई का कोई केंद्र था, न अवसाद का। अवसाद के पड़ोस में एक पूरी धड़कती जीती-जागती, झगड़ती-झीखती, मटमैली और दमकती दुनिया भी थी। अवसाद के बगल में ही हंसी-ख़ुशी थी, प्रसन्नता और आह्लाद के अवसर और समय थे—लय और हर्ष के अनगिनत रूपाकार थे। इस पड़ोस को, मुझे उम्मीद और यकीन है, मैंने अपनी कविता में कभी नहीं छोड़ा।’’ (आधुनिक कवि : अशोक वाजपेयी, पृष्ठ-13)

 

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सम्भावना, रचना और अभिव्यक्ति के जो बुनियादी या वास्तविक अर्थ हो सकते हैं, वे सब, अशोक की कविताओं की पृष्ठभूमि बनते हैं। उनकी कविता में क्रांतियों की आंधियां नहीं, परिवर्तन और नैरंतर्य की चयापचयता है, जिन्हे आंकने के लिए एक दार्शनिक दृष्टि की दरकार होती है। उनकी कवितायेँ अत्यंत सहज हैं, जैसे जीवन; लेकिन यह सहजता ही किन्ही को जटिलता का आभास दे सकती हैं। 1959 में ही लिखी कविता 'अपनी आसन्नप्रसवा माँ के लिए तीन गीतमें कवि ने परंपरा की चौखट या लक्ष्मण रेखा की अवज्ञा की है और जिन शब्दों या भावों से अपनी कविता की निर्मिति की है, वह प्रयोग नहीं, साहस है और इससे ही एक सम्भावना स्पष्ट होती है कि भविष्य में कवि क्या कहने और करने वाला है। परवर्ती कविताओं में कवि ने निष्काम अथवा वायवी प्रेम को देह प्रदान किया। माक्र्स के शब्दों को उधार लेकर और थोड़ा इधर-उधर करके कहूं, तो सिर के बल खड़ी प्रेम कविताओं को पैर के बल खड़ा किया उसे ऐन्द्रिय बनाया।

कई संस्कृत कवियों ने ऐन्द्रिय प्रेम को अपनी कविता में अभिराम रूपाकार दिया है। कालिदास, भर्तृहरि, अमरु आदि कुछ उदाहरण हैं। हिंदी में यह रीतिकाल में अपने स्तर पर हुआ और फिर यह परंपरा कई कारणों से सुस्त पड़ गयी। रेनाता ने अपनी किताब में इस परिप्रेक्ष्य को स्पष्ट करने हेतु एक दूसरे हिंदी आलोचक सुधीश पचौरी को उद्दृत किया है- 'ऐंद्रियता को हिंदी कविता में कमतर नज़रों से देखा गया। वह चाहे शमशेर की ऐंद्रियता रही हो, या अशोक वाजपेयी की- ब्रह्मचारी और तपस्वी उससे नफरत करते हैं।

लेकिन रेनाता स्वयं इसकी अधिक सूक्ष्म विवेचना करती हैं- 'भारतीय संस्कृति के इतिहासकारों के बीच यह धारणा सर्वाधिक लोकप्रिय रही है कि ऐन्द्रिय प्रेम, आकांक्षा, आवेग और श्रृंगारिकता में जीवन्त दिलचस्पी, जो आरंभिक युगों से लेकर रीतिकाल की विशेषता रही, वह भारत के पहले एडवर्डिय और फिर विक्टोरियाई मूल्यों के संपर्क के नतीजे में आने की वजह से त्म हो गयी। ब्रितानियों ने भारत में शिक्षा का अपना आदर्श प्रस्तुत किया, जिसकी वजह से शैक्षणिक संस्थानों ने मूल्यों की औपनिवेशिक व्यवस्था का प्रचार किया। इस प्रक्रिया का एक नतीजा तथाकथित मध्यवर्ग का उदय है, जिसमें सरकारी कर्मचारी, दफ्तरी बाबू, अध्यापक, वकील, डॉक्टर, राजनेता आदि शामिल थे। और इसी वर्ग से अधिसंख्य समकालीन भारतीय लेखक भी आये। विदेशी पद्धति से शिक्षित अभिभावकों के बच्चों के रूप में उन्होंने विदेशी सौंदर्यात्मक और नैतिक मूल्यों से जुड़े सामाजिक आचरण के विदेशी तौर-तरीकों का अनुशरण किया। उसमे से थोड़े-से लोगों (अक्सर बुजुर्गों) ने ही भारतीय सौंदर्यशास्त्रीय परंपरा की ओर मुडऩा पसंद किया। अशोक वाजपेयी अपनी प्रेम-कविताओं में ऐसे ही लेखकों में से एक हैं।’’ (पृष्ठ 175)

