मुखपृष्ठ पिछले अंक कहानी खाप के चलते
मार्च : 2015

खाप के चलते

अरुण पाण्डे

लम्बी कहानी




मातादीन हलवाई जब सुबह-सुबह अपनी दुकान खोलने पहुँचा तो उसे रोज की तरह भट्टी की राख के ढेर पर झबरा सोता हुआ मिला। दरवाजे के पल्लों के चर्र-मर्र और खटर-पटर के चलते झबरा को लगा कि आज कुछ देर हो गई है। उसने राख के ढेर पर पड़े-पड़े ही अपनी आँखों पर से अपने पंजे हटाये और आसमान की ओर निहारा। स्याह आसमान में सफेदी का रंग मिल रहा था और झबरा ने अंदाज लगाया कि अब मातादीन आकर इशारा करेगा कि अब वह उठ जाए। यह झबरा की एक तरह से ड्यूटी थी कि रात में मातादीन की दुकान बंद होने और सुबह दुकान खुलने तक वह दुकान के ही आस-पास बना रहे और एक तरह से दुकान की चौकीदारी करे। इस चौकीदारी के एवज में उसे मातादीन के रोज के ग्राहकों की जूठन के साथ-साथ कभी-कभी साफ-सुथरी चीजें भी मातादीन की ओर से खाने को मिल जाती थीं। झबरा को और चाहिये भी क्या? पिछले कई वर्षों का यह नियम है। भूख और नींद ही तो उसकी जरूरत है और जब दोनों जरूरतें किसी एक ही ठीहे पर पूरी हो जाये तो कोई कहीं और जाये भी क्यों? मातादीन के इस ठीहे पर उसकी भूख का भी इंतजाम था और भरपूर नींद का भी। कुनकुनी राख के बिस्तर पर वह जो देर रात आकर लेटता तो उसे दूर अपने बचपन की याद ताजा हो जाती जब वह अपने भाई-बहिनों के साथ अपनी माँ की गोद में दुबकता-फुदकता था, और नींद का भी क्या रात-बिरात क्या मजाल जो कोई अजनबी मोहल्ले की इस गली में पाँव रख सके। रामभरोसे मास्टर के घर से लेकर शुरू होने वाली इस गली के बीच में थी मातादीन की दुकान और दूसरी छोर पर शुकुल जी का बाड़ा। बीच में इमरती बाई की सब्जी की दुकान, मनोहर तेली की किराने की दुकान और रफीक टेलर मास्टर की दुकान पड़ती थी। बाकी सब रिहायशी घर थे एक मंजिले, दो मंजिले, कच्चे और पक्के। रामभरोसे मास्टर और शुकुल जी के बाड़े से आगे और भी रास्ते आकर इस गली से जुड़ जाते थे पर झबरा ने अपने जिम्मे बस इस गली की जिम्मेदारी ले रखी थी। उसकी जरूरत जब यहीं से पूरी हो जाती हो तो वह और किसी गली में क्यों ताके झांकें?
मतादीन ने कण्डों की बोरी और लकड़ी का गट्ठर लाकर भट्टी के पास रखा तो झबरा अपने राख के बिस्तर से उठ खड़ा हुआ। पिछले पैरों को फैलाकर और अगले पैरों को सिकोड़कर उसने अपने प्रतिदिन की योग क्रिया को दुहराया और इस दुहराव से उसके बदन में झुरझुरी सी आ गई। गली में अभी सन्नाटा ही था। उसे पता है कि जब मातादीन भट्टी जलाकर दुकान के अन्दर से बोरी में से आलू निकाल कर उबलने के लिए रखेगा उसके थोड़ी देर बाद दूध वाले रामकृपाल का प्रवेश गली में होगा। ये रामकृपाल सबसे पहले मातादीन की दुकान पर आकर अपनी साइकिल टिकायेगा और फिर एक बाल्टी दूध मातादीन को सौंपकर दूसरी बाल्टी उठाकर गली के और घरों में बांटने जाएगा। जब तक रामकृपाल गली के घरों में दूध बांट कर आयेगा तब तक मातादीन रामकृपाल की दूध से भरी बाल्टी एक बड़े गंज में पलटा कर उसे भी भट्टी पर चढ़ा देगा। झबरा को अचानक कुछ याद आया तो वह दौड़ता हुआ शुकुल जी बाड़े तक गया और वहां जुडऩे वाले रास्तों का मुआयना करके वापस लौटा। पर उसने एक नजर मातादीन की दुकान पर डाली और फिर रामभरोसे मास्टर के घर तक दौड़ लगाकर उन रास्तों का भी मुआयना कर लिया। उसके हिसाब से सब कुछ दुरूस्त था। गली के इस कोने से उस कोने तक जीवन के लक्षण सांस लेने लगे थे और घरों में होने वाली दैनिन्दिनी की खटपट राग के विलम्बित लय में झबरा डोलता हुआ मातादीन की दुकान तक आ पहुँचा। मातादीन दुकान के अन्दर नई मैदे की बोरी को खोल कर उसमें से मैदा थाली में निकाल रहा था। बाहर रखे दूध पर से उसका ध्यान उचट गया था। झबरा ने जब देखा कि दूध उफनाने को है तो उसने भौंक कर मातादीन को आगाह किया। मातादीन बाहर निकला और भट्टी में से लकडिय़ां बाहर खींच दी। झबरा पर एक दोस्ताना नजर डालकर मातादीन फिर से मैदे की बोरी और थाली के साथ उलझ पड़ा। सरकारी नलों से सूं सू की आवाज आने लगी थी और यह मुहल्ले में पानी आने की एक तरह की घण्टी है। झबरा ने सबसे पहले मातादीन को भौंक कर बताया फिर वह सभी मुहल्ले वालों को बताने निकल पड़ा। झबरा जानता है कि थोड़ी देर ही कारपोरेशन का नल आता है अत: जो भर ले वो भर ले वरना पूरे दिन हलाकान होना पड़ेगा। अब गली में अलग-अलग बर्तनों का शोर बगर गया। गली के इस छोर से लेकर उस छोर तक लगी टोटियों के आगे बर्तनों की कतारें व झुण्ड दिखाई देने लगे थे। अभी पानी नहीं आया था पर झबरा जानता था कि अब ज्यादा देर नहीं लगेगी। उसने एक बार मातादीन की दुकान के सामने ही खड़ा होकर दांये और बांये नजर दौड़ाई कि कौन पानी की लाइन में नहीं लगा है। दांई और उसे शंकरलाल पोस्टमास्टर और बांई ओर उसे वर्मा जी का ठीहा खाली मिला। वह पहले दांयी ओर दौड़ा और पोस्टमास्टर के दरवाजे पर धौल जमाकर वह पीछे लौटा और वर्मा जी के दरवाजे पर दस्तक दे डाली। अब फिर वह मातादीन की दुकान के सामने था। उसकी सुबह की दिनचर्या का एक बड़ा भाग पूरा हो गया था इसलिए वह थोड़ा निश्चिंत था। मातादीन की भट्टी पर चढ़े आलू उबल गये थे और मातादीन ने जलेबी और समोसे के लिए मैदा अलग-अलग थालियों में निकाल लिया था। गले में अखबार वाला बण्टी आ चुका था। घरों में अखबार डालने के बाद उसकी साइकिल भी रामकृपाल ग्वाले की साइकिल के बाजू में आकर खड़ी होती है। रामकृपाल दूध बांटकर आ गया है और वह अब वहीं पट्टी पर बैठकर बीड़ी सुलगायेगा। बण्टी की कैरियर से अखबार निकाल कर उलटेगा पलटेगा और फिर किसी समाचार के बारे में मातादीन को बतायेगा। मातादीन के लिए यह समय भारी व्यस्तता के हैं। उसे अभी समोसे के लिए मैदा