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अप्रैल 2018

बांस का पारदर्शी दरवाज़ा

तेजिन्दर

डायरी






21 दिसम्बर 2017, रात्रि 01.45 बजे
एक बड़ा संवेदनशील वर्ग कुछ इस तरह के चक्रव्यूह में फंसा है कि वह खुद ही अपने हाथों में कुल्हाड़ी ले कर अपनी संवेदना का पोर-पोर काट रहा है ।
स्थितियां  इतनी  बदतर हो जायेंगी, यह बात अभी कुछ वर्षों पहिले तक कल्पनातीत थी। गरीबी और आत्महत्या करते किसानों पर कुछ कहना भी एक तरह के अपराध में शामिल हो जायेगा, यह कभी नहीं सोचा था । देखते ही देखते समाज में असहिष्णुता का असर यह होगा कि आप को इस बात पर भी दंडित किया जा सकता है कि आप ने जातिवाद के विरूद्ध बयान क्यों दिया? हम ऐसे ही एक समय में जी रहे हैं। इस बात का दुख कई बार बहुत खलता है कि हम इन अमानवीय स्थितियों के बीच सांस ले रहे हैं।

22 दिसम्बर 2017, प्रात: 11.00 बजे
रात भर सो नहीं सका । इंदौर से एक दोस्त ने कल रात टेलीफोन पर कहा कि- ''वे जो अपने लिये पैसे नहीं कमा सकते, उन के साथ खड़े रहने का क्या अर्थ है।'' वह मुझे समझा रहा था और मैं बहुत सारे  प्रश्न  अपने  भीतर ही कंकड़-पत्थरों की तरह चबा रहा था। ''यह सारा अपराध मनुष्य की संवेदना का है कि वह उसे तंग करती है और हमारे स्वास्थ्य पर उलटा असर करती है, इसलिये अपने आप को संवेदना से विलग कर लो''- देर रात तक वह मुझे समझाता रहा था ।
क्या मेरा वह दोस्त सचमुच एक मनुष्य था ?

24 दिसम्बर 2017, रात 09.00 बजे
एक अजीब तरह का आत्मसंघर्ष है । अपना और सत्ताधारी राजनैतिक समाज का रिश्ता। पहले कभी इस तरह के दम घोंटने वाले दबाव को महसूस नहीं किया। खतरनाक संकेतों की तरफ  बढ़ता हुआ। पता नहीं। इस दबाव में मैं अकेला नहीं हूं। और भी लोग हैं, अलग-अलग। छितरे हुये। उनके शब्द भी बिखरे हुये हैं। वे सब आपस में जुड़ें तो संभव है जीवन-मूल्यों की एक नई इबारत लिखी जाये, पर फिलवक्त तो यह काम बहुत मुश्किल लग रहा है। मनुष्य और मनुष्यता के पक्ष में जाने वाले हर विचार पर होने वाली चोट इतनी ज़र्बदस्त और ठोस है कि आंखें खुली की खुली रह जाती है, पलक भी नहीं झपका सकते। आवाज़ों और रोशिनियों के भयावह शोर में एक तरह की घटाटोप चुप्पी और गहन अंधेरा है। क्या मैं इस अंधेरी सुरंग को पार कर सकूंगा, ऐसा सोचता हूं बार-बार और क्योंकि अभी भी ऐसा सोचता हूं इसलिये अंधेरे में भी रोशनी की एक किरण देखता हूं ।

31 दिसम्बर 2017, रात 11.30 बजे -
आधे घण्टे के बाद नया वर्ष आरंभ होने वाला है। मैं एक क्लब में बैठा हूं। मेरे आस-पास लोग ही लोग हैं। स्त्रियां, पुरूष, बच्चे। सब खाये, पीये, अघाये हुये लोग। मैं भी उन में एक हूं। मैं यहां क्यों हूं? अपने आप से पूछता हूं, बार-बार यही सवाल। पर कोई जवाब नहीं दे पाता। यह मेरा दोगलापन है। मेरी ऐसी कोई विवशता नहीं थी कि मेरी यहां पर हा•िारी ज़रूरी हो। पर मैं यहां हूं। आधे घण्टे बाद यह समाज नये वर्ष में प्रवेश कर जायेगा और साथ ही मैं भी। क्या यही जुड़ाव अप्रत्यक्ष रूप से मुझे इस समाज के साथ जोड़ता है या यह मेरे मन का वहम् है। ये लोग किसी के साथ जुड़े हुये नहीं है ।

