इक्कीस दिन लम्बी कविता
इरशाद क़ामिल
लंबी कविता
स्मृति आने वाले समय का सबसे बड़ा औजार होगी हथियार होगी, जिसे बदलने का प्रयास किया जायेगा स्कूली पुस्तकें बदल कर ताकत से तकनीक से तकरार से प्रयास किया जायेगा, हवा बनाये रखने का, थामे रखने का समय की लगाम
समय मूक और बधिर संवाददाता चश्मा साफ़ करके लगाता मुस्कुराता, अपनी नेकटाई ठीक करेगा गिलास में साठ मिली लीटर नापेगा कच्चा माँस रौंदेगा और परोसेगा उनको जो थाम रहे होंगे लगाम
स्मृति में है
वे वो समय नहीं था जब दूरदर्शन पर समाचार के बाद मौसम का हाल सुनाता था कोई छड़ी लेकर, वो समय था मौसम का हाल ही समाचार थे जब वास्तविकता बंद थी देश के राजस्व विभाग की तिजोरी में जिसकी कुँजी उनके कमरबंद से लटकी थी तिजोरी की कुंजियों की खनक चिल्ला रही थी कठिन समय बता कर भी आता है बरसात के दिन आ जाते हैं गर्मियों की छुट्टी मनाने विज्ञापन और समाचार देते हुए आने से पहले चोर, ग्राहक और मौत
कई बार
घर बैठना पड़ता है दिहाड़ीदार भूख से लड़ता है दुनिया के किसी भी युद्ध का सार तत्व यही है भूख संतान को शैतान दानी को दुकान बना देती है जब काम नहीं होता तो काम की ही कामना होती है काम ही हो सकता है जठराग्नि भूलने के प्रयत्न में काम, गुण से गुणा हो जाता है देश के आर्थिक स्वास्थ पर आबादी का डण्डा बिना झण्डा लहराता है
जब कुछ नहीं चलता तो काम चलता है पाँव लडख़ड़ाते हैं टाँगे कांपती है कमर झुकने लगती है पेट पीठ से लगता है सीना धौंखनी हो जाता है चेहरा मुरझाता है सुबह छह बजे सरकारी खाने की कतार में लगा दिहाड़ीदार शाम को घर भूख लाता है फुटपाथ के खुले घर से वो खाने का विज्ञापन फोटो देख कर पढ़ता है, सोचता है ऐसे दिनों में भी काइयां लोगों का पेट कैसे बढ़ता है
यानि
हमारे गुनाहों का गड्ढ़ा भरता है, इंसान इंसान को हाथ लगाते डरता है कुदरत का खेल है या किसी लालच की हद, कई बड़े लोगों का छोटा हो गया कद स्वार्थ की आग तापते लालच की सीमा नापते
मालिक
लालच असीम है अनंत है अरूप है निर्गुण निराकार है अदृश्य अलौकिक स्वर्ग और नर्क का निर्धारक है लालच अमर है रौशनी और अन्धकार का पालनहारा है हमारा है हम सब में लालच है हम उसी के अंश उसी की संतान हैं कहीं पूरा आसमान हैं हम उसी के रूप हैं हमारा सुख-दु:ख उसी के हाथ है लालच ही प्रेम है जो हर जगह साथ है
स्वार्थ आग है, आग बिना मानव जीवन अभिशाप है रहिमन अग्नि राखिये बिन अग्नि सकल व्यर्थी चूल्हा, विवाह और अर्थी
तो
ये सरासर झूठी बात है कि बन्दा अशरफ़-अल-मख़लूकात है उसकी क्या औक़ात है वो कैसे महान है धरती का सबसे खतरनाक जानवर इंसान है
ख़तरनाक जानवर प्रकृति ने पिंजरे में डाला हिरस और हवस पर ताला हवा ज़रा शुद्ध हो गयी शोर ज़रा कम हुआ शहर में गावों का रंग ढंग हुआ ज़िन्दगी ज़रुरत पर सिमट आयी रही बात गरीब दिहाड़ीदार की उसके लिए न पहले आज़ादी थी न अब रिहाई दरअसल
