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अक्टूबर-2017

वक्तव्य

आसाराम लोमटे / अनुवाद : निशिकांत ठकार

शीर्ष साहित्य अकादमी पुरस्कार के अवसर पर

मराठीकोना/एक

 

 

मेरे कहानी संकलन 'आलोक' को साहित्य अकादमी का पुरस्कार घोषित होने से मेरे मन में आनंद का भाव निर्माण होना स्वाभाविक ही था। आनंद मात्र पुरस्कार प्राप्त होने का नहीं था। आनंद इस बात का था कि जिस प्रकार के जीने के बारे में हम लिख रहे हैं, जिन लोगों को सुखदुख के बारे में लिख रहे हैं और जहां अपने शब्द भी सत्य तक पहुंचने के लिए हरदम संघर्ष करते हैं, निचली सतह पर जीने वाले आदमी के हाथ से हाथ मिलाने के लिए प्रयास करते हैं, उन लोगों का जीना भी इस बहाने अधोरेखित हो गया बल्कि बहस के केन्द्र में आ गया।

हम आज एक ऐसे समय में जी रहे हैं जहां आसपास का माहोल शोरगुल और कोलाहल से प्रभावित हो गया है। ऐसा लगता है कि हम निरंतर एक चहल-पहल वाले बाजार में मानो खड़े हैं। सुबह घर से बाहर निकलते ही विज्ञापनों के बड़े-बड़े फलक नजर आते हैं। छोटे-छोटे गांवों में भी आजकल ऐसे विशाल फलक रोशनी में जगमगाते हुए नज़र आते हैं। बस्ती में अंधेरा हो सकता है लेकिन ऐसे फलकों की रोशनी का जोर कम नहीं होता। शाम को घर लौटने पर भी टीवी के माध्यम से अनगिनत उत्पादन हमें आवाज देते रहते हैं। अपनी पहचान आदमी के रूप में नहीं बल्कि ग्राहक के रूप में ही प्रभावी रूप में सामने आ रही है। हर रोज नये नये उत्पादनों के विज्ञापनों की बाढ़ आ रही है। बीमारी को दूर करने के लिए कौनसी गद्दी पर सोये से लेकर जो वजन को बढ़ाये या घटाये तक कौन से उत्पादन का इस्तेमाल करे इस बताने वाले विज्ञापन हम रोज देख-पढ़ रहे हैं। स्वास्थ्यपूर्ण जीवन जीने के लिए क्या करना चाहिए इसे बताने वाले बाबा-बापू आते जाते दिखाई देने लगे हैं। ऐसे समय में लगता है कि लिखने वालों का दायित्व बढ़ गया है। परेशान करने वाला, बेचैनी को बढ़ानेवाला और आत्ममग्न स्निग्धता को पिघलानेवाला लेखन करना वर्तमान समय की जरूरत है, ऐसा मैं सोचता हूँ। बाजार में स्वास्थ्यकारक जीने के उत्पादनों की चाहे जैसी भरमार हो, लेखक को लेकिन स्वास्थ्यहारक लेखन ही करना चाहिए। मैं ऐसा लेखन करने की कोशिश में हूँ देखा है कि पैरों में कांटा चुभनेपर होने वाली पीड़ा को दूर करने के लिए उस जगह पर मोम लगाकर आग से दागा जाता है। लिखने को मैं इसी तरह की दागने की बात मानता हूं।

