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जनवरी 2018

किसान आत्महत्या आयोग के अध्यक्ष का राजा के नाम पत्र

मनोज कुमार पांडेय

कहानी



परमादरणीय राजा जी,

समझ में नहीं आ रहा कि आपको किस विधि से प्रमाण करूँ। आदर प्रकट करने के सभी तरीके इतने पुराने और अपर्याप्त हो चुके हैं कि अब समय आ गया है कि कुछ नए तरीके खोजे जाएँ। यह क्या बात हुई कि उन्हीं घिसे-पिटे तरीकों से आपकी भी वंदना की जाय जिन तरीकों से पिछले राजा का अभिवादन किया जाता था। मैं अपने आयोग की तरफ से बहुत शर्मिन्दा हूँ कि आपकी वंदना का कोई ऐसा तरीका नहीं ढूँढ़ पा रहा हूँ जो आपके तेजोमय व्यक्तित्व के अनुकूल हो। पर आप यह भी मानेंगे कि मैं आपके द्वारा ही सौंपे गए दूसरे काम में पूरी तरह से लगा हुआ था। वह काम पूरा हो गया है। इस अवसर पर मैं आपके चरणों में हर संभव तरह से झुका हुआ हूँ। कृपया मेरा कोटि कोटि प्रणाम स्वीकार करें और अपनी परम कृपा इस दास पर बनाए रखें।
महामहिम, आपको याद ही होगा कि आपने हमें किसानों की आत्महत्या के संदर्भ में सही तथ्यों की खोज करने का आदेश दिया हुआ था। आपके आदेश का दिन है और आज का दिन है, इस बीच में हम पल भर को भी चैन से नहीं बैठे। हम किसी भी ऐसी समस्या को हल्के में कैसे ले सकते हैं जिसने आपको परेशान कर दिया हो। इसलिए हम सब ने ठान लिया था कि हम इस समस्या की जड़ में मट्ठा डाल कर रहेंगे। और आपको यह जानकर बहुत खुशी होगी कि हमने मात्र दो साल सात महीने और अठारह दिन में ही इस समस्या के सभी संभव पहलुओं को खोद निकाला है। आप देखेंगे कि किसानों की आत्महत्या की यह समस्या उस रुप में कभी रही ही नहीं जिस रूप में दुनिया भर में प्रचारित की जा रही थी। आप यह भी देखेंगे की स्वर्णदेश के भीतरी दुश्मनों का मायाजाल अभी भी कितने भयानक तरीके से सब तरफ फैला हुआ है। हम सब का मानना है कि इस मायाजाल को छिन्न-भिन्न करने की सामथ्र्य सिर्फ और सिर्फ आप में है।
हे महामहिम इस मायाजाल को शीघ्रातिशीघ्र ध्वस्त करें और अब हमें उस विषय पर आने की अनुमति दें जिसके लिए आपने आदेश दिया था। यहाँ मैं संक्षेप में आयोग की कार्य-प्रणाली और अपने निष्कर्षों को आपके चरणों में रख रहा हूँ। आयोग के अध्यक्ष के रूप में मेरी पूरी कोशिश है कि इस पत्र में मैं उन सब चीजों को कम से कम शब्दों में समेट पाऊँ जो कि हमारी रिपोर्ट में दर्ज हुई हैं। यह रिपोर्ट कुल दस हजार एक सौ तेरह पृष्ठों की हैं। साथ में करीब सवा लाख पृष्ठ संलग्नकों के हैं। पर आपको हमारी मेहनत का अंदाजा सिर्फ रिपोर्ट के पृष्ठों की संख्या से ही नहीं होगा। समय बचाने के लिए की गई हवाई यात्राओं, देश भर में फैले हुए होटलों के खर्चों तथा किराए पर लिए गए हेलीकाप्टरों के बिल भी आपको काम के प्रति हमारी निष्ठा और मेहनत के बारे में बताएँगे। आप देखेंगे कि आपके आदेश के अनुपालन में हम पूरे देश में धूल फाँकते फिरे हैं। इस बीच आपकी दैवीय ऊर्जा और हममें दिखाया गया विश्वास ही हमारी प्रेरणा के एकमात्र स्रोत रहे हैं।
