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अप्रैल - 2016

मंगलेश डबराल - सात कविताएँ

मंगलेश डबराल



मदर डेयरी
उन लाखों लाख लोगों में से कइयों को मैं जानता हूँ
जो बचपन में मदर डेयरी या अमूल का दूध पीकर बड़े हुए
और ज़िंदगी में जिन्होंने ठीक-ठाक काम किये
उनमें से कुछ और कहीं नहीं तो गृहस्थी की कला में ही हुए पारंगत
वे मांएं भी मैंने देखी हैं जिनके स्तनों में दूध नहीं उतरता था
लेकिन वे कर ही लेती थीं अपने बच्चों के लिए
एक पैकेट दूध का जुगाड़
फिर मैंने पढ़ा वर्गीज़ कूरियन की बाबत
कैसे उन्होंने अतीत की दूध-दही की कहावती नदियों के बरक्स
दूध-दही की वास्तविक नदी निकाली गुजरात के आणंद में
बड़े से छोटे किसानों और खेतिहर मजदूरों तक से बूँद-बूँद दूध इकठ्ठा करते हुए
निर्मित किया एक विशाल सहकार दूध का एक समुद्र
जिसे भरा जाता था दिन में दो बार 
और दूध के लिए तरसते राज्य और  देश को
दुनिया में सबसे ज्यादा दूध पैदा करनेवाले देश में बदल दिया
पहली बार भैंस के दूध से मक्खन-पनीर और बेबीफूड बनाना इसी का हिस्सा था
यह 'श्वेत क्रांति' अभी तक असंदिग्ध कामयाब बनी हुई है
हालाँकि उसकी लगभग सहजात पंजाब की 'हरित क्रांति' हो चुकी है विफल
लेकिन वर्गीज़ कूरियन शुरू से ही खटकते थे
तीसरी दुनिया के दूध पर कब्ज़ा करनेवाले बहुराष्ट्रीय निगमों 
और उनके देसी गुर्गों और उनके सरकारी आकाओं को
क्योंकि वे अपने आणंद को उनके साये से मुक्त रखते थे
सरकारी होने के बावजूद खुद को सरकारी नहीं 'गरीब किसानों का नौकर' कहते थे
और अपने जीवन काल में ही दंतकथा बन गये थे
पुरमज़ाक कूरियन को भी मज़ा आता था
नयी से नयी पूँजी के गुलाम नौकरशाहों नेताओं को चिढ़ाने में
कहते हैं एक आला प्रबंधन संस्थान के मुखिया ने उनसे कहा,
'तो मिस्टर कूरियन, आप हमारे छात्रों को गाँवों में भेजकर उनसे भैंस दुहाना चाहेंगे?'
कूरियन ने उतने ही तंज़ से जवाब दिया,
'नहीं, मैं चाहता हूँ कि वे अमेरिका जायें और सिगार पियें!'

इस कामयाबी का राज़ था उनका सिद्धांत
कि 'मनुष्य के विकास के संसाधन सौंपे जाने चाहिए मनुष्यों के हाथ'
और दूध हो या ग्रामीण प्रबंधन
उसके कर्ता-धर्ता खुद को मानते थे इन्हीं साधारण मनुष्यों के सेवक
इसीलिए श्याम बेनेगल की फिल्म 'मंथन' बन सकी
जिसके निर्माता लाखों दूधवाले किसान थे
जिन्होंने दो रुपये प्रति किसान देकर जुटाये फिल्म के लिए दस लाख
कूरियन की यह जीवन दृष्टि आला प्रबंधन के नौकरशाहों को नहीं आयी रास
सियासतदानों को भी उन्होंने कर दिया था नाराज़ 
जो सिर्फ अपने संभावित वोट बैंक की तरह देखते थे
आणंद के तीस लाख बीस हज़ार दूधवालों को
राज्य के सांप्रदायिक मुख्यमंत्री से भी उन्होंने मोल ले लिया था टकराव
और वही बना उनके निष्कासन की वजह
और जब 2012 में उनकी मृत्यु हुई तो न उन्हें राज्य का सम्मान मिला
न सांप्रदायिक मुख्यमंत्री श्रद्धांजलि देने आया
और न उनका नाम देश के सबसे बड़े सम्मान के लिए प्रस्तावित हुआ