मैं जो कहानियां लिखता हूं उसमें हवा पर झूमने वाले हरेभरे खेत नहीं होते। कलकल बहने वाला पानी नहीं होता। फूलों की नक्काशीवाली फसल में दौड़ऩेवाली अल्हड चुलबुली छोरियां नहीं होती। मुझे पता नहीं हैं ऐसा गांव कहां होता है जहां, कथित गांव की गोरियों को अपनी कविताओं और फिल्मों में दिखाया जाता हैं। मैं जिस गांव को देखता हूं, वह रमणीय नहीं है। मैं इस गांव के लोगों को जीते हुए बेहद ठोकरें खाता हुआ देखता हूं। खास बात तो यह है कि सतह से नीचे के आदमी के पास अपनी जुबान ही नहीं हैं। जो दुबले हैं उनका जीना ही टूटनेवाली कगारपर है। मैं जिस गांव को देखता हूं उसमें दरारें पड़ी हुई हैं। चीथड़े हो चूके हैं उसके। गांव की यादों में खुश होनेवाला स्मृतिसुख पानेवाला लेखन मुझे कभी अपना लगा ही नहीं। आज जो शोषित और वंचित है उसके जीने के प्रश्न दिन ब दिन डरावने होते जा रहे हैं। जीने के लिए उसे बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही हैं। जीविका के लिए विस्थापित होने वाले मजदूर, जीने के लिए बेहाल हो चुका सूखाग्रस्त किसान, आज भी सामाजिक विषमता में जीने की जोखम समझनेवाला दलित, ढोर मेहनत में फंसी औरतें-गांव के सारे लोग आज बेहाल हैं। इन लोगों की दबाई गई आशाएं-आकांक्षाएं, उनके बुझे हुए सपने, उनके रोजाना की जिंदगी के तनाव मुझे बेचैन करते हैं और इन सब शोषितों का जीना मेरी कहानियों में बारबार आता हैं। ये सारे लोग ठोकरे खाते हैं फिर भी मजबूती से टिके रहने की कोशिश जारी रखते है। जीने की ऐसी दशाओं में भी कसौटीपर खरे उतरना और अपने सत्य को बचाकर हिम्मत से खड़े रहना मेरे लिए उतना ही महत्वपूर्ण लगता है।

-नागर जीने में जो ध्वंस हो रहा है, आज उसकी तरफ निर्विकार होकर देखना किसी काम का नहीं। ऐसा नहीं है कि इस विध्वंस के पीछे कोई अनाम ताकत काम कर रही है। ऐसे मान लेने पर तो शोषितों की जिंदगी को उनका भाग्य, उनका नसीब, उनकी नियति कहकर पल्लू झाडऩा होगा। दृश्य-अदृश्य सतहों पर होने वाले शोषण को लक्ष्य करना, उनके स्तरों को बारीकी से निरखना मुझे जरूरी लगता है। मैं नहीं मानता कि मेरी कहानी के पात्रों के हिस्से आया दुख और पीड़ा उनकी नियति का दिया हुआ है। मैं अपने लेखन के माध्यम से दुबलों को एड़ी के नीचे रगडऩेवाला शोषण की रीति की गहराई तक जाना चाहता हूं। मैंने अपनी बहुत सारी कहानियों में शोषण व्यवस्था की पर्तों को खोलने की कोशिश की है।

मैं इस पूर्वग्रह को नहीं मानता कि ग्रामीण क्षेत्र के विनाश की सारी जड़ें आधुनिकीकरण में हैं। गांव देहातों के लोग पहले मिलजुलकर सुख से रहते थे। आधुनिकीकरण आया और गांव का चेहरा विद्रूप हो गया। आधुनिकीकरण की लहर में गांव का गोकुलही खो गया। यह ऐसा पूर्वग्रह है कि मानो आधुनिकीकरण ने गांव की समृद्धि को नोच लिया। दरअसल, कथित आधुनिकीकरण जाने से पहले भी देहातों में आर्थिक-सामाजिक विषमता थी। शोषण भी था। दुबलों के शोषण की श्रृंखला थी। आधुनिकीकरण नाम की किसी बात की ओर नजरें लगाना और ग्रामजीवन की भीतर की उथलपुथल की ओर नजर अंदाज करना इसे मैं यथार्थ से मुँह मोडना मानता हूँ। 'इंडिया' बनाम 'भारत' जैसी सीधी तक्सीम को स्वीकारकर शहरी आक्रमणों ने देहातों को निगल लिया, मानने पर फिर ग्रामों के वर्गसंघर्ष और शोषण व्यवस्था को पूरी तरह से नजरअंदाज किया जाता है।

