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अप्रैल 2018

हिन्दुत्व : निजी सोच का एक बेचैन सिलसिला

प्रभात त्रिपाठी

पहल प्रारंभ/एक






हिन्दू धर्म और राजनीति के साथ उसके संबंध की बात, मुझे अरसे से परेशान किये है। धर्मसत्ता और राजनीतिक सत्ता के आपसी सम्बन्ध का मामला भर मेरी बेचैनी का कारण नहीं है। 'हिन्दू धर्म' करोड़ों लोगों की आस्तिकता का ही नहीं, उनकी मूल्यचेतना का भी स्रोत है। लोकजीवन में तरह-तरह के रुपों में मौजूद, बल्कि पगला देने वाली विविधता में सक्रिय। हिन्दू धार्मिकता के साथ सार्थक संवाद के बिना, किसी तरह की सक्रिय जनतंत्रात्मक मूल्यचेतना और समाज व्यवहार की कल्पना ही नहीं की जा सकती, जबकि हम लगातार 'हिन्दुत्व' शब्द के गैरजिम्मेदार आरै लगभग भावुक इस्तेमाल के चक्कर में, उस भाषा से ही दूर होते जा रहे हैं, जिसके साथ बौद्धिक संवेदनात्मक और नैतिक स्तर पर जुड़े बिना, हम किसी दूसरी सर्वभारतीय जनभाषा की कल्पना भी नहीं कर सकते। मेरी चिढ़ मूलत: इस बात को लेकर है, कि संघ परिवार और भाजपा को लोग, 'हिन्दुत्व की शक्ति' या 'हिन्दुत्व के ठेकेदार' परिवार के रुप में, प्रतिष्ठित करने में लगे हैं। हर स्तर पर और हर तरह के प्रचारतंत्र के द्वारा यह 'हिन्दुत्व' लोगों के दिमाग में दस्तकें दे रहा है। संघ परिवार के समर्थकों के लिए तो यह शब्द एक ताकतवर हथियार की तरह है, पर उसके घोर आलोचकों के द्वारा भी इस शब्द का इस्तेमाल कुछ इतने धड़ल्ले से किया जा रहा है, कि संवेदना, संस्कार और विचार से घोर गैर भाजपाई साधारण भारतीय भी, जाने अनजाने, इस मुस्लिम विरोधी हिन्दुत्व को ही असली हिन्दुत्व का प्रतीक मानने लगता है। अभी यहाँ यह सब लिखने का मकसद, इस शब्द के इतिहास की जटिलताओं में जाने का नहीं। शायद वैसी और उतनी बौद्धिक तैय्यारी भी मेरी नहीं है, कि मैं इस शब्द में अन्तर्निहित, बहुलता विविधता की, या भाजपा को हिन्दुत्व की शक्ति की तरह, या कि विकृति की तरह, प्रस्तुत करने के खतरों की, सुचिन्तित पड़ताल कर सकूं। पर मुझे यह जरूर लगता है, कि हिन्दुत्व शब्द से ही बिदकने वाले फॉसिस्ट विरोधी कई लोग, इसका इस्तेमाल भाजपा के संदर्भ में करते हुए, यह भूल जाते हैं, कि करोड़ों की संख्या में वंचित शोषित, दलित लोग भी 'हिन्दू' शब्द को स्वयं के अस्मिताबोध से जोड़ते हैं। ऐसे लोग आज की तारीख में यों भी, कांग्रेसी शासन के सुदीर्घ पूंजीवादी चरित्र के कारण, एक बड़ी संख्या में संघ परिवार के आदर्शों, मूल्यों और अस्मिताबोध को अज्ञानवश या सतही ज्ञान के दम्भ में स्वीकार कर चुके हैं। इस तथ्य पर इजाफा हुआ है। इसकी आलोचना कुछ इस रूप में भी साधारण लोगों के दिल दिमाग में लगभग विचार और संस्कार की तरह जड़ें जमाने लगी है, कि भाजपा ही एकमात्र ऐसी पार्टी है, जो हिन्दुओं का भला चाहने वाली पार्टी है। खासकर खाते पीते मध्यवर्ग के लोग, उनमें भी खासकर युवा पीढ़ी के लोग, भाजपा के 'हिन्दुत्व' को ही और उसकी मुस्लिम विरोधी आक्रामकता को ही, हिन्दुत्व की पहचान के रुप में देखते हैं। सुदीर्घ कांग्रेसी शासन में तरह तरह से लाभान्वित, थोड़े समृद्ध मध्यवर्ग के युवा, जो विभिन्न आधुनिक व्यवसायों से जुड़े हैं, इस मामले में संघ परिवार के मूल्यों के सबसे महत्वपूर्ण प्रचारक कहे जा सकते हैं। इन्हीं के नक्शे कदमों पर चलने वाले युवाओं का एक बहुत बड़ा वर्ग ऐसा भी है, जो वैसे तो प्राणपण से अपने धंधे में लगा  है, और जाहिर तौर पर राजनीतिक में सक्रिय नहीं है, पर अपने अस्मिताबोध के मामले में यह पूरी तरह अपने को हिन्दू ही मानता है और इतिहास या समाज के किसी भी तरह के वैज्ञानिक विचार से दूर, अपनी इस अस्मिता को मुस्लिम अस्मिता के 'अन्य' के रूप में देखता है।
