हरिंदर राणावत की कविताएं

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    फरवरी 2014
श्रेणी कविताएं
संस्करण फरवरी 2014
लेखक का नाम हरिंदर राणावत





नर्सरी के बच्चे और मगरमच्छ

सबसे बड़ा सवाल तो यही है
कि अच्छा इनसान किसे कहते हैं
कौन होता है अच्छा इनसान
दरअसल जब एक आदमी
डर जाता है
समाज के ताकतवर लोगों से

वह आदमी चाहता तो यही था
जितनी जगह मिली है उसे
पैर फैलाने के लिए
उसमें अपने फर्ज पूरे करे

जो होते हैं
समाज विज्ञान की किताब को
अच्छी तरह पढऩा
और उसका मतलब
दूसरे लोगों तक पहुंचा देना
या जिनका मतलब होता है
नर्सरी के बच्चों की क्लास में
सुंदर कैलेंडर चिपकाना

लेकिन उसे खौलते पानी
में कूदना पड़ता है
और तब उसके सामने
इन कहावतों के अर्थ खुलते हैं
कि नदी में रहकर मगरमच्छ
से दुश्मनी लेना ठीक नहीं

लेकिन मगरमच्छ
और नर्सरी के बच्चों का
कोई मेल नहीं होता

मगरमच्छ और नर्सरी के बच्चे
बिल्कुल अलग-अलग जगहों पर होते हैं

या तो तुम मगरमच्छ के
जबड़ो में हाथ डालकर उसके
दांत गिन सकते हो

या फिर
नर्सरी के बच्चों के लिए
स्टूल पर चढ़कर
दीवार पर कैलेंडर चिपका सकते हो

इसीलिए वह आदमी... जो डर जाता है
समाज के ताकतवर लोगों से

वह नर्सरी क्लास में कैलेंडर लिए...
स्टूल पर चढ़कर
मगरमच्छ के दांत गिनने की कोशिश करता है

 

बहुत दुख में

चील के पंजों से चूहा नहीं गिरता
शराबी के हाथ से बोतल नहीं गिरती
गरीब के हाथ से दवा की शीशी नहीं गिरती
बस में दौड़ कर चढ़ती अध्यापिका के हाथ से पर्स नहीं गिरता
मौसी के घर रह रही लड़की के हाथ से चाय की प्याली नहीं गिरती
इंटरव्यू देने जा रहे लड़के के हाथ से सर्टिफिकेट नहीं गिरते
तंगहाल रंगकर्मियों के हाथ से मेकअप का सामान नहीं गिरता
ढाबे में दिन रात खटने वाले किशोर के हाथ से घी का डिब्बा नहीं गिरता

ये सब चीजें नहीं गिरती

लेकिन ये नहीं ही गिरेंगी
ऐसा कोई नियम भी नहीं

बहुत दुख में...
बहुत पीड़ा में...
जब सावधानी के क्षण छूट जाते हैं

तब -
शराबी खड़ा रह जाता है सीढिय़ों पर सन्न
चील आसमान में मंडराती रह जाती है
शोर से भन्नाता माथा लिए-रोकती-रुलाई-कुर्सी पर लस्तपस्त पड़ जाती है अध्यापिका
मौसी के घर में-गिरे चाय के प्याले के पास कांपती थर थर-खड़ी रह जाती है लड़की
तंगहाल अभिनेता कोसते है एक दूसरे को
इंटरव्यू देने आया युवक भागता है वापस.. जिस रस्ते पर गिरे सर्टिफिकेट
ढाबे में खटने वाला किशोर.. सड़क पर गिरे डिब्बे से बहते घी को देखता-बड़बड़ता है
क्यों नहीं आ जाती अभी के अभी... गांव जाने वाली बस

 

अपलक

हम सबकी पलकें
झपकती रहती है

अगणित लोगों
की पलकें झपकते रहना... अनवरत
थमता नहीं

स्टेडियम में

विकेट पर डटे
... गेंद पर नजर गड़ाए बल्लेबाज
की पलकें भी
सदा अपलक नहीं रहती

गेंद हिट करके... रन के लिए भागने
... के दौरान

कई बार झपक जाती हैं पलकें

फेफड़ों तक खींच कर सांस
हांफता है...
बल्ले का सहारा लिए... झुका बल्लेबाज

हांफते - झुके
बल्लेबाज
की पलकें... अनथक झपकती रहती है

स्टेडियम में
लाखों दर्शकों की पलकें झपकती रहती हैं
विदेशी राष्ट्रपति से...
प्रधानमंत्री गर्मजोशी से हाथ मिलाते हैं

बिना यह जाने
कि उनकी पलकें झपक रही हैं

शवों से अटे पड़े युद्ध क्षेत्र में
खिन्न मन
संसार की असारता पर
संतप्त

सम्राट अशोक की पलकें
भी झपक रही थीं

सजा

तुम सजा दे सकते हो
तुम गली के जिस
मुहाने पर हो
वहां पर तुम्हारे होने से
तुम्हें यह अधिकार है
कि तुम
सजा दे सकते हो
लेकिन तुम
गली के दूसरे
मुहाने पर नहीं हो सकते
जहां खड़ा होने वाला
उम्मीद दे सकता है
तुम सजा दे सकते हो
या
उम्मीद दे सकते हो
तुम गली के दोनों मुहानों पर
नहीं हो सकते
यह तुम्हें तय करना है
कि
गली के किस मुहाने से
दुनिया तुम्हें
खूबसूरत दिखती है




शुरू में गज़लें लिखीं, फिर कविताओं का रुख किया। कविता संकलन 'यह ऐसा समय है' व 'क्या संबंध था सड़क का उड़ान से' में कविताएं शामिल हुईं। चडीगढ़ में - एक सपने की मौत, मत्स्यगंधा, आधे अधूरे, पैर तले की जमीन आदि नाटकों का मंचन किया। जनसत्ता में लेख व पत्र पत्रिकाओं में समीक्षाएं प्रकाशित। दो लघु फिल्मों - माई ड्यूटी और गॉड डैमिट - में अभिनय। कुछ ही समय पहले नाटक 'आखेट' पूरा किया। इसका पहला पाठ चंडीगढ़ में सात सितंबर 2013 को 'अभिव्यक्ति' की गोष्ठी में हुआ। 'जनसत्ता' में बतौर मुख्य उपसंपादक कार्यरत।

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