बाबल की ज़िंन्दगी का सरासर सच

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    फरवरी 2014
श्रेणी लम्बी मराठी कहानी
संस्करण फरवरी 2014
लेखक का नाम जयन्त पवार/अनुवाद : निशिकान्त ठकार





लम्बी मराठी कहानी

 

 

राष्ट्रपति पंचायत समिति के कार्यालय  में पहले ही विराजमान हो चुके थे।  उन्हें प्रतीक्षा थी बाबल की। बाबल, हरिया बढ़ई का बेटा। अब वह तीस-पैंतीस का है।  कहते हैं, वह चल नहीं सकता। कैसा दीखता होगा वह? राष्ट्रपति के मन में  बेचैनी थी।
भारत देश के राष्ट्रपति अपने सारे काम छोड़कर आज अनहोनी राह पकड़कर  चौपालपर किसलिए पधारे हैं? तहसीलदार भी आसानी से नहीं बता सकता कि महाराष्ट्र के मानचित्र पर बाम्बले गांव कहां है। लेकिन कल तक जिस गांव में गाड़ी राह नहीं थी, कुएं-तालाब सूखे पड़े हुए  थे और लोगों के चेहरों-पहनावों पर तथा परिवेश में धूल की पर्ते चढ़ी हुई थीं, ऐसे प्रगति पथ पर चल रहे महाकाय राज्य में फीकी बिन्दी जैसे पिछड़े गांव में देश के प्रथम नागरिक के आने की आखिर क्या वजह होगी?
वजह है बाबल बढ़ई। उसका सम्मान करने के लिए ही तो राष्ट्रपति यहां पधारे हैं। राज्य के विविध स्थानों के दौरे के कार्यक्रमों में राष्ट्रपति ने स्वयं इस सम्मान समारोह को शामिल किया हुआ था। पंगुले बाबल के दिल्ली आकर सम्मान स्वीकारने की अपेक्षा स्वयं बाबले गांव जाकर सम्मान करने का निर्णय उन्होंने लिया था।
राष्ट्रपति का निर्णय  राज्य के शासन दरबार में पहुंचते ही सब हड़बड़ाकर जाग पड़े, मानचित्र को फैलाकर उसमें बाबले गांव का नुक्ता ढूंढऩे लगे। ऊपर से नीचे तक  आदेश रवाना हुए। बाम्बले गांव की धूलमाटी की सड़कें रात ही रात में फैलकर गिट्टी कोलतार की बन गईं। सूखे तालाबों में पम्पों से पानी भरा गया। घर की दीवारें रंग गईं। अहातों और खाली जगहों पर पानी सींचकर धूल को जमीन में दबा दिया गया। बिजली के खंबे लगाये गये। गाहे बगाहे बांस रोपकर पूरे गांव के सिर पर वंदनवारों की लंबी मालाएं फैलाई गईं। सारे कोने-अंतरे झाड़ पोंछकर  साफ कर हर घर के दरवाजे के सामने रंगोली सजाई गई। चौपाल के आंगन को अच्छे ढंग से पोता गया। फूल बिखराये गये। शानदार शामियाना लगाया गया। उसमें मंच बनाया गया। भोंपू लग गये। उसमें गाने बजने लगे तो बच्चे चौपाल की दिशा में दौड़ पड़े। अब ताशे भी तड़तड़ाने लगे और मर्दों ने लेझिम खेलना शुरु किया। लोग  लुगाई सजधज कर जल्दी जल्दी चौपाल की ओर चल पड़े।
चौपाल का परिसर गांववालों, राजपत्रित अधिकारियों, पुलिस के सिपाहियों से भर गया। लेकिन इसके बावजूद राष्ट्रपति कुलबुला रहे थे तो सिर्फ बाबल के लिए। उनके कार्यकाल में शायद यह पहला ही अवसर होगा जहां  उनके उपस्थित हो जाने पर भी गौरवमूर्ति का पता नहीं था। इस औद्धत्म के कारण सरकारी अधिकारी मन में झल्ला रहे थे लेकिन राष्ट्रपति पर कोई असर नहीं था। वह दूर से ही गांववालों के चेहरों पर बाबल को लेकर खिल रहे गर्व को आनन्द से देख रहे थे। किसी दिव्यशक्ति से प्रेरित होकर प्रतिकूलता पर मात करते हुए  अन्याय के खिलाफ उठ खड़े हुए एक साधारण युवक के असीम साहस का खुलेआम गौरव करने के लिए वह बेताब थे। वह युवक अब साधारण नहीं रह गया था। देश के हर युवक के मन में जिद पैदा करने वाला आदर्श बन गया था। उसका नाम था बाबल बढ़ई।
और वह क्षण आ पहुंचा। एक ही आवाज गूंज उठी, 'बाबल ऽऽ बाबल' की जयजयकार होने लगी। आवाज आसमान को छू गई तो सहसा राष्ट्रपति  उठ खड़े हो गये। उनके दिल में हल्का सा कम्पन हुआ। वह आंखें फाड़कर बाहर देखने लगे। दोनों तरफ की भीड़ को चीरते हुए पंगुगाड़ी में बैठकर एक हाथ से चाक को गति देते हुए बाबल बढ़ई धीरे धीरे आगे बढऩे लगा। पीछे पीछे पिता हरिया बढ़ई मां रखमाबाई धीमी गति से आ रहे थे। उनके पीछे बाबल का भाई लहू और बहन चन्द्रभागा आ रहे थे। बाबल पर फूलों-पंखुडियों की बरसात होने लगी। उसको स्वीकार करते हुए वह शामियाने के मंच पर अपनी पंगुगाड़ी के साथ पहुंच गया।