इस विषय पर काम करते हुए सबसे पहले हमारा ध्यान इस तथ्य की ओर गया कि पाठ्य पुस्तकों में हम अपने बचपन में इस बात पर निबंध लिखते हुए बड़े हुए हैं कि 'स्वर्णदेश एक कृषि प्रधान देश है'। यानी कि यह एक ऐसी बात थी जिसे सब मानते थे कि स्वर्णदेश किसानों का देश है। यह कोई ऐसी बात नहीं थी कि इस पर गर्व किया जाय पर पहले यह बात गर्व करने की मानी जाती थी। लोग इस बात पर गर्व करते थे कि वह किसान हैं। उन पर फिल्में बनाई जाती थीं। उनकी तारीफ में कविताएँ लिखी जाती थीं। यहाँ तक कि उन पर कुछ उपन्यास भी लिखे गए। एक भूतपूर्व राजा ने तो अपने नारे में उनको सैनिकों के समकक्ष रख दिया। बताइए भला कि इतना सब कुछ होता रहा पर किसी ने यह जानने की कोई कोशिश तक नहीं की कि क्या स्वर्णदेश सचमुच किसानों का देश है। हमने अपने काम की शुरुआत इसी सवाल के साथ की।
तब अगला सवाल हमारे सामने यह खड़ा हुआ कि हम किसान भला किसको कहेंगे? क्या जितने लोग खेतों में या गाँवों में दिखाई देते हैं सब के सब किसान ही हैं? दूसरे क्या किसान कोई जाति है कि हम किसान के बेटे को भी किसान ही कहें? क्या किसान की पत्नी को भी किसान माना जा सकता है? आप सोचिए कि वे तो उनको भी किसान माने ले रहे हैं जिनके पास जमीन का एक बिस्वा तक नहीं है। और फिर मान लीजिए कि कोई किसान है ही तो क्या वह सिर्फ किसानी से पैदा हुई समस्याओं से परेशान होकर आत्महत्या करेगा? क्या किसान अमर होकर आया है कि वह कभी मरेगा ही नहीं? महामहिम सच कह रहा हूँ ऐसे न जाने कितने सवालों से हम लंबे समय तक जूझते रहे। इन सवालों ने हमें चक्रव्यूह की तरह चारों तरफ से घेर लिया था। यह तो आपका प्रताप था कि हमने इस चक्रव्यूह को हमेशा हमेशा के लिए ध्वस्त कर दिया।
आप ही बताइए की यह कितनी सीधी सादी बात है कि जो इस दुनिया में आया है वह एक दिन इस दुनिया से जाएगा भी। इसमें राजा भला क्या करे। राजा कितना भी ताकतवर क्यों न हो जाए पर वह मृत्यु को कैसे रोक सकता है। जो पैदा हुआ है वह मरेगा ही। तो किसान मजदूर मरने से भला कैसे बच सकते हैं। लेकिन नए समय की लीला अपरंपार। देशी-विदेशी अखबारों में किसानों की आत्महत्या की खबरों को इतनी प्रमुखता से छापने का आखिर क्या उद्देश्य था? विदेशी अखबार तो खैर स्वर्णदेश को बदनाम करने के लिए हमेशा लगे रहते हैं पर देशी अखबारों को तो सोचना चाहिए था कि इस तरह की नकारात्मक खबरों से स्वर्णदेश की प्रतिष्ठा को कितनी चोट पहुँचती है। विदेशी अखबारों की नकल में इन अखबारों को अपनी विश्वसनीयता का भी कोई खयाल नहीं बचा है। दुष्टों और दुश्मन देश के दलालों के सिवा भला यह कौन मानेगा कि स्वर्णदेश में किसानों का जीवन इतना कठिन हो गया है कि उन्हें आत्महत्या करनी पड़ रही है।
इसके बावजूद यह आप ही थे कि जिसने इस समस्या की जड़ में पहुँचने की ठानी। आपने इसके लिए आयोग बनाया। आयोग में हमें नियुक्त किया। हमें प्रचुर धनराशि और असीमित अधिकार दिए और आदेश दिया कि तत्काल काम शुरू किया जाए। हमारे किसानों की जान बहुत ही कीमती है। इसे किसी भी कीमत पर बचाया जाना चाहिए। आप एक तरफ किसानों की समस्या सुलझाने और उन्हें बचाने के लिए इतने परेशान हैं तो दूसरी तरफ अखबारों में किसानों के मरने का हल्ला बढ़ता ही जा रहा है। इस हल्ले से स्वर्णदेश को बदनाम करने के सिवा और क्या हासिल कर लेंगे वे लोग?