पर मुझे लगता है कि भाजपा को मिलने वाले इस नराकात्मक... प्रचार के बावजूद, थोड़ी प्रगतिशील सोच के साथ पूरी मानव जाति के आस्तित्विक संघर्ष में विन्यस्त धार्मिकता की भाषा का, एक सर्जनात्मक और प्रतिरोधात्मक इस्तेमाल भी जरूरी है। करोड़ों लोगों के जीवन के सुख दुख की, संघर्ष की, भाषा है धर्म। और इस भूखण्ड की बात करें तो, हिन्दू धर्म का लोककेन्द्रित रुप, एक तरह से पूरे भारत की भाषा है। अगर संघ परिवार की कट्टरता और उसकी फासिस्टी प्रवृत्ति की आलोचना करना ही लक्ष्य हो, तो भी हिन्दू धार्मिकता और सांस्कृतिकता का लोककेन्द्रिक और समाज व्यवहारी रुप, कहीं अधिक प्रभावी साबित हो सकता है, बशर्ते कि स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों में ही, इस धार्मिकता का कल्पनाशील और अत्यंत प्रासंगिक इस्तेमाल करने वाले गांधी के विचार और आन्दोलन की अन्तर्दृष्टि को, आत्मसात करने की एक कर्मठ कोशिश के साथ इसकी शुरुआत हो।
मेरा सोचना है, कि जन समुदाय के संबंध और संवाद की एक सार्थक शुरुआत करने के लिए, भारतीय समाज, विशेषकर बहुसंख्यक हिन्दू समाज की, धार्मिक पौराणिक मनोरचना की एक गहरी समझ जरूरी है। ऐसी किसी समझ के लिए यह जानना, बल्कि एक महसूस करना जरूरी है, कि हिन्दू धर्म, जैसा कि पुरुषोत्तम अग्रवाल कहते हैं, प्रोफेटिक धर्म नहीं, बल्कि पोएटिक धर्म है, वैसे ही भक्तिकाल की कविता भी शास्त्रोक्त नहीं, बल्कि काव्योक्त है। इसी लिए यह एक ऐसा धर्म भी है, जो बिलकुल खुला है। इस खुलेपन के अवकाश में, इसकी अनन्त विविधता के ही नहीं, बल्कि इसमें अन्तर्निहित गहन नैतिकता के अनुभव के द्वार, हर व्यक्ति के लिए खुले हैं। भक्तिकाल का संपूर्ण साहित्य, लगभग सारे भूखण्ड में, समन्वय और संघर्ष की जिस अन्तर्दृष्टि और भाषा के साथ, भारतीयजन के साथ संवादरत था, उसे केवल ईश्वर केन्द्रित रूप में देख या पढ़ पाना संभव है। दसवीं शताब्दी के आसपास ही सक्रिय हुई जनभाषाओं में, पूरे भारतवर्ष में, धार्मिक, पौराणिक, साहित्य की संस्कृत परम्परा को, एक नयी चेतना के साथ विन्यस्त करते हुए, भक्त कवियों ने, 'धर्म संस्कृति' को, एक नयी जनचेतना के माध्यम से प्राणवन्त बनाया था। हिन्दी के सन्दर्भ में कबीर का काव्य इस नयी जनचेतना की प्रासंगिकता का अन्यतम उदाहरण है। अन्य भारतीय भाषाओं में भी, इस धार्मिक पौराणिकता के ऐसे बहुरंगी रुप देखने को मिलते हैं, जो संदग्धि रुप से नयी सामाजिक चेतना की प्रासंगिकता को ही रेखांकित करते हैं। फिर कबीर के काव्य में तो प्रेम अगर एक मूल्यानुभूति की तरह सक्रिय है, तो उसी के समांतर आलोचना भी अपनी पूरी प्रखरता के साथ जारी है। जनभाषा का इस्तेमाल महज धार्मिकता की गदगद या उन्मत्त भावुकता के कारण नहीं है। इसमें एक जरूरी