बाबल मेरी कथा का नायक है। इसलिए कहानी का आरम्भ मैंने जानबूझकर ही इस  तरह से किया है। इससे मैं कथानायक को उदात्त स्तर पर ले जा सकूंगा। ज़रूरत पडऩे पर मैं उसमें अद्भुताम्यता भी ला सकूंगा। कहानी में अद्भुत का स्पर्श हुआ तो मुझे वह चाहिये ही क्योंकि मैं उसका मिथक बनाना चाहता हूं। मैं जिस कहानी को कह रहा हूं वह सच है। यथार्थ में घट चुकी  है  बल्कि मेरी आंखों के सामने घट चुकी है। इस वाकया के कई गवाह आज भी  गांव में जिंदा हैं। लेकिन यह कहानी सच्चाई के इतनी करीब है कि लोग किसी भी समय में उसको किम्बदानी में बदल डालेंगे, गपशप की बातों में चबूतरे पर अफवाहों  में बड़े मजे से चुभलाकर उससे अलग होकर आराम से सो जायेंगे। ऐसा नहीं होना चाहिए। उसे लोगों के अवचेतन में फैल जाना चाहिए। कथानायक को दिव्यचरण  प्राप्त होकर वह अपने असली रूप में  उदात्त, उत्कृट और उन्नत होना चाहिए। बाबल नाम का मिथ बन जाना चाहिए। उसकी कहानी मिथक की सतह पर जानी  चाहिए। मेरी सारी कोशिश इसी के लिए है। मैं इस कहानी में वस्तुनिष्ठ तरीके से यथार्थ के बहुत सारे ब्यौरे देकर आकर्षक शब्दयोजना और संरचना का प्रयोग कर उसे असरदार बना सकता हूं लेकिन उससे बधिरता  आ जायेगी। सुननेवाला सुन्न हो जायेगा। लेकिन मैं नहीं चाहता कि ऐसा हो। बाबल की कहानी सुन कर पढऩे वालों के दिल उमड़ पड़ें। सिर्फ हकीक़त से दिल नहीं उमड़ पड़ते। अगर उमड़ पड़ते हों तो समझना चाहिए कि उस यथार्थ में अद्भुत की मात्रा है। और मुझे पूरा यकीन है कि बाबल की कहानी में वह है।
बाम्बले नामक देहात में बाबल नाम का एक लड़का रहता था। बाबल पढ़ाई में तेज़ था। पाठशाला में शिक्षकों का लाड़ला था। बाबल बहुत अच्छा गाता था और बाँसुरी भी बेहतरीन बजाता था। अपने छोटे भाई लहु को उसने एक बांसुरी बनवा दी थी। वह उसे बजाया करता था। बाबल ने अपनी छोटी बहन चन्द्रभागा को गाना सिखाया था। बाबल के पिता हरिया बढ़ई काम करते थे। बाबल उनके काम में भी आते जाते हाथ बंटाता था। हरिया गांव के लोगों को खेती के औजार बनाकर देता था। घर की मरम्मत आदि करता था। गांव वाले उसे बदले में चार सेर धान देते थे। हरिया की घरवाली रखमा खाना पकाकर अपने बच्चों को खिलाती थी।
लेकिन बाम्बले गांव यूं तो गरीब ही था। कम बरसात का टापू था इसलिए गांव में पानी की हमेशा किल्लत ही रहती थी। कुएं-तालाब सूखे ही पड़े रहते थे। पेड़ों पर पत्ते नहीं होते थे। मवेशियों को चारा नहीं मिलता था। इससे उनकी हड्डी पसली दिखाई पड़ती थी। औरतों को पानी के लिए कोसों पैदल जाना पड़ता था। ऐसी हालत में पिछले तीन साल से बरसात का पता नहीं था। गांव में  भीषण अकाल पड़ा  हुआ था। खेतों में फसल नहीं पकी। इससे हरिया जैसे मेहनत मजदूरी करने वाले को चार सेर अनाज कहां से मिलता? पेट भरने के लाले पड़ गये। लोग   चिड़चिड़े होने लगे। लेकिन किसी हालत में भी बाबल का गाना छूटा नहीं। वह जब गाने लगता तब पेड़ों की पर्णहीन शाखाओं पर न जाने कहां कहां से पंछी आकर बैठने लगते और तल्लीन होकर उसका गाना सुनते। लेकिन हरिया को इससे बेहद गुस्सा आ जाता। सारा घर भूखा होने पर भी इसे गाना कैसे सूझता है इस सवाल से वह आगबबूला हो जाता और जोर से चिल्लाकर बाबल को गाना बंद करने को मजूबर करता।
लेकिन इसी गाने ने एक बार अजूबा किया। हुआ ऐसे कि दूर शहर से कोई मेहमान गांव पधारे थे। चार दिन रहकर फिर शहर लौटने के लिए निकल पड़े थे। जाते वक्त लकड़ी की कुछ चीज़ें  बनवाने के लिए हरिया बढ़ई के पास आये। वहां बालक छड़ी की मुट्ठी बनाते हुए कुछ  गुनगुना रहा था। उसकी मीठी आवाज़ से मेहमान दंग रह गये। कहा, 'बेटे, तेरी आवाज़ तो बढिय़ा है। गाना जरा ज़ोर से गाना। बाबल ने आवाज़ को और बढ़ाया। दिल खोलकर गाने लगा। मेहमान खुश हो गये। फिर बाबल ने बांसुरी भी बजाकर दिखाई। अपनी बांसुरी मेहमान के बेटे को दे डाली। मेहमान अभिभूत हो गये। उन्होंने बाबल को अपने पास  खींच लिया। उसकी पीठ पर हाथ फेरा और भेंट के तौर पर पचास का नोट उसके हाथ में थमा दिया। बाबल सहम  गया। समझ नहीं सका कि क्या करें? मेहमान ने जबर्दस्ती उस नोट को बाबल की जेब में ठूंस दिया। हरिया इसे  देखकर मन में फूला नहीं समाया। पहली बार उसे अपने बेटे के गाने पर नाज़ हुआ। मेहमान निकल पड़े। हरिया ने बाबल को उन्हें घर तक छोड़ आने के लिये कहा। बाबल मेहमान के साथ  चल  पड़ा। उनके घर तक पहुंचाकर पैर छूकर विदा किया और आते वक्त सीधे दोस्तों के साथ खेलने भाग गया।
इधर हरिया  इंतजार में कि बाबल कब लौटकर आयेगा। दिनों बाद उसने नोट को देखा था। वह भी पचास का। लक्ष्मी ने ही मानो अपनी कृपा का दान उसकी झोली में डाला था। अब शहर जाकर  आधा थैला अनाज लाया जा सकता था। कुछ बेहद जरुरी बातों को अब पूरा करना सम्भव हो गया था। बाबल को स्कूल के लिये कमीज, रखमा के लिये पुराना कपड़ा, लहु के लिए चड्डी और खुद के लिए अंगोछा -कम से कम इतना तो ज़रूरी था ही। सब कुछ खराब हो गया था, रंग उड़ गया था, फट गया था। धूप  की कड़की में शीतल हवा के झोंके की तरह हरिया का मन शान्त हो गया था।