ऊपर के तमाम सवालों और इन सब चीजों को देखते हुए हमने तय किया कि चूँकि इन्हीं सवालों पर ही आगे की सारी जाँच टिकी है इसलिए इस संदर्भ में किसी भी तरह की जल्दबाजी घातक हो सकती है। यह किसानों के भविष्य का सवाल है इसलिए हम किसी तरह की लापरवाही नहीं कर सकते। हमने तय किया कि सबसे पहले हम इस बात का पता लगाएँगे कि इस देश में किसानों की वास्तविक संख्या कितनी है और उन्हें किसान माने जाने का आधार क्या है? हमने तय किया कि हम यह भी देखेंगे कि क्या हम प्रचलित पूर्वाग्रहों के आधार पर ही अपनी रिपोर्ट बनाएँगे या इसके लिए हम अपने कुछ निजी आधार प्रस्तावित करेंगे।
सबसे पहले हमने यह देखने की कोशिश की कि सचमुच का किसान होने के आधार क्या हैं। हमने किसानों पर बनी तमाम देशी विदेशी फिल्में देखी। किसानों को केंद्र में रखकर के रचे गए साहित्य को उलटा-पलटा। देश की पाठ्य पुस्तकों में किसानों की जो छवियाँ हैं उनका फिर से अध्ययन किया और इन आधारों पर हमने किसानों की पहचान के कुछ बिंदु निर्धारित किए। और तब हमने पाया कि जिसकी आँखों में कीचड़ नहीं है वह किसान नहीं हैं। जो साफ कपड़े पहनता है आरै अच्छा खाता पीता है वह किसान नहीं है। जो रेल में स्लीपर में चलता है वह भी किसान नहीं है और एसी में चलने वाला तो किसी भी कीमत पर किसान होने की संभावना से ही रहित है। उसे जरुर किन्हीं देश विरोधी तत्वों से धन मिल रहा है। असलियत तो यह है कि किसान कभी ट्रेन के जनरल डिब्बों में भी नहीं चढ़ता। उसे इतनी दूर कहीं जाने की जरूरत ही नहीं होती। और अगर कभी किसी वजह से जाना भी हुआ तो वह पैदल या बैलगाड़ी से जाता है।
महामहिम मैं इन चीजों पर इतना जोर इसलिए दे रहा हूँ कि स्वर्णदेश की राजधानी सहित तमाम जगहों पर जो लोग किसान बनकर धरना प्रदर्शन कर रहे हैं और देश को बदनाम कर रहे हैं वे किसान नहीं है बाकी चाहे जो भी हों। इन बिन माँगी राय के लिए माफ करें तो कहूँ कि इन लोगों को पकड़वा कर डंडा परेड कराई जाय तो ऐसी तमाम जानकारियाँ सामने आ सकती है जिनकी रोशनी में यह आयोग अपनी रिपोर्ट को और बेहतर बना सकता है। इस जाँच के दौरान विश्वस्त सूत्रों से हमें ज्ञात हुआ है कि ये वही लोग हैं जो देश को और इससे भी ज्यादा महामहिम को बदनाम करने के लिए दुश्मनों से मिले हुए हैं। यही बात हम तमाम अखबारों के लिए भी कहने जा रहे हैं।