सानना है। जलेबी के लिए मैदा घोलना है। आलू छीलकर समोसे का मसाला बनाना है। उसे पता है कि अखबार तो होते ही हैं खबरों के लिए। वह तो बण्टी से अखबार सिर्फ इसलिए ले लेता है कि जिससे ग्राहक थोड़ी देर खबरों में उलझे रहें और वह एक-एक करके उनको निपटाता जाए। उसे पता है अभी कितना काम बाकी पड़ा है। उसके पास अभी रामकृपाल की खबर पर ध्यान देने और उससे कुछ कहने को कोई समय नहीं है। वह एक दौरी में उबले आलू पलटता है और पटा और चाकू सामने रखकर मिर्ची, प्याज, अदरख, आदि काटने लगता है। उसकी दोनों भट्टियां खाली हो गई हैं। एक पर वह कड़ाही चढ़ाकर उसमें तेल और मसाले के डब्बे से समोसे के मसाले के लिए जरूरी सामान निकालकर कड़ाही में डालता है। आलू छील और मसल कर वह उसे एक तरफ रख देता है और कड़ाही में गर्म हुए तेल में मिर्ची, अदरख और प्याज डालकर वह भूनने लगता है।
झबरा एक बार फिर अपने बदन को झटकारता है और बिना मतलब के गली के इस छोर से उस छोर तक दौड़ लगा देता है। उसकी इस प्रक्रिया में उसे समझ में आ जाता है कि प्राय: सभी घरों में जाग हो गई और घरेलू आवाजों में कुछ बाहरी आवाजें भी शामिल हो गई हैं। कुछ रेडियो, कुछ टेप और कुछ टी वी के साथ-साथ कुछ पूजन व भजन की भी आवाजें, जिसमें शामिल हैं। झबरा एक खुले नल के नीचे अपने को खड़ा कर देता है और अपने बदन की राख को बहा डालता है। अपने भीगे बदन को लेकर वह वर्मा जी के चबूतरे पर खड़ा होता है और पूरे शरीर को ऐसा झटका देता है कि उसके रोंए में मौजूद पानी के कण छोटी-छोटी बूंदों की शक्त में डमरू की लय से वातावरण में बिखर जाते हैं। अब वह तरोताजा है।
रामसेवक बाबू के छोर से गायों का झुण्ड गली में प्रवेश करता है। इस समूह में दुलारी, कबरी, श्यामा, भूरी और शन्नों हैं, साथ ही कबरी और भूरी का बछड़ा भी है। यह समूह गर्दन झुकाए गली से गुजरता है और झबरा वर्मा जी के चबूतरे से ही भौंक कर उन्हें बता देता है कि वह तैयार है। ये सभी गायें आस-पास के मुहल्ले की ही हैं जिन्हें उनके मालिक दूध दुहने के बाद छोड़ देते हैं, पहाड़ी पर चरने जाने के लिए। शुकुल जी के बाड़े से लगी हुई गली जहां खत्म होती है वहां से पहाड़ी की चढ़ाई शुरू होती है। इन गायों के साथ झबरा का दोस्ताना है। वह अपनी अगुवाई में इन्हें लेकर जंगल में जाता है। पहले यह काम उसकी दिनचर्या में नहीं था पर एक दिन उसने देखा कि जब मातादीन सुबह की दुकानदारी समेट कर दोपहर में खोवा काटने में लगा था तब शुकुल जी के बाड़े की ओर से इन गायों का समूह बेतहाशा दौड़ता हुआ गली में घुसा। वह तो गनीमत थी कि गली में ज्यादा चहल-पहल नहीं थी वरना इनकी चपेट में कोई भी पड़ सकता था। झबरा के पहले कान खड़े हुए और फिर वह भी झट से खड़ा हो गया। गायों का समूह दौड़ता हुआ गली से गुजर गया और रामसेवक बाबू के घर के मोड़ पर जाकर अदृश्य हो गया। झबरा की समझ में कुछ नहीं आया। वह तय नहीं कर पाया कि वह क्या करे। उसने कारण की खोज उल्टी दिशा में शुरू की। वह शुकुल जी के बाड़े वाले छोर तक सरपट दौड़ा और पहाड़ी की ढलान पर जाकर खड़ा हो गया। वहां उसे धूल में लोटते आलू और कालू मिल गये। उसने उनसे पूछा क्यों दुलारी और उसकी साथ की गायों को तुम दोनों ने परेशान किया। लालू और कालू झबरा के समक्ष आज्ञाकारी सेवक की तरह दुम हिलाने लगे और बोले नहीं वे तो यहीं धूल में लोट रहे थे। वे सब गायें तो जंगल से ही दौड़ती आयीं थीं। झबरा ने लालू व कालू को अपने पीछे आने को कहा और जंगल की ओर दौड़ पड़ा। कुछ अंदर जाने पर भी उन्हें ऐसा कोई कारण नहीं दिखा जो गायों के भगदड़ का सही कारण हो। वे तीनों वापस लौट आये।
शुकुल जी के बाड़े के मोड़ तक आकर लालू और कालू ठहर गये और झबरा अकेले गली में घुस गया। लालू व कालू को अपनी सीमा मालूम थी और वे उसका उल्लंघन अब नहीं करते क्योंकि झबरा की नाराजगी वे मोल नहीं ले सकते थे। मातादीन खोवा काटकर अब उसे किश्ती में पलटने लगा था। झबरा ने अन्दाजा लगाया कि अभी मातादीन के पास दो घण्टे का काम बाकी है। वह रामसेवक बाबू वाले छोर की ओर चल पड़ा। उसे दुलारी से मिलकर उनकी डर का कारण जो पता लगाना था। रामसेवक बाबू के घर से कोई सौ गज की दूरी पर बाजपेयी जी का घर था जहां दुलारी रहती थी। झबरा जब बाजपेयी जी की दलान में पहुंचा था तब उसे दुलारी बैठी हुई मिली। उसके पास ही श्यामा, शन्नो और कबरी भी थी। झबरा भी उनके बीच जाकर बैठ गया। उन लोगों ने गर्दन मोड़कर झबरा की ओर देखा था और फिर नजरें फेर लीं। झबरा से अपनी यह उपेक्षा बर्दाश्त नहीं हुई और वो बोला - अरे दुलारी मुझसे क्यूं नाराज है? मैंने क्या किया? दुलारी ने अपने चेहरे के पास उड़ रही मक्खियों को अपने कान फडफ़ड़ा कर भगाया और बोली - भइया हम तुमसे क्यूं नाराज होंगे हम तो अपनी किस्मत से नाराज हैं तुम तो मातादीन के यहाँ बस जम कर हलवा पूरी खाओ, तुम्हें हमारी तकलीफ से क्या वास्ता। झबरा को दुलारी का यह ताना मारना बुरा लगा तो वह बोला- मातादीन क्या मुफ्त में हलवा पूरी खिलाता है। मैं पूरी रात उसकी दुकान और घर की चौकीदारी करता हूँ। तुम तो ये बताओं कि जंगल में आज क्या हुआ तो तुम सब डर कर भाग आयीं। दुलारी ने श्यामा की ओर देखा तो श्यामा ने कहा झबरा आज हम लोगों को जंगल में भेडिय़ा दिखा था। वह तो अचानक मेरी नजर उस पर पड़़ गई तो मैंने सबको होशियार कर दिया वरना वह तो आज किसी न किसी को अपना शिकार बना लेता।
भेडिय़ा नहीं रहा होगा तुम्हें भ्रम हुआ होगा- झबरा ने कहा।