काफी देर बाद बाबल लौट आया। तब तक हरिया अपने बेटे के गुन रखमा के पास बखान कर चुका था। रखमा ने अपने दोनों सन्तानों को बड़े की करतूत प्यार  से सुना दी थी। इसलिए बाबल के आते ही सबने उसको घेर डाला। हरिया ने प्रेम से बाबल  को पास लेकर मेहमान के भेंट दिये नोट की मांग की। बाबल उसे भूल ही गया था। पचास का नोट पिता को देने के लिए उसने जेब में हाथ डाला।  देखा तो जेब  से नोट गायब। बाबल ने उंगलियों  को  जेब में गहरे डालकर देखा  तो  पता चला कि जेब तो फटी हुई थी। वह हक्काबक्का हो गया। हरिया का  चेहरा तन गया। वह बाबल को बारबार पूछने लगा, 'कहां गया रुपया?' बाबल के पास इसका जवाब नहीं था।
वह और भी दयनीय होकर जेब की बारबार तलाशी लेता रहा। ज़मीन पर  ढूंढता रहा। हरिया का गुस्सा जैसे जैसे उबलने लगा वैसे वैसे वह जोर से चिल्लाने लगा। बाबल के भाई बहन सहम उठे। रखमा ने कहा,  ''जहां खेलने गया था वहां गिरा होगा नोट। जा ढूंढ़ ले।'' बाबल बाहर चला गया। खेल की जगह पर, आने-जाने की राह पर ढूंढऩे लगा। बाहर अंधेरा छाने लगा था। रखमा पलीता ले आई। सारे रास्तों को छान मारा। नोट कहीं नहीं। लहु और चन्द्रभागा बाबल के दोस्तों के घर हो आये। नोट मिलने के बारे में कोई कुछ नहीं कह रहा था। सब निराश होकर लौट पड़े। बाबल का बदन कांपने लगा। उसके घर आते ही हरिया ने तड़ाक से उसके कान के नीचे आवाज़ निकाली। बाबल लडख़ड़ा गया। भाई बहन थरथर काँपने लगे। रखमा दहल गई। लेकिन इतना हरिया को काफी नहीं लगा। उनके मन की इच्छा आकांक्षा चकनाचूर हो गई। वह सीनेपर गरीबी के भारी पत्थर का गिरना महसूस कर रहा था। वह बेहद जल भुन रहा था। वह बाबल को पीटने लगा। हाथ से, पैरों से, लकड़ी से। हाथ आई हर चीज से बाबल को पीटने लगा। बाबल समझ नहीं सका कि उसकी क्या गलती हुई। मेहमान ने जो रुपये दिये थे वह उसको दी हुई भेंट थी। बाप के रौंदने का मतलब ही उसकी समझ में नहीं आया। मुझसे क्या गलती हो गई। लेकिन अब सही-गलत समझने का दम ही उसमें बचा नहीं था। माथा सुन्न हो गया था। बदन बधिर। आँखों के आंसू गर्म हो गये थे। सारी ताकत को समेटकर वह उठा और दौड़ता गया। उसने अपने बदन से कमीज़ उतार कर फेंक दी। घर की छोटी नसैनी उठाई। दनादन उस पर चढ़ गया और पर छत्ती पर जाकर रोता रहा।
हरिया के घर के अंदर एक परछत्ती थी। वहां पुराने हथियार, गैर ज़रूरत की लकड़ी की तख्तियाँ तथा अन्य कबाड़ा पड़ा हुआ था। इस बौनी परछत्ती पर जमाने भर का अंधेरा फैला हुआ था। बाबल उस अन्धेरे में घुस गया। अपनी पीड़ा अवमानना और आसुओं को मुक्ति की राह देने लगा। वह सब अन्धेरे में समाता जा रहा था लेकिन फिर बाबल के अन्तर से नई लहर बनकर बाहर निकल रहा था।
उस रात बाबल ने खाना नहीं खाया। घर में किसी ने भी नहीं खाया। हरिया शराब पीकर रातभर चिल्लाता, बड़बड़ाता, बक-झक करता रहा। दूसरे दिन सब धीरे धीरे अपने काम में लग गये। रखमा ने धीरे से नसैनी पर चढ़कर बाबल को पुकारा। वह अब भी उसी तरह पीठ फेरकर सोया हुआ था। मां की पुकार से जाग पड़ा। लेकिन उठा नहीं। उसने महसूस किया कि रातभर गालों पर गिरे सूखे आंसू अब भी गर्म हैं। अब भी आंखों की भाप जल रही है। उसने करवट नहीं बदली। पुकारते पुकारते थकी हारी रखमा चली गई। परछत्ती पर ठीक ढंग से खड़ा भी नहीं रहा जा सकता था। इसलिए वह नसैनी पर ही रुकी हुई थी। फिर उसने एक के बाद एक लहू और चन्द्रभागा को भेजा। उन्होंने नसैनी पर खड़े रहकर बड़े भैया को पुकारा। लेकिन बाबल ने चूँ तक नहीं किया। शाम को रखमा ने हरिया के पैर पकड़कर उसे बाबल को मनवाने के लिए कहा। हरिया का गुस्सा अभी ठंडा नहीं हुआ था। उसने घरवाली को धुतकारा। दूसरे दिन भी बाबल नीचे नहीं आया। रखमा अड़ोस-पड़ोसवालों के पास दौड़ी। वे घर आये। बाबल को मनाने लगे। रखमा रोने लगी। लेकिन बाबल पर किसी का बस नहीं चला। नंगे बदन खामोश लेटा रहा। अगले दिन हरिया नर्म पड़ गया। नसैनी पर चढ़कर बाबल को नीचे आने के लिए कहने लगा। अपने ही गाल पर थप्पड़ मारे। लेकिन बाबल नहीं आया। खबर हवा की तरह गाँव में और पांच कोस बस्ती में फैल गई।