आपको तो पता ही होगा कि देश के अनेक अखबारों में इस आशय की खबरें छापीं कि किसान अपनी फसलों को खेत में ही सड़ा दे रहे हैं। वे मेहनत से तैयार की गई फसलों में आग लगा दे रहे हैं। वे सब्जियों और फलों से सड़क पाट दे रहे हैं या कि उन्हें मुफ्त बांट रहे हैं। हुजूर ये असंभव स्थितियाँ हैं। कुछ भी हो जाये पर एक किसान अपने ही खेत में आग नहीं लगा सकता। वह अपने खून पसीने की कमाई को खेतों मे पानी भरकर नहीं सड़ा सकता। और अगर वह इतना ही विपन्न है तो खेतों में पानी भरने का पैसा आखिर कहाँ से आ रहा है उसके पास? हुजूर कहने की इजाजत दें तो कहूँ कि सच्चा किसान खुद को भले जला ले पर अपनी फसल को नहीं जला सकता। और आप तो जानते ही हैं कि एक भी किसान ने खुद को जलाकर आत्महत्या नहीं की। खबरों के अनुसार जिन्होंने की हैं वे या तो पेड़ों से लटके हैं या फिर उन्होंने कीटनाशकों का उपयोग किया है।
दरअसल बहुत सारी भ्रामक स्थितियों ने मिलकर इस समस्या का निर्माण किया है। जिसके पास जमीन ही नहीं है वह किस तरह का किसान? जमीन किसी एक के नाम है पर परिवार में कोई भी मरे तो कहेंगे कि किसान ने आत्महत्या की। यह गलत चलन है। हमें इसे खत्म करना चाहिए। क्या सरकारी नौकरियों में ऐसा किया जा सकता है कि नौकरी कर रहे व्यक्ति के परिवार का कोई सदस्य आत्महत्या करे तो उसे सरकारी नौकरी से जोड़कर देखा जाए। आप पाएँगे कि हमारा मध्यमवर्ग इस मामले में कितना उदार है कि उसने अब तक ऐसी कोई माँग नहीं की अगर हमने किसान आत्महत्याओं के संदर्भ में इस तरह की स्थितियों को बढ़ावा दिया तो कल को अगर मध्यवर्ग भी उठ खड़ा हुआ तो हम क्या करेंगे। यह भी बहुत राहत की बात है कि हमारा मध्यवर्ग इन किसानों के पचड़ों से अपने आप को अब तक दूर रखे हुए है।
मैं कुछ और बातों की तरफ भी आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ। वह किस हक से किसान है जो किसी और के खेत को अधिया लेकर खेती कर रहा है। इस तरह से तो सारे किराएदार मकान मालिक बन जाएँगे। सोचिए कितनी अराजकता पैदा होगी। ऐसे ही जो पक्के घर में रहता है वह किस तरह से किसान हुआ? जो मिट्टी के घर में रह नहीं सकता वह मिट्टी में लथपथ होकर खेती भला कैसे करेगा? इसी तरह से जो जीन्स या दूसरे आधुनिक कपड़े पहनता है, धूप का चश्मा लगाता है, निजी अस्पतालों में इलाज के लिए जाता है वह भी किसान नहीं। जिसके बच्चे बढिय़ा स्कूलों में पढ़ रहे हैं वह भी किसान नहीं। ये लोग किसान बनकर हमें दिग्भ्रमित करते हैं पर हम जानते हैं महामहिम कि बाकी कुछ भी संभव हो पर आपको दिग्भ्रिमित करना असंभव है।