डॉ वर्गीज़ कूरियन,
तुम्हें कभी किसी सम्मान की दरकार नहीं रही 
क्योंकि वह तुम्हें हर रोज़ मिलता था उन दूधियों से
जिनकी नियति तुमने बदल दी थी
कहते हैं तुम्हें दूध पसंद भी नहीं था तुमने कभी उसे पिया नहीं
लेकिन तुम्हारी जीवन कथा दूध जैसी धवल-तरल रही
डॉ कूरियन,
मेरी भी दूध पीने की उम्र बीत गयी
लेकिन सुबह-सुबह दूकानों में आते दूध के पैकेटों को
अब भी कुछ हसरत से देखता हूँ
और तुम्हारा अमूल या मदर डेयरी का दही खाता हूँ चाव से
वह गाढ़ी निर्गंध स्वादिष्ट सफेदी चकित करती है स्वाद की इंद्रियों को
जब भी दिखाई देता है मेज़ पर रखा हुआ दूध का गिलास
या किसी गरीब बच्चे के हाथ में एक कटोरे में ज़रा सा दूध
तो तुम्हारा नाम याद आता है
वह कुचक्र याद आता है जिसने तुम्हें अमूल छोडऩे को विवश किया
और जब मैं एक चम्मच भर गाढा दही मुंह में ले जाने को होता हूँ
तो सहसा एक उदासी घेर लेती है
और मैं अपनी आखों में उमड़ते पानी को रोकने की कोशिश करता हूँ।

मीडिया विमर्श
उन दिनों जब देश में एक नयी तरह का बंटवारा हो रहा था
काला और काला और सफेद और सफेद हो रहा था
एक तरफ लोग खाने और पीने को जीवन का अंतिम उद्देश्य मान रहे थे
दूसरी तरफ भूख से तड़पते लोगों की तादाद बढ़ रही थी
उदारीकरण की शुरुआत में जब निजी संपत्ति और ऊंची इमारतों के निर्माता
राष्ट्र निर्माता का सम्मान पा रहे थे
दूसरी तरफ गरीब जहां भी सर छुपाते वहां से खदेड़ दिये जाते थे
देश के एक बड़े और ता$कतवर अखबार ने तय किया
कि उसके पहले पन्ने पर सिर्फ उनकी खबर छपेगी जो खाते और पीते हैं
ऐसी स्वादिष्ट खबरें जो सुबह की चाय को बदज़ायका न करें 
इस तरह अखबार के मुखपृष्ठ पर
कारों जूतों कपड़ों कंप्यूटरों मोबाइलों फैशन परेडों डीलरों डिजाइनरों
मीडियाशाहों शराबपतियों चुटकी बजाकर अमीर बननेवालों ने प्रवेश किया
एक उद्योगपति ने फरमाया बहुत हुआ गरीबी का रोना-धोना
आइए अब हम अमीरी बढायें
देश एक विराट मेज़ की तरह फैला हुआ था जिस पर
एक अंतहीन कॉकटेल पार्टी जारी थी

समाज में जो कुछ दुर्दशा में था
उसे अखबार के भीतरी पन्नों पर फेंक दिया गया
रोग शोक दुर्घटना बाढ़ अकाल भुखमरी बढ़ते विकलांग खून के धब्बे
अखबारी कूड़ेदान में डाल दिये गये
किसान आत्महत्या करते थे भीतरी पन्नों के किसी कोने पर
आदिवासियों के घर उजाड़े जाते थे किसी हाशिये पर

ऐसे ही जश्नी माहौल के बीच एक दिन
अखबार के बूढ़े मालिक ने अपनी कोठी में आखिरी सांस ली
जिसकी बीमारी की सूचना अखबार बहुत दिनों से दाबे था
उसके बेटों को भी बूढ़े मालिक का जाना बहुत नहीं अखरा
क्योंकि उसकी पूँजी की तरह उसके विचार भी पुराने हो चुके थे
और फिर एक युग का अंत एक नये युग का आरंभ भी होता है
अगर संकट था तो सिर्फ यही कि मृत्यु की खबर कैसी कहाँ पर छापी जाये
आखिर तय हुआ कि मालिक का स्वर्गवास पहले पन्ने की सुर्खी होगी
ग्राहक की सुबह की चाय कसैली करने के सिवा चारा कोई और नहीं था

इस तरह एक दिन खुशी की सब खबरें भीतर के पन्नों पर पंहुच गयीं
कपडे जूते घडिय़ाँ मोबाइल फैशन परेड सब हाशियों पर चले गये
अखबार शोक से भर गया
नये युग की आवारा पूँजी ने अपनी परिपाटी को तोड़ दिया
और एक दिन के लिए पूंजी और मुनाफे पर मौत की जीत हुई।

स्मृति : एक
खिड़की की सलाखों से बाहर आती हुई लालटेन की रोशनी
पीले फूलों जैसी
हवा में हारमोनियम से उठते प्राचीन स्वर
छोटे-छोटे  बारीक बादलों की तरह चमकते हुए
शाम एक गुमसुम बच्ची की तरह छज्जे पर आकर  बैठ  गयी है
जंगल से घास-लकड़ी लेकर आती औरतें आँगन से गुज़रती हुईं
अपने नंगे पैरों की थाप छोड़ देती हैं