मैं रेनाता की इस बात से सहमत नहीं हूँ, जिसमें वह आधुनिक भारतीय साहित्य में ऐन्द्रिय प्रेम, आकांक्षा, आवेग आदि की अनुपस्थित के पीछे एडवर्डिय और विक्टोरियाई औपनिवेशिक मूल्यों को कारण मानती हैं। आधुनिक हिंदी साहित्य का इतिहास बस सौ-सवा सौ साल का है। इसके उदय तक तो एडवर्डिय-विक्टोरियाई मूल्य अपने देश में ही ढह चुके थे। डी.एच. लारेंस का प्रभाव अज्ञेय पर देखा जा सकता है। ऐसे में रेनाता के दावे में दम कम दिखता है। लेकिन रूसो की तरह, उनके मत के विरुद्ध होते हुए भी, उनके इस कहे का मैं स्वागत करना चाहूंगा कि तर्क और विचार का एक कोण यह भी हो सकता है।

रेनाता ने अपने भाष्य में अपने कवि को औपनिषदिक चिंतन और संस्कृत की श्रृंगारिक काव्य परंपरा के वृत्त में लाने की बार-बार कोशिश की है, लेकिन मुझे प्रतीत होता है कि वह उन पर भक्तिकालीन कवियों के प्रभाव को आंकने से चूक गयी हैं। उन पर ग़ालिब और मुक्तिबोध का भी गहरा प्रभाव है। उनकी अलमस्ती और जनसामान्य और छोटी-छोटी चीजों के प्रति भी गहन जिज्ञासा और जुड़ाव के पीछे हम इन सबको देखते है। 'एक लम्बी कविता : शताब्दी के अंत के कगार परकी 'कुम्हार’, 'मछुआरा’ - जैसी कवितायेँ इसके प्रमाण हैं। मैं रेनाता द्वारा ही एक उद्दृत अंश को रखना चाहूंगा—

अब अगर पता चले कि आकाश एक बहुत बड़ा जाल है

जिसे किसी ने अंतरिक्ष के अदृश्य जल में

सूर्य,चंद्र, तारों-नक्षत्रों,पृथ्वी और ग्रहों को

पकडऩे के लिए फेंक रखा है

और जिसकी जाल फेंक कर आँख लग गयी है

तो क्या उसे आप मछुआरा ही कहेंगे?

ईश्वर या सृष्टिकर्ता को मछुआरा बनाना कबीर की उस परंपरा का विस्तार नहीं है? जिसमें वह कुम्हार, बुनकर, मोची आदि रूपों में उसे रखते रहे हैं।