और यहीं पर मैं आपसे वह बात कहना चाहता हूँ जो मैं बस आपसे ही कह सकता हूँ क्योंकि उसे समझने की सामथ्र्य किसी और में नहीं। महामहिम सौ बातों की एक बात यह है कि जो आत्महत्या करता है वह किसी भी कीमत पर किसान नहीं। मैंने आपको पहले ही बताया है कि इस सिलसिले में हमने किसानों पर लिखी गई कहानियों, कविताओं और उपन्यासों का भी अध्ययन किया। हमने बड़ी संख्या में वह फिल्में भी देखी जो किसानों को केंद्र में रखकर बनाई गई है। इन सबमें हमको कहीं भी आत्महत्या करते हुए किसान देखने को नहीं मिले। उदाहरण के लिए भारत के मशहूर कथाकार मुंशी प्रेमचंद की कहानी 'पूस की रात' को लें तो कहानी में हलकू की पूरी फसल चर ली जाती है पर वह आत्महत्या नहीं करता बल्कि अपने कुत्ते से लिपटकर सो जाता है। तो ये कौन से किसान है जो आत्महत्या किए जा रहे हैं? क्या उनके पास कुत्ते भी नहीं हैं कि वह उनसे लिपटकर सो सकें?
मैं जोर देकर कहना चाहता हूँ कि किसान की चमड़ी मोटी होती है। वह बेशर्म होता है। वह कुछ भी करेगा पर आत्महत्या नहीं करेगा। मुंशी प्रेमचंद जी के ही उपन्यास 'गोदान' से उदाहरण लें तो होरी कर्ज में डूब जाता है। गाय नहीं खरीद पाता। मजदूरी करता है पर आत्महत्या नहीं करता बल्कि मरते समय गोदान करता है। क्या समय था वह और अब क्या समय आ गया है। मैं समझता हूँ कि अब तक आप समझ चुके होंगे कि किसान आत्महत्या की बात खुरापाती दिमागों की उपज है जिन्हें दुश्मन देशों की शह मिली हुई हैं। आप जानते ही हैं कि दुश्मन देश हमारे गौरवशाली इतिहास से जलते हैं। वे हमारी समृद्धि से जलते हैं, वे हमारी सामरिक ताकत से जलते हैं। और तो और अब वे इस बात से भी जलते होंगे कि उन्हें ऐसा प्रतापी राजा क्यों नहीं मिला जैसा कि आपके रूप में हमें मिला। पर यूँ जलते रहने से क्या हो सकता है आखिर।
हालाँकि हमारा काम अब समाप्त हो चुका है पर अपने देश को प्रेम करना और उसके लिए जान लड़ा देना हमने आपसे ही सीखा है इसलिए हमने इस मसले पर भी गौर किया कि अगर किसान आत्महत्या नहीं कर रहे हैं तो जो मर रहे हैं वे हैं कौन। वे अभागे कौन है जो आत्महत्या पर आत्महत्या किए जा रहे हैं।
हमने पता लगाया तो पता चला कि इनमें से अनेक वे लोग हैं जो इश्कबाजी में नाकाम होकर अपने जीवन से निराश थे। और आप जानते ही हैं कि प्रेम में जान देना और लेना स्वर्णदेश की गौरवशाली परंपरा रही है। हम जानबूझ कर ऐसी स्थितियाँ तैयार करते रहे हैं कि युवाओं के प्रेम नाकाम हों और प्रेम में जान देकर वे इस गौरवशाली परंपरा को आगे बढ़ाएँ। और जब कभी हमारी किसी चूक की वजह से उनके प्रेम कामयाब होने की तरफ बढ़ते हैं तो हमारी पूरी कोशिश होती है कि हम उनकी जान लेकर उनके प्रेम को अमर कर दें। प्रेमियों की आत्महत्याएं हमारा गौरव हैं पर देश के बाहरी और भीतरी दुश्मन जो हमारे देश की स्वर्णिम सभ्यता और संस्कृति से जलते हैं, जो महामहिम के तेज से चलते हैं वे स्वर्णदेश को और साक्षात स्वर्णदेशस्वरुप आपको बदनाम करने के लिए इसे किसानों या बेरोजगारों की आत्महत्या के रूप में प्रचारित कर देते हैं। हमें इन विरोधियों से सावधान रहना होगा और इन पर अंकुश लगाना होगा।