इस बीच बहुत सा समय बीत गया
कई बारिशें हुईं और सूख गयीं
बार-बार बर्फ गिरी और पिघल गयी
पत्थर अपनी जगह से खिसक कर कहीं और चले गये
वे पेड़ जो आँगन में फल देते थे और ज़्यादा ऊँचाइयों पर पहुँच गये
लोग भी कूच कर गये नयी शरणगाहों की ओर
अपने घरों के किवाड़ बंद करते हुए

एक मिटे हुए दृश्य के भीतर से तब भी आती रहती है
पीले फूलों जैसी लालटेन की रोशनी
एक हारमोनियम के बादलों जैसे उठते हुए स्वर
और आँगन में जंगल से घास-लकड़ी  लाती
स्त्रियों के पैरों की थाप।


स्मृति : दो
वह एक दृश्य था जिसमें एक पुराना घर था
जो बहुत से मनुष्यों के सांस लेने से बना था
उस दृश्य में फूल खिलते तारे चमकते पानी बहता
और समय किसी पहाड़ी चोटी से धूप की तरह
एक-एक कदम उतरता हुआ दिखाई देता
अब वहाँ वह दृश्य नहीं है बल्कि उसका एक खंडहर है
तुम लंबे समय से वहाँ लौटना चाहते रहे हो जहाँ उस दृश्य का खंडहर न हो
लेकिन अच्छी तरह जानते हो कि यह संभव नहीं है
और हर लौटना सिर्फ एक उजड़ी हुई जगह में जाना है 
एक अवशेष, एक अतीत और एक इतिहास में
एक दृश्य के अनस्तित्व में

इसलिए तुम पीछे नहीं बल्कि आगे जाते हो
अँधेरे में किसी कल्पित उजाले के सहारे रास्ता टटोलते हुए
किसी दूसरी जगह और किसी दूसरे समय की ओर
स्मृति ही दूसरा समय है जहां सहसा तुम्हें दिख जाता है
वह दृश्य उसका घर जहाँ लोगों की साँसें भरी हुई होती हैं
और फूल खिलते हैं तारे चमकते है पानी बहता है
और धूप एक चोटी से उतरती हुई दिखती है।

आतंरिक जीवन
मनुष्य एक साथ दो जिंदगियों में निवास करता है। एक बाहरी और एक भीतरी। एक ही समय में दो जगह होने से उसके मनुष्य होने की समग्रता का खाका निर्मित होता  है। मेरा बाहरी जीवन मेरे चारों और फैला हुआ है। जहाँ भी जाता हूँ वह दिखता ही रहता है। बाहरी जीवन में बहुत सी किताबें हैं अलमारियों में करीने से रखी हुईं शीशे के पल्लों के पीछे बंद। दुनिया में धूल और कई तरह की दूसरी गंदगियाँ बहुत हैं  इसलिए मैं उन्हें साफ करता, उलटता-पलटता,  फालतू लगने वाली किताबें छांट कर अलग कर देता और फिर वापस अलमारी में सजा देता जैसे एक माली पौधों की बेतरतीब शाखों-पत्तों को काट-छांट कर अलग कर देता है। इस तरह बाहरी जीवन एक बागीचे की मानिंद खिला हुआ दिखता। मेरे कई फोटो भी इसी पृष्ठभूमि के साथ खींचे गये। अलमारी के एक कोने में कुछ ऐसे खाने भी हैं जहाँ कुछ कम रोशनी रहती जिनमें शीशे नहीं लगे थे और ऐसे तमाम तरह के कागज़ जमा होते रहते जिन्हें बाद में या फुर्सत के व$क्त ज्यादा गंभीरता से देखने के मकसद से ठूंस दिया जाता। शायद उनमें ऐसे क्षणों के दस्तावेज़ थे जिन्हें मैं उडऩे या नष्ट होने से बचाना चाहता था। समय-समय पर जब उनकी तरफ निगाह जाती तो लगता कि वे बहुत ज़रूरी हैं, लेकिन यह समझ नहीं आता था कि इनमें क्या है और फिर आश्चर्य होता कि यह सब अंबार कब जमा होता रहा और क्यों इसकी छंटाई नहीं की गयी और इसे करीने से रखने में अब कितना ज्यादा समय और श्रम लगने वाला है। उन खानों में रखी हुई फाइलें फूल रही थीं, कागज़ बाहर को निकल रहे थे और वहाँ अब कुछ और ठूंसना मुमकिन नहीं था। अंतत: मैंने उनकी सफाई करने का बीड़ा उठाया, लेकिन जैसे ही उन्हें छुआ, आपस में सटाकर रखी गयी फाइलें गिर पड़ीं, बहुत सारे भुरभुराते कागज़ छितरा कर फट गये और धूल का एक बड़ा सा बादल मेरे मुंह, नाक, आँखों और कानों में घुस गया। मैंने देखा अरे यही है मेरा आतंरिक जीवन जो बाहरी जीवन के बिलकुल बगल में रखा हुआ था, जो अब धराशायी है जिसके कागज़ भुरभुरा गये हैं अक्षरों की स्याही उड़ गयी है, वाक्य इस $कदर धुंधले पड़ चुके हैं कि पढऩे में नहीं आते और सब कुछ एक अबूझ लिपि में बदल चुका है।

