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जुलाई - 2017

खाते पीते 'सुअरों' की शताब्दी में उदय प्रकाश होना

अल्पना सिंह

उदयप्रकाश/पुनर्विचार

सुनो कारीगर और अबूतर कबूतर




धूमिल ने लिखा था 'कविता भाषा में आदमी होने की तमीज है'। तमीज की यही अनादि परंपरा कबीर से होते हुए उदय प्रकाश तक पहुंची है। कविता केवल अभिव्यक्ति नहीं, एक प्रतिरोध है। कविता अपने समय से ठीक ठीक लड़ती और मुठभेड़ करती है। हर कविता अपने समय में समकालीन होती है, जैसे प्राचीन नदी में कोई नई सहायक नदी का पानी। समय के साथ ही कविता का व्याकरण भी बदलता है, भाषा, भाव, संवेदना में नई अनुभूति आती है। 'वो भाषा जिसमें लिखता हुआ हर ईमानदार कवि पागल होता है' यह लिखते हुए उदय प्रकाश कविता के उस महत्त्व को ही प्रतिपादित करते हैं। कविता की लम्बी परम्परा हमारे आस पास मौजूद है। यह अलग बात है कि आजादी से मोह भंग, मतलब सातवें दशक के उत्तरार्ध में, जब अति वाम राजनीति उतार पर आती है तब कविता में यांत्रिक नारेबाजी और मध्यवर्गीय अराजकता का स्वर धीमा पड़ता है।
इक्कीसवीं शताब्दी सूअरों की शताब्दी है। डा. कृष्णदत्त पालीवाल लिखते हैं कि 'मिलेनियम ईयर' का भूत मेरे ऊपर सवार है। यह कौन है जो मुझे हर जगह हर अवसर पर अकेला पाकर पकड़ लेता है और फिर कहता है - 'सुनो हजरत! इक्कीसवीं शताब्दी खाते पीते सूअरों की शताब्दी होगी।' इस शताब्दी में आदमी की 'आदमियत' का कोई अर्थ नहीं बचेगा। आदमी का सुअर की जीवन पद्धति से जीना-मुक्त यौनवाद को गह लेगा। सब कुछ माल में परिवर्तित हो गया है। प्रकृति के अपार संहार से रिश्ते घावों का मवाद बन चुके है। सूचना संक्रांति का ड्रैगन अपना जाल फैला रहा है। नव अर्थशास्त्र की हवा निकल चुकी है। नारीवाद, गे-कल्चर, मुक्त यौनवाद सभी को स्वीकृति कर दुनिया कचरे के ढेर में परिवर्तित होती जा रही है। साहित्य में इस विचारधारा को उत्तराधुनिकता के नाम से जाना जा रहा है। आजकल इसकी चर्चा जोरों पर है। केन्द्रीय वर्चस्व को अंगूठा दिखाकर यह स्थानीयता और उसकी विभिन्नताओं पर बल देती है। उत्तर आधुनिकतावाद अब बहुसंस्कृतिवाद या बहुलतावाद पर आधारित नया विमर्श है।
उदय प्रकाश अपने कविता संग्रह 'सुनो कारीगर' सन् 1980 और 'अबूतर कबूतर' सन् 1984 में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करा चुके थे। उनकी 'तिब्बत' कविता 1981 में प्रतिष्ठित भारत भूषण पुरस्कार से सम्मानित हुई थी। इस कविता में यातना के प्रति बच्चे का मन द्रवित होता है। उदय प्रकाश विश्व साहित्य यात्रा के सहयात्री हैं। उन्होंने अपनी सीमाओं को स्वयं तोड़ा है। उन्हें शुरू से ही अपने लेखन पर पूरा भरोसा रहा। अपने समय समाज के प्रति सचेत करना, व्यवस्था के सबसे वंचित व्यक्ति की आवाज बनने में उन्हें अच्छा लगा। उदय प्रकाश की कविताएं पढ़ते हुए आप गहरे और गहरे उतरते जाएंगे। जैसे किसी ने माथे पर एक ठंडी हथेली रख दी हो। एक ऐसी तड़प जो आग पैदा करती हो। जहां स्त्री नहीं जलती पूरी कायनात जलते हुए अक्षर में बदल जाती है। जलते हुए अक्षर को पढ़ते हुए एहसास सुलगने लगते हैं (संजीव चंदन)।