आत्मसंवाद ही नहीं, बल्कि उससे कहीं ज्यादा, भारतीय जन के साथ एक सार्थक संवाद भी अन्तर्निहित है, पर आज की स्थिति में इस तरह की एक नयी चेतनासंपन्न मुहावरे की बात सोचते हुए, एक बात की चौकसी बहुत जरूरी है, कि संघ परिवार के मुस्लिम-घृणा-केन्द्रित राजनीतिक हिन्दुत्व की गहरी पड़ताल कर ली जाए। खासकर इसलिए, कि अपनी आक्रामकता और अपनी असहम्मन्यता में यह, इन दिनों जारी उग्र राजनीतिक इस्लाम का सगा न सही, दूर का रिश्तेदार तो लगता ही है। सवर्ण और पुरुषवर्चस्वी इस हिन्दुत्व को, इस भूखण्ड के लगभग सभी हिस्सों में आज भी सक्रिय लोकव्यवहारी आस्तिकता के लोकधर्मी हिन्दुत्व से, अलग करके देखने और समझने की कोशिश से ही, इस हिन्दुत्व की असलियत की जड़ों तक जाया जा सकता है।
वास्तव में यह हिन्दुत्व का एक औपनिवेशिक कांस्ट्रक्ट ही है। खासकर इस अर्थ में, कि हिन्दू धर्म को तरह तरह के लोकरुपों में जीवन्त, लोगों की जीवनविधि की व्यवहृत, हिन्दु आस्तिकता के रुप में नहीं देखा गया। इस शब्द में अन्तर्निहित आस्तिकताबोधक विविधता को, बिलकुल ही परे रखते हुए, मुसलमानों से धार्मिक भिन्नता के अस्मिताबोधक रुप में ही हिन्दुओं की पहचान की शुरुआत हुई। हिन्दुओं और मुसलमानों को अलगाने  के, उस समय में, मिल की अगुआई में, जो इतिहासबोध शुरु हुआ था, संघी उसी इतिहासबोध की उपज हैं। हिन्दुओं के स्वर्णयुग के बाद, मुसलमानों, फिर अंग्रेजों की गुलामी की सरल रैखिकता में, इतिहास को समझने जानने वाले, संघ परिवार के अधिकांश समर्थक, जाने अनजाने अपने आक्रामक हिन्दुत्व को वही रुप देना चाहते हैं। अंग्रेजों को अगर अपने नये उपनिवेश को ठीकठाक चलाने के लिए, हिन्दुओं और मुसलमानों को बांटने की जरूरत थी, तो सवर्णवर्चस्वी ब्राम्हणों के नेतृत्व में आत्मपहचान की नई दिशा की खोज में लगे, देसी ताकतवरों को भी इस बात की समझ थी, कि वे अपने आंतरिक उपनिवेशवाद को महफूज रखने की जुगत में लगे रहें। अंग्रेजी राज के शुरुआती दौर में, याने उन्नीसवीं सदी में तो, देसी अभिजनों की सक्रियता अधिकांशत: हिन्दू चिन्तन की सूक्ष्मता और श्रेष्ठता को रेखांकित करने की दिशा में ही बढ़ती रही, पर शायद उसमें भी, अंग्रेजों के इतिहासबोध का प्रभाव थोड़ा बहुत तो था ही। यही नहीं, अपने औपनिवेशिक शासन को मजबूत बनाने के लिए, सिर्फ इतिहास का नहीं, बल्कि मनुस्मृति जैसे ग्रंथ के विचारों या नियमों को, हिन्दू जीवन विधि का प्रमाण माना गया। कानून का राज चलाने के लिए अंग्रेजों ने हिन्दुओं की जीवनविधि और परंपराओं को समझने के सिलसिले में, इस मनुस्मृति जैसे ग्रंथ के विचारों या नियमों को, हिन्दू जीवन विधि का प्रमाण माना गया। कानून का राज चलाने के लिए अंग्रेजों ने हिन्दुओं की जीवनविधि को और परंपराओं को समझने के सिलसिले में, इस मनुस्मृति को लगभग आधार ग्रंथ की तरह स्वीकार किया, जबकि मुझे लगता है, कि लोकजीवन में, व्यवहार की धार्मिकता और रीति रिवाजों में, इस ग्रंथ की सक्रिय उपस्थिति कहीं देखने को नहीं मिलती, जबकि दोनों महाकाव्यों और पुराणों के साथ, लोक की अन्तक्रिया के साक्ष्य पूरी तरह निरंतरता के साथ देखने को मिल सकते हैं। मिल के इतिहासबोध और मनुस्मृति पर आधारित हिन्दू जीवनविधि के ज्ञान के साथ, अंग्रेजी