आत्महत्याओं की एक और वजह है पर वह गौरव करने लायक नहीं है। यह शर्म आने लायक वजह है। इसलिए मैं बड़ी शर्म के साथ इसे आपके सामने रख रहा हूँ। अंदरुनी सूत्रों से पता चला है कि आत्महत्या कर रहे लोगों में एक बड़ी संख्या उन लोगों की भी है जो नपुंसकता की वजह से अपनी बीवियों को मुँह नहीं दिखा पा रहे थे। नपुंसकता कितनी बड़ी समस्या है यह आप जानते ही हैं। ट्रेनों के शौचालयों से लेकर गली मुहल्लों की दीवालों पर आप देखेंगे तो पाएँगे कि देश की सबसे बड़ी समस्या नपुसंकता ही है। यह इसलिए भी बहुत बड़ी समस्या है क्योंकि विधर्मी लोगों के साथ ऐसा नहीं हैं। नपुसंकता इसलिए भी हमारी राष्ट्रीय समस्या मानी जानी चाहिए क्योंकि इससे जनसंख्या संतुलन लगातार प्रभावित हो रहा है। स्वर्णदेश और इसके ईश्वरस्वरुप राजा यानी आपसे प्रेम करने वाले लोग कम हो रहे हैं और विधर्मी और देश को कमजोर करने में लगे लोग लगातार बढ़ रहे हैं। मेरा विनम्र अनुरोध है कि आपको इस समस्या को गंभीरता से लेते हुए तुरंत इस पर एक आयोग बैठाना चाहिए। आप चाहें तो मैं यह महत्वपूर्ण जिम्मेदारी अपने सर पर लेने के लिए तैयार हूँ।
मैं फिर से आत्महत्याओं की तरफ लौटता हूँ। वजह जो भी हों पर यह तो हमने भी पाया कि लोग बड़ी संख्या में आत्महत्याएं कर रहे हैं। यह भी कि इससे स्वर्णदेश की बदनामी होती है। ये ऐसी चीज है कि जिसे हर हाल में रोका जाना चाहिए या फिर उसका रुप बदला जाना चाहिए। मेरा सुझाव है कि हमें आत्महत्याओं को धार्मिक रुप देने की कोशिश करनी चाहिए। अगर हम ऐसा करने में कामयाब हो गए तब आत्महत्या करना गौरव की बात मानी जाएगी। आप से बेहतर कौन जानता है कि हम धर्मप्राण देश हैं। धर्म के लिए जान देने और लेने दोनों के लिए हमेशा तैयार रहते हैं। यह बात प्रजा में और अच्छी तरह से फैलाई जानी चाहिए। लोगों को बताया जाना चाहिए कि किसी भी परिस्थिति में आत्महत्या कायरता है पर धर्म के लिए या धर्मस्वरुप राजा के लिए जान देना बहादुरी है। और जान देने की स्थिति बने ही तो विधर्मियों से लड़ते लड़ते जान देना चाहिए न कि पेड़ से लटककर या जहर खाकर। मैं जानता हूँ कि आप यह बात मुझसे भी बेहतर तरीके से समझ रहे होंगे।