काफ्का ने अपने एक पत्र में लिखा है कि 'लेखक का एकांत किसी सन्यासी का एकांत नहीं, वह मृत्यु का एकांत है और ऐसे ही एकांत, और यथार्थ के संतुलन से उदय प्रकाश ने जो लिखा है, वह समय के पार जा कर सदियों तक हमारी स्मृतियों का हिस्सा रहेगा। अपनी रचनाओं की लय और चाल बनाए रखने के लिए उनकी कलम ने हमेशा मनुष्यत्व पर भरोसा किया है। उदय प्रकाश के रचनाकर्म के विषय में सुशीलापुरी अपना पक्ष लिखती हैं कि 'वर्तमान समय में जब सत्ताएँ और ज्यादा शातिर और ज़्यादा हिंसक हों, और नाटकीयता की सारी हदों को पार कर के हाशिए के मनुष्य को चूसने में लगी हों... तो ऐसे कठिन समय में उदय प्रकाश बिना किसी बनावटी लिहाज के, अपनी निर्भीक लेखकीय ईमानदारी के साथ जीवन को साहित्य के अपने अनूठे शिल्प में रचते हैं और पल-पल हमें नकाबपोश-विभीषिकाओं से आगाह करते हैं। उनकी रचनात्मक तड़प सुंदरता को समूल पाने की तड़प है।... और इसी तड़प को सँजोये वे नि:सहाय-निष्कवच पवित्रता में खड़े अपने एकांत के साथ असीम को स्पर्श करते हैं।'
उदय प्रकाश के लिखे को समझने के लिए एक पूरी व्यवस्था पर नजर डालनी होगी। यह एक ऐसी अलग वैश्विक व्यवस्था है जिसने छोटे से छोटे शहर की सीमाओं को अपने पाश में जकड़ लिया है। इसमें चीजे बहुत सरल नहीं है, इसे कुछ ऐसे समझा जा सकता है कि आधुनिकता में उच्च तथा सुसंस्कृत वर्ग राजनीतिक जीवन पद्धति और कला संस्कृति का नियामक था। उत्तराधुनिकता ने इस को भी समाप्त कर दिया। यह केंद्र के लोगों को परिधि पर ले आया और परिधि के लोगों को केंद्र में लाकर समय के पहिये को पलट दिया। जहां उपेक्षितों, शोषितों, दलितों, स्त्रियों, समलैंगिकों को प्रमुखता दी जाने लगी। उत्तराधुनिकता ने लेखक की महत्ता को नकार दिया। यहाँ पाठक का महत्व बढ़ गया। इसने यह भी मानने से इनकार कर दिया कि विज्ञान के पास सब समस्याओं का हल मौजूद है। मीडिया और मार्केट की मित्रता और गहरी हुई है। हर अनुभव सूचना बन रहा है और अर्थ की स्थिरता नहीं बची रही। वर्ग जाति में बदल गया है। दलित, स्त्री, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों की अभिव्यक्तियों को और उनकी अस्मितताओं को स्वीकृति मिल रही है। उपभोक्तावाद ने सत्ता के खिलाफ हिंसा बढ़ा दी है। लेकिन ऐसी मीठी सड़ांध कि सब अच्छा लगता है। भोगवादी संस्कृति ही सब पर हावी है। गत सदी के अंतिम दो दशकों में हुई संचार क्रांति से पहले हालात दूसरी तरह के थे। विकसित संचार माध्यमों के अभाव में पहले सांस्कृतिक संक्रमण से होने वाले प्रतिरोध और आत्मसातीकरण में अक्सर समाज के सभी तबके शामिल नहीं होते थे। अक्सर समाज के कुछ तबकों में परिवर्तन हो जाते, धीरे-धीरे उन्हें स्वीकृति भी मिल जाती और मामूली प्रतिरोध के बाद उन्हें संस्कृति का हिस्सा भी मान लिया जाता था। मंद गति से होने वाले इस सांस्कृतिक संक्रमण से संस्कृतियों की पहचान को भी कोई खास नुकसान नहीं होता था।