गांव वाले बाबल के घर आये। उसके पाठशाला के शिक्षक भी पधारे। सब हाथ जोड़कर कहने लगे, 'बाबल नीचे आ जा हमारे बीच आ जा। कोई भी तुझसे गुस्सा नहीं करेगा। अपने बाप को माफ कर दे। माँ पर दया कर। भाई बहन को याद कर। नीचे आ जा।' लेकिन बाबल नहीं आया। कुछ लोगों ने परछत्ती पर चढ़कर जबर्दस्ती उसे खींचकर नीचे लाने की कोशिश की। लेकिन परछत्ती की तख्तियों से जोर से चिपककर बाबल टस से मस नहीं हुआ। वह सारी दुनिया से नाराज था। नाजुक फूल-सी उसकी रूह बाप के क्रूर भावों से रौंदी गई थी। यह दुनिया ज़ालिम है। बाप वहशी है। जल चुकी बाती की कालिख की तरह ये बातें बाबल के सीने से पक्की चिपक गई थीं। उस कालिख में उसका गाना स्याह पड़ गया था। मुस्कुराना रिस गया था। बोलना खो गया था। इन लोगों के बीच जाना ही नहीं। जिनको गाना नहीं, सोना चाहिए उन लोगों का संग करें ही क्यों? वहां अपने लिए जगह नहीं है, नहीं है वहां अपने लिए कोई गुंजाइश। बाबल के मन में विचार चक्कर काटते रहे। बाबल नीचे नहीं ही आया। अठारह वर्ष बाबल परछत्ती से उतरकर नीचे नहीं आया।
मैंने जो कहा न कि बाबल की कहानी में अद्भुत की मात्रा है, उसकी यह वजह है। चौदह बरस का एक बच्चा अठारह बरसों तक एक ही जगह पर बैठा रहा। त्रेता-द्वापर युग की नहीं, कलयुग की कहानी है यह और बिल्कुल सच है। मैं इसका मिथक इसलिए बनाना चाहता हूँ कि मेरे आसपास फैली असत्य की जगमगाहट में सच्चाई की एक तेजस्वी चिनगारी के ओझल हो जाने की सम्भावना है।
मैं जानता हूं कि मिथक कौन रचता है और किसलिए। यहां देखते ही देखते वर्तमान अतीत बन जाता है,अतीत का इतिहास बन जाता है और इतिहास पुराणकथाओं में बदल जाता है। जेता चुराते हैं जितों की कहानियों को और बना लेते हैं अपने अनुकूल। रचते हैं अपना इतिहास और चढ़ाते हैं उस पर मुलम्मा दिव्यता का। रोशन करते हैं उसे इलाही नूर से। आम आदमी देवता और दैव से अभिभूत हो जाता है। देवता तक वह पच नहीं पाता और देव को वह जान नहीं पाता। दोनों की दहशत में आदमी चमत्कार के सामने नतमस्तक होकर जी लेता है। पोथियों के मिथकों की शरण जाता है। बतौर लेखक के नये मिथकों की रचना करना मेरा काम है। इसलिए कि पुराने मिथक इतिहास को मरोड़ कर उस पर चमत्कार का झूठा मुलम्मा चढ़ाकर रचे गये हैं। उनके मूल्य मेरे नहीं हैं। द्वार पर पधारे अतिथि के लिए अपने जाये बेटे का सिर ओखली में कूटने वाली चांगुणा की कहानी सुनाकर वे उसे सतीत्व प्रदान करते हैं। अहिल्या का भोग कहने वाले इन्द्र को मामूली शाप देकर ज़िंदा छोड़ देते हैं लेकिन अहिल्या को युगों युगों तक शिला बना देते हैं और एक पुरुषोत्तम के चरण से ही उसका उद्धार कराते हैं। पानी का हिस्सा मांगने आये श्रवण की हत्या कर उसे मातृपितृ प्रेम की कहानी से जोड़कर दिग्भ्रमित कर देते हैं। इस दुनिया में गर पिता की गोद से नीचे खींचे गये ध्रुव का मिथक बन सकता है तो फिर बाबल का क्यों नहीं? ध्रुव राजकुमार था इसलिए उसका क्रोध बड़ा और बाबल एक गरीब बढ़ई का बेटा होने से उसका गुस्सा हल्का ऐसे थोड़े ही हो सकता है? उसकी ज़िद ध्रुव जितनी ही जबरर्दस्त थी। दरअसल उसका एक ही जगह पर अठारह वर्षों तक बने रहना ही अपने आप में उसे असाधारण मानने के लिए पर्याप्त है लेकिन उसका बड़प्पन उससे भी बढ़कर है। ध्रुव से भी बढ़कर।
बाबल से बात कर सब हार गये। मनामनाकर निढाल हो गये। माँ रखमा चूल्हे के पास बैठकर रोती रहती। बाप हरिया माथा पीटकर रह जाता। धीरे धीरे गांववालों ने इसपर बात करना छोड़ दिया। सब अपने अपने काम में लग गये। लेकिन बाबल के भाई बहन की नींद हराम हो गई। लहु और चन्द्रभागा बिस्तर में लेटकर एक दूसरे की ओर देखते रह जाते। बोलते कुछ भी नहीं थे। चन्द्रभागा तो पाठशाला जाती ही नहीं थी। अब लहु ने भी जाना छोड़ दिया। दिनभर मैदान, खेत, वन में बेवजगह उदास भटकते रहते। दोनों को पता था कि बड़े भाई ने कई दिनों से अनाज का एक दाना भी नहीं खाया है। उस दिन दोनों ने वन में घूम घूम कर कुछ बेर और करौंदे इकट्ठा किये। घर आकर चन्द्रभागा ने नसैनी पर चढ़कर एक भगोने में वन्य फल परोस दिये। वह उसके साथ धीमी आवाज में बात करने लगी। बाबल सिर्फ सुन रहा था। पेड़ अब भी निष्पर्ण थे। पंछी गा नहीं रहे थे। उड़ते हुए नजर नहीं आ रहे थे। वह लहु के साथ पहाड़ पर ऊंची जगह पर गई। वहां दराह में करौंदे का झुरमुट था। पास के एक पेड़ पर सारे पंछी सटे सटे बैठे हुए थे। चन्द्रभागा और लहु को देखकर फडफ़ड़ाकर पास आ गये। चक्कर काटने लगे। लेकिन उनके साथ बाबल को न पाकर फिर पेड़ पर जाकर बैठ गये। चन्द्रभागा ने यह बात बाबल को बताई। बाबल ने कुछ नहीं कहा लेकिन उसने भगोने से करौंदे लिये, बेर लिये। बड़े भाई ने खाया यह देखकर बहना खुश हो गई। वह गाने लगी। बाबल ने उसका गाना दिल लगाकर सुना। लेकिन बोला कुछ नहीं। चन्द्रभागा ने लहु को बताया। 'बड़े भाई ने खाया'। लहु खुश हो गया। उसने नसैनी पर चढ़कर पानी का प्याला बाबल को दिया। बाबल ने पानी पिया। लहू ने नसैनी पर बैठकर खुशी के मारे बांसुरी बजाई। बाबल ने कान लगाकर सुनी।