इस किताब से गुजरते हुए हम अनुभव करते हैं कि अशोक की कविताओं में आज़ादी का आग्रह अपने समकाल के अन्य कवियों की तुलना में अधिक है। हाँ इसकी 'लाऊडअभिव्यक्ति हम नहीं पाते। यह कवि का स्वभाव ही नहीं है। बिना किसी शोर-शराबे के, एक सहज अंदाज़ में, बहुत कुछ अपने समय के एक दूसरे दिग्गज कथालेखक रेणु की तरह वह आज़ादी की छटपटाहट को चुपचाप रेखांकित कर जाते हैं। हिंदी साहित्य के जर्मन अध्येता लोठार लुट्ज़ ने 1972 में रेणु से मुलाकात की थी; और एक इंटरव्यू किया था। यह इंटरव्यू 'नया प्रतीकके जून 1977 के अंक (यानि रेणु की मृत्यु के तुरंत बाद) प्रकाशित हुआ था। लोठार लुट्ज़ ने रेणु की कहानी 'आत्मसाक्षीका जर्मन में अनुवाद किया था और कुछ दूसरी प्रतिनिधि हिंदी कहानियों के साथ प्रकाशित करवाया था। अपने इंटरव्यू में लुट्ज़ ने रेणु से पूछा था- 'मुझे लगता है आपका चरितनायक गणपत मानो एकाएक आज़ादी की मुश्किलें- बल्कि कह लीजिए आज़ादी की मुसीबतें पहचान लेता है- बिजली की कौंध की तरह। क्या आप मेरी बात से सहमत होंगें?’

रेणु का जवाब था- 'सहमत हूँ।

कविता में पात्रों की अवस्थिति तो संयोग से होती है। आधुनिक कविता में स्वयं कवि ही एकल पात्र होता है, और कई दफा वह भी अदृश्य या अनुपस्थित हो जाता है। नागार्जुन या रघुवीर सहाय जैसे कवियों की कविताओं में पात्र कभी-कभार सधे अंदाज़ में आते हैं और उनका एक स्वतन्त्र-अविस्मरणीय वज़ूद भी पाठक अनुभव कर पाता है; लेकिन अशोक की कवितायें प्राय: पात्र-व्याधि से मुक्त हैं। परन्तु उनकी कविताओं में आज़ादी के लिए अकुलाहट और छटपटाहट दोनों घनीभूत है। उनकी तमाम प्रेम और प्रकृति परक कवितायें इससे अटी-पड़ी हैं। कई दफा तो उनके शब्द आज़ादी की मुश्किलें या मुसीबतें झेल रहे होते हैं। यह कहना ज्यादा सही होगा कि रेणु के पात्र जिस तरह आज़ादी की मुश्किलों से जूझ रहे हैं, वैसे ही अपनी तमाम कविताओं में कवि अशोक स्वयं या फिर उनके शब्द इन मुश्किलों से जूझ रहे होते हैं। हाँ, कविता में इस कशमकश अथवा संघर्ष को ढूँढना-रेखांकित करना सूक्ष्मान्वेषण की मांग करते हैं। पाठकों को एकाध उदाहरण तो चाहिए ही। इसी पुस्तक से कुछ पंक्तियाँ उधार लेता हूँ:

 

वह पत्थर की सख्त-बंद परिधि में

एक स्वप्न है कसमसाता किसी उरोज की तरह,

वह आकांक्षा की एक नाभि है

आकाश की काया में ओझल,

वह छटपटाहट है

बाहर को अंदर ले जाने की

जहाँ सुख की गुफा का द्वार खुलता है। (वह है)

 

                                                                                           (4)

 