शन्नो ने श्यामा की बात पर मुहर लगाई और कहा- नहीं झबरा वह भेडिय़ा ही था। हम सब तो नाले के किनारे-किनारे की घास चर रहे थे। मैं सबसे पीछे थी, बीच में दुलारी व सबसे आगे श्यामा। हमारी कोशिश थी की हम इन बच्चों को ज्यादा से ज्यादा हरी घास खिला दें। बेचारों को और कुछ खाने को जो नहीं मिलता। इनके हिस्से का दूध तो हमारे मालिक हड़प लेते हैं। हम तो इधर-इधर से भी कुछ खा कर पचा लेते हैं पर इन मासूमों को अभी इसकी आदत नहीं है। झबरा ने उन्हें आश्वास्त किया कि वह कल से उनके साथ-साथ जंगल जायेगा। इस पर दुलारी ने कहा कि भेडिय़ा खतरनाक होता है तुम उसका मुकाबला नहीं कर पाओगे। झबरा को दुलारी की बात बुरी लगी पर वह उससे इस मुद्दे पर बहस नहीं करना चाहता था अत: उसने कहा- मैं अपने साथ लालू और कालू को भी ले लूंगा। हम सब तुम लोगों की रक्षा करेंगे। दुलारी कुछ आश्वस्त हुई और बोली- तो ठीक है तुम सुबह तैयार मिलना। झबरा ने एक बार फिर उन भयभीत गायों को अपने पर भरोसा करने का विश्वास दिलाया और वहाँ से उठ बैठा। तब के दिन से आज का दिन है झबरा के अनगिनत कामों में उन गायों को जंगल ले जाकर चराने की भी जिम्मेदारी जुड़ गई है। वह शुरू-शुरू में लालू और कालू को भी अपने साथ लेता गया था और उसने तय किया था कि पहले जंगल में लालू कालू और वह स्वयं घुसेंगे और भेडिय़े की उपस्थिति का अन्दाजा लगायेंगे।
अब जब रामसेवक बाबू के छोर से गायों का समूह का समूह गली में प्रवेश करता झबरा उन्हें वर्मा जी के चबूतरे पर नहा धोकर तैयार मिलता था। उनको आता देख कर वह शुकुल जी के बाड़े की ओर दौड़ लगा देता था जहाँ उसे लालू और कालू मुस्तैद मिलते। उन्हें लेकर वह जंगल में घुस जाता और काफी अन्दर तक जाकर भेडिय़े की गंध की पड़ताल करता। एक निश्चित दायरे में घूम कर वह तीनों लौट आते और जंगल के छोर पर खड़ी गायों को जंगल में आने को कहते। आगे-आगे वे तीनों कभी दौड़ते तो कभी मंथर गति से चलते हुए जंगल के उबड़ खाबड़ रास्ते पर बढ़ जाते। उन रास्तों पर जो आगे जाकर नाले पर खतम होती थी, वहां खास का एक बड़ा मैदान है। जंगली फूल पौधों के साथ ही साथ कुछ घने पेड़ों का झुरमुट भी वहाँ है। झबरा पेड़ों के उस झुरमुट के नीचे लालू और कालू के साथ अपना अड्डा जमा लेता। यह स्थान थोड़ा ऊंचाई पर है अत: मैदान में चरती गायों और बछड़ों का समूह हर समय दिखाई देता रहता था। बीच-बीच में झबरा लालू और कालू को इशारा करता और वो दोनों गायों के झुण्ड से कुछ दूरी बना कर उसकी परिक्रमा कर वापस झबरा के पास लौट आते। गायें निश्चिंत होकर अपनी भूख मिटातीं। उनकी कोशिश रहती कि वे ज्यादा से ज्यादा अपने बच्चों को घास खिला दें। भरपेट खाकर बछड़े मैदान में उछल कूद मचाते। उन्हें इस तरह मगन होते देख लालू और कालू भी उनके खेल में शामिल हो जाते। झबरा ऐसे समय अपनी चौकन्नी नजर और नाक के बलबूते पर जंगल की हर आहट और अनहोनी पर नजर रखता। एक निश्चित अंतराल के बाद झबरा गायों के समूह को वापस लौटने का इशारा करता। लौटते समय भी झबरा गायों को इधर-उधर भटकने से रोकता रहता और खास करके मासूमों पर उसकी कड़ी नजर रहती। वह उनके साथ ही साथ गली के मोड़ तक चल कर आता। लौटती हुई गायों का समूह गली में प्रवेश करते की कुछ देर इमरती की सब्जी की दुकान के सामने रुकता। वहां से उन्हें कुछ फल-फूल खाने को मिल जाते आगे बढऩे पर मातादीन की दुकान के सामने भी उन्हें कुछ न कुछ मिल ही जाता था जो उनके पूरे कुनबे के लिए अतिरिक्त भोजन होता। किसी पर्व तीज त्यौहार पर मुहल्ले वाले भी इन गायों के सामने कुछ डालकर अपना परलोक सुधारने की इच्छा को संवारते रहते। रामसेवक बाबू के मोड़ तक उन्हें पहुँचा कर झबरा मातादीन की दुकान पर लौट आता। अपने कार्य व्यापार में उलझा रहता पर झबरा के लौटने पर वह उसे कुछ न कुछ बचा खुचा डाल ही देता। झबरा खा कर आराम करने का मन बना लेता। अपने भावों की उच्चता के चलते वह संत स्वभाव का हो चला था। जीवन में कोई हलचल नहीं थी। उन मौसमों में भी जब उसकी जाति के लोग काम वेदना से त्रस्त हो इस उस मादा के पीछे लार टपकाते वह निरपेक्ष बना रहता। कइयों ने उससे संंंबंध बनाने की कोशिश में रात के अंधेरे और दिन के उजाले में प्रयास किया पर उनके प्रयास निश्फल हुए। आदमियों की भाषा में कहें तो झबरा हलकट नहीं था और लंगोट का पक्का था। एक तो उसका रूप रंग दूसरे उसके सामाजिक सरोकार उसे दूसरे कुत्तों से उसे अलग ठहराते थे। दुलारी और शन्नो उसकी इस प्रवृति का मजाक भी उड़ाती थी किंतु उसे कोई फर्क नहीं पड़ता था।
आज जब झबरा लौटा तो उसे मातादीन की दुकान से सामने वाले बंगले में कुछ हलचल दिखाई दी। शानदार बगीचे और लान से सुसज्जित यह बंगला सालों से खाली पड़ा था। लोहे के जालीदार फाटक के अंदर घास का मैदान और फूल पत्तियों की क्यारियां बनी हुई थीं और उसके बाद रहने के कमरे बने हुए थे। रोज सुबह शाम एक आदमी उस बगीचे की देखभाल करता उसका नाम रामबचन था। झबरा को याद नहीं कि उसने रामबचन के अलावा भी कभी किसी को उस बंगले में देखा हो। रामबचन उस बंगले के पिछवाड़े की कोठरी में रहता था और कभी-कभार गेट पर ताला डालकर अपने गांव चला जाता था। गेट की चाभी अलबत्ता वह मातादीन को सौंप कर जाता था। बंगला दो मंजिला था। बगीचे से ही दूसरी मंजिल पर जाने के लिए सीढिय़ां बनी हुई थी। यह बंगला किसी सोलंकी जी का था जो सिंचाई विभाग के महकमे में काम करते थे और बरसों से शहर के बाहर जिनकी पोस्टिंग थी। बंगले की चहल-पहल बता रही थी कि वहां कोई उत्सव की तैयार चल रही है। सफाई वाले और पुताई वाले के साथ-साथ ढेरों दीगर काम करने वाले अपने अपने कामों में जुटे हुए थे।
