ओमप्रकाश वाल्मीकि : एक सजग लेखक का जाना

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    फरवरी 2014
श्रेणी प्रारंभ
संस्करण फरवरी 2014
लेखक का नाम तेजिन्दर





सन् 2000 की बात है। देहरादून की एक सर्द शाम ईस्ट कैनाल रोड के एक रेस्त्रॉ में ओमप्रकाश वाल्मीकि से पहली मुलाकात हुई और मैंने अपने भीतर उनकी उपस्थिति के ताप को महसूस किया था। हमारे बीच संबंधों का यह ताप लगातार बना रहा बढ़ता। वाल्मीकि की यह विशेषता थी कि उनके चेहरे पर उनके और समाज के अतीत की उस परछाई को तो पढ़ा जा सकता था जिसमें वे लगातार क्रूर एवं अमानवीय स्थितियों को हद से बाहर बर्दाश्त करने के लिए अभिशप्त रहे लेकिन उस कड़वाहट का बोझ उनके सिर पर इतना  भारी नहीं था कि उन्हें आने वाला उजला समय दिखाई न देता हो। अपनी गहन संवेदनात्मक भाषा और कहन की सहजता के साथ वे बहुत स्पष्ट थे। संभवत: यह स्पष्टता उनमें इसलिये थी कि अपने आस-पास करवट लेते हुए नये समाज की उनकी समझ बेहद साफ थी। वे अपने अतीत से कटे हुये नहीं थे लेकिन अतीत की गठरी ढो कर चलने में भी उनका विश्वास नहीं था। उन्होंने अपने भीतर यह ताकत अपने बचपन के अनुभवों से बटोरी थी। अपने स्कूल का एक किस्सा वे कभी नहीं  भूले। प्राथमिक शाला में गांव के जिस स्कूल में वे जाते थे उसके एक शिक्षक को जो कि तथाकथित ऊंची और श्रेष्ठ जाति का था, लगता कि दलित समुदाय के किसी बच्चे को पढ़ाना एक तरह का पाप है और वह इस पाप का अधिकारी नहीं बनना चाहता इसलिए वह उन्हें कक्षा से बाहर निकाल कर शाला की सफाई के काम में लगा देता। उस बड़े भवन के विशाल बरामदे में पोंछा लगाने का जिम्मा उन्हें दिया गया था और जब भी वे थकते मास्टर साहब लकड़ी की छड़ी उसकी पीठ पर दे मारते। धीरे-धीरे यह सिलसिला प्रतिदिन का हो गया। पढ़ाई की लालच में उन्होंने यह बात घर पर भी नहीं बताई, पर मां-बाप से कोई  बात भला कब तक छिपी रह सकती है। एक दिन जब वे स्कूल के बरामदे में रोज की तरह पोंछा लगा रहे थे, उनके पिता स्कूल पहुंच गये। अपनी पीठ पर पिता की आहट सुन कर उन्होंने चेहरा घुमाकर आँखें ऊपर कीं। सामने पिता को देख वे फफक कर रो पड़े और पिता की टांगों के साथ लिपट गये। गुस्से में तमतमाये पिता ने स्कूल के उस शिक्षक की शिकायत प्रिंसीपल के पास दर्ज करवाई और उनका दाखिला किसी दूसरे स्कूल में करवाया। ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अपने बचपन की इस घटना का उल्लेख अपनी आत्मकथा ''जूठन'' में बड़े मार्मिक ढंग से किया है। वे बताते थे कि उसके बाद उन्होंने कभी पलट कर नहीं देखा।
ओमप्रकाश वाल्मीकि मूलरूप से अपनी आत्मकथा के लिये जाने गये और एक कथा-शिल्पी के रुप में भी उन्हें ख्याति मिली लेकिन वे एक बेहद संवेदनशील कवि भी थे। वे साहित्य के गहन अध्येता थे। उन्होंने अपने शोध-ग्रंथ ''दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र'' में गंभीर और मौलिक निष्कर्ष निकाल हिन्दी अकादमिक क्षेत्र में इसे जैसी मान्यता मिलनी चाहिए थी, जाहिर है वह नहीं मिल सकी। इस बात का दुख कभी-कभी उन्हें सालता था, पर वे सहज बने रहते थे। उनकी सहजता में एक अजब जीवटपन था। उनकी शिकायत में किसी तरह की कड़वाहट नहीं होती थी  बल्कि इस बात का आभास होता था कि अभी हमें बहुत काम करने हैं और आगे चलना है। उन्होंने सदैव अपने व्यवहार और लेखन में अभिजात्य को तोडऩे का काम किया। उन्होंने हिन्दू पुराणों का भी अध्ययन किया था और उसके अंतरविरोधों का भी। एक और दूसरे मनुष्य के बीच भेदभाव पूर्ण रवैयेपर वे सीधे चोट करते थे। वे कहते थे कि जितनी सरलता के साथ बहुतेरे लोगों को सब कुछ जन्म के साथ ही मिल जाता है उसे पाने के लिये हमें लम्बा संघर्ष करना पड़ा। उनके चेहरे पर पीड़ा की लकीर को साफ-साफ पढ़ा जा सकता था। ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानियां चाहे वह ''मुंबईकांड'' हो या ''शवयात्रा'' ''कूडाघर'' हो या ''मैं ब्राह्मण नहीं हूं'', समकालीन समाज का सजीव और तकलीफदेह दस्तावेज है, लेकिन यह उनकी सीमा नहीं  है। वे सवाल पूछती हैं। उनके पात्रों में एक प्रबल इच्छा शक्ति है, जो साफ नजर आती है। वे जानते हैं कि यह जो स्थितियां है, जिनमें हम जी रहे हैं, इन्हें बदलना ही होगा। वे किसी भी तरह की ''लाउड'' भाषा या व्यवहार के साथ कहानी का बखान नहीं करते बल्कि अपनी आंतरिक बनावट में ही उनके पात्र ऐसे हैं कि उनका विरोध एक स्पष्ट दिशा और राह पकड़ती है। अपने कहानी-संग्रह ''घुसपैठिये'' की भूमिका में वे कहते हैं - ''जीवन की नग्नता मात्र शब्दों से अभिव्यक्त नहीं होती  है, स्थितियों और सामाजिक मान्यताएं भी अश्लील होती हैं।'' ओमप्रकाश वाल्मीकि का पूरा लेखन इसी अश्लीलता के खिलाफ शालीन प्रतिरोध का जीवंत दस्तावेज है।
उनका असमय चले जाना सिर्फ एक व्यक्ति का चले जाना ही नहीं, अपितु इस धूर्त समय में सच्चाई की एक मुखर आवाज का चले जाना है।



हिन्दी के लोकप्रिय कलाकार। अनेक उपन्यासों में 'काला पादरी' अधिक सराहा गया। 'अनटोल्ड' के संपादक, प्रसार भारती से निवृत्त होकर रायपुर में रहते हुये स्वतंत्र लेखन।

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