रेनाता अपने तीसरे और चौथे आलेख, ''प्रेम का सृष्टि-वैज्ञानिक रूप’’ और ''शब्द का यथार्थ और मिथकीय कार्य-व्यापार’’ में आध्यात्म दर्शन तथा योरोप व भारत के काव्य शिल्पों के तुलनात्मक अध्ययन आदि की जब अत्यंत सूक्ष्म विवेचना करती हैं, तब आज़ादी अथवा मुक्ति के प्रसंग को ओझल कर जाती हैं। भारत जैसे देश-समाज में मुक्ति का प्रसंग हमेशा अहम रहा है। यह हमारी दार्शनिक परंपरा का भी केंद्रीय तत्व है। ब्राह्मण, श्रमण और लोकायत चिंतन परम्पराएं इसे महत्व देती रही हैं। मोक्ष, निर्वाण और आनंद हमारे श्रेय रहे हैं। लोकतान्त्रिक-राजनीतिक नजरिये में इसके थोड़े पृथक अर्थ उभरते हैं। लेकिन उनके भी मूल्य हैं। वे हमारे लिए, यहां तक कि हमारे साहित्य के लिए भी कतई उपेक्षणीय नहीं हैं। रेनाता इस निकर्ष पर भी कविता का मूल्यांकन कर सकी होतीं, तो समीक्षा अपेक्षाकृत अधिक प्रगल्भ व पूर्ण होती।

लेकिन समीक्षा की यह किताब मेरे लिए इसलिए महत्वपूर्ण है कि इससे मैंने सीखा कि भाषा की बारीकियों का अध्ययन कैसे किया जाय। पुस्तक का नाम यदि शब्दों का मंडल है, तो इसके पर्याप्त कारण हैं। रेनाता ने यह महसूस किया है कि कवि अशोक वाजपेयी शब्दों के महत्व को कितनी गंभीरता से लेते हैं। भारतीय काव्यशास्त्र और चिंतन शब्द को ब्रह्म का पर्याय मानती आई है। ऋषियों और कवियों दोनों ने अक्षर के महत्व को स्वीकार किया है। वहीं पश्चिम में भी इसका असंदिग्ध महत्व है। आधुनिक लेखक और चिंतक ज्यां पाल सात्र्रे ने अपनी आत्मकथा का नाम 'शब्द’ (वर्ड) दिया था। इस आलेख में पहले मैंने आज़ादी के महत्व को स्वीकार करने का जो आग्रह प्रदर्शित किया है, वह हमें कवि की भाषा में उतरने में अचरज भरे अंदाज़ में मिलता है। यह बोध रेनाता देती हैं। अशोक की कवितायें सचमुच शब्दों का मंडल सृजित करती हैं, जैसे प्रकृति मेघ मंडल सृजित करती है। उनके यहां भाषा अपने प्रकृत अनुशासन में होती है, जो हमें संस्कृत की भाषिक परम्परा की याद दिलाती है। शब्दों के दुरुपयोग की बात वह सोच भी नहीं सकते। ऐसा सोचना भी उनके लिए पाप है। कोई किसान जैसे अन्न का महत्व जानता है और उसमें ईश्वरत्व तलाशता है, कवि वाजपेयी शब्दों को महत्व देते हैं। यही कारण है कि कवि के लिए शब्द और भाषा प्रथम और अंतिम गेह बन जाते हैं। वह बार-बार वहीं लौटता है, वहीं लौटना चाहता है। रेनाता ने कवि के इस मर्म को बड़ी सूक्ष्मता से चिन्हित किया है। उनके ही शब्दों में देखना बेहतर होगा- 'एक आधुनिक कवि अपने को शब्द (वर्ड) के सिवा और किसी दूसरी विधि से दुनिया से तादात्म्य नहीं कर सकता। वह बाह्य जगत का चित्रण नहीं करता, सिर्फ उसके लक्षणों (रंग, रूपाकार) का चित्रण करता है। अपने स्पर्श से वह उसको अपना स्वर प्रदान करता है (शब्द की जादुई शक्ति से अभिहित करते हुए) और इस तरह वह उसको एक नाम देता है। ये भाषा की चरम संभावनाएं है और इन्ही सीमांतों पर कविता की जादुई शक्ति आकार लेती है। उस सब कुछ को कविता में चित्रित करना, जो दृश्यमान, सुन्दर, वास्तविक या आदर्श है, पुरानी साहित्यिक परिपाटियों का लक्ष्य हुआ करता था और वह बोधात्मक नहीं, बल्कि शिक्षात्मक उद्देश्य को पूरा करता था। आधुनिक कवि विवरणों से बचता है, खंड के काव्यशास्त्र का अनुप्रयोग करता है। उद्देश्य किसी नयी चीज को खोजना उतना नहीं, जितना अदृश्य, अज्ञात को खोजना है, ऐसी चीज को खोजना 'जिसका कोई नाम नहीं। हयूगो फ्रेड्रिक कहते हैं- ''आधुनिक कवि काव्यात्मक वाक्य-विन्यास को उपयोगितावादी भाषा से ऊपर उठाने केलिए मानवीय वाणी के अन्तर्निहित द्वैध पर बल देते हैं। और ऐसा वे पहले के कवियों के मुकाबले कहीं ज्यादा करते हैं।अशोक वाजपेयी उन कवियों में से हैं, जो एक बार फिर फ्रेड्रिक को उदधृत करें तो, 'वाणी की एक तरह की अतिक्रमिता की तलाश कर रहे हैं।’’’