यह वही समय है जब बहुजन और समाजवादी राजनीति का चरम, शिक्षा मध्यम जातियों की ओर आती है। यह वही दशक है जब इस दशक में विद्रोही स्वर कविताएं लिखी गईं। यह वही समय है जब कविता में सबाल्टर्न स्टडीज, आइडेंटिटी पॉलिटिक्स, उत्तर आधुनिकतावाद, उत्तरमाक्र्सवाद, उत्तर उपनिवेशवाद आदि से कवि गहरे प्रभावित होते हैं और यही समय है जब मध्यवर्गीय अवसरवादी की मौका परस्ती और दोमुहांपन कविता में खुलती है। यदि इसे जनभाषा में कहा जाए तो यह वही समय है जब 'साहित्य के पटवारी' अपनी चकबंदी करते हैं और विचारधारा से आक्रांत सगा-सौतेला, चचाजात, भाई-विरादर है या नहीं कि ठीक ठीक पहचान भी। 1990 के बाद साम्प्रदायिक फासीवाद और पूंजीवाद भारत में उभरा है जिसमें छोटे बड़ा नौकरशाह, लुटेरे डॉक्टर, ठग वकील, पूंजी के दलाल, मीडिया, एनजीओ और मिल बांट खाने और चुप रहने वाली संस्कृति के रहनुमा एक अलग अर्थ में विस्तार पाते हैं।
इसी के साथ जहाँ आधुनिकता का अवसान और उत्तर आधुनिकता का शिगूफा नए अर्थों में जन्मता है। भले ही यह माना जाए आधुनिकता के बाद उत्तराधुनिकता पश्चिम के समाज और दर्शन की एक ऐतिहासिक यात्रा है। उत्तर आधुनिकता को समझे बिना हम अपने समय को नहीं समझ पाते। आधुनिकता ने ईश्वर और प्रकृति के बीच मनुष्य को देखा। हमें यह समझना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि बिना इस बोध के हम समकालीन समाज और उसके सरोकारों को ठीक से नहीं समझ पायेंगे। उत्तर आधुनिकता विचारों, प्रवृत्तियों, बौद्धिक रुचियों का समुच्चय है। उत्तर आधुनिकता सूचना युग, बहुराष्ट्रीय पूंजीवाद के वर्तमान पात्र के उस संस्कृति का नाम है जिसमें केन्द्रवाद नहीं है। इसमें वह प्रवृत्तियां घर कर रहीं है जहाँ हाशिए के लोग अब केंद्र की तरफ बढ़ पा रहे हैं। इसके अर्थ बहुत व्यापक हैं और इन्हें सीमाओं में बाँधा नहीं जा सकता।
उत्तर आधुनिक, उत्तर औद्योगिक, युग की विकेन्द्रित, मूल्यहीन, व्यवहारवादी, पॉप संस्कृति को आधार बनाकर लिखने वाले साहित्यकार हैं उदय प्रकाश। उदय प्रकाश ने उत्तर आधुनिक नाभिक को पकड़कर उसे साहित्य में उतारा है। कविता सांस्कृतिक संक्रमण के दौरान हमेशा प्रतिरोध या आत्मसातीकरण का स्टैंड लेती है। मध्यकाल में इस्लाम संबंधी सांस्कृतिक संक्रमण के दौरान कबीर और उनके समानधर्मा कवियों ने आत्मसातीकरण और प्रतिरोध का मिला जुला स्टेंड लिया था। यूरोपीय संस्कृति की प्रतिक्रिया में भी कविता ने स्टेंड लिया था, लेकिन तत्काल स्टेंड लेने वाली इस कविता की ऐतिहासिक समझ बाद में ठीक नहीं पायी गई। नये सांस्कृतिक संक्रमण को लेकर आमतौर पर समकालीन कविता का स्टेंड प्रतिरोध का है। लेकिन प्रतिरोध के लिए उसकी रणनीति ज्यादातर पलायन की है। भूमंडलीकरण, बाजार, उपभोक्तावाद आदि की अपसंस्कृति से त्रस्त होकर अक्सर कवि अपने घर गांव और बचपन की स्मृतियों में लौट कर राहत की सांस लेता है।