गरीब वो नहीं जो दिहाड़ी लगा रहा है सच पूछो तो असल में वही है जो देश चला रहा है पौष में नाच रहा है जयेष्ठ में गा रहा है अनाज उगा रहा है भुन-भुनाके चना हुआ सड़क बना रहा है शिक्षित कचरा गिरा रहा है अशक्षित कचरा उठा रहा है बर्तन माँजता, खाना बना रहा है अपने बच्चों को आधा पेट खिला कर सुला रहा है ईंट की तरह इमारत में लगा है वो तो गँवइया-ग्रामीण नौकर है अपना थोड़ी न सगा है
शहर से गाँव पैदल गया है बरसों से जा रहा है पैदल वो पहले भी बहुत चला है ये अनुभव नया है यात्रा में मौज मना रहा है रास्ते में धूल चाट रहा है हवा खा रहा है काँधे पर लटकते भूख भूलने के प्रयास में हुये काम के परिणाम को ज़बरन हँसके रिझा रहा है पैदल चलने वाला ही अपनी जान पर सियासत चला रहा है
हालांकि
कठिन समय हमेशा उसे ही लूटता है हर नियम-कानून का डण्डा उसी के सर पे टूटता है
गरीबी ने केवल और केवल अमरीका-चीन का नाम भर सुना है उसे समझ नहीं आ रहा है किसी भी साज़िश के लिये किसी भी देश ने हमेशा उसे ही क्यों चुना है
सवाल कठिन है कठिन समय की तरह इसलिए नहीं हुआ कठिन कि दफ़्तर वाला दफ़्तर नहीं जा रहा अपना काम समय पर नहीं निपटा रहा देश के प्रति अपना कर्तव्य नहीं निभा रहा, बल्कि
इसलिये
उसे अपना आप दिखाई देने लगा है उसने काग़ज़ की तरह कमज़ोर अपने किरदार पर ख़ुद हगा है बच्चे बड़े हो रहे हैं सेहत उलझाये जा रही है पत्नी बुढ़ाये जा रही है उसे दूसरों की बोरियत की चिंता खाये जा रही है तिस पे सोशल मीडिया बोरियत की आग पे घी टपकाये जा रही है
बेटी को पड़ीसी ताड़ रहा है बाबू नकली सोशल मीडिया पर अवास्तविक मित्रों के आगे अक्ल झाड़ रहा है अक्ल की खुजली सबको सताती है उत्क्रांति बताती है ये सबसे ज्यादा इंसान के हिस्से में ही आती है
इस खुजली के उतने ही आकार है जितने संसद के खंभे हैं या तथाकथित इंसान हैं मध्यवर्ग इस खुजली का गंभीर शिकार है दिखावे के अलावा यही उसके खोखलेपन का दूसरा प्रकार है
अक्ल का हथियार रोज़ तीखा करना पड़ता है अक्ल का भ्रम हर बेअक्ल की सोच में रोज़ाना बढ़ता है
परमिटशुदा मूर्ख मूर्खों के स्वर्ग में रहता है वहीं से वो अक्ल बाँटता है देश के गद्दारों को डाँटता है
घर में नहीं देखता इस कठिन समय में भी घर के कोने कोने में हरियाली है बच्चों की ज़िम्मेदारी औरत ने संभाली है ये जो पसीने में सराबोर रसोई से आयी है कितनी गँवार है पुरुष मानसिकता से मुरझाई है जो साथ रहता है वो भी अनजान हो सकता है जिसका घर हो वो भी मेहमान हो सकता है
कब किस कमरे में किस समय कितनी रौशनी अपने घर की रौशनी और समय का हिसाब रख पाना कठिन है जैसे अपनी आत्मा और लालच का जैसे अर्थ व्यवस्था में स्वार्थ का जैसे देश की नीतियों में बड़े व्यापारियों के हित का - चित्त का
कठिन समय में हम आसान काम भूल गये रिश्ते जामुन की टहनी हुये ज़रा सी हवा में झूल गये
बेटी की आँखों में नहीं देखा बेटे का मर्म नहीं समझा भाई से जलन कम नहीं की बहन का आदर नहीं बढ़ाया पड़ोसी को निशंक नहीं देखा शाम की चाय में बिस्कुट डुबोये मन के मुटाव नहीं समय कठिन तो होना ही है हमें अपनों का भी पास बिठाने की चाव नहीं