शासकों ने मुस्लिम पर्सनल लॉ के लिए मुल्लों और उलेमाओं की अधकचरी व्याख्याओं को भी, मुसलमानों की जीवनविधि को समझने का आधार बनाया। उन्नीसवीं सदी की इस तैयारी में, अंग्रेजों ने भारतीय भाषाओं को समझने की, एक महत्वपूर्ण कोशिश की थी, पर हिन्दुओं की बहुविध बहुभाषी आस्तिकता को, उनकी अस्मिता का एकल रुप देते हुए, उन्होंने भाषा अध्ययन से सामन आने वाले उन तथ्यों से भी नहीं जोड़ा, जो हिन्दू धार्मिकता और उनकी जीवनविधि की विविधता और बहुलता के साक्षात प्रमाण थे। दरअसल राज चलान और मनमानी कर सकने के अपने प्रमुख उद्देश्य के चलते, उन्होंने बीसवीं सदी तक, बांटों और राज करो के सिद्धांत को, पूरे खुलेपन के साथ स्वीकार करते हुए, एक तरह की अभिजनवादी देसी राजनीति के साथ संवाद बनाए रखने की कोशिश की। इधर देश के अभिजनों की राजनीति भी, गांधी की राजनीति सक्रियता की शुरुआत के पहले तक, सवर्णवर्चस्वी दिशा में ही आगे बढ़ रही थी। पर गांधी ने आते ही, उस राजनीति की दिशा ही बदल दी। उनकी राजनीति का आधार निश्चय ही उनका गहरा आस्तिक संस्कार था और पश्चिमी सभ्यता के चरम भौतिकवादी, भोगवादी रुप के अनुभवों की विकरालता से भी वे परिचित थे। हिन्दू धर्म और रामराज्य की बात करते हुए, भारत की लोकधर्मी मानसिकता के साथ संवाद करते हुए, उन्होंने सवर्णवर्चस्वी हिन्दुत्व को चुनौती ही नहीं दी, बल्कि लाखों की संख्या में ग्रामीणजनों को अपने आन्दोलन में शामिल करने में भी, वे सफल रहे। अपने हिन्दुत्व के वास्तविक सामाजिक व्यवहार और अपने सर्वथा देसी विचार में, उन्होंने वर्णाश्रमी सोपानक्रम को एक जबर्दस्त चुनौती दी। उन्होंने इस 'हाइरार्की' को बिलकुल ही उलट दिया। शायद उनके व्यवहार विचार में मौजूद हरिजन की परिकल्पना और 'ईश्वर अल्ला तेरो नाम' जैसे जनोन्मुख हिन्दुत्व की लोकप्रियता से संघी दिमाग के सवर्ण ब्राम्हण ही नहीं, कांग्रेस ने इसी जाति वर्ण को श्रेष्ठता को बनाए रखने वाले बहुत सारे दिग्गज कांग्रेसी नेता भी, उनसे असहमत थे। उनके साथ उमड़ते जनसैलाब की वजह से, अंग्रेज भी थोड़े चौकन्ने नजर आने लगे थे, और स्वतंत्रता संग्राम के दूसरे कई नेता भी। उन्हीं दिनों जारी हिन्दू महासभा या उसके बाद सक्रिय हुए संघी परिवार का हिन्दुत्व भी, तब गांधी का मुकाबला नहीं कर सका। पर स्वतंत्रता के पहले ही उन्हें इस बात का आभास हो गया था, कि उनकी जनोन्मुख राजनीति की परिणति, विभाजन और सांप्रदायिक अलगाव की असाध्य सी बीमारी के रुप में होने जा रही है। इसीलिए आजादी के ऐन पहले और बाद के दिनों में वे काफी डिप्रेश्ड थे। आज की दशा दिशा में वे होते, तो पता नहीं क्या करते, पर मुझे आज भी लगता है, कि सत्य, अहिंसा और लोकधर्म पर आधारित उनकी राजनीति में एक गहरी अन्तर्दृष्टि और एक व्यापक संवादोन्मुखता थी। मूलत: इस रूप में, कि वह भारत की ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व की जनता की धार्मिकता की भाषा में बात करते थे। लेकिन क्या आज की तारीख में, जबकि किसी सामुदायिक आन्दोलन को संगठित करने की इच्छा और अवसर दोनों विरल होते जा रहे हैं, गांधी की दृष्टि और उनकी भाषा का कोई प्रासंगिक अलगाव ही संदर्भ में नहीं, किसी भी तरह के मुद्दे को लेकर आन्दोलन कर सकने की क्षमता और इच्छा, शायद अब सक्रिय राजनीतिज्ञों में नहीं रह गयी है।