कविता की प्रासंगिकता पर उदय प्रकाश अपनी भूमिका में लिखते हैं। 'कविताएं बचपन से ही मेरे सबसे निकट रही हैं। वे मेरे अस्तित्व के एकांत, निस्संग सन्निकटता और नीरवता की सबसे भरोसेमंद और अटूट साथी रही हैं। कई बार जब यह गहरा संदेह पैदा होता है कि इस समय और स्थान में, जहां चारों ओर अनगिन सत्ताओं का सर्वव्यापी साम्राज्य है, क्या सचमुच मेरी भी कहीं कोई मौलिक सत्ता और कहीं कोई प्रामाणिक अस्तित्व है, क्या मैं भी कहीं 'उपस्थित हूं, तो कविता ही उसका, कमजोर ही सही, पर सबसे पहला और शायद अंतिम प्रमाण होता है। कविता समूची प्रकृति और मनुष्यता के उत्पीडऩ और विनाश में लगी सबसे बलशाली ताकतों के 'पाप' (नैतिक) और 'अपराध' (सामाजिक-संवैधानिक) के खिलाफ हमेशा कोई न कोई 'फतवा' जारी करती रहती है और अपने जीवन को बार-बार दांव पर लगाती है। वह हर बार कोई न कोई जोखिम या खतरा मोल लेती है और हर बार किसी संयोग या चमत्कार से बच निकलने पर अपना पुनर्जीवन हासिल करती है और एक बार फिर सांस लेना शुरू करती है। फिर से किसी नये जोखिम भरे दायित्व का बोझ उठाने के लिए। बेदखली, दण्ड, निर्वासन, उपेक्षा, उत्पीडऩ, प्रताडऩाएं और अंतत कवि की मृत्यु ही अक्सर ऐसी कविता का ईनाम हुआ करता है। मैं आपसे पूरी पारदर्शिता और ईमानदारी के साथ कह रहा हूं, कि मैं ऐसा ही कवि हूं और यही बने रहना चाहता हूं।'
यही पारदर्शिता और ईमानदारी उनके लेखन में दिखाई देती है। उदय प्रकाश ने अपनी कविताओं में सुअर कई बार प्रतीकात्मक रूप में प्रयोग किया हैं। अपने कविता संग्रह 'सुनो कारीगर में उन्होंने लगातार छ; कविताएं 'सुअर' शीर्षक से लिखी है। भारतीय जनमानस में सुअर को बहुत नीच दृष्टि से देखा जाता है। बाबा नागार्जुन की सूअर वाली कविता आँखों के सामने अचानक नाच उठती है। साम्राज्यवाद, पूंजीवाद, सामंतवाद की क्रूर और छिपी चालें, शोषित और उत्पीडि़त जनता का शोषण चक्र, उनको भी बेचैन कर देता है। बाबा नागार्जुन तभी मनुष्य विरोधी शक्तियों पर कुठाराघात करते हैं। लेकिन सुअर कविता में उनके भाव बदले हुए रहते हैं -
'जमना किनारे, मखमली दूबों पर
...गुनगुनी धूप में
पसर पर लेटी है
यह भी तो मादरे हिन्द की बेटी है
भरे-भरे बारह थनों वाली'