उस दिन से लहु और चन्द्रभागा पर वह धुन ही सवार हो गई। उनके सुरों ने बाबल के अन्तर को सींच दिया। बाबल खाने लगा। हलचल करने लगा। लेकिन बैठकर ही। उस बौनी परछत्ती पर खड़ा नहीं रहा जा सकता था। रखमा ने भी बाबल को एक थाली में खाना परोसना शुरू किया। बाबल ने उसे खाया। लेकिन वह नीचे नहीं आया।
बाबल थोड़ा बहुत खाता था। उठ बैठता था। बैठे बैठे ही परछत्ती पर चलता था। वहाँ बेकार पड़े सामान में कुछ ढूंढ़ता रहता था। परछत्ती पर एक खिड़की थी। कुछ खपरैल टूट गये थे। उसमें से थोड़ी बहुत रोशनी आ जाती थी। जब तक रोशनी होती थी, बाबल हलचल करता था। अंधेरा छाने के बाद लेटा रहता। सब के सो जाने के बाद अंधेरे में शरीर-शुद्धि कर लेता था। पीछेवाली खिड़की से नीचे फेंक देता था। रात के अंधेरे में और दिन की धुंधली रोशनी में उस निविड़ परछत्तीपर बाबल की साधना चल रही थी। अपने से ही संवाद। एक बार लहु के बांसुरी बजाने के बाद परछत्ती से एक बांसुरी नीचे आई। लहु ने देखा। वह नयी थी। मानो आसमान से गिरी इस बांसुरी को बड़े भय्या ने तो नहीं बनाया होगा? लहु ने शक किया उसे भरोसा ही हो गया। दूसरे दिन परछत्ती से एक कृश हाथ बाहर आ गया और उस हाथ में थी और एक बाँसुरी। वह हाथ बाबल का ही था।
लहु ने बढ़ईगिरी के कुछ हथियार चुपचाप परछत्ती पर रख दिये। पिता के औज़ार। बाबल बैठे बैठे हाथ चलाने लगा। वह धीरे धीरे काम करता था। किसी को उसकी आवाज़ सुनाई नहीं देती थी। एक दिन चन्द्रभागा नसैनी पर बैठकर मजे से बातें सुना रही थी। कोई देखता तो सोचता कि यह बेवकूफ लड़की अपने आप से ही क्या बड़बड़ा रही है। लेकिन ऊपर से कोई सुन रहा था। चन्द्रभागा का बड़बड़ाना खतम होते ही ऊपर से एक हाथ आ गया। फिर दूसरा। दोनों मुठियों में लकड़ी की चकत्तियां थीं। उसने उन्हें नीचे छोड़ दिया। चन्द्रभागा समझ गई कि अपने बड़े भाई ने उसे खेलने के लिए बनाई हैं। वह खुशी के मारे कूदने लगी। इस मज़े की बात को लहु को बताया। दोनों ने अपने दोस्तों को बताया। बच्चे आकर नीचे से ही देखते। कुछ न कुछ बनाने के लिए कहते। बाबल वह उन्हें बना देता। बच्चे तालियां पीटते हुए चले जाते। एक बार बाबल ने रखमा के लिए पाटा बना दिया। रखमा ने इस बात को बड़े कौतुक से पानी भरने आई हुई औरतों से कह दिया। खबर गांवभर में फैल गई। उस दिन से गांव के औरत-मर्द हरिया के घर आकर बाबल को छोटे-मोटे काम बताने लगे। बाबल उन्हें खूंटियां, पाटे, तख्ते, चकले, कलछे चमचे, जैसी चीज़ें बनाकर देने लगा। बच्चों को लट्टू, चकत्तियाँ, गिल्ली डंडा बनाकर देने लगा। लोग भले थे। काम के बदले में बाबल को कुछ रुपये पैसे देते। तारीफ करते। अफसोस करते और चले जाते। बाबल ने इन पैसों को रखने के लिए लकड़ी की एक संदूकची बनाई। एक संदूकची में वह पैसे डालता और सो जाता। इस तरह अठारह बरस बीत गए।
इन अठारह बरसों में बाबल बोला नहीं। काम करता रहा। पैसे संदूकची में डालता रहा। इस तरह उसने छह संदूकचियां बनाई। लेकिन बाबल के परछत्ती के मुकाम के बारे में इतना ही कहना काफी नहीं। भूरे रंग की एक बिल्ली खिड़की से आती। वह गर्मी पाने के लिए बाबल के पास सो जाती। उसने परछत्ती पर ही बच्चे जने। अपने बच्चों को बिलाव से बचाकर उसने उन्हें बाबल के हवाले कर दिया। बाबल उन्हें प्यार से सहलाता। बच्चे बाबल के बदन को चाटचाटकर साफ कर देते। बड़े हो जाने पर बाहर चले जाते। उस बिल्ली ने कई बार बच्चे जने। उससे पैदा हुई बिल्लियों ने भी परछत्ती का ही सहारा लिया। बाबल उन सब पीढिय़ों का गवाह था। कभी बाबल को लगता क्यों न मैं लहु की तरह बांसुरी बजाऊं? पहले भी तो बजाता था। वैसे ही अब बजाऊंगा। इसलिए बाबल ने बांसुरी बनाना शुरु किया। लेकिन उसके हाथों बांसुरी के बदले कुछ अनोखा ही बाजा बन गया। शुरू में उसका आकार बांसुरी की तरह था लेकिन बाद में छोटे तुम्बे जैसा गोल हो गया। बाबल को भी पता नहीं चला कि यह कैसे हो गया। बाबल उस बाजे को बजाने लगा तो उससे निकलने वाले सुर बांसुरी की तरह मधुर मंजुल नहीं थे। गर्म छड़ की तरह तप्त और  उग्र थे।  बांबी से फूत्कार निकालने वाले नाग की तरह थे। लेकिन जैसे जैसे सुर बढ़ते जाते वैसे वैसे ध्वनिलहरियों के कम्पन से मदहोश करने वाला आवर्तन बन जाता। वह नाद, उसकी लय सारे अवकाश को घेर लेती और सुनने वाले के कान-मन में सूक्ष्म थर्राहट पैदा कर देती। उन सुरों को सुनने के लिए परछत्ती के खपरैलों पर और खिड़की के पास पंछी भीड़ लगाते। कोयल, तोता, मैना, कौआ, गौरैया आदि पंछी झुण्ड में आकर बाबल के बाजे से निकलने वाले सुरों को सुनते हुए उडऩा भूल जाते थे।
