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नवम्बर 2016

रेवती रमण शर्मा की कविताएं

रेवती रमण शर्मा

कविता





सूकड़ी नदी

सुबह-सुबह
यह कैसा शोरगुल है
कैसा हाहाकार
कैसी उठा-पटक
हाय-हाय मारपीट है
यह सब हो रहा
पानी के लिये
यूं तो अगला महायुद्ध
होना है पानी के लिये।

बिजली गुल है
आयेगी बिजली तो
आयेगा पानी
कुएं तालाब सूख गये हैं
सूकड़ी नदी तो है
सबकी प्यास बुझाने के लिये।

किसी ने नहीं देखा
कब से बह रही है
कहां है उसका उद्गम-स्थल
आते रहते दूर देश से
भांति-भांति के पाखी
पनडुक्की लगाती डुबकी।
सूकड़ी की धारा से
ले उड़ती एक छोटी मछली
तब चूजे चहचहाते हैं पेड़ पर।

गांव की एक नदी विवश है
कुएं तालाब भरने,
पपड़ाए प्यासे होठों की
प्यास बुझाने में
बहती रही जिसकी
अविरल-धारा/वह चुप है
चुप हैं गांव के लोग।

जानते हैं वे -
गांव से पहले समा गई है
सूकड़ी बोतलों में
जो थी कभी गांव
की स्वर्ण करधनी

खादी भंडार

खादी भंडार
की दीवार पर
तस्वीर में टंगे हैं
गांधी जी
अब भी कात रहे हैं सूत
तन ढंकने के लिये।
भंडार के भीतर
कोई नहीं है
जिसे ढंकना है अपना तन

आत्म-निर्भरता
पुरानी बात हो गई है
खादी फैशन है
फैशन रूखा नहीं होता
चिकना होता है
खादी अब चुभती नहीं है
बेहद सुखद है पहनने में।

इन कपड़ों में गांधी का
काता सूत नहीं है
सिर्फ गांधी जैसा
दिखने का सबूत है।

चित्र पुराना जरूर है
पर इससे बाहर आ गये होते गांधी
यहां रखे कपड़ों और
आज के ग्राहकों को देख
भाग खड़े होते गांधी।

ढोल

जो होते हैं ढोल
वे ढोल ही होते हैं
जितना मारो
उतना बजते हैं
जितना पीटो
उतना पिटते हैं
फिर भी रोने से बचते हैं।
पिटते-पिटते
उधड़ जाती है उनकी खाल
जब वे बजते हैं
तो बजते रहते हैं।

जब वे गांव और
बीच गली में बजते हैं
उलट पड़ती है भीड़
सुर-ताल-लय सब
जवानों के पैरों के साथ
मिल जाते हैं
जैसे लग गये हैं
ढोल के पैर।

वर्ना वे अकेले में
पड़े रहते हैं चुपचाप
अगले उत्सव तक।





रेवती रमण शर्मा अलवर में रहते हैं। कभी-कभी कविता करने वाले साहित्य के गहरे पाठक हैं। उनके बारे में एक सूचना जरूरी है कि 'पहल' के दोबारा प्रकाशन में उनका आग्रह, दबाव हमें कभी भूलेगा नहीं।


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