झबरा मातादीन की दुकान की पट्टी के नीचे अपनी निर्धारित जगह पर बैठा बंगले में चल रही हलचलों का जायजा लेता रहा। उसकी रूटीन दिनचर्या में यह एक नई हलचल थी और वह उसका लुत्फ उठाना चाह रहा था। बंगले की हलचल से मुहल्ले वालों में भी हलचल थी और मातादीन के रोज के ग्राहकों की बातचीत से उसे पता चला कि सोलंकी जी अपनी बेटी की शादी करने के लिए शहर लौट रहे हैं और उसी की तैयारी चल रही है। बंगले का फाटक खुला हुआ था और अन्दर की चल रही गतिविधियों ने झबरा को चैन से बैठने नहीं दिया। वह अपनी जगह से उठा और खुले हुए फाटक के अन्दर प्रवेश कर गया। अन्दर बंगले में जगह-जगह कचरे के ढेर लेगे थे जो बगीचे की सूखी पत्तियाँ थी। रंग और पेण्ट के डिब्बे जहां तहां पड़े थे। वह उत्सुकता से मशीन से घास की कटाई को देखता रहा। हरी हरी घास कट कर जहाँ इकट्ठी हो रही थी उसे देखकर उसे लगा कि शयाद कल यह फाटक के बाहर फेंक दी जाएगी तब दुलारी और उसकी सहेलियों को जंगल जाने की जरूरत न पड़े। वह मुग्ध भाव से इधर उधर डोलता रहा। उसे वहाँ रंग और पेंट की मिली जुली गंध महसूस हुई और वह वहाँ से बाहर निकल आया। शाम के बाद तक बंगले में हलचल बनी रही। इस बीच वह दौड़कर श्यामा और दुलारी को बता आया था कि कल उसे उम्दा घास अपने मुहल्ले में ही मिल जायेगी और सबको जंगल नहीं जाना पड़ेगा।
झबरा अब अपने दायित्व से मुक्त था और वापस लौट कर वह अपनी जगह पर आकर लेट गया। अपनी आँखों पर अपने अगले दोनों पंजो को रखे झबरा देर तक उनींदा सा पड़ा था। शाम हुई और रात भी हुई। मातादीन की खटपट से उसे एहसास हुआ कि दुकान बन्द करने का समय हो चला है। वह अपने पंजों को अपनी आँखों के ऊपर से हटाता है और आँखें खोलता है। सामने के बंगले की झक्क रोशनी व झकपक से उसकी आँखें चौंधिया जाती हैं। हजारों रंगबिरंगे छोटे-छोटे बिजली के बल्बों से पूरा बंगला झिलमिल झिलमिल कर रहा था। ऐसी सजावट इस गली तो क्या आसपास के मुहल्ले में भी कभी किसी के यहाँ नहीं हुई थी। झबरा उठ बैठा और सड़क पर आ गया। उसे लगा कि जैसे वह किसी नई जगह पर खड़ा है जबकि आसपास सब कुछ वही था जो वह बरसों से देखता आ रहा है। रोशनी के चकमक से आसपास के घर मकान व दुकान भी दमकने लगे थे। वह शुकुल जी के बाड़े की ओर दौड़ा। उसे उम्मीद थी कि लालू और कालू वहाँ उसे मिल जायेंगे तो वह उन्हें यह नजारा दिखाने ले आयेगा। पर वे वहाँ नहीं थे। वह एक दो गली में और घुसा और अनायास भौंक कर उन्हें आवाज दी। पर वे शायद कहीं और गये थे। झबरा वापस लौट आया और मुग्ध भाव से बंगले की ओर टकटकी लगा कर देखने लगा। फाटक बन्द हो चुका था पर लोहे की जाली से अन्दर का नजारा स्पष्ट दिखाई दे रहा था। मातादीन ने उसके कटोरे में रात का खाना डाला और दुकान बन्द कर बगल की सीढिय़ों से ऊपर अपने घर में घुस गया। झबरा ने भट्टी की राख को अपने पैरों से फैलाकर अपने सोने की तैयारी की। राख हल्की कुनकनी थी और उसे यही पसन्द थी। बंगले की रोशनी और कुनकुनी राख के बिस्तर ने उसके शरीर में अजीब से झुरझुरी पैदा कर दी थी। उसे अपना शरीर धनुष की प्रत्यंचा की तरह तनता हुआ महसूस हुआ पर वह इसका ठीक अनुमान नहीं लगा सका कि ऐसा क्यूं। अब उसे सब कुछ अच्छा लग रहा था। मुहल्ले में भी हलचल थी और लोग आते जाते बंगले के सामने आकर ठहरते और सजावट को देखते और सराहते। झबरा लोगों की बतकही का आनन्द लेता लेता कब नींद के आगोश में समा गया उसे पता ही नहीं चला। बीच में जब भी उसकी नींद उचटी उसके सामने बंगले की जगर मगर जस की तस मौजूद थी। उसकी इच्छा थी कि यह हमेशा ऐसा ही बना रहे।
रात के चौथे पहर रामसेवक बाबू के छोर से उसे किसी कार की आवाज सुनाई दी और वह उठ बैठा। कार सीधे बंगले के सामने आकर रूकी। बचन ने फाटक का दरवाजा खोला और कार अन्दर की ओर रेंग गई। झबरा की नाक फड़कने लगी। उसे एक अजीब सी गंध का एहसास हुआ पर वह उसका अनुमान नहीं लगा सका। झबरा ने देखा रामबचन गेट बंद कर रहा है। वह उठा और उस गंध की तलाश में रामसेवक बाबू के मोड़ तक गया। वहाँ भी वह गंध मौजूद थी। वह वापस लौटा। रास्ते भर उस मदमाती गंध की मौजूदगी उसे बेचैन किये दे रही थी। उसने अनुमान लगाया कि गंध आने वाली कार में थी और कार के साथ ही बंगले में प्रवेश कर गई है वह देर तक फाटक से सटा सटा उस गंध को अपने फेफड़ों में पहुँचाता रहा।
अचानक बंगले की सभी बत्तियाँ बुझ गईं। झबरा के सामने फिर रात का नजारा सामने था। हर रोज की तरह बस एक चीज नई थी और वह थी वह गंध जो परिचित सी लग रही थी पर उसकी पहचान नहीं हो पा रही थी। झबरा अपने राख के बिस्तर को कुरेद कर उस पर लेटता है और बाकी नींद पूरी करने की कोशिश करता है। पर गंध उसे नींद से दूर ले जा रही है ऐसा उसका मानना है।
भोर की किरण रामसेवक बाबू की छोर से गली में प्रवेश कर रही थी। झबरा उठकर गली के दोनों मुहानों की पड़ताल कर रहा था। सामने का लोहे का फाटक उसी तरह से बंद था। मातादीन अभी अपने घर से नीचे नहीं उतरा था। शुकुल जी के बाड़े वाले छोर पर झबरा को लालू और कालू दिखे। उनकी दुम बड़ी जोरों से हिल रही थी जो इस बात का संकेत दे रही थी कोई जरूरी बात है जो झबरा को बतानी है। झबरा रहस्यमयी गंध से सराबोर मदहोश सा डगमग डगमग चाल से लालू कालू की ओर चल पड़ता है। झबरा के पास पहुंचते ही लालू व कालू उसकी ओर दो कदम बढ़ाते हैं। झबरा सर के इशारे से पूछता है क्या है? लालू व कालू झबरा को देखते हैं और पूछते हैं कौन है? झबरा कुछ समझ नहीं पाता अत: कहता है कौन-कौन है?
अरे वही जिसकी खुशबू पिछली रात के एक पहर से गली में बसी हुई है- लालू ने पूछा।
झबरा को अब जाकर गंध के रहस्य का खुलासा हुआ। वह थोड़ी देर तक चुप खड़ा रहा फिर पीछे की ओर मुड़कर चलने लगा।
लालू ने फिर उससे पूछा - बता तो दो वो कौन है? अब दोस्तों से क्या छिपाना?
झबरा ने पलटकर उन दोनों की ओर देखा और बोला - मुझे नहीं पता कौन है? पर है कोई जरूर?