दिन बीत रहे थे उनके साथ बाबल बड़ा हो रहा था। कोई अनुमान नहीं कर सकता था कि बड़ा बाबल कैसा दिखता होगा। लेकिन उसके साथ साथ उसके भाई बहन भी बड़े हो रहे थे। माँ-बाप बूढ़े हो रहे थे। हरिया थक गया था। उसका हाथ पहले जैसा नहीं चलता था। लहु बाप की मदद करने लगा। लेकिन अब पहले की तरह बड़े काम नहीं मिल रहे थे। लोगों ने कुओं पर मोटर-पम्प लगा दिये थे। कई घरों में ट्रैक्टर दिखाई देने लगा था। घर बनवाने या मरम्मत करने के लिए अब तहसील से राज, बढ़ई, मजदूर आदि ठेके पर बुलाये जाने लगे। इसलिए हरिया की गरीबी बरकरार रही। लहु तहसील के गांव जाकर ठेकेदार के पास काम करने लगा। चन्द्रभागा बड़ी हो गई थी। उसके बराबरी की लड़कियों की शादी हो चुकी थी। लेकिन चन्द्रभागा की शादी रुपयों के अभाव में नहीं हो रही थी। हरिया के पास दहेज के लिए तो क्या शादी के खर्च के लिए भी कुछ नहीं बचा था। बल्कि कर्ज का बड़ा पहाड़ सीने पर पड़ा हुआ था। इसलिए रिश्ते आते और चले जाते। चन्द्रभागा को अब अपना नियति साफ नजर आने लगी थी। वह अब पहले की तरह गाती नहीं थी न मज़े की बातें सुनाने के लिए नसैनी पर आती थी। बाबल सब समझ रहा था।
एकबार चन्द्रभागा के लिए एक रिश्ता आया। लड़के को दहेज नहीं चाहिए था। लड़का मेहनती था। वह सिर्फ चन्द्रभागा का हाथ मांग रहा था। घर में काफी विचार हुआ। लेकिन हरिया के पास तो फूटी कौड़ी भी नहीं थी। ज़रा-सा भी कर्ज मिलने जैसी साख नहीं रह गई थी। लहु की जेब भी फटी हुई ही थी। रातभर सब सोचते रहे। रात में खाना देने के लिए लहु नसैनी पर चढ़ गया। खाने की थाली उसने परछत्ती पर रख दी तभी उसके हाथ को ज़ोर से पकड़ा गया। एक हडिय़ल हाथ का पंजा उसकी कलाई को लिपट गया था। लहु सहम गया। लेकिन फिर उसे अंधेरे में दो आंखें चमकती हुई नज़र आई। बाबल ने एक के बाद एक सात संदूकचियां आगे बढ़ा दी। उन्हें उठाने के लिए वह लहु को इशारा कर रहा था। फिर शब्द सुनाई दिये। चन्द्री की शादी कर डालो।
लहु कांप उठा। बेहद कोशिश करने के बाद इन शब्दों का उच्चार हुआ था। उसकी ध्वनि शंख की तरह गूंज उठी।
संदूकचियां लेकर लहु नीचे उतरा। बाबल के बचाये हुए पैसों को रातभर सब गिनते रहे। बाईस हजार थे। सब की खुशियों का ठिकाना नहीं रहा। शादी के लिए इतने रुपये काफी थे। हरिया और रखमा ने नीचे से ही बाबल को हाथ जोड़ लिये। चन्द्रभागा ने नसैनी पर चढ़कर गाना गाया। बहुत दिनों बाद उसका सुर सज गया।
अड़ोस पड़ोस के लोगों को पता चल गया कि बाबल ने बचाये हुए रुपये बहन की शादी के लिए दे दिये। सब बाबल की तारीफ करने लगे। उसके बारे में जिज्ञासा जाग उठी। कभी दिखाई न देने वाले लेकिन विपदा में दौड़कर आने वाले भगवान जैसा वह लगने लगा।
उसके दो दिन बाद लहु रोता-बिलखता चला आया। रेजगारी देकर नोट लाने के लिए वह जिले के गांव गया था। वहां से बाईस हजार रुपये बंडी की जेब में संभालकर लाते हुए गांव के सिवान पर कुछ लोगों ने उसे पकड़कर पीटा और सारे रुपये निकाल लिये। अकेला लहु कुछ नहीं कर सका। बल्कि वह तो डर गया था। सूद पर रुपये देने वाले नागप्पा साहुकार ने अपने आदमी भेजकर इस तरह अपना कर्ज वसूल किया था।
लहु का बिलखना सुनकर रखमा के तो हाथ पैर ही ठंडे पड़ गये। हरिया आवेश में आकर लहु को ही पीटने लगा। चन्द्रभागा की आँखों के सामने तो अंधेरा ही फैल गया। बढ़ई के घर का हंगामा सुनकर गांव वाले इकट्ठा हो गये। नागप्पा को भला बुरा कहने लगे। लेकिन उससे जवाब तलब करने की हिम्मत किसी में नहीं थी। हरिया तो बाबल की फूटी किस्मत को ही दोष देने लगा। परछत्ती पर बैठे बाबल को पता चला कि अपने रुपये लूटे गये। उसके बदन में खून दौड़ता गया। हजारों बिच्छुओं ने काटा। फिर एक बार उसके हक के रुपये चले गये। लेकिन अब आंखों से आंसू नहीं बह रहे थे। माथा गरम हो गया। इतना कि बाबल को लगा कि अब तपकर टूट पड़ेगा। उसने बाजे को अपने पास खींच लिया और मानो उसमें प्राणों को फूंककर वह उसे बजाने लगा। उसमें से तपे हुए सुर फटते हुए निकल पड़े। उन सुरों के दायरे बड़े बड़े होकर सारे परिसर में फैलने लगे। लोग दंग सहमे से देखने लगे। बाजे के सुर हवा के साथ गांव में पसरने लगे। देखते ही देखते सारा गांव इकट्ठा हो गया।