दूसरी बात यह है कि हमें उन अखबारों, संस्थाओं और लोगों पर नजर रखनी चाहिए जो तथाकथित किसान आत्महत्याओं के बारे में खबर लिखते या छापते हैं, या अन्य तरीके से इस तरह की खबरों को प्रचारित या प्रसारित करते हैं। इन देशी विदेशी संपर्कों पर भी हमें नज़र रखनी चाहिए। हमें इन लोगों के कहीं आने जाने पर रोक लगानी चाहिए और इन पर लोगों को आत्महत्या के लिए उकसाने का आरोप लगाकर मुकदमा चलाया जाना चाहिए। जो संस्थाएं विदेशी पैसा लेती हों, कभी अतीत में ले चुकी हों या निकट भविष्य में लेने वाली हों उन सब पर विदेशी मदद से लोगों को देशद्रोह के लिए उकसाने का मुकदमा चलाया जाना चाहिए। ये बहुत ही खतरनाक लोग हैं। इन्हें किसी भी कीमत पर कारागार में होना चाहिए। हमें यह भी देखना चाहिए कि ये लोग या इनमें से कुछ लोग पिछले राजपरिवार के कृपा पात्र तो नहीं हैं। न भी हों तो हम साबित तो कर ही सकते हैं। इससे प्रजा में आपके प्रति अगाध भरोसा बना रहेगा।
अंत में मैं पूरी जिम्मेदारी से एक और बात कहना चाहता हूँ। यह सच है कि ज्यादातर किसान आत्महत्याएँ फर्जी हैं। जैसा कि मैंने ऊपर साबित किया कि जब वे किसान ही नहीं है तो उनकी आत्महत्याओं को किसान आत्महत्या का नाम देना साजिशी लोगों का कारनामा है। पर महामहिम हमें कुछ घटनाएं ऐसी भी मिली जहाँ आत्महत्या करने वाले सचमुच ही किसान थे। हम उनके बारे में जानकर स्तब्ध रह गए थे क्योंकि एक भी किसान कहीं मरता है तो उसकी जिम्मेदारी हमारे दयालु और परोपकारी राजा पर आती है। और हम क्या जानते नहीं कि आप किसानों के लिए कितने चिंतित रहते हैं। तभी तो आपने यह आयोग बनाया है। कुटिल और साजिशी लोग कुछ भी कहें पर हम जानते हैं कि आपने किसानों को असीमित सुविधाएं दे रखी हैं। इसके बावजूद अगर एक भी किसान आत्महत्या करने के लिए विवश हो रहा है तो इसका मतलब यह है कि खेती करना अब बहुत ही खतरनाक काम हो गया है। यह आयोग भी इसी नतीजे पर पहुंचा है।
ऐसे में जरुरत है कि स्वर्णदेश की प्रजा के हित में तुरंत ही कुछ कड़े कदम उठाए जाएं। आपने मुझे जो जिम्मेदारी दी है उसका पालन करते हुए मैं कुछ सुझाव आपके श्रीचरणों में रखना चाहता हूँ। आयोग का पहला सुझाव यह है कि महामहिम को तत्काल प्रभाव से किसानों के खेती करने पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए। हम अपने प्यारे देशवासियों की जान जोखिम में नहीं डाल सकते। ये एक ऐसा कदम है जिसके लागू होते ही किसान आत्महत्या की समस्या हमेशा हमेशा के लिए समाप्त हो जाएगी। किसानों को तुरंत यह कदम भले ही कड़वा लगे पर जल्दी ही वे इस फैसले को वैसे ही सराहेंगे जैसे कि आपके पिछले कड़े फैसलों को सराहते आए हैं।