झबरा के जवाब से लालू कालू सहमत नहीं हुए और बोल पड़े - अब हमी से दुराव छुपाव। झबरा झुंझला गया - अब इसमें दुराव छिपाव कैसा? जब कह दिया कि नहीं पता तो नहीं पता। अब जाकर पता लगाता हूँ। कोई होगा तो तुम दोनों को जरूर बताउंगा।
झबरा लालू को वहीं छोड़ मातादीन की दुकान की ओर बढ़ा। अब उसके लिए गंध का रहस्य रहस्य नहीं रह गया था। गंध को रूप में देखने की चाह बढ़ गई थी। इसलिये वह तेज कदमों से आगे बढ़ रहा था। मातादीन की दुकान के सामने पहुँच कर फाटक की ओर देखने लगा। सुबह का उजाला फैल रहा था। रोज की हलचल गली में शुरू हो गई थी। झबरा गली की तमाम हलचलों से तटस्थ बना एकटक फाटक के पार गंध के रूप को तलाश कर रहा था। सहसा बंगले का दरवाजा खुला और एक बादामी रंग की कुतिया उछलती हुई दरवाजे से बाहर निकली और घास के मैदान पर धमाचौकड़ी मचाने लगी। 'रूबी डोन्ट - कम ऑन' की सुमधुर आवाज के साथ एक युवती ने दृश्य में अचानक प्रवेश किया। झबरा को समझने में देर नहीं लगी कि गंध वाले रूप का नाम रूबी है और रूबी को अपने पास बुलाने वाली सोलंकी जी की बेटी है जिसकी शादी के लिये सोलंकी जी शहर में आये हुए हैं। रूबी का रूप रंग देखकर झबरा तो ठगा का ठगा रह गया। रूबी अपनी रूपगर्विता चाल में लॉन के इस कोने से उस कोने तक कुलांचे भर रही थी। झबरा अपने दो पैरों पर खड़ा होकर रूबी की अठखेलियां देखता रहा। इस बीच नलों में पानी आया। बंटी गली में अखबार बांट रहा गया और रामकृपाल का लाया हुआ दूध मातादीन ने उबाल कर भट्टी से उतार दिया। इस बीच धूप-छांव की तरह रूबी कभी घर के अन्दर कभी बाहर आती-जाती रही। रूबी के गले में काले रंग का एक पट्टा पड़ा हुआ था जिसमें छोटे-छोटे घुंघरू लगे हुये थे जिसके चलते रूबी की हर उछल कूद एक संगीत में बदल बदल जाती थी। झबरा मातादीन की पट्टी के नीचे बने अपने ठीये से सामने वाले बंगले को टकटकी बांधे ताकता रहा तो ताकता ही रहा। उसका ध्यान तो तब उचटा जब उसने देखा कि रामसेवक बाबू वाले छोर से दुलारी और उसकी मंडली हमेशा की तरह मुंडी नीचे किये चली आ रही हैं। झबरा को लगा रूबी के चक्कर में वह आज अपने सभी दैनिक कर्म भूल गया है। वह उठा  और जल्दी वर्मा जी के घर के सामने खुले पड़े नल के नीचे जाकर खड़ा हो गया। जल्दी-जल्दी उसने अपने पूरे शरीर को पानी से तर किया और शुकुल जी के बाड़े की ओर चल पड़ा। दुलारी की मंडली अभी इस छोर तक नहीं पहुंची थी। लालू और कालू मोड़ पर पहले ही खड़े थे। उनकी पूंछ सुबह की तरह की फडफ़ड़ा रही थी। झबरा ने उन्हें बोलने का कोई मौका नहीं दिया और खुद बताने लगा।
उसका नाम रूबी है और वही सोलंकी जी के बंगले में आई है। कद काठी और रूप ऐसा है जैसा अभी तक मैंने देखा नहीं। उसके गले में चमड़े का एक काले रंग का पट्टा है जिसमें ढेर सारे घुंघरू लगे हुये हैं।
कुछ बात हुई क्या - लालू टपक पड़ा था।
कैसी बात- झबरा बोला।
अरे जान पहचान, मेल-मुलाकात - कालू ने सुर में सुर मिलाया। अरे नहीं, वह तो सोलंकी की बेटी के साथ ही खेलने में मग्न थी- झबरा बोला।
उसने तुम्हे देखा- लालू ने पूछा।
नहीं- झबरा ने जवाब दिया।
एक बार भी नहीं- कालू ने टोंका।
हाँ भाई एक बार भी नहीं- झबरा झुंझलाया।
लालू और कालू उससे कुछ पूछते इससे पहले ही दुलारी का पूरा खिरका उसके नजदीक पहुंच गया था। झबरा, लालू कालू सरपट जंगल की ओर दौड़ पड़े और रोज की तरह दूर-दूर तक भेडिय़े की गंध को तलाश करके लौट आये। दुलारी की मण्डली अपने काम में जुट गई। झबरा रूबी के ख्यालों में खोया अपने बदन को यहां वहां से मोड़ता तोड़ता रहा। उसे रह-रह कर रूबी का ख्याल हो आता था। उसके गले के घुंघरू के बोलों की मिठास। यह याद कर करके अपने कानों को हिलाने लगा। लालू और कालू चौकन्ने होकर अपने काम पर मुस्तैद थे। इस बीच एक बार लालू उसके करीब आकर उससे कुछ पूछने की कोशिश कर चुका है पर झबरा ने उसे टरका दिया।
अचानक झबरा को लालू और कालू के भौंकने की आवाज आई तो उसने देखा कि लालू और कालू एक दिशा की ओर मुंह कर के जोर-जोर से न केवल गुर्रा रहे हैं वरन् अपने पिछले पैरों को भी जमीन पर रगड़ रहे हैं। झबरा को भी खतरे का अहसास हो गया। भेडिय़े की गंध उसी ओर से आ रही थी जहाँ लालू और कालू ठहरे हुए भौंक रहे थे। दुलारी, श्यामा और पूरी मण्डली ने भी समझ लिया कि खतरा आस-पास ही है अत: वह सब एक जगह सिमट गई हैं। उन्होंने अपने बछड़ों को अपने बीच में कर लिया। झबरा के अपने पास आते ही लालू और कालू का हौसला बढ़ गया। वे दोनों जंगल में घुसने को हुए तो झबरा ने उनसे कहा- तुम दोनों दुलारी और सबको घर की तरफ रवाना करो। मैं यहीं रूकता हूँ। उन्हें गली तक पहुंचा के आओ तो आज इस भेडिय़े को सबक सिखाते हैं। लालू और कालू फौरन पलट गये। झबरा ने अन्दाज लगाया भेडि़य़ा ज्यादा दूर नहीं है। उसने इधर उधर नजर दौड़ा कर किसी ऊँचे स्थान की टोह ली और दबे पंजों वह उस पर चढ़ गया। उसे वहाँ से आसमान में कुछ चीलों का झुण्ड मंडराता हुआ दिखाई दिया। वह समझ गया अवश्य भेडिय़ों ने कोई शिकार किया है और ये चील इस इंतजार में हैं कि कब वे शिकार का पिंजर छोड़ें और ये अपने भोग लगाएं। चीलों के झुण्ड से दूरी और दिशा का अन्दाजा लगा कर झबरा लालू और कालू का इंतजार करने लगा। उसे ज्यादा देर इंतजार नहीं करना पड़ा क्योंकि लालू और कालू उसे आते हुए दिख गये थे। झबरा बगैर उनकी ओर देखे आगे की ओर दौड़ पड़ा, लालू व कालू उसका इशारा समझ गये और वे भी उसी रास्ते हो लिए। जैसे जैसे उनकी अपनी मंजिल पास आती महसूस हुई भेडिय़े की गंध का एहसास भी बढ़ता गया। उन्हें जब अन्दाजा हो गया कि वह काफी करीब पहुंच गये हैं तो वे एक जगह ठिठक गये। झबरा ने दोनों को समझाया कि भेडिय़े को ऐसा सबक सिखाना है कि वह इस ओर आने की दुबारा हिम्मत न कर सके। गंध की ओर दबे पाँव चलते हुए तीनों ने देखा कि एक बकरी के बच्चे को भेडि़ए ने अपना शिकार बना लिया है और उसे अपने जबड़े में दबाये जंगल में एक ओर बढ़ रहा है। तीनों ने आपस में एक दूसरे की ओर देखा और भेडिय़े की ओर लपक लिए। एक साथ तीन-तीन मुसीबत को सामने