शायद पूरी दुनिया का वित्त बाजार, जिस रफ्तार से वास्तविक व्यावसायिक जनतंत्र ही नहीं, तथाकथित नवउदारवादी, जनतंत्र को ही खत्म करने में लगा है, उसके चलते ऐसे किसी आन्दोलन की कल्पना भी, अब मुश्किल ही नहीं, असंभव लगने लगी है। यूरोप के सन्दर्भ में वुल्फगैंग स्ट्रीक ने अपनी पुस्तक 'हाऊ विल कैपिटलिज्म एंड' में इसी मुद्दे पर विशद विस्तार से विचार किया है। इधर यहां हालत यह है कि धार्मिकता के नाम पर, आज भी बड़ी आसानी से लोगों को अपनी तरफ खींचा जा सकता है। आज के भोगवादी समय में, एक ओर तो संगठित संघ परिवार की ठेकेदारी में, तड़कभड़क और आक्रामक प्रदर्शन के साथ, हिन्दुओं के धार्मिक त्यौहार मनाए जा रहे हैं, दूसरी तरफ किस्म किस्म के बाबा, सन्त, महन्त, सारे भारतवर्ष में अपना जाल बिछाए हुए हैं और अपना धंधा चला रहे हैं। इसमें से अधिकांश सांप्रदायिक और सवर्ण वर्चस्ववादी 'हिन्दुत्व' के ही प्रचारक हैं।
जाहिर है, कि ऐसी स्थिति में केवल निर्वाचन केन्द्रित और उसी में सीमित राजनीति के द्वारा, संघी संप्रदायवाद और उसे ताकत देने वाली, हर स्तर पर केन्द्रीकृत सत्ता का मुकाबला और भी कठिन और चुनौतीपूर्ण हो जाता है। बेशक वोटों की प्रतिशत की दृष्टि से देखें तो, आज भी संघ परिवार का समर्थक इस देश के अल्पमत को ही कहा जा सकता है, लेकिन सत्ता पर काबिज होने के कारण, सांस्थानिक और सांस्कृतिक पर, जिस तरह के बदलाव वे ला रहे हैं, उन्हें बड़े गैरजनतंत्री खतरों के रुप में ही, देखा जाना जरुरी है। ऐसी स्थिति में उनकी आलोचना का मुख्य मुद्दा तो यही होना चाहिए, कि वे अन्तर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय कारपोरेट जगत के मोहरे हैं और हिन्दुत्व का इस्तेमाल सत्ता में बने रहकर कारपोरेट जगत की मदद करने के लिए कर रहे हैं, हालाँकि यही काम कांग्रेस भी अपने तौर तरीकों से अरसे से करती रही है।
टिप्पणी लिखने की शुरुआत, एक तरह की बेचैन हड़बड़ी में मैंने की थी। लिखते लिखते मुझे लग रहा है, कि मैं एक गैरजरूरी विस्तार में खुद ही उलझ रहा हूँ। मुझे गालिब का शेर याद आ रहा है, 'बक गया हूँ जुनुँ में क्या क्या कुछ, कुछ न समझे खुदा करे कोई।' पर जुनूँ में नहीं, बेचैनी में उमड़े हैं, ये शब्द। उनकी ऐतिहासिक तथ्यता में भूलें हो सकती हैं, पर इनकी संवेदना में अन्तर्निहित सचाई में कुछ तो है, ऐसा मुझे लगता है।
सारांश यह है, कि हिन्दुत्व की बहुलता के विरोधी, सवर्णवर्चस्वी संघियों को, 'हिन्दुत्व' नाम से विभूषित करना अनुचित है। उन्हें संघी संप्रदायवादी ही कहना चाहिए।
चूँकि वास्तव में उपनिवेशवादियों ने 'हिन्दू' को अस्मितावादी रुप दिया था और संघी भी अन्तत: ताकतवरों के आंतरिक उपनिवेश की यथास्थिति को बनाए रखना चाहते हैं, इसलिए उन्हें इसी रुप में देखा जाना उचित ही नहीं, सार्थक भी होगा। वे नव्यतम उपनिवेशवादी और पूँजीवादी ताकतों के एजेण्ट हैं।
अन्त में यह, कि सत्ता की सँरचना और जनता की संवेदना से, धार्मिकता का संपूर्ण बिलगाव या धर्म मात्र का मूलोच्छेद फिलहाल तो असंभव ही लगता है।




संपर्क : मो. 09424183427, रायगढ़


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