हेमंत देवलेकर की कवितायें

  • 160x120
    फरवरी 2014
श्रेणी कवितायें
संस्करण फरवरी 2014
लेखक का नाम हेमंत देवलेकर





नये कवि

 

भारत भवन में अगस्त का प्रवेश


हरी घास में समाधिस्थ
बैल की पीठ का कूबड़ है-
उद्घाटन शिला।

यह लाल पत्थरों की विशाल बावड़ी है
क्या भरने,
किसमें डूबने
उतरते हैं, उकताए मन के पाँव।

घनी घास के बीच से
उग आई हैं फर्शियाँ
यह बारिश के लंगड़ी-पव्वा खेलने का मैदान है।

सीपी में दुबके मोती-सा कछुआ
चलता है तो पीछे की दीवारों के
पोस्टर बदल जाते हैं
पोस्टर: कैलेंडर में त्यौहारों वाले लाल चौखाने हैं।

बारिश में भीगी दीवारें
और ज़्यादा ताज़ी, गाढ़ी
जैसे गीले बदन पर चिपटा सफेद दुपट्टा
कत्थई गुलाब हो।

लकड़ी पर उगी फफूंद की तरह शिल्प,
यहाँ की हर चिडिय़ा 'स्वामी' की पेंटिंग से निकली है
रंगीन पिरामिड बादलों के कंधों पर
सिर टिकाए।

पत्थरों का उत्तरी गोलार्द्ध
मेघालय का कोई मोहल्ला है।

बहिरंग के मंच पर घुटनों तक घास
और फहराती हुई काँस की कलगियाँ
जितनी झील खुश है
यह दर्शक दीर्घा उतनी ही उदास।

काला शामियाना तना हुआ है
और 'बादल राग' का पोस्टर भीग रहा है।

इस दोपहर में

इस दोपहर में :
जबकि गिलहरी ने पेड़ों पर
अनथक उतर-चढ़ मचा रखी है
और नन्ही मकड़ी अपने तार फैलाने में जुटी है

चिडिय़ाएँ सूखे तिनके चुनने में व्यस्त
झरे पत्ते भी बैठे नहीं हैं चुप

स्थिर पेड़ की छाया सरक रही है
और चींटियाँ मरे तिलचट्टे को
उठाए जा रहीं
लेकिन यह समय
निठल्ला बैठा है
जबकि घड़ी के काँटे झूठा दिलासा दिए जा रहे।

दोपहर की उदासी सरोद का आलाप है

शाम को
डोअर बेल की आवाज़ पर
भागेंगी चूडिय़ाँ
बिन्दी में रक्त और मचल उठेगा

शाम सितार पर 'जोड़' बजाती आएगी।

डल झील में एक शिकारा है सन्तूर
पं. शिवकुमार शर्मा का वादन सुनकर

कमल आँख खोलते हैं
झील जागती है।

धूप शांत लहरों पर
अनुरणन करती
हिमालय के पैरों के
अंगूठों को छूती है
पहाड़ जागता है।

उनींदे देवदारू
अंगडाई भरते हैं-
पंछी उड़ते हैं।

पत्थरों के कोटर से
फूटता है शततंत्री झरना
केसर के मद्धिम बैंजनी फूल
किसी राग की कल्पना हैं।

बर्फ की नर्म फुहार से
ढँक गयी है शिकारे की छत
और किनारे पर खड़ा शिकारा
चल पड़ता है,
दो चप्पू लय के जल में तैरते हैं

अलमारी में किताबें

उनकी आजानुबाहु भुजाओं पर
गुदा है उनका नाम

अकेलेपन से हताश
उन्होंने अपने चेहरे
एक-दूसरे की पीठ में धँसा दिये हैं।

ध्यान से देखो,
वे वहाँ रह नहीं रहीं
(और यह कोई फैशन परेड भी नहीं)
वे कतार में खड़ी हैं, बेसब्र।

ऊँचे-ऊँचे तल्लों से
उतरना चाहती हैं एक-एक कर।

किताबें हमारे हाथों में
लकीरों की तरह बसना चाहती हैं।


कुछ ही कविताएं प्रकाशित। उज्जैन और भोपाल में रहते है।

Login