तानाशाह
तानाशाहों को अपने पूर्वजों के जीवन का अध्ययन नहीं करना पड़ता। वे उनकी पुरानी तस्वीरों को जेब में नहीं रखते या उनके दिल का एक्स-रे नहीं देखते। यह स्वत:स्फूर्त तरीके से होता है कि हवा में बंदूक की तरह उठे उनके हाथ या बंधी हुई मुठ्ठी के साथ पिस्तौल की नोक की तरह उठी हुई अंगुली से कुछ पुराने तानाशाहों की याद आ जाती है या एक काली गुफा जैसा खुला हुआ उनका मुंह इतिहास में किसी ऐसे ही खुले हुए मुंह की नकल बन जाता है। वे अपनी आंखों में काफी कोमलता और मासूमियत लाने की कोशिश करते हैं लेकिन क्रूरता एक झिल्ली को भेदती हुई बाहर आती है और इतिहास की  सबसे क्रूर आंखों में तब्दील हो जाती है। तानाशाह मुस्कराते हैं भाषण देते हैं और भरोसा दिलाने की  कोशिश करते हैं कि वे मनुष्य है, लेकिन इस कोशिश में उनकी भंगिमाएं जिन प्राणियों से मिलती-जुलती हैं वे मनुष्य नहीं होते। तानाशाह सुंदर दिखने की कोशिश करते हैं आकर्षक कपड़े पहनते हैं बार-बार सज-धज बदलते हैं, लेकिन यह सब अंतत: तानाशाहों का मेकअप बनकर रह जाता है।
इतिहास में कई बार तानाशाहों का अंत हो चुका है, लेकिन इससे उन पर कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि उन्हें लगता है वे पहली बार हुए हैं।

मोबाइल
वे गले में सोने की मोटी जंजीर पहनते हैं
कमर में चौड़ी बेल्ट लगाते हैं
और मोबाइलों पर बात करते हैं
वे एक आधे अंधेरे और आधे उजले रेस्तरां में घुसते हैं
और खाने और पीने का ऑर्डर देते हैं
वे आपस में जाम टकराते हैं
और मोबाइलों पर बात करते हैं

उनके मोबाइलों का रंग काला है या आबनूसी
चांदी जैसा या रहस्यमय नीला
उनके आकार पतले छरहरे या सुडौल आकर्षक
वे अपने नये मोबाइलों को अपनी नयी प्रेमिकाओं की तरह देखते हैं
और उन पर बात करते हैं
वे एक-दूसरे के मोबाइल हाथ में लेकर खेलते हैं
और उनकी विशेषताओं का वर्णन करते हैं
वे एक अंधेरे-उजले रेस्तरां में घुसते हैं
और ज्यादा खाने और ज्यादा पीने का ऑर्डर देते हैं
वे धरती का एक टुकड़ा खरीदने का ऑर्डर देते हैं
वे जंगल पहाड़ नदी पेड़
और उनमें दबे खनिज को खरीदने का ऑर्डर देते हैं
और मोबाइलों पर बात करते हैं

वे पता करते रहते हैं
कहां कितना खा और पी सकते हैं
कहां कितनी संपत्ति बना सकते हैं
वे पता करते रहते हैं
धरती कहां पर सस्ती है खाना-पीना कहां पर महंगा है
वे फिर से एक अंधेरे-उजले रेस्तरां में बैठते हैं
और सस्ती धरती और महंगे खाने-पीने का ऑर्डर देते हैं
और मोबाइलों पर बात करते हैं
वे फिर से अपनी जंजीरें ठीक करते हैं बेल्ट कसते हैं
वे अपने मोबाइलों को अपने हथियारों की तरह उठाते हैं
और फिर से कुछ खऱीदने के लिए चल देते हैं।

( अंतिम दो कविताएँ कुछ बदले हुए रूप में पहले प्रकाशित हुई हैं, लेकिन यहाँ उनका संशोधित और अंतिम प्रारूप दिया गया है।)
मो. 09910402459


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