लेकिन उदय प्रकाश के सुअर नागार्जुन से बहुत अलग है। उन्होंने 'सूअर' श्रृंखला में कई कविताएं लिखी हैं। एक नृशंस समाज में सत्ता के बहुत सारे चेहरे होते हैं। उसमें क्रूरता भी होती है और फूहड़पन भी साफ झलकता है। उदय प्रकाश ने 'सूअर' कविता के माध्यम से इन्हीं विडम्बनाओं को उकेरा है। लेकिन उनकी कविताओं के सूअर को जानने और समझने के लिए उनके गद्य को भी टटोलना होगा। यह 'पीली छतरी वाली लड़की' का वही सुअर है जो ''खाउ, तोंदियल, कामुक, लुच्चा, जालसाज और रईस है जिसकी खातिर ही व्यवस्था और सरकार का इंतजाम किया गया है। इसी के सुख और भोग के लिए इतना बड़ा बाजार है। उसको सारे संसार की महान शैतानी प्रतिभाओं ने बहुत परिश्रम, हिकमत पूंजी और तकनीकी के साथ गढ़ा था, वह आदमी कितना शक्तिशाली था, इसका अंदाजा एक इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि उसने पिछले कई शताब्दियों के इतिहास में रचे बनाये गये कई दर्शनों, सिद्धान्तों और विचारों को एक झटके में कचड़ा बनाकर अपने आलीशान बंगले के पिछवाड़े के कूड़ेदान में डाल दिया था।''
सुअर श्रृंखला की कविताएं इसी संदर्भ की प्रतीकार्थी कविता कही जा सकती है, जिसमें सुअर, सर्वत्र शासन कर रहे पूँजीपति वर्ग का प्रतीक है और जो आकंठ शोषण में डूबा हुआ है। उदारीकरण के युग में तो यहां कहा गया था कि सबका विकेंद्रीकरण किया जाएगा जिससे चीजें सबकी पहुँच में होंगी। अर्थतंत्र, न्याय व्यवस्था, प्रशासन सबका विकेंद्रीकरण पर हुआ सबका उल्टा ही। आर्नोल्ड टायनबी अपनी पुस्तक 'ए स्टडी आफ हिस्ट्री' में सन् 1875 से 1880 के बीच इस युग के समाप्त होने की बात भी करते हैं। यह प्रथम दो विश्वयुद्धों के बाद का भी समय है। नीत्शे को इसके जन्मदाता के रूप में माना गया है। अब कोई राजकुमार नहीं रह गया। अब सब राजकुमार हैं। जीवन मूल्य बहुत तेजी से बदल रहे हैं। उदय प्रकाश अपनी कहानी पाल गोमरा का स्कूटर में लिखते हैं कि बाजारीकरण की दुनिया में बाजार सबका विकल्प बन चुका है। बस अब विपणन का पाठ बचा है। औरत, मर्द, बच्चे, नैतिकता सब कुछ बिकाऊ हो चुकी है। वे सुअर (दो) कविता में शासन सत्ता पर काबिज प्रभुत्व सम्पन्न वर्ग पर कटाक्ष करते है-
एक उँची इमारत से
बिल्कुल तड़के
एक तंदरुस्त सुअर निकला
और मगरमच्छ जैसी कार में
बैठकर, शहर की ओर चला गया
शहर में जलसा था, फलैश चमके
जै जै हुई, कॉफी बिस्कुट बटें, मालाएं उछली,
अगली सुबह, सुअर अखबार में, मुस्करा रहा था,
उसने कहा, हम विकास कर रहे हैं
उसी रात शहर से चीनी और मिट्टी का तेल गायब थे।
(सुनो कारीगर)
बात बस इतनी सी ही नहीं है। यह वह स्थिति है जब भारत में वैश्वीकरण की प्रारंभिक प्रक्रिया की शुरुआत हो रही थी। मुक्त व्यापार की यह अवधारणा मूलत: आज विश्व के सामने उपस्थित आर्थिक मंदी कोटा लाने का एक प्रयास था। उत्पादन की खपत के लिए आवश्यक बाजार को इस अवधारणा के जरिए उपलब्ध करवाया गया। उदारीकरण की इस प्रक्रिया ने कुछ वर्षों के लिए इस मंदी को टाले रखा, जिससे अर्थव्यवस्था पूंजीपतियों के साथ ही