न कोई योजना न नीति न विचार अपनी ही पूजा अपना ही आभार मन-मुटाव नहीं तोड़े अहम् नहीं छोड़े सर नहीं जोड़े उस हारती हुई टीम की तरह जो फिर से बना लेती है जीत की रणनीति
बस
फोन पे लगे हैं ठीक से न सोये हैं न जगे हैं स्टेटस डाल के समझदार हो रहे हैं बाज़ार बंद हैं, फिर भी बाज़ारवाद का शिकार हो रहे हैं
समझदार होने की कोशिश में कोशिश ज़्यादा होती है समझदारी कम ठीक उसी तरह जैसे चाँदनी रात में रात ज़्यादा और चाँदनी कम जो होता है अपने आप दिख जाता है चाँद हो, रात हो या कोशिश
समय है गुज़र जायेगा समय के भाग्य में गुज़रना ही लिखा है कभी नहीं चुभा कोई कांटा समय के पाओं में न किसी शहर या गाँओं में जीवन रुका है बहुत देर
दिहाड़ीदार को दिहाड़ी मिलेगी ऑफिस में खींच तान चलेगी जाल, मॉल, ख्याल सब खुल जायेंगे अनुशासन की द्रौपदी चौराहे पे आयेगी एक दूसरे की देखा देखी उसकी साड़ी खींची जायेगी सम्मानित दूर बनाये रखने का नियम बेअक्ली का पानी भरेगा फिर बाबन सीटों की बस में एक सौ बाबन भारतीय चढ़ेगा दो की सीट पर चार एडजस्ट तभी तो कम नहीं हो रहे कष्ट एडजस्टगिरी हमें महान नहीं मूर्ख बना रही है हमारा अधिकार पूँजीपति की पत्नी खा रही है ढाई करोड़ का बटुआ उठा कर बाबन की बस में एक सौ बाबन चढ़ा रही है
बस की सीट पर बैठ कर जाना मेरा हक़ है या इसमें भी कोई शक़ है?
जब हम कतार में लगेंगे अपना चेहरा आगे वाले के काँधे पर धरेंगे अपना पेट उसकी पीठ पर लगायेंगे कठिन समय गुज़र जायेगा हम असलियत दिखायेंगे सम्मानित दूरी भूल जायेंगे
सम्मानित दूरी
रिश्तों में, समाज में ख़ाली पेट और अनाज में रात के काम दिन के काज में तालाबंदी के कारम दिहाड़ीदार पर गिरती महंगाई की गाज में अपना महत्व रखती है सम्मानित दूरी रखना भी एक तपस्या है एक भक्ति है।
इरशाद कामिल हालाँकि समकालीन फिल्म जगत के पहली पंक्ति के गीतकार हैं लेकिन समकालीन समय और समकालीन समय की कविता पर पैनी नज़र रखते हैं। चार पुस्तकें 'बोलती दीवारें’ (नाटक), 'एक महीना नज़्मों का’ (नज़्में), 'काली औरत का ख़्वाब’ (संस्मरण), 'समकालीन कविता समय और समाज’ (आलोचना) प्रकाशित हैं। कामिल तीन बार फ़िल्म फेयर के अलावा लगभग सभी सिने-पुरस्कार कई बार जीत चुके हैं। इरशाद को पंजाबी विश्वविद्यालय ने 'साहिर लुधियानवी पुरस्कार’ भी दिया है। कैफी आज़मी अवार्ड, गीतकार 'शैलेन्द्र सम्मान’ भी इनके हिस्से में आ चुका है। आजकल अपने कविता संग्रह पर काम कर रहे हैं और ए.आर.रहमान, प्रीतम जैसे संगीतकारों के साथ सिने-गीत बना रहे हैं। इरशाद कामिल की इस कविता को पढ़ते हुए हमें भवानी भाई, धूमिल, वीरेन डंगवाल और नरेश सक्सेना की याद आई। इरशाद कामिल ने नये समय को प्रकाशित किया है और हिन्दी कविता को अग्रसर किया है।
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