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जून 2014

निधीश त्यागी की कवितायें

निधीश त्यागी

नये कवि




बंजारे


बंजारे - एक

हमारे पूर्वज कहीं नहीं गये अपनी जगहों से
पृथ्वी पर हमारे गांव तय रहे
हमारे नामों में दाख़िल
हमारी पहचान में दर्ज

पृथ्वी हमेशा रुक गई
कुछ कोस के बाद
परदेस बनकर
जहां हमारी बहनें गईं

बंजारे कहीं नहीं टिके
चलते रहे पांव उनके दिन भर

रात भर थिरकते रहे पांव उनके
कांपती रही आवाज़ें
रोती रही वायलिनें
और सारंगियां
वे हर बार
धरती के सिरे पर रहे
एक बार
एक नये कोने पर

एक पुराना गांव छोड़ते
एक नया गांव बनाते

मिटाते रेत और उसकी घड़ी पर

वे मिटना लिखते हुए
छूटते जाते हैं
वह पकड़ते हुए
जो बुन रहा है

पृथ्वी पर उन मनुष्यों का रास्ता
जो हर कदम पर एक नई ड्योढ़ी लाँघता है

भूगोल और इतिहास
अकाल और जंगों
मोह और उम्मीदों और वादों
सभ्यता और नागरीयता
और नक्शों और असंभव के
परे
और
बाहर

अपनी धूसर अंटी में गड्डमड्ड और मुड़ीतुड़ी
संस्कृति दबाए हुए
रहस्य और मंत्र और सर्पदंश से मुक्ति की बूटी की तरह
अपनी आवाज़ों, कदमों, नाद और स्वर में
जहां फ्लेमेंको की एडिय़ों की थाप
पढ़ लेती है
राजस्थान की सारंगी
कोई फूटफूट कर रोना चाहता है
कोई आँसू धुले चेहरे पर मुस्कुराना

सफर अपनी सराय खुद बनाता है
अपने क़िस्सों की तरह
जहाँ सच सच नहीं है
और झूठ झूठ नहीं

उनके बीच एक रास्ता है
मुमकिन का मनुष्यता का

साँसें जब करती हैं
वह खींचना
और छोडऩा
जब अब तक हुआ है

शरीर के बचे
और आत्मा के लहुलुहान में

रेगिस्तान की रेत पर से
चाँद गुज़रता है
उन ज्वार भाटों का हिसाब लिए
जो समुद्र की सतह पर
लिखा और मिटा दिया गया

एक बजती और नाचती और गाती
हुई हृदयविदारक
न खत्म होती रात में
जिसका रास्ता तारे तय करते हैं
ज़मीन नहीं।

पृथ्वी की धुरी
पृथ्वी का सफर
पृथ्वी की थकान

पर पृथ्वी का घूमना

बंजारा हूक में
* * *

बंजारे - दो

वे चाँदनी की राह देखते हैं
दुनिया भर के सारे बंजारे
और अंधेरे के सफरनामे सुनाते हैं

सारंगी आवाज़ों में
सिर्फ दर्द जोड़ती है
उस उत्सव पल को
जो हर रात का उस रात को ही
शुरू होता है
खत्म होने के लिए

वे ज़मीन के रास्ते से गये
और दिनों में दिखाई नहीं दिये
नागरी सभ्यताओं से बेदखल
इंसानियत से जातबाहर
उनका होना हर जगह हर सुबह आगे बढ़ जाना था
जो हर बार कब्ज़ा ज़माने की
बेजा कोशिश की तरह पढ़ा गया
आबादियों के रजिस्टर से
रकबे और चक से
जंग और संधियों की शर्त से
वे निर्वासित रहे
इंसानियत की सिमटती शामलात ज़मीन
और शरणार्थी शिविरों में

इंसानियत के घुप स्याह में
इतिहास के बियाबान में
वे जुगनुओं की तरह
टेक लगाते रहे
आज यहाँ दिख कर
कल कहीं और
गुमशुदा सुरागों की तरह
समय के आरपार
कहीं नहीं के वहीं में
वे धर दबोचे गये
जब भी कभी मुश्किल हुआ
जुर्म के असली गुनहगारों की
कॉलर तक कानून का पहुंचना

वे नीचे, कमीन, जरायमपेशा, रोमां, जिप्सी, बंजारे, अनपढ़,
जाहिल, कामचोर, ठग, निकम्मे, गिरहकट, झपटमार, बेडिय़े,
अपराधी, घुमन्तु... विशेषणों की पकड़ से बच निकलने वाले

पगडंडियों की तरह मुख्य मार्गों से
और सफर की तरह सरायों से आज़ाद

पाजेबों और फ्लेमेंको एडिय़ों में छमकते हुए
ढोल और लकड़ी के डब्बों पर थाप देते
खपच्चियों की गिड़तिड़ में बिजली की तरह बहते
पेट से निकलती आवाज में कंपकपाते और
रोते राजस्थान की सारंगियों से
एंदेलूशिया की वायलिनों तक

एक ज्वार उठता है
बहुत धीरे से
बहुत तेज़ तक

उस चाँदनी रात को
उस अंधेरे की कहानी
बयान करने के लिए

जो मनुष्यता के घुप में इकट्ठा
होता रहा है

यूँ फूट पडऩे के लिए
* * *

बंजारे - 3

गई घेरे मिलते हैं
एक घेरे में
घेरों में बनते हुए घेरे
घेरों से बनते हुए घेरे
परछाइयों के

सभ्यताओं के नामुमकिन में
सभ्यताओं के ठहरे में
संस्कृति का घेरा

लहराते लहंगे में
फहराती आवाज़ों में
घुमड़ते आरोह में

जो एकदम भभक कर उठता है
आकाश में सर्पिल
और जान अटक जाती है
दुनिया को छोड़/खबरों से बाहर/राष्ट्रीयता के पार
घुँघरू की छनक में
सारंगी के दारुण में
आवाज़ के आर्तनाद में
बिजलियों की तरह तेज़
और लपकते हुए आदिम के
अनंत को
छूते हुए, छेड़ते हुए

आगे के घेरे में

उदासी और थकान के बाहर
भाषा के प्राचीनतम में
कहीं नहीं के
यहीं कहीं वहीं में

हो पाने के भयावह से
एक कदम बाहर
होने के उत्सव में
गर्मजोश़, पुलकित, जाजल्व्यमान।

जो पहुंचते हैं यहाँ
अंधेरे, सन्नाटों, वक्त और
आशंकाओं को चीर कर
वे घेरा बनाते हैं
एक और आख़िरी का
एक और साँस का
न लौटने के सफर पर निकले का

इतिहास के लापता में
अपनी गुमशुदा शिनाख्त
दर्ज करवाते हैं
जंगल के जुगनुओं की छिटक की तरह

वे चमकते हुए रौशन धूल के कण
भूगोल और सभ्यताओं के
आरपार
गायब हो जाने से पहले
मनुष्य होने का
एक और गीत गाते हुए

और चले जाते हैं
किम्वदंतियां बनते हुए
दिनारम्भ पर

हाशिए की उस तरफ
* * *





निधीश त्यागी पेशे से पत्रकार और तबियत से मलंग कवि हैं। उनकी यह ताज़ा कविताएं उनके सरोकारों की तर्जुमानी करती हैं, और विश्वदृष्टि रखती हैं। उनका एक कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुका है, कविता संग्रह की तैयारी है। देशबंधु, भास्कर और पुणे मिरर जैसे प्रतिष्ठित अखबारों के संपादक रह चुके हैं। वर्तमान में वेबसाईट, बीबीसी के हिन्दी संपादक हैं।


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