सहसा बाजा थम गया और अवकाश को काटने वाला आक्रोश सुनाई दिया। सब दौड़ते गये। बाबल परछत्ती के किनारे आकर नीचे उतरने की कोशिश कर रहा था। लहु दौड़ता गया। उसने भाई को लोक लिया। नीचे आया। परछत्ती पर कभी खड़ा नहीं रहने के कारण उसके पैर छड़ी जैसे छोटे और बेकाम के हो गये थे। वह अपनी बुलंद आवाज़ में परछत्ती की ओर इशारा करके कुछ कह रहा था। लहू ऊपर गया। वहां बाबल का बनाया हुआ गड़ोलना था। उसे नीचे ले आया। बाबल उस पर बैठ गया। अस्थि पंजर देह, बालों की जटाएं, सीने तक बढ़ी हुई दाढ़ी, नंग धडंग बदन,और बालों के जंजाल में झिलमिलाती दो तेज आँखें। जिंदगीभर आंखों पर पट्टी बांधने वाली गान्धारी की आंखों की रोशनी बाबल की आँखों में उतर आई थी। अठारह वर्षों तक मन में दबी आवाज़ ने अलौकिक धार पाई थी। अठारह वर्षों तक खामोश रही आवाज में संचित क्रोध की आग भड़क उठी थी। दुर्वासा से भी अधिक सन्तप्त और अगस्ति से भी अधिक कृतनिश्चय बाबल शंखनाद की तरह गूंजनेवाली आवाज़ में कह रहा था, 'चलो, पुलिस के पास चलो।'
और उसके पीछे लोगों का रेला उमड़ पड़ा। अपने हडिय़ल हाथों से गड़ोलने के चका को गति देते हुए बाबल तेज गति से आगे बढ़ रहा था और उसकी दुर्दभनीय इच्छाशक्ति से मंत्रभारित होकर जनप्रवाह बाबऽल, बाऽऽबल पुकारता हुआ बह रहा था।
यहां तक कहानी सुनने के बाद हर किसी को विश्वास हो जायेगा कि बाबल अलौकिक है। मिथक अलौकिक जनों के होते हैं। ध्रुव की तरह वह भी न्याय मांग रहा था लेकिन ध्रुव की तरह वह राज्य छोड़कर नहीं भागा। वह अपने ही राज्य में, अपने ही गांव में और अपने ही घर में विजनवास में रहा और अपना न्याय उसने वहीं पर पाया। उसका बाप उत्तानपाद राजा नहीं था कि जो अपने बेटे के लिए राजपद देने को तैयार हो जाता। उसका समय भी आज नहीं था जहां विष्णु भगवान प्रकट होकर उसे अटल तारा पद देता। विपरीत इसके वह तो दिन ब दिन रूप बदलकर और भी मायावी होते जा रहे और असत्य की अंधेरनगरी समझी जाने वाली विश्वनगरी के काले अंधेरे कोनों में जमे हुए कीचड़ में कुलबुलाने वाला कीड़ा था। सूचना अणु तंत्रज्ञान युग के प्रस्फोट समय में इस युग के लक्षणों का जिसे स्पर्श भी नहीं हुआ ऐसा कुपोषित जीव था। उसकी लड़ाई चित्ताकर्षक और स्फूर्तिदायक होनी ही चाहिए। इसलिए यहां तक यथार्थ के साथ ईमानदारी बरकरार रखने के बावजूद अब मैं उससे रिश्ता तोडऩे जा रहा हूँ। यथार्थ से रिश्ता तोडऩे का मतलब यह नहीं कि सच्चाई से रिश्ता तोडऩा। बल्कि मुझे विश्वास है कि यथार्थ को मोड़कर ही सच्चाई तक पहुंचा जा सकता है।
बाबल गड़ोलने पर बैठकर पुलिस थाने के दरवाज़े पर पहुंच गया। उसके पीछे आ रही भीड़ को देखकर प्रवेश द्वार पर रोकने की हिम्मत हवलदार की नहीं हुई। बाबल सीधे थानेदार के पास गया। थानेदार घाघ था। वह नागप्पा के खिलाफ शिकायत दर्ज करने को तैयार नहीं था। वह सोच रहा था कि नागप्पा ने अपना कर्ज वसूल किया तो उसमें अपराध ही क्या है? बाबल ने उसके सामने ही अड्डा जमाया। लोग कहने लगे, 'नागप्पा को गिरफ्तार करो।' थानेदार नहीं मान रहा था। उसने दरोगा को बुलाया। दरोगा ने कान पर हाथ रख दिये। लोकक्षोभ को बढ़ते देख थानेदार, दरोगा ने उन्हें रोक रखा और पिछले दरवाज़े से भाग गये। काफी देर बाद जब लोगों को पता चला कि उनके साथ धोखा हुआ है, उन्होंने पुलिस थाने को आग लगा दी।
बाबल वहां से चल पड़ा तहसील की दिशा में। पीछे पीछे गांव वाले। वहां खबर पहले ही पहुंच चुकी थी। देखता क्या है कि तहसीलदार का दफ्तर बन्द। लोगों का गुस्सा भड़का। पथराव कर उन्होंने दफ्तर को तोडफ़ोड़ दिया। यह खबर गांवभर में फैल गई। वहां के लोग भी दौड़ते आये। बाबल आगे दौड़ता जा रहा था। गड़ोलने के चक्के को जोर जोर से घुमा रहा था। मिट्टी-गिट्टी वाली सड़क हो या बड़ा मार्ग। गड़ोलना सरपट दौड़ता जा रहा था। जिलाधीश ने पुलिस तैनात की थी। लेकिन दुबले बाबल और उसके पीछे चली आ रही विशाल भीड़ को देखकर उसे हाथ लगाने की हिम्मत ही नहीं हुई। सब ने पुलिस की नाक के नीचे ज़िला दफ्तर को उल्टा पुल्टा कर दिया। लोगों की तादाद बढ़ती जा रही थी। नये नये आकर जुड़ते जा रहे थे। शहर की तरफ जाने वाली सारी सड़कें लोगों से भर गयीं थीं। राज्यकर्ता दहल गये। अराजक का यह चक्र सहसा कहां से आया यह