31 दिसम्बर 2017, रात्रि 11.55 बजे -
इतने शोर-शराबे और कानों को ध्वस्त कर देने वाले शोर के बीच भी मैंने क्लब के बरामदे में अपने लिये कुछ दूर पड़ी एक खाली कुर्सी ढूंढ ली है और जेब से मोबाईल निकाल लिया है जिस पर मैं लिख रहा हूं। अभी पांच मिनिट के बाद शैंपेन की बोतले खुलेंगी, रंगीन पटाखे आसमान तक उड़ेंगे, ज़ोर-ज़ोर से ड्रम बजेंगे और सब लोग एक दूसरे के गले मिल कर नये साल की बधाई देंगे। जानता हूं यह पहिली बार नहीं है, हर वर्ष यही होता है। यह हर नये वर्ष की ''मोनोटोनी'' है। इस ''मोनोटोनी'' का हिस्सा मैं हर बार क्यों बनता हूं? कहीं ऐसा तो नहीं कि ये लोग हर साल जीवन का उत्सव मनाते हैं और मैं एक तरह के विषाद में रहता हूं। पर नहीं ऐसा नहीं है। मैं अपने आप को समझाता हूं। इनमें से अधिकतर नौकरशाह हैं, ज़मीन और शराब के व्यापारी है, छोटे-मोटे राजनीतिज्ञ है और समाज-सेवक हैं। पर समाज सेवक तो ये सब ही कहते हैं अपने आप को। फिर समाज कहां है। मैं हंसता हूं अपने आप में ही, और हाथों में पकड़े मोबाईल पर अपनी एक ''सेल्फी'' ले लेता हूं।

05 जनवरी 2018, रात्रि  10.15 बजे
मनुष्य की समृति में ढेर सारा कचरा पड़ा रहता है। उसकी भी छंटाई करनी पड़ती है, कंप्यूटर की तरह वर्ना बहुत ज़रूरी स्मृति मलबे में दब जाती है। पिछले दो-तीन दिनों से मन ही मन मैं यह काम कर रहा हूं।
मुझे स्मरण है कि मिट्टी से बने उस झोपड़े की बाहरी दीवार बांस की थी। बांस के बड़े-बड़े टुकड़ों को काट कर और फिर दोनों तरफ से तिरछा जोड़ कर दीवार बना दी गई थी। वह वर्ष 1961 था। कांकेर जिला बस्तर। वह एक हवादार और पारदर्शी दीवार थी। ऐसी दीवारें आज कल नहीं होती, और यहां शहरों में तो कतई नहीं। मुझे जीवन में इस तरह की दीवारों की कमी महसूस होती है। बांस की उस दीवार के बीच छोटे-छोटे सुराख थे, जिन से आर-पार देखा जा सकता था। भीतर से ज़्यादा, बाहर से कम। शायद यही इन दिनों जीवन का गणित हो गया है । बाहर से •यादा, भीतर से कम, हम खुद इसी तरह देखा करते हैं। मैं उस झोपड़े को अपनी स्मृति के मलबे से बाहर निकालता हूं और झाड़-पोंछ कर वापिस उस की जगह पर पुर्नस्थापित करना चाहता हूं। पर यह संभव नहीं हो पाता। मैं बेचैन हो उठता हूं, लगभग असहाय। वह एक आदिवासी का झोपड़ा था। अब मेरे आस-पास कोई आदिवासी नहीं है। मैं भी अपने बचपन में आदिवासी हुआ करता था अब नहीं हूं। अब तो नये साल का उत्सव मनाने क्लब जाता हूं। लोग कहते हैं कि मैं बहुत भाग्यशाली हूं। मैं एक गहरे अपराध बोध के साथ उन के इस कथन को स्वीकार करता हूं।





तेजिन्दर जाने माने उपन्यास लेखक हैं। भारतीय प्रसारण सेवा में लम्बी सेवा के बाद निवृत्त होकर रायपुर में रहते हैं, स्वतंत्र लेखन कहते हैं। मो. 9893062464, 08878100098, रायपुर



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