आज का यथार्थ स्थितिशील नहीं है। इतना ठंडा भी नहीं हैं कि उसे निर्विकार होकर देखें। यथार्थ का चेहरा, निर्दय, भयानक और भक्ष्य को निगलने को तत्पर खुल चुके कराल जबड़े की तरह है। भक्ष्य कौन है? वे सारे जो जबड़े में आने से पहले किसी दरिंदे ने जिन्हें अपने पंजे के नीचे लिया हो और जिनकी आवाज भी नहीं निकलती हो। हालत ऐसी है कि सब तरफ गूँजनेवाली आवाज में छोटे मोटे जीवों की चीत्कार ही न सुनाई दे। लेखक के रुप में मैं सोचता हूँ कि यथार्थ के जिस टुकडे पर मैं खड़ा हूँ वह दिग्भ्रमित करने वाला है। ऊपर से वह बेहतरीन, लहरानेवाला, मायाबी और फेनिल लगता हो तो भी उसके तल में जो कीचड़ है वह बेचैन कर देने वाला है। आज का गांव स्थितिशील नहीं हैं। परिवर्तन ने तेज गति ली है। जीने के लिए जो बेशुमार गति प्राप्त हुई है, वह उतारपर बेहिसाब फिसलनेवाली किसी पत्थर की शिला जैसी है।

 

हां, यह जरूर है कि इस यथार्थ को हू ब हू कार्बन कापी की तरह प्रस्तुत करने से साहित्य नहीं होता। 'यथार्थ' को कलात्म रूप देने में अनगिनत बिंब, प्रतीक, लोककथाओं से झरते आये संदर्भ बगैरह आते रहते हैं। अनुभव का 'कलावस्तु' में बदल जाने का सफर इस तरह गई बातों को स्वीकार करते हुए ही होता है। जब लोग कहानियां कहते थे तब भी कल्पना शक्ति की बेहद ताकत थी। उसी के आधार से यथार्थ को कथन मूल्य प्राप्त होता था। यही एक बात ऐसी थी कि जिससे जीने के अभावों को मिटाया जा सकता था और व्यक्ति अपने होने की कमजोरी पर मात तक कल्पना से कुछ समय के लिये ही क्यों न सही, मनोराज्य खड़ा करता था। आज हम जादुई यथार्थवाद की बात भले ही करते हो, अपनी कथनपरंपरा के भाषिक संचित देखने पर पता चलता है कि यथार्थ को सीधेसपाट ढंग से कहने की रीत अपने यहाँ कभी नहीं थी। दिलचस्प कहानियाँ कहने वाले कुछ लोग मैंन ेदेखे हैं। ऐसे भी लोग मैंने देखे-सुने हैं जिनकी कहानियाँ एक रात में पूरी नहीं होती थी और लगातार कुछ रातों तक चलती रहती थी। चमत्कारपूर्ण, अद्भुत, नबलता से मौजूदा दुखभरी, परेशान करने वाली जिंदगी के खालीपन को मिटाने वाली कहानियों की बड़ी लंबी परंपरा अपने यहां है। इस जिंदगी की सारी आहें, हसरते और हुंकार लिपिबद्ध नहीं हुई हैं। हजारो जबानों के रास्ते वे आज भी जाहिर हो रहे हैं। ऐसी जिंदगियों की अनाम कहानियों को रेत पर खींची रेखाओं की तरह नष्ट नहीं होने देना है। जब तक इन लोगों के जीने की कशमकश जारी है, तब तक 'कहानी' जिंदा रहने वाली है। वह समय के बावजूद बची रहेगी इसलिए की वह स्थल काल को बांधनेवाली कला है। मैं मन ही मन मानता हूं कि मेरी कथा का रिश्ता इस 'कहानी' से है।


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