अंतर्राष्ट्रीय वित्त संस्थानों और भारतीय सत्ता वर्ग के लोगों के लिए लाभप्रद होती गई। उत्पादन की खपत के लिए बाजार उपलब्ध करवाने की इस प्रक्रिया में छोटे उद्योगों और घरेलू उद्योगों का विनाश किया गया और दूसरी तरफ उत्पादन-वितरण संतुलित करने के लिए उत्पादन क्षमता कम की गई। इन दोनों ही कारणों से बेरोजगारी बढऩे लगी। फासीवादी तर्कों ने इस बेरोजगारी को बखूबी भुनाया और अवसरों की कमी के लिए 'बाहरी समुदायों' को जिम्मेदार ठहराया कि इन्होंने यहां के संस्कारों पर कब्जा कर रखा है, इसलिए यहाँ के 'मूलनिवासी (हिंदू) अवसरों से वंचित है। ऐसा करके संघ परिवार ने अपना जनाधार-खासतौर से युवाओं का ध्यान मूल समस्याओं से हटाकर, उनको अपने हिंदू राष्ट्रवाद के एजेंडे के अनुसार 'बाहरी समुदायों' के खिलाफ संगठित किया। जनता की धार्मिक चेतना ने इस प्रक्रिया को आसान बनाया। पूंजीवाद के अंतर्विरोधों और संकट से आम लोगों में आर्थिक निराशा, बेरोजगारी, सार्वजनिक अवसरों में कटौती (अलगाव) बढ़ी। इस स्थिति में अपने आस्तित्व के लिए संघर्षरत लोगों को इसके मूल अंतर्विरोध न बताकर फासीवादी ताकतों ने उनकी चेतना में 'अन्य समुदाय' का तर्क बैठा दिया, जबकि उन अन्य समुदायों के लोग भी इस संकट को झेल रहे हैं। यह तर्क हिंदुत्व के पैरोकारों ने राष्ट्रीयता का स्वाभाविक दावा करते हुए दिया था। ऐसे बिभीषक समय में जब भूमंडलीकरण का भूत वर्तमान को निगलने को तत्पर हो तब उदय प्रकाश की कलम निर्भीकता और नैतिकता के साथ चलने का साहस देती है। सन्दर्भ है उनकी 'सुअर' कविताओं का। तो उनकी इन कविताओं में सुअर उस वर्ग विशेष का प्रतिनिधित्व करता है जो आज पूरे विश्व पर काबिज है। सुअर (पाँच) कविता में जब वह कह रहे हैं कि -
''दुनिया के हर बड़े शहर में
सुअर की इमारत थीं
वह एक विशाल-यन्त्र पक्षी पर बैठ कर
उन शहरों को जाता था
दुनिया में जितने मुल्क थे
उससे भी कहीं अधिक सुअर की इमारतें थीं।''
तब वह उसी वर्ग को चिन्हित कर रहे है, जो न केवल दुनिया के हर मुल्क के हर शहर की अनेक बहुमंजिली इमारतों का स्वामी है बल्कि इमारतों से भी ज्यादा उसकी बीबियाँ है। जो न केवल अपने यंत्र-पक्षी पर बैठ कर पूरी दुनिया को नियंत्रित कर सकता है, बल्कि वह हर शहर की हर इमारत के टच में रहता है। उसकी पैठ हर जगह है। वह गोलमेज सम्मेलन बुलाकर अपनी बीबियों पर गुर्रा सकता है और अपनी अनगिनत बीबियों से यह भी पूँछ सकता है कि उसके बच्चे उसके जैसे क्यों नहीं है। उत्तर किसी को भी चमत्कृत कर सकता है -
'किसी भी सुअर के बच्चे
शुरु में/सुअर नहीं होते
वे खरगोश और मेमने से भी ज्यादा
मुलायम, नर्म और/गये गुजरे होते हैं
वो तो हम हैं/जो उन्हें पढ़ाते सिखाते हैं
नसीहते देते हैं/वैसा माहौल बनाते हैं
इस तरह/धीरे धीरे हर रोज़
उन्हें सुअर बनाते हैं।'
