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अप्रैल 2017

महेश अश्क की ग़ज़लें

महेश अश्क की ग़ज़लें

ग़ज़ल






बिजलियां, लपटें, आशियां और हम
हर तरफ़ फैलता धुआं और हम।

बोने को सौ हरे-भरे मौसम
काटने को उदासियां और हम।

ज़िंदगी ठंडे चूल्हे-चौके सी
दांव देती कमाइयां और हम।

झाडिय़ां झुटपुटे के अफ़साने
खून के छींटे चूडिय़ां और हम।

पांव के नीचे से खिसकती ज़मीं
पंख, परवाज़, आस्मां और हम।

चेहरा-चेहरा जुलूस अपना-सा
दूर तक खाली मुट्ठियां और हम।

लफ़्ज़ हक और लफ़्ज़ का मोहताज
अपने रंग में रंगी ज़ुबां और हम।
रात-दिन, रात-दिन की फोटो-प्रति
काग़जी फूल तितलियां और हम।

होंठ कुछ कहते आंख कुछ बुनती
एक खामोशी दरमियां और हम।

आइने आपकी तरह के सब
अक्स-दर-अक्स किर्चियां और हम।

चीलें मंडराती आस्मानों पर
घर का घर ओढ़े चुप्पियां और हम।


               * * *

दिन गुज़रता ये गिरता-पड़ता हुआ
दुख मुझे और मैं दुख को गढ़ता हुआ।

हर पकड़ छूटती पकड़ की तरह
गर्दनों पर दबाव बढ़ता हुआ।

आंख घिरती हुई अंधेरों से
हाथ जैसे चिराग़ गढ़ता हुआ।

खुद से मैं छूटता हुआ पीछे
रौंद कर खुद को आगे बढ़ता हुआ।

भूरा पड़ता एकेक हरा लमहा
सीना-सीना शिग़ाफ़ पड़ता हुआ।     (शिग़ाफ़- दरार)

शब्द शीशा सिफ़त चटखते हुए
अर्थ पारे की तर्ह चढ़ता हुआ।

सोच मिट्टी में इक उतरती हुई
मूड मौसम का कुछ बिगड़ता हुआ।

आदमी बनती-मिटती रेखाएं
और तोता नसीब पढ़ता हुआ।

क्या करूं मैं ये ठहरा - कुछ लेकर
कुछ से, कुछ तो कहीं हो कढ़ता हुआ...

                  * * *

तुझ में तुझ से अलग जो है पलता
काश तुझको भी कुछ कभी खलता।

आंख, वो सब पकड़ नहीं पाती
होंठ और कान में जो है चलता।

इतनी परछाइयों में रहते हो
तुम कहां हो पता नहीं चलता।

मैं बताता कि रात का क्या हो
मेरे कहने से दिन अगर ढलता।

हम भी होते हैं अपनी बातों में
काम लफ़्ज़ों ही से नहीं चलता।

तुम अंधेरों को अपने देखो तो
कुछ कहीं है चिराग़-सा जलता।

जो न होना था वो हुआ आख़िर
आदमी हाथ रह गया मलता...।


              * * *


आप कहते हैं जो है पैसा है
हम नहीं मानते सब ऐसा है।

हम तो बाज़ार तक गये भी नहीं
घर में यह मोल-भाव कैसा है।

रात एहसास खुलते ज़ख्मों का
दिन बदन टूटने के ऐसा है

कुछ के होने का कुछ जबाव नहीं
कुछ का होना सवाल जैसा है

क्यों कथा अपनी लिख के हो रुसवा
अपना दुख कोई ऐसा-वैसा है

आपको तो विदेश भी घर-सा
हमको घर भी विदेश जैसा है

तुमने दिल दे ही मारा पत्थर पर
यह तो जैसे को ठीक तैसा है...

     

            * * *




महेश अश्क 1970 से लिख रहे हैं। एक संग्रह 1995 में आया। गोरखपुर में रहते हैं। मो. 9454845102


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