पाकर भेडिय़ा चकरा गया और अपने शिकार को छोड़कर सुरक्षित भाग निकलने का रास्ता तलाश करने लगा। सबसे पहले झबरा ने ही भेडिय़े पर हमला बोला फिर क्या था लालू और कालू भी उस पर टूट पड़े। झबरा ने भेडिय़े के पुट्ठे पर अपने दाँत गड़ा दिये तो लालू और कालू ने उसके पिछले पाँवों को अपने जबड़े में कस लिया। अब भेडिय़ा बेबस हो गया था और उसके गले से घुटी घुटी चीख निकल रही थी। तीनों ने मिलकर उसे जहां तहां उसे लहुलुहान करना शुरू कर दिया। एक पकड़ता तो दूसरा छोड़ता के तालमेल से भेडिय़े के शरीर पर जगह-जगह गहरे जख्मों के निशान नजर आने लगे। उसने अपनी पूरी ताकत लगाई और उसे एक बार मौका मिल भी गया इन तीनों की पकड़ से छूटने का। उसने मौका नहीं गंवाया और सरपट जंगल की ओर दौड़ लगा दी। तीनों उसके पीछे लग गये और दूर बहुत दूर तक खदेड़ते चले गये। झबरा को जब लगा कि वह बहुत दूर तक उसे खदेड़ चुका है तो वह ठहर गया। उसके ठहरते ही लालू और कालू भी ठहर गये। भेडिय़ा अभी भी सरपट दौड़े ही चला जा रहा था। वह रूकरूक कर पीछे की ओर देखता भी जा रहा था जहां ये तीनों काल के रूप में खड़े उसे चुनौती दे रहे थे। देखते ही देखते भेडिय़ा इन तीनों की आँखों से ओझल हो गया। तीनों ने एक दूसरे को देखा और एक दूसरे की बहादुरी को निगाहों ही निगाहों में सराहा। अब वे तीनों वापस लौट रहे थे। लौटने की कोई जल्दी नहीं थी फिर भी इनकी चाल में एक मर्दाना भाव झलक रहा था। जंगल जीत लेने वाला भाव। भेडि़ए द्वारा छोड़े गये बकरी की लाश पर गिद्ध और चील टूट पड़े थे। उन्होंने उन्हें छेडऩा उचित नहीं समझा और रास्ता बदल कर अपनी राह पर चल पड़े। जंगल के छोर पर दुलारी और तमाम गायें मय बछड़ों के उनका इंतजार करती दिखीं। तीनों को आता देखकर गायें रंभाने लगीं और कान और पूंछ हिलाकर उनका स्वागत करने लगीं। उन्हें इन तीनों के पराक्रम और उपकार का एहसास था। यह एहसास उनकी आँखों से टप टप टपक भी रहा था। लालू, कालू के शरीर पर जहां तहां भेडिय़े के पंजों के निशान थे। गायों ने उन्हें अपनी जीभ से साफ करके उनके शौर्य की सराहना की। रोज की अपेक्षा आज कुछ अधिक देर हो गई थी लिहाजा सबने चलने का मन बनाया। इस गहमा गहमी में झबरा के मन से रूबी का खयाल पूरी तरह से विलोप हो गया था। उसे अचानक उसकी याद तेजी से आई और उसने दौड़ लगा दी। झबरा के दूर जाते ही दुलारी ने लालू से पूछा- क्या बात है झबरा आज जल्दी में दिख रहा है?
अरे उसे उसकी रूबी के घुंघरू बुला रहे हैं कालू ने बताया।
रूबी? कौन रूबी? श्यामा ने पूछा।
शुकुल जी के बाड़े तक आते आते लालू और कालू ने दुलारी मण्डली को रूबी के बारे में वह सब कुछ बता दिया जो झबरा ने उन्हें बताया था।
अच्छा तो अब ब्रह्मचर्य टूटेगा झबरा का- यह शन्नो थी जिसकी बात सुन के सब खिलखिला पड़े।
मातादीन की दुकान पर ग्राहकों का जमावड़ा था और उसी गहमा गहमी के बीच कब झबरा आकर अपनी जगह पर काबिज हो गया किसी को पता न चला। सामने के फाटक के भीतर बंगले में चहल पहल जारी थी। फाटक खुला हुआ था और काम करने वाले लोग आ जा रहे थे। दुलारी की मण्डली जब मातादीन की दुकान के पास पहुँची तो ठिठक गई। गायों के झुण्ड को एकबारगी एवं फाटक के सामने ठिठका देख कर बंगले में काम कर रहे लोगों में हलचल सी हुई। रामबचन उन्हें वहां से हकालने के लिए बाहर तक आया। यहाँ मातादीन ने भी ग्राहकों को हो रही असुविधा से टिटकारी मार कर गायों को वहाँ से जाने का इशारा किया। झबरा अपनी जगह पर ही जमा था। उसे सुबह के बाद से रूबी के दीदार नहीं हुये थे। झबरे की हालत देखकर दुलारी ने अपनी सहेलियों से कहा- बेचारा गया काम से। गायों का झुण्ड फाटक से हट गया और रामसेवक बाबू की छोर की ओर बढ़ गया। कुछ तो थकान और कुछ बेचैनी के चलते झबरा को भूख सी लग आई थी। उसने मातादीन की ओर देखकर खाने की फरमाईश की। मातादीन ने उसकी खुराक उसके कटोरे में डाली और अपना बाकी काम समेटने लगा। भरपेट भोजन और थकान के चलते झबरा पर नींद ने हमला बोल दिया। नींद में भी उसे रूबी के घुंघरू और उसके रूप ने ही परेशान किया हुआ था। वह जहां था जैसा था फिलहाल सुखी था और संतुष्ट था। शाम से पहले ही झबरा नींद से जाग गया। बहुत दिनों बाद उसे इतनी अच्छी नींद नसीब हुई थी। इसमें कितना अंश सुबह की मशक्कत का था और कितना रूबी के सुनहरे सपने का वह अंदाजा नहीं लगा सका। वह उठा और अपने बदन को तोड़ मोड़ कर नींद की सुस्ती को भगाया। फाटक खुला हुआ था और बंगले के लॉन पर रामबचन कुछ कुर्सियाँ जमा रहा था। थोड़ी देर बाद बंगले के दरवाजे से सोलंकी की बेटी और रूबी बाहर निकले। उसके पीछे ही पीछे सोलंकी जी और उनकी धर्मपत्नी भी आकर रामबचन द्वारा लॉन पर डाली गई कुर्सियों पर बैठ गये। सोलंकी जी की उम्र 55 के पार की थी और बदन थोड़ा भारी सा। रोबदार मूंछों के चलते वे झबरा को कुछ खास पसंद नहीं आये और रही सही कसर उनकी बोली ने पूरी कर दी थी जो उन्होंने रामबचन को चाय लाने के आदेश के रूप में दिया था। अलबत्ता उनकी अपेक्षा उनकी धर्मपत्नी झबरा को भा गई क्योंकि उन्होंने सोलंकी जी के आदेश के बाद कहा था कि ला रहा होगा चाय, ऐसी भी क्या जल्दी है। कहीं जाना तो है नहीं। दिन भर कितना तो काम करता है रामबचन। बेटी चुपचाप थी और रूबी उसकी कुर्सी के पाये से सटी बैठी थी। बेटी के हाथ में कोई सूची थी जिस पर वह पेन से टिक करती जा रही थी।
यह रही उन लोगों की सूची जिन्हें आज तक आमंत्रण नहीं पहुँचा है- यह बेटी की आवाज थी।
पारूल बेटे अभी शादी को पाँच दिन बचे हैं। और ये लोग तो अपने इसी शहर के ही परिचित और रिश्तेदार हैं। बाहर वाले तो सब समय पर आ ही जायेंगे क्योंकि उनको तो समय पर बुलौआ भेजा जा चुका है। चाय के बाद पारूल तुम और मम्मी तैयार हो जाना चलकर रिसेप्शन की जगह और बाहर से आने वाले लोगों के ठहरने की जगह देख आयें। मैं नहीं चाहता कि आमंत्रित लोगों और बारातियों को कोई असुविधा हो- यह सोलंकी जी की खुरदुरी आवाज थी।
मम्मी और मैं तो तैयार ही हैं। बस मैं तो यह सोच रही थी कि इस रूबी का क्या करें, ये तो मुझे एक पल के लिये नहीं छोड़ती। पारूल ने कहा।