यह एक भयानक स्थिति है। इसी स्थिति के कारण उदय प्रकाश की अनुभूति प्रक्रिया रोज-रोज निर्मित होते सत्य एवं धुंधले पड़ते सच से आंदोलित हो रही है, जो इस पूँजीवादी व्यवस्था के प्रति आक्रोश से भर उठती है। आज उत्तर आधुनिक यथार्थ की ग्लोबल संस्कृति विकसित होती जा रही है। जिसमें संक्रमित स्थिति के पनपने से जीवन के प्रति एक समग्रतावादी दृष्टिकोण का अभाव सालने लगा है। उत्तर आधुनिकता में उपयोगवादी धारणा ने व्यक्ति को अपदस्त कर दिया है। संगणक माध्यम एक नवीन बाजार उत्पन्न कर मनुष्य को अन्यान्य प्रकार छलने की कोशिश करता है। विज्ञापन, फैशन, नशाखोरों आदि के माध्यम से लीला विलास करते देखा जा सकता है, यथा - ''कुछ अपराधियों, नेताओं, लफंगों प्रवचनकारियों, खूंखार अभिनेताओं और नंगी अभिनेत्रियों के पोस्टर लगे थे पता चला किसी की हत्या हो गई है, राजधानी में कहीं कोई हादसा हुआ है और पूरी दिल्ली में कफ्र्यू है/कफ्र्यू लेकिन उस कमरे में नहीं था, वहां डांडिया था या डिस्को था वहां भीमसेन जोशी थे या माइकल जाक्सन, मैडोना थी या लता मंगेशकर, वहां नीबूं और नमकीन था, वर्षों से एक घड़ी लगातार चल रही थी, जिसकी खबरें सोडे और शराब से सील गई थीं।'' (रात में हारमोनियम)
उदय प्रकाश के अनुसार पांच प्रतिशत लोगों के हाथ में मनमाना राज्य है, बाकी अस्सी प्रतिशत लोगों की आँख में बूट और बारूद की सत्ता है। उदय जी के अनुसार आज के तानाशाह को पहचानना मुश्किल है। क्योंकि वह सफेद-सफेद कपड़े पहनकर, निशस्त्रीकरण की बातें करे या विनोबा भावे और संत तुकाराम के बारे में बातें करे वह सेना पुलिस अत्याचार अन्याय के खिलाफ होने की बातें करता हो, ऐसा हो सकता है। वह लिखते है कि -
'वह भाषणों में करता हो चिडिय़ों
और बच्चों से बेतहाशा प्यार
कहीं उसने बनवा दिया हो अस्पताल/धर्मशाला/कोई नृत्य केद्र
कोई पुस्तकालय/संभव है हमारे बीच ही के
लोग हमसे बहस करे/और कहें
कि यह है प्रमाण उसकी संवेदनशीलता का।' (अबूतर-कबूतर)
उदय व्यवस्था के उन कर्णधारों (सुअरों) की कथनी करनी का ब्योरा देने के बाद क्रांति पाठ पर अग्रसर हो जाते हैं-
'उसके मोहल्ले में
सफाई महकमें के कर्मचारियों ने
हड़ताल पर रखी थी/उन्हें पगार नहीं मिली थी
बाजार में राशन नहीं था/सब्जी गायब थी
फिर भी उन्होंने जाने क्यो/एक बड़े से चूल्हे पर
एक बड़ी सी कड़ाही चढ़ा रखी थी।
सूअर कड़ाही से/डर गया था।' (सुनो कारीगर)
शोषकवर्ग निम्नवर्ग के साथ तरह तरह के खेल खेलता है। अत्यधिक पीड़ा मनुष्य को मार डालती है या बगावत कराती है। 'अबूतर-कबूतर' की कुछ कविताएं इसको प्रमाणित करती हैं। 'बैरागी आया है गाँव' उसकी बड़ी ही विशिष्ट कविता है। इसमें नक्सलवादी आन्दोलन के प्रभाव को लक्षित किया जा सकता है। उनकी खूबी यह है कि इस आन्दोलन से प्रभावित, इस दौर में लिखी जा रही, साथी कविताओं की तरह हाहाकार नहीं मचाती, बल्कि किसानों और मजूदरों की चेतना में आ रहे परिवर्तनों को सूक्ष्मता से रेखांकित करती हैं। एक पक्ष यह भी है कि शोषित वर्ग क्रांति को अग्रसर तो है लेकिन शोषणकारी नीतियों द्वारा प्रभावित भी होता है। सुअर (चार) कविता में उदय लिखते है-