अब सवाल यह है कि अगर किसान खेती नहीं करेंगे तो स्वर्णदेश की प्रजा का पेट कैसे भरेगा और हम उस जमीन पर क्या करेंगे जो खेती न करने से खाली पड़ी रहेगी। महामहिम हमारा दूसरा सुझाव यह है कि आपको किसानों से उसकी सारी •ामीन ले लेनी चाहिए। किसानों को तुरंत बुरा जरूर लगेगा पर वे जल्दी ही इस बात को समझेंगे कि जमीन रखना कितने खतरे की बात थी और वह खतरा उन पर से हमेशा के लिए टल गया है जो आत्महत्या के लिए उनके सिरों पर मंडराता रहता था। ऐसा करने से हमें बड़ी संख्या में लोग मिलेंगे जो स्वर्णदेश के नवनिर्माण की नींव की ईंट बनेंगे। खेती जैसे अनुत्पादक काम से मुक्त होकर उनकी सारी ऊर्जा जब देश के नवनिर्माण में लगेगी तो आप सोचिए कि आपका वह प्यारा स्वर्णदेश जिसके उत्थान के लिए आप हमेशा चिंतित रहते हैं कितनी जल्दी सचमुच में स्वर्ण में बदल जाएगा।
हमारा तीसरा सुझाव यह है कि किसानों से ली गई सारी की सारी जमीन आपके प्रिय धन्ना सेठ को सौंप दी जाए और उनसे अनुरोध किया जाए कि वे किसानी का दायित्व भी अपने ऊपर ले लेंगे। हमें पूरा भरोसा है कि स्वर्णदेश के हित में वे यह जिम्मेदारी उसी तरह से संभालेंगे जिस तरह से आपकी दी हुई दूसरी जिम्मेदारियाँ संभालते आए हैं। हमें पता है कि यह जोखिम का काम है पर धन्ना सेठ के कंधे पूरी तरह से समर्थ हैं। उन्हें आपका भी पूरा समर्थन और विश्वास हासिल है। ऐसी स्थिति में वे हर हाल में सफल होंगे। इस संदर्भ में हमारा चौथा और आखिरी सुझाव यह है कि धन्ना सेठ जी को जमीन के साथ साथ एक बड़ी राशि खेती के मद में दी जाए जिससे कि वह जमीनों को नई तरह से व्यवस्थित कर सकें और अत्याधुनिक तरीकों से खेती की शुरुआत कर सकें।
महामहिम, हमें पूरा भरोसा है कि इस तरह से हम किसानों से जुड़ी सभी तरह की समस्याओं से हमेशा के लिए मुक्ति पा लेंगे। इतना ही नहीं इससे बहुत बड़ी संख्या में नए रोजगारों का भी सृजन होगा। जिन किसानों के लिए खेती आदत बन गई है वे धन्ना सेठ के यहाँ नौकरी कर सकते हैं। यह कितनी कमाल की बात होगी कि वे खेती भी करते रहेंगे और उनके ऊपर किसी भी तरह का जोखिम भी नहीं रह जाएगा। ऊपर से हमारे धन्ना सेठ इतने उदार हैं कि वह उन्हें तन्ख्वाह भी देंगे। कितना सुखी होगा तब हमारा प्यार स्वर्णदेश। मैं तो उस दिन की कल्पना करके अभी से ही आह्लादित हो रहा हूँ। रोमांच के मारे रोम रोम खड़े हो रहे हैं। मुझे इस बात से भी रोमांच हो रहा है कि आपकी कृपा और विश्वास के फलस्वरूप मैं अपने प्यारे स्वर्णदेश के प्रति कुछ कर पा रहा हूँ। भगवन आपकी यह कृपा मुझ पर हमेशा बनी रहे।
आपके चरणों का दासानुदास
देशप्रेमी शर्मा
(अध्यक्ष, किसान आत्महत्या आयोग)



मनोज कुमार पांडेय 'हिन्दी समय' वर्धा के हिन्दी विश्वविद्यालय से सम्बद्ध एक बेहतरीन कथाकार हैं। यह कहानी ''स्वर्ण देश की लोककथाएं'' नाम से तैयार की जा रही एक किताब का हिस्सा है। संपर्क : मो. 08275409685, वर्धा


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