उसे तो अब अलग रखने के बारे में सोचो। शादी हो रही है तुम्हारी कहां कहां उसे अपने से लिपटाये रखोगी। क्या ससुराल भी उसे लेकर जाना है- पारूल की मम्मी ने पारूल को तंग करने के लिहाज से ताना मारा।
अरे रूबी को ले जाना है तो ले जाये अपनी ससुराल। जब इतना दहेज में दे रहे हैं तो रूबी अपने को कोई भारी थोड़ी पडऩे वाली है - सोलंकी जी भी बेटी को छेडऩे का मौका नहीं गंवाना चाहते थे।
पापा- पारूल ठुनकी।
इस बीच रामबचन ट्रे में चाय और बिस्कुट लाकर उनके सामने रखी टेबिल पर रख गया।
पारूल ने बिस्कुल का एक टुकड़ा रूबी को दिया और रूबी उसे कुतरने लगी। पूरा परिवार चाय पान में जुट गया।
झबरा अपनी जगह से ही यह सब कुछ देख व सुन रहा था। चाय पार्टी खत्म हो गई और रामवचन खाली कप प्लेट व केतली उठाकर ले जाने के लिये आया।
सुनो रामबचन हम लोग  एक-दो घण्टे के लिये बाहर जा रहे हैं। रूबी को यहीं छोड़ें जा रहे हैं। देखना इसे जंजीर से बांध कर रखना वर्ना गेट के बाहर भाग जायेगी- सोलंकी जी ने रामबचन को हिदायत दी।
रामबचन सारा सामान समेट कर चला गया और सोलंकी परिवार भी उठ खड़ा हुआ। रामबचन जब बाहर निकला तो उसके हाथों में एक सुनकरी चेन थी जिसे उसने रूबी के चमड़े मेें लगे हुक में डाल दिया और उसे ले जाकर दरवाजे के हेण्डल में फंसा दिया।
झबरा ने देखा कि सोलंकी जी का पूरा परिवार कार में बैठा और कार बाहर निकल कर रामसेवक बाबू के मोड़ पर जाकर नजरों से ओझल हो गई। रामबचन ने मेन गेट को बंद किया और बंगले में अपने बिखरे कामों को समेटने अंदर चला गया। रूबी बंगले के बाहर के दरवाजे पर चेन से बंधी बच गई थी। शाम ढल रही थी और सूरज की सुनहरी पीली किरणें रूबी के शरीर पर पड़कर उसे सोने जैसा बना रहीं थी। झबरा अपने ठीये से उठा और सोलंकी जी के बंगले के सामने वाले फाटक तक जा पहुंचा। उसका जी उसके बस में नहीं था। रूबी फाटक के उस पार जंजीर से बंधी बैठी थी। झबरा ने उसका ध्यान बंटाने के लिये हल्की सी आवाज निकाली। रूबी के कान खड़े हुये और उसने इधर-उधर देखा और अंत में उसकी नजर गेट पर खड़े झबरे पर पड़ी। झबरा गेट के सहारे अपने दोनों पैरों पर खड़ा होकर कूं-कूं की आवाज निकालने लगा। प्रति उत्तर में रूबी ने भी कूं-कूं की आवाज निकाली। रूबी ने झबरे का पूरी तरह से मुआयना किया और वह उस पर रीझ गई। झबरा था ही ऐसा और फिर रूबी ने भी अपने अनुभवों से इतना तो जान लिया था कि उसकी नस्लों में भी ऊंच और नींच होते हैं और झबरा की नस्ल निश्चय ही ऊँची थी। रूबी उसके ओर बढऩे की कोशिश करती पर जंजीर बीच में बाधक थी। उसने दो तीन बार जंजीर झटकने की कोशिश की पर वह सफल नहीं हो पाई। बेबस और बेकरार होकर वह भौंकने लगी। उसकी आवाज सुनकर रामबचन घर से बाहर निकला और उसने सोचा शायद रूबी जंजीर से बंधे-बंधे उक्ता गई है अत: उसने उसे आजाद कर दिया। रूबी दौड़ती हुई फाटक तक पहुँची और झबरा को सूंघने के बाद उसे चाटने भी लगी रामबचन को दोनों का यह प्यार बहुत रास आया तो उसने गेट खोलकर झबरा को बंगले के अंदर बगीचे में कर लिया और फिर से गेट लगा दिया। झबरा और रूबी अब पूरे लॉन में धमाचौकड़ी मचाने लगे। रामबचन को इन दोनों का इस तरह से मिलकर खेलना अच्छा लगा तो वह उन्हें बगीचे में छोड़कर अंदर का काम समेटने चला गया। अब रूबी की घुंघरू की ताल पर झबरा भी डोलने लगा। दोनों ने एक दूसरे को ठीक तरह से देखा भाला और एक दूसरे से आपस में प्यार जताया। एक दूसरे के पीछे भागते-दौड़ते उन्हें काफी समय हो गया था लिहाजा वे थककर एक दूसरे के साथ आँखों में आँखें डालकर बैठ गये। एक दूसरे की आँखों में झांकते उन्हें न जाने कितनी देर हो गई कि गेट पर गाड़ी के हार्न की आवाज सुनाई दी। रामबचन अन्दर से बाहर निकला और उसने गेट का दरवाजा खोल दिया। गाड़ी अन्दर आकर पोर्च में खड़ी हो गई। सोलंकी जी का परिवार गाड़ी से नीचे उतरा। पारूल की ओर रूबी दौड़ी जबकि झबरा अपनी जगह खड़ा होकर अपनी पूंछ हिलाता रहा। सोलंकी जी की नजर झबरे पर पड़ी तो वह जोर से चीख पड़े- रामबचन यह गन्दा कुत्ता फाटक के अन्दर कैसे आ गया।
रामबचन डरता हुआ सोलंकी जी के पास पहुँचा और बोला- साहब यह कुत्ता पालतू हैं। मातादीन का ही नहीं पूरे मुहल्ले की चौकीदारी करता है।
रामबचन की सफाई भी सोलंकी जी के गुस्से को शांत नहीं कर पाई थी। पारूल और पारूल की माँ भी झबरे को देखे जा रहीं थी। सोलंकी जी तेज कदम से चलते हुए झबरा के पास पहुँचे और उन्होंने उसे जमकर एक लात जमाई। झबरा चीखता हुआ दरवाजे के बाहर निकल गया। रामबचन ने गेट का दरवाजा बन्द कर दिया।
सोलंकी जी रामबचन पर चीख रहे थे- तुम्हें पता है रूबी किस नस्ल की है। उसका मेलजोल गली के आवारा कुत्तों के साथ हरगिज नहीं हो सकता। पता नहीं रूबी को उसके साथ रहने से इन्फेक्शन न हो गया हो। खबरदार जो वह कभी इस बंगले में दिखा। रामबचन को डांटने फटकारने के बाद वो पारूल से बोले- बेटी रूबी को अच्छी तरह से क्लीन करो मुझे डर है कहीं उसे कोई रोग न जकड़ ले। इतना कहकर सोलंकी जी घर के अन्दर चले गये। इनके पीछे पीछे उनका परिवार भी चला गया। पारूल की पकड़ से छूटकर रुबी एक बार फाटक तक आई पर झबरा तब तक शुकुल जी की बाड़े की छोर की ओर चला गया था।
झबरा को अपने बीच पाकर लालू और कालू खुश हो गये थे पर उसकी उदासी उन दोनों को बेचैन कर रही थी।
क्या हुआ- लालू ने पूछा।
कुछ नहीं- झबरा का जवाब।
कुछ नहीं, कैसे कुछ तो जरूर हुआ है- कालू ने कहा।