'सुअर ने कहा -
हिरनो ने शिकायत की है
कि जंगल में/घास की कमी है
हिरनों की तादाद
ज्यादा है/और घास की तादाद/कम है
सुअर ने कहा -
हिरन जिस तादाद में/पैदा होते हैं
घास उस तादाद में/पैदा नहीं होती
ये कौन सा तरीका है
कि हिरन/सुअर की तरह बच्चे जनें/फिर घास की शिकायत करें
सुअर ने कहा-
चूकि हिरनों ने/शिकायत की ही है
इसलिए अब/हिरन और घास का
अनुपात तय करना ही होगा।
हिरन कम होंगे/तो एक हिरन के हिस्से में
टन भर ज्यादा घास आएगी।' (सुनो कारीगर)
तो निरीह हिरन को ये अधिकार नहीं मिलना चाहिए कि वह सुअर की तरह जीवन यापन करने की सोच सके। हिरन और सुअर के बीच का ये भेद कोई नया नहीं है। यह सदियों पुरानी व्यवस्था है जिसमें हिरन जीवन भर गुलामी करने को बाध्य है। सुअर तीन कविता इस शोषण को बहुत अच्छे से परिभाषित करती है। उदय लिखते है कि -
'एक दिन सुअर को/खूब जोरों का जुकाम हुआ।
नाक बहने लगी/गले में घर्राहट
और खाँसी के झटके/नाक जब ज्यादा बहे
तो उसे पोंछना तो जरूरी है'
अब सुअर का जुकाम साधारण बात तो है नहीं, यह अपने आप में विशिष्ट घटना है। इसलिए वह मेमने को बुला कर कहता है -
'मेमने, अपने गर्म-गर्म
रोंओं से कती
ऊनी रूमाल मुझे दे
जो खूब साफ-सफेद हो'
लेकिन समस्या अब यह है कि मेमने को तीन दिन पहले ही मुड़वाकर सुअर ने अपने लिए जैकेट बनवाई थी और फिर से इतनी जल्दी रोये उगा लेना मेमने के लिए सम्भव नहीं था। उसकी यह मूक और असम्भाव्य स्थिति ही उसके लिए काल बन जाती है और फिर
'सुअर ने मेमने को मारा
उसकी खाल से नाक पोंछी
फिर एक टुकड़ा
दर्जी को दिया
और अपने सिर के लिए
नर्म-गर्म/साफ-सफेद
टोपी सिलाई।' (सुनो कारीगर)
बात उपमानों और प्रतीकों से भी परे जा चुकी है, हिरन, सुअर और मेमने के वेश में कौन सा वर्ग हमारे सामने है। सुअर के लिए किसी भी हिरन का शोषण करना याकि मेमने की खाल उतरवा देना, याकि उसे मार देना इतना सहज क्यों हो गया है। इस सामाजिक व्यवस्था की विसंगतियाँ और साथ ही इसके विरुद्ध लडऩे का जज्बा निश्चित रूप से उदय प्रकाश की कविता में दिखाई देता है। समकालीन हिन्दी कविता की चुनौतियों पर बात करने का मतलब पिछले पच्चीस-तीस वर्षों से एक खास मूड़ में लिखी जा रही कविता की चुुनौतियों पर बात करना है। चुनौतियों की फेहरिस्त लंबी है, दिन-प्रतिदिन और लंबी होती जा रही है। इन चुनौतियों की संख्या, ढूँढऩे वालों की बौद्धिकता एवं अभिव्यक्त की विलक्षणता के अनुसार घटती-बढ़ती रहती है। इन सब में उदय प्रकाश की कविता के अपने अलग मानदण्ड हैं।


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