ओमप्रकाश वाल्मीकि : एक सजग लेखक का जाना
सन् 2000 की बात है। देहरादून की एक सर्द शाम ईस्ट कैनाल रोड के एक रेस्त्रॉ में ओमप्रकाश वाल्मीकि से पहली मुलाकात हुई और मैंने अपने भीतर उनकी उपस्थिति के ताप को महसूस किया था। हमारे बीच संबंधों का यह ताप लगातार बना रहा बढ़ता। वाल्मीकि की यह विशेषता थी कि उनके चेहरे पर उनके और समाज के अतीत की उस परछाई को तो पढ़ा जा सकता था जिसमें वे लगातार क्रूर एवं अमानवीय स्थितियों को हद से बाहर बर्दाश्त करने के लिए अभिशप्त रहे लेकिन उस कड़वाहट का बोझ उनके सिर पर इतना भारी नहीं था कि उन्हें आने वाला उजला समय दिखाई न देता हो। अपनी गहन संवेदनात्मक भाषा और कहन की सहजता के साथ वे बहुत स्पष्ट थे। संभवत: यह स्पष्टता उनमें इसलिये थी कि अपने आस-पास करवट लेते हुए नये समाज की उनकी समझ बेहद साफ थी। वे अपने अतीत से कटे हुये नहीं थे लेकिन अतीत की गठरी ढो कर चलने में भी उनका विश्वास नहीं था। उन्होंने अपने भीतर यह ताकत अपने बचपन के अनुभवों से बटोरी थी। अपने स्कूल का एक किस्सा वे कभी नहीं भूले। प्राथमिक शाला में गांव के जिस स्कूल में वे जाते थे उसके एक शिक्षक को जो कि तथाकथित ऊंची और श्रेष्ठ जाति का था, लगता कि दलित समुदाय के किसी बच्चे को पढ़ाना एक तरह का पाप है और वह इस पाप का अधिकारी नहीं बनना चाहता इसलिए वह उन्हें कक्षा से बाहर निकाल कर शाला की सफाई के काम में लगा देता। उस बड़े भवन के विशाल बरामदे में पोंछा लगाने का जिम्मा उन्हें दिया गया था और जब भी वे थकते मास्टर साहब लकड़ी की छड़ी उसकी पीठ पर दे मारते। धीरे-धीरे यह सिलसिला प्रतिदिन का हो गया। पढ़ाई की लालच में उन्होंने यह बात घर पर भी नहीं बताई, पर मां-बाप से कोई बात भला कब तक छिपी रह सकती है। एक दिन जब वे स्कूल के बरामदे में रोज की तरह पोंछा लगा रहे थे, उनके पिता स्कूल पहुंच गये। अपनी पीठ पर पिता की आहट सुन कर उन्होंने चेहरा घुमाकर आँखें ऊपर कीं। सामने पिता को देख वे फफक कर रो पड़े और पिता की टांगों के साथ लिपट गये। गुस्से में तमतमाये पिता ने स्कूल के उस शिक्षक की शिकायत प्रिंसीपल के पास दर्ज करवाई और उनका दाखिला किसी दूसरे स्कूल में करवाया। ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अपने बचपन की इस घटना का उल्लेख अपनी आत्मकथा ''जूठन'' में बड़े मार्मिक ढंग से किया है। वे बताते थे कि उसके बाद उन्होंने कभी पलट कर नहीं देखा। |