झबरा के पास अपने दुख को बांटने के अलावा और कोई चारा नहीं था। उसने पूरे घटनाक्रम को लालू व कालू के समक्ष बयान कर दिया। लालू और कालू पूरी बात सुनकर तैश में आ गये पर झबरा ने उन्हें शांत किया। रात उतर रही थी झबरा की इच्छा मातादीन की दुकान की ओर जाने की जरा भी नहीं हुई। वह लालू और कालू के साथ ही उनके ठीहे पर ही सो गया। निन्दा, अपमान और मार की चोट ने झबरा को निरीह बना दिया था। वह भूखा प्यासा नींद के आगोश में चला गया। सपने में उसे रूबी के साथ बिताए गये क्षणों की झलकियाँ दिखाई दी। आँखों ही आँखों में हुई बात और उसके निष्कर्ष की गुनगुनी यादों में डूबता उतराता वह अपने दर्द पर काबू करता हुआ गहरी नींद में उतर गया। सपने में उसे अपना सुखद भविष्य नजर आया जिसमें रूबी के साथ संबंध और संबंध के परिणाम स्वरूप छह बच्चे उसे रूबी के स्तनों से चिपटे नजर आये। झबरा लालू और कालू के ठीहे पर ही सोता रहा। रोज की तरह सुबह हुई पर आज की सुबह में उसकी कोई रूचि नहीं थी। लालू और कालू ने उसे दो तीन बार जगाने की कोशिश की पर वह अलसाया और उनींदा शुकुल जी की बाड़े के किनारे पड़ा रहा। झबरा के दुख को लालू और कालू भी समझ गये थे अत: जब दुलारी की मण्डली रोज के समय पर उन तक पहुँची तो लालू ने उनसे कहा कि झबरा की तबीयत ठीक नहीं है अत: उसे न जगाया जाये। जंगल की चौकसी का जिम्मा मैं और कालू मिलकर सम्भाल लेंगे। दुलारी ने झबरा को सू्ंघ कर देखा और फिर अपनी मण्डली के साथ जंगल में घुस गयी। झबरा के बगैर जंगल में घास चरना सबको आज अच्छा नहीं लगा पर वे सब भी क्या करतीं? लौटते में लालू और कालू से रहा नहीं गया तो वह एक जगह रूक कर रूबी के प्रति झबरा की आसक्ति और उनके बीच में उपजे प्रेम और सोलंकी जी की झबरा के साथ की गई मारपीट की बात दुलारी और उसकी मण्डली को बता बैठा। वे सब बहुत ध्यान से लालू और कालू की बात सुनती रहीं फिर वापस लौटने के लिए चल पड़ीं। उन सबकी चाल में आज अजीब किस्म की दृढ़ता थी जिसे लालू व कालू ने महसूस किया। शुकुल जी के बाड़े के पास पहुंच कर वे सब एक क्षण के लिये रूकीं और झबरा को सोता देख कर वह सब मातादीन की दुकान की ओर बढ़ गईं।
सोलंकी जी के बंगले का फाटक खुला था और पूरा परिवार शाम की तरह सुबह की चाय पर जमा हुआ था। अचानक मातादीन और उसकी दुकान पर जमा मुहल्ले के ग्राहकों ने देखा कि गायों और बछड़ों का वह झुण्ड अचानक आक्रामक होता हुआ बंगले में प्रवेश कर गया। दुलारी और श्यामा ने सीधे सोलंकी पर अपने सींगों से हमला बोल दिया तो बाकी सब बगीचे में की गई सजावट को तहस-नहस करने में जुट गईं। सोलंकी परिवार और रामबचन इस आकस्मिक और अप्रत्याशित हमले के लिये तैयार नहीं थे। सोलंकी जी कुर्सी समेत बगीचे की लॉन में गिर पड़े थे और एक ओर से उन्हें श्यामा और दूसरी ओर से दुलारी ने अपने खुरों से रौंदना शुरू कर दिया था। शेष गायों और बछड़ों ने भी अपने गुस्से का इजहार किया और पारूल और उसकी माँ को रगेड़ डाला। बंगले में हाहाकार मच गया और बंगले के बाहर एकत्रित जन समुदाय में भी चीख पुकार मच गई। हर कोई इस बात पर चकित था कि यह आखिर हो क्या रहा है? गायें इतनी हिंसक किस कारण से हो उठीं! रूबी भी यह नजारा एक ओर सिमटी देख रही थी। गायें ने सोलंकी जी को जी भर कुचलने और लहूलुहान करने के बाद बगीचे को उजाडऩे में लग गई थीं। उन्होंने गमलों को पलटा दिया। पेड़-पौधे उजाड़ डाले और दो तीन ने तो घरों में घुस कर भी सामानों को तोडफ़ोड़ डाला। बाहर खड़े मुहल्ले वालों को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि वे क्या करें? वे लोग गायों को हकालने के लिए शोर मचाने लगे।
उस शोर की गूंज शुकुल जी के बाड़े के एक कोने में निस्तेज पड़े झबरा के कानों तक भी पहुँची। वह उठा और मातादीन की दुकान की और दौड़ा उसके पीछे लालू और कालू भी दौड़े। बंगले के बाहर खड़ी भीड़ के बीच से वो जगह बनाते फाटक के सामने तक आ पहुँचे। उन्हें बंगले की बरबादी का नजारा दिखाई पड़ा और दिखाई पड़ा सोलंकी जी का पूरा परिवार जो लहूलुहान बगीचे में जहां तहां गिरा पड़ा था। चीख और कराह के बीच में रूबी की भी भय मिश्रित आवाज शामिल थी। दुलारी और उसकी मण्डली को लगा कि उसका काम अब खतम हो गया है तो वह बाहर गेट की ओर उसी आक्रामक मुद्रा में बढ़ीं। गेट पर जमा लोग तितर-बितर होकर गली के दोनों ओर चबूतरों व पट्टियों पर जाकर खड़े हो गये। गायों और बछड़ों का समूह एक एक करके बाहर निकला और रामसेवक बाबू के बंगले के मोड़ तक भागता चला गया। बंगले के दोनों फाटक खुले थे और अन्दर का नजारा किसी युद्धक्षेत्र की गवाही दे रहा था। रूबी अभी भी डर से किकिया रही थी। उसकी और उसके मालिकों की आह कराह एक अजीब वातावरण पैदा कर रहें थे। झबरा फाटक के अन्दर घुस गया और अंदर पहुँच कर वह रूबी के पास पहुँच गया। वह एक क्षण रूबी को देखता रहा। इस बीच गेट के बाहर खड़े नागरिकों को नागरिक बोध पैदा हुआ और वे लोग घायल सोलंकी परिवार की मदद के लिये फाटक में घुस गये। लोग लहूलुहान और चोटिल सोलंकी परिवार को तत्काल चिकित्सकीय सेवाएं मुहैया कराने पर बातचीत करने लगे। आस पास के मुहल्लों तक भी इस घटना की गूंज पहुँच गई थी। लोग गली के दोनों छोरों से सोलंकी जी के बंगले की ओर बढ़ते दिखे। इस भीड़ को चीरते हुए झबरा और रूबी शुक्ल जी के बाड़े की ओर निकल पड़े थे। इस नवागत जोड़े की सुरक्षा में आगे लालू और पीछे कालू भी मौजूद थे। झबरा और रूबी शुक्ल जी के बाड़े के मोड़ से जंगल के रास्ते पर मुड़ गये। उन्हें वह अपने लिये ज्यादा सुरक्षित लगा। झबरा ने पलट कर लालू और कालू की ओर कृतज्ञता से देखा और फिर रूबी को लिए हुए जंगल के विस्तार में खो गया जहाँ भेडि़ए तो थे पर शायद सोलंकी जैसे शहरी भेडि़ए नहीं थे जो उनके प्यार को ऊँच नीच के तराजू में तौलते।
पाठकों से यहीं मैं इस कहानी को विराम देने की इजाजत चाहता हूँ। झबरा और रूबी की शेष जिन्दगी कैसे कटी और दुलारी और उसकी सहेलियों का बरताव इस सभ्य समाज को कितना नागवार गुजरा यह तो मुझे नहीं पता पर एक संवेदनशील कहानीकार होने के नाते मैं बस इतनी उम्मीद तो कर सकता हूँ और वह भी कम से कम कहानी में कि कुछ महीनों बाद जब दुलारी की पूरी मण्डली जंगल में पहुंची तो वहां झबरा और रूबी के साथ-साथ उनके छह पिल्ले भी इस पूरी मण्डली का स्वागत दुम हिलाकर कर रहे थे।






रंगकर्मी, लेखक और पूरावक्ती नाट्य निर्देशक अरुण पांडे, विवेचना से शुरुआत में ही जुड़े। हरिशंकर परसाई और देश के कई बड़े कथाकारों की कृतियों का नाट्य रुपांतरण करने वाले अरुण पांडे वर्तमान में 'विवेचना रंगमंडल' के प्रमुख हैं। जबलपुर में रहते हैं।


Login