संभव है रेनाता की ये सब बातें कविता को सामान्य अर्थों में निरा मनोरंजन समझने वाले पाठकों को उलटबांसी या रहस्य प्रतीत हो, लेकिन जिन तहों में उतर कर उन ने कविता को समझा है, वह हिंदी के मौजूदा भारतीय काव्यालोचकों के लिए अनुकरणीय होना चाहिए।

अपनी बात समेटते हुए मैं कहना चाहूंगा कि कवि अशोक वाजपेयी की कवितायें रेनाता के आलोचकीय स्पर्श से निहाल हुई हैं। चमन में फूल तो खिलते हैं, लेकिन 'दीदवरबहुत मुश्किल से मिलते हैं। कभी-कभी नरगिस को हजारों साल रोना पड़ता है। वाजपेयी भाग्यवान हैं कि उनकी कविता पुस्तक और आलोचक एक साथ अवतरित हुए। युवा आलोचकों को यह किताब इसलिए पढऩी चाहिए कि वे आलोचना के नवीनतम पश्चिमी तकनीक और तमीज को समझ सकें। आज भी हिंदी के प्रोफ़ेसर कामायनी-काल से आगे होना नहीं चाहते। अपनी सोच और विश्लेषणात्मक क्षमता को वह जानबूझ कर गतिहीन बनाये रखना चाहते हैं। यदि उन लोगों ने जड़ बने रहने की कसम नहीं खाई है, तो उन्हें यह किताब पढऩी चाहिए। कविता के सामान्य पाठक इसे पढ़कर कविता के मर्म को अधिक समझने में समर्थ होंगे और अनुभव कर पायेंगे कि कविता कितना गंभीर कर्म है। कुल मिलाकर यह किताब, हिंदी कविता के प्रति हमें आश्वस्त करती है।

अनुवादक मदन सोनी, जो स्वयं कविता के सुपरिचित आलोचक हैं, और जिन्हे इस पुस्तक में रेनाता ने एक आलोचक के रूप में उदधृत भी किया है, ने परिष्कृत अनुवाद प्रस्तुत किया है। उनके परिश्रम और मेधा की प्रशंसा करना चाहूंगा।

 

 

 

 

छब्बीस जुलाई 1953 को एक स्वतंत्रता सेनानी परिवार में जन्मे प्रेमकुमार मणि ने विज्ञान में स्नातक स्तर की व्यवस्थित शिक्षा प्राप्त की। नालंदा में रहकर भिक्षु जगदीश कश्यप के सानिध्य में बौद्ध दर्शन का अनौपचारिक अध्ययन किया। कम्यूनिस्ट राजनीति से भी जुड़े। सामाजिक-राजनैतिक कार्यकर्ता के रूप में सक्रिय। कथा लेखन क्षेत्र में 5 कहानी संग्रह प्रकाशित और एक उपन्यास।

संपर्क : मो. 9431662211, पटना

 


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