देखकर सोच में पड़ गये थे। इन्द्र का आसन डांवाडोल होने लगा। समूचे राज्य में लोग सड़कों पर दौड़ रहे थे। बाबल के लूटे गये बाईस हजार रुपये लोगों को अपने ही लग रहे थे। अपनी कमाई के। पसीने के। ऐसा ही कुछ लुटा गया सा। उन्हें अब वापस पाना होगा। राज्यों में संदेश पहुंचाये गये। आकाशवाणी हो गई। सारे मंत्रालय, विधिमण्डल खतरे में पड़ गये। संसद को संकट पैदा हो गया। दिल्लीश्वर हड़बड़ा गये। खड़बड़ा कर जाग पड़े। कौन है यह बाबल? पूछताछ के आदेश निकले। बाबल को सम्मान के साथ दिल्ली लाया गया। प्रधानमंत्री ने उसकी शिकायत सुनी और उस पर तुरन्त कार्रवाई की गयी। नागप्पा को गिरफ्तार किया गया। नागप्पा जैसे अनेक साहुकारों को हथकडिय़ों में बंद किया गया। प्रधानमंत्री ने बाबल को एक लाख की थैली दे दी और आश्वासन दिया कि जरूरतमंद हर आदमी को इन्साफ मिलेगा। बाबल को ससम्मान हवाई जहाज से उसके गांव भेजा गया। यह भी घोषित किया गया कि सही मुहूर्त पर राष्ट्रपति के कर कमलों द्वारा गौरवपदक प्रदान किया जायेगा। इस तरह बढ़ई बाबल देश के एक आम आदमी के दिल में अटल स्थान प्राप्त कर विराजमान हो गया।
मैं सोच रहा हूं कि बाबल की मिथक कथा को इस तरह सफल सम्पूर्ण करूँ। बाबल इसी तरह से अमर हो सकता है। दन्तकथा के परे जा सकता है। यदि कोई कहे कि आखरी हिस्सा अतिरंजना है तो भी मुझे गुस्सा नहीं आयेगा। कथा को चमत्कृतिजन्य मोड़ देना हो तो उसमें अतिरंजना तो अनिर्वाय ही है। आखिर चमत्कार ही को तो नमस्कार किया जाता है।
लेकिन पता नहीं क्यों लेखक के नाते मुझमें अभी आत्मविश्वास नहीं आ रहा है। कहानी मिथक की तरह लोगों के दिलों में जड़ें जमा सके ऐसा आत्मविश्वास मैं चाहता हूँ। शायद, यह समय ही है जो मुझे ऐसा विश्वास नहीं दे पाता है। कई सत्यकथाओं को नमक मिर्च  लगाकर मनोरंजन के रूप में पेश किया जा रहा है। युद्धों के दृश्यों को देखते हुए लोग आराम से खाना खाते हैं और सरासर झूठ वजह देकर राष्ट्राध्यक्ष का खून कर पूरे देश को बरबाद करते हुए भी उनके चेहरे पर कोई शिकन नहीं आती। ऐसे हालात में मुझे अब भरोसा नहीं हो रहा है कि बाबल के मोर्चे का उनपर कुछ प्रभाव होगा। लोग यह मानकर चलने लगे हैं कि सच जैसा कुछ होता ही नहीं है। मेरे पास ऐसे कोई कारगर उपाय मौजूद नहीं है जो कि इस कहानी को उन तक विश्वसनीय प्रतीत होनेवाले ढंग से पहुंचा सके। कथाकथन की परम्पराएं नष्ट हो रही हैं और मुझे अब यह भी भरोसा नहीं रह गया है कि मेरी कहानी छपेगी, पुस्तक में बची रहेगी और बारबार पढ़ी जायेगी। कहानी लिखकर पूरी होने से पहले ही मेरे अंदर का लेखक टूट जाता है। हिम्मत हार जाता है। इधर मै गांव गया था। गांव जाता हूं तब बाबल की पूछताछ करता हूं। लेकिन उससे मिलता नहीं हूं। इसलिए कि मुझे डर लगता है कि वाहक यथार्थ के दर्शन से मेरी आंखें जल जायेंगी। मैं यथार्थ से डरता हूं।
मैं दूर से ही देखता हूं बाबल अपने टूटे मकान के दरवाज़े पर गड़ोलने में नंगे बदन बैठा हुआ है। एकटक कहीं देखता रहता है। उसके चेहरे पर दाढ़ी का जंजाल वैसा ही बरकरार है। बालों की जटाएं बनी हुई हैं और अब दाँत भी गिर चुके हैं। पचास की उम्र में अस्सी का बूढ़ा नज़र आ रहा है। भीतर से एक औरत आती है। पके हुए बालों वाली उसके हाथ में भोजन की थाली थमा देती है और पानी का प्याला। वह चन्द्रभागा है। भाई के पास ही रहती है। शादी नहीं हुई। कैसे होती? पच्चीस हजार रुपयों का जवाब मांगने परछत्ती से नीचे उतरे बाबल को थाने ले जाकर दारोगा ने बेहिसाब पीटा। पैर तो पहले से ही तमाम हो चुके थे अब एक हाथ भी टूट गया। दारोगा का उग्र रूप देखकर गांववालों की भीड़ पीछे से भाग गई। पुलिस ने लहु को जेल में डाला और बेहद धो डाला। उसके बाद कामकाज के लिए शहर गया हुआ लहु बरसों बाद भी लौटा नहीं है। विकराल शहर में मेहनत मजदूरी कर अगर आज भी वह भलाचंगा जिंदा हो तो इसे चमत्कार ही कहना पड़ेगा। हरिया और रखमा मर चुके हैं। बाबल और चन्द्रभागा मौत की राह देखते हुए दिन काट रहे हैं।
लेकिन इस यथार्थ को दिखाने से तो सन्न रह जाने के अलावा और कुछ होने वाला नहीं। समय के बड़े हिस्से पर असर डालने वाले कुछ मूल्यों की जड़ें जमानी हों तो मुझे मिथकों की ही रचना करनी होगी। मेरे हाथ में बाबल का मिथक है। मेरे सामने उलझन यह है कि उसे विश्वसनीय कैसे बनाऊँ।

प्रतिष्ठित मराठी लेखक। पिछले वर्ष साहित्य अकादमी दिया गया।

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