कुछ शोक-धुनें

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    फरवरी 2014
श्रेणी प्रारंभ
संस्करण फरवरी 2014
लेखक का नाम सुरेश सलिल





कवि विनय दुबे की याद

वो किसी हवेली की बारादरीनुमा रात...
(यादों का काफ़िला भोपाल की तरफ़ बढ़ता है)
...रिमझिम-सी रोशनी में दस्तरख़ान बिछी हुई
मेहमाँनवाज़ एक कवि मेज़बान बना
सजाता हुआ भाँति-भाँति के व्यञ्जन..और
और आबे-हयात -

बैठे हुए गोलाकार कवि-मित्र
कुछ ऐ'न शहर के
कुछ बाहर के

दौर पर दौर...
और...और...
       खाने के
        पीने के
         गपशप के
           एव' दूरी के...
महफ़िल बर्खास्त हुई जब
रात ख़ासी भीग चुकी थी...

शहर के लोगों के अपने-अपने साधन थे
और उन्हें अलग-अलग दिशाओं में जाना था
जो बाहर से आये थे
         किसी सरकारी सेमिनार के सिलसिले में
समस्या थी उनकी
और गेस्ट हाउस ख़ासी दूरी पर

...और तब मेहमाँनवाज़ कवि को
गरुड़ की भूमिका में उतरते देर नहीं लगी
ऐसा दोस्त कवि -
सादा - आत्मीय - कीमती
         (कभी कभार रहस्यपूर्ण भी!)
मुस्कान का धनी दोस्त कवि -
जो इंसान भी हो -
समूचे भोपाल में
या हमारे इस माया-जंजाल में
और कौन हो सकता है भला
              विनय दुबे के सिवा!....

अल्विदा दोस्त!
...अल् मिया!...

एक आदमी
(स्व. जवाहर चौधरी* की याद)

एक आदमी, आदम को जिस पे' गुमान हो
तुम्हें ध्यान हो कि न ध्यान हो
था अभी कल तक हमारे दरमियान
...और आज ही आप उसे भूल गये?
याने कि फुज़ूल गये वो सारे ज़ज्बात
जो एक सच्चे कामरेड के होते हैं!

उसका कुछ सरमाया पुराना पार्टी कार्ड था
             (जो लौटाया नहीं गया था)
इप्टा से जुड़ी यादें थीं
ज़िंदादिल दोस्त थे अगले ज़मानों के
अदीब थे, जिनकी किताबें शाये करने को
पहले 'अक्षर', फिर 'शब्दकार' में ढला था वो
घर बनाने में उसका कभी यकीन नहीं रहा
तुर्कमान गेट दिल्ली की गली डकौतान
                     पहले उसका पता रहा
फिर पुल पार की किसी नामालूम-सी बस्ती में
ग्यारहसाला फाजिल के साथ लापता रहा
दोस्तों की झलक भर पाने को छटपटाता हुआ
गाता हुआ आख़िरी साँस तक
भव-स्वतंत्रता का गान।
* *
दिल ही दिल था वो
दास्तानों के जैसा किरदार,
जवाहर चौधरी था
दास्तांनुमा दिलदार....

 


* एक ज़माने के पूर्णकालिक कम्युनिस्ट सदस्य, 1952 के दशक में दिल्ली 'इप्टा' के स्तम्भों से एक, 'अक्षर' और 'शब्दकार' प्रकाशनों के परिकल्पक।


प्रमोद जोशी* की याद

तुझसे दिलदार भला अब कहाँ?...
तू धराऊ था, गुज़िश्ता था
पर हकीकत इंसानी चोले में तू फरिश्ता था
फरिश्तों के ही सीने में होता है एक फेफड़ा
यक्साँ ही लहरा उठता है उससे
                   साँसों का
यक्साँ ज़मीन पर लहराती है उनकी दोस्तियाँ

तू दोस्तों का दोस्त बिना किसी दावे के
बिना किसी गुमान के
और हम!... जो दावे करते हैं
                आनबान के-
दो फेफड़े वाले हैं
पता नहीं कब सुर्ख हैं
पता नहीं कब काले हैं
(तब भी हम दिलवाले हैं!!)
* कवि, टेली-फ़िल्मों के पटकथाकार, गम्भीर सिनेमा के अनौपचारिक अध्येता और ऋत्विक घटक के सिनेमा के लिए समर्पित, 1970-80 के दशक में वामपंथी सांस्कृतिक कार्यकर्ता
अब जो खबरें आनी हैं
(अनिल सिन्हा* की याद)

अब जो खबरें आनी हैं
उसमें मुस्कानें नहीं होंगी
       गरमाहट-भरे सीने नहीं होंगे

अब जो खबरें आनी हैं
उसमें मोहनसिंह प्लेस या हज़रतगंज काफी हाउस की
       मेज़ों, से प्यासों से उठती खुश्बूदार भाप नहीं होगी
       मंडी हाउस के पुर मज़ाक भुक्कड़

अब जो खबरें आनी है
उसमें निगमबोध घाट, या भैंसाकुंड, या
   केवड़ातला, या वैसी ही किसी और मनहूस उदासी से फूटती
     घुटती हुई एक 'अरे!' होगी महज़
और डबडबाई आंखें
     एक दूसरे की आंखों से बचती हुई...

खबरें आ रही हैं
      आज-कल-परसों
          आ रही हैं खबरें
किसी असित चक्रवर्ती
किसी देबूदा
किसी मोहन थपलियाल या प्रमोद जोशी
किसी करुणानिधान या अनिल करंजई
किसी गौतमदेव या  राजेश के चेहरों को
     चिरायँध-भरे धुएँ से धुँधला करती...

और...और अब तुम भी
          सिन्-हा*
             अनिल! ...हा!
हो गये सिनीने-माज़िया!
याने कि
      बीते हुए बरस!

मगर....
    मगर फिर भी
    अल् विदा कैसे कहूँ! -
    ज़िंदगी जाविदानी है,
    ओ मेरी आत्मा के जासूस!




* उम्र का बहुवचन

* साहित्य और कला के गंभीर समीक्षक, कथाकार, 'अमृत प्रभात', 'नवभारत टाइम्स' (लखनऊ) के पूर्णकालिक पत्रकार, जनसंस्कृति मंच के संस्थापक सदस्य।

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