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जनवरी 2013

पाँच कवितायें

सूरज

वर्तमान की दूरबीन से कुंती के निर्णय का सिंहावलोकन

मिथकों से प्रदूषित इतिहास में जो इलाके कुरुक्षेत्र थे उन्हें वर्तमान के कन्धे पर टँगी सुधरे विचारों के लेंस वाली दूरबीन से देखिए, पाँयेगे कुंती ने नहीं वेद व्यास ने कुंती के मुख से जबरन कहा था पाँचों मिल कर बाँट लो

यह भातृप्रेम या मातृप्रेम नहीं था

यह कुंती का साहसी निर्णय था जिसे वेद व्यास ने नैतिक शिक्षा में बदल कर कुंती के नायिका होने का गौरव छीन लिया वह कुरुक्षेत्र की धरती को पढ़ चुकी थी यहाँ जमीन से जुडी थी बेटियों की हत्याएं, जनगणना और दूसरे परिवार को विवाह में जमीन देना, गवारा न था हत्याएँ उन दिनों भ्रूण के बाहर ही प्रचलित रही होंगी स्त्रियों के अनुपलब्ध होते जाने की बाबत द्रौपती से जो मिन्नते उसने की होंगी वेद व्यास ने उसे समझादारी से मिटा दिया यह औचक नहीं कि विराटनगर की सुभद्रा की तरह आज हरियाणा राजस्थान और कुरुक्षेत्र के अन्य इलाकों में बाहर से लड़कियाँ लाई जा रही हैं इस 'लाने' में खरीदना तब तक ही छुपा हुआ है जब तक कोई वेद व्यास इसे प्रेम कथा का दर्जा नहीं देता

जंग लगी चुप्पियों वाला दफ्तरबाज

रात की ओस में भींगी चुप्पियाँ
खाती रही हैं जंग, दफ्तरबाज
स्मृतियों से अलग नहीं हो पाता

तीस की उम्र और स्वस्थ जीवन ने बदल दिए हैं
प्रेम के मायने बीस के मुकाबिल
अपने सिवा किसी के भी साथ नहीं रह सकता
रात-ओ-दिन
माँ बाप स्मृतियों को छेंकते जा रहे हैं
बीस की उस खास उम्र की उसे एक जरा स्मृति नहीं
जब वो किसी के लिए घर बार छोडऩे को तैयार था

दफ्तर उसे प्रिय नहीं पर
बेहतर जान पड़ता है अन्य से उलट
दफ्तर में आश्चर्य नहीं मिलते प्रेम की तरह
अकेलापन जरूर मिलता है जिसे वह
थाह नहीं पाया आजतक
उसे यह भी नहीं मालूम कि
अकेलापन पसन्द है या नापसन्द
अकेलापन पसन्द किया जाया चाहिए या नापसन्द

दफ्तर से एक शिकायत
वहाँ काम करते हुए स्मृतियों में रहने
की गुंजाईश उसे परेशान करती है

एक दिन अपनी तनखैया रशीद का प्रिंट
निकालते हुए उसपर बेसाख्ता यह ख्याल गुजरा
क्या होगा जीवन जब उसकी माँ नहीं रहेगी
वह अपने ख्याल पर बौरा गया
खुद से ही रूठ गया, चाहने लगा कुछ और ही
दिन में एक बार वह यह जरूर सोचता है
उसे घर लौट आना चाहिए

कविता के बाहर पाँव रखते हुए

सुथरे निथरे दराज से चूहे निकलते हैं, डरे हुए दिमाग से दु:स्वप्न
फाईलें कागज से अटी पड़ी हैं, यादाश्त शब्दों से
दफ्तर के जँगले जिनके बाहर वो हरा है जो कविता नहीं,
भारी पत्थर है
समय की नस पर पड़ गया है।

दफ्तर नमक की तरह घुलता जा रहा है रक्त में
शुक्रगुजारी और एहसानफरोशी ने चोट की है रीढ़ पर
काम, जैसा भी है, अपना लगता है और जरूरी भी।

फुर्सत उस जमाने की कविता है
जहाँ पेड़ पर फल लगते थे
जिनसे रौशनी निकलती थी
प्रेम, शिक्षक की तरह, लाया कविता तक
विदा के वक्त प्रेम ने
कविता से लगे रहने का ध्यान धराया

आसान नहीं था कविता के बाहर पाँव रखना
जैसे उस मित्र का परित्याग था
जिसके साथ कदम दर कदम मिला पाने में असमर्थ हों।

वो शब्द सारे
जिनसे कविता की छत
और दीवाल गढ़ा करता था कवि
पड़े रहेंगे,
इनसे भयभीत है कवि या शर्मिन्दा
इसका ठीक ठीक अन्दाजा है मुश्किल,
जाग रहे समय का नहीं पता
पर शब्द हैं साथी
यह कवि भलीभाँति जानता है नीन्द में
जहाँ हर क्षण पलक वो कर रहा होता है
अपनी नई कविता का
आखिरी ड्राफ्ट।

मेरे खरीददार

(किसी ढाबे से रात का खाना पैक करा रही सुन्दरतम युवती के लिये, जो उस दरमियान तन्दूर के पास खड़ी अपने कोमल हाथ सेंक रही है और शर्तिया मुझे याद कर रही है, जबकि मैं हूँ कि वहीं हूँ - उसी तन्दूर में..)

तुमने मेरी कीमत नींद लगाई थी
जो हमने स्वप्न देखे वो सूद थे
जब स्वप्न चूरे में बिखर गया
तुमने मुझे समुद्र के हाथों बेच दिया

मेरी स्त्री!
बिकना मेरे भाग्य का अंतिम किनारा रहा
पर तुम ऐसा करोगी इसका भान नहीं था,
लगा तुम गुम हो गई हो
किसी बिन-आबादी वाले इलाके में

मैंने समुद्र से लड़ाई मोल ली
उसे पराजित किया
तुम्हारे लिये तोड़ लाया समुद्र से चार लहरें
जैसे मैं जानता था तुम्हारे सलोने
वक्षों को होगा इन लहरों का इन्तजार

तब,
मेरी स्मृतियों को औने पौने में खरीद
तुमने मुझे बर्फ को बेच दिया
जो तुम्हारी लम्बी उंगलियों के
पोरों की तरह ठंढी थी

बर्फ के लिए मैं बेसम्भाल था
उसने मुझे पर्वत को बेच दिया
पर्वत ने शाम को
शाम को देवदार को
देवदार ने पत्थरों को
और पत्थरों ने मुझे नदी को बेच दिया

स्मृतिहीन जीवन के लिये धिक्कारते हुए
नदी ने मुझे पाला अपने गर्भ की मछलियों,
एकांत,
और शीतल आसमान के सामियाने के सहारे

नदी को आगे बहुत दूर जाना था
उसने मुझे कला को बेच दिया
मात्र एक वादे की कीमत पर

कला के पास रोटी के अलावा देने के लिये सबकुछ था
कला ने साँस लेने की तरकीब सिखाई
फाँकों में सम पर बने रहने का सलीका
और तुम्हें याद कर सकूँ इसलिये कविता सिखाई

अनुपलब्ध रोटी के लिये कला उदास रहती थी
उसने विचार से सौदा किया
और जो मौसम उन दिनों था
उस मौसम ने विचार के कान भरे
विचार ने मुझे अच्छाईयों का गुलाम बनाना चाहा
मैंने यह शर्त अपने पूरेपन नामंजूर की
मेरे इंकार पर विचार ने मुझे गुलाम
बताकर बाज़ार को बेच दिया

बाजार ने मुझे रौंदा
शत्रु की तरह नहीं
मिट्टी की तरह और ऐसा करते हुए
वो आत्मीय कुम्हार की धोती बान्धे था
जिसमें चार पैबन्द थे

चार पैबन्द से
चार लहरों की स्मृति मुझे वापस मिली
जिसकी सजा में बाजार ने
मेरा सौदा आग से कर लिया

बाजार को कीमत मिली और
मुझे अपने नाकारा नहीं होने का
इकलौता सबूत

तब मुझे तुम्हारी बहुत याद आई

आज शाम जब आगे मुझे
तन्दूर में सजा रही थी
मैं तुम्हें याद कर रहा था

उपलों के बीच तुम्हारी याद सीझती रही
सीझती रही
सीझती रही...

जिसकी आंच में सिंक रहे थे
तुम्हारे कोमल हाथ
और सिंक रही थीं
तुम्हारे लिये रोटियाँ

जिन्हें पानी चाहिये

दो नौ-उम्र लड़कियाँ खड़ी
घाट की सीढिय़ों पर
एक दूसरे से बिनबोले बतियाये
खींच रहीं हैं एक ही सिगरेट के
लगातार दिलकश कश...

दोनों स्थिरचित हैं
जीवन में उनकी असीम आस्था
उनकी आंखों के पानी से झिलमिला रही है,
नदी निहार रही है उन्हें एकटुक
हज़ारों वर्ष पुरानी काशी भी
नाव भी
घाट, घाट की चौकी,
छतरियाँ, गोलगप्पे, कदम्ब का पेड़,
आते जाते हिन्दी के राहगीर... सब के सब

वे दोनों किसी को नहीं देख रही हैं।

उनदोनों नौ-उम्रों के सावलें होठों पर
खिलती है मुस्कुराहट गोया नाव से
पूछा हो : एक कश चलेगा?
नाव ने लजाते हुए इंकार किया।

चाँद और उन दोनों के चेहरे का रंग उदास हुआ है
उनके चेहरे का पानी जरा छलका
जब यह सवाल नदी की ओर उछाला।
नदी ने अपने फेफड़े में पैठे के दर्द की जामिन
बताया,
रोक दिया गया है मेरा रक्त प्रवाह
उपर कहीं हिमालयी इलाके में
लड़कियों ने भरे आखिरी कश
धुआँ उनकी आंखों में उतर आया

सिगरेट का आखिरी टुकड़ा उछाला
नदी के सीने पर जैसे रोपना हो
सिगरेट के बीज...

उठी
और चल पड़ी किसी सोच में डूबी
जैसे जाना हो इन्हें टिहरी
करना हो इन्हें नदी के फेफड़े का इलाज।

'सूरज' का वास्तविक परिचय, कवि के आग्रह के कारण गोपनीय है। ये उनकी प्राथमिक प्रकाशित होती कवितायेँ हैं। उन्हें लम्बी प्रतीक्षा प्रिय है। कविताओं को प्राप्त कराने में चन